नदिया बिक गई पानी के मोल (दो)

पानी पर सत्ता के खेल


केलो के किनारे बसे बोंदा टिकरा समेत कई गांवों के सामने पानी का संकट गहराता हुआ जब नजर आया तो गांव के लोग सामने आए। बोंदा टिकरा, गुड़गहन के किसान केलो नदी का पानी जिंदल समूह को सौंपे जाने के खिलाफ इसलिए भी थे क्योंकि एक दूसरी सिंचाई योजना के नाम पर उनकी जमीने पहले ही बंधक रखी जा चुकी थीं। जनांनदोलनों से जब सरकार की नींद खुली तो छत्तीसगढ़ राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने 2 अप्रेल 2003 को घोषणा कि - “ रेडियस के साथ किया गया अनुबंध समाप्त किया जाएगा।पूरे मामले की जांच करवाई जाएगी और इसमें जो भी दोषी होगा, उस पर कार्रवाई होगी।”लेकिन नहीं, यह सब केवल राजनीतिक बयान भर रह गया।

रेडियस वाटर पर कार्रवाई के बजाय रेडियस ने ही उल्टे आंदोलन करने वाले लोगों और इसकी खबर छापने वाले पत्रकारों पर मुकदमा दर्ज करना शुरु कर दिया। जनता की लड़ाई चलती रही।इसके बाद 2003 में अगली सरकार भाजपा की बनी और उसने भी इस मामले में जल्दी कार्रवाई का आश्वासन दिया। लेकिन सत्ता का चरित्र एक जैसा होता है। हालत ये है कि इस पूरे मामले की जांच के लिए बनाई गई छत्तीसगढ़ विधान सभा की लोक लेखा समिति की रिपोर्ट को भी सरकार ने ठंढ़े बस्ते में डाल दिया।

लोक लेखा समिति ने 16 मार्च 2007 को राज्य विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए सिफारिश की थी कि रेडियस वाटर लिमिटेड के साथ मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड रायपुर (वर्तमान में छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकास निगम) के मध्य निष्पादित अनुबंध एवं लीज़-डीड को प्रतिवेदन सभा में प्रस्तुत करने के एक सप्ताह की अवधि में निरस्त करते हुए समस्त परिसम्पत्तियां एवं जल प्रदाय योजना का आधिपत्य छत्तीसगढ़ राज्य औद्योगिक विकाल निगम द्वारा वापस ले लिया जाए।

सिफारिश में कहा गया था कि मध्य प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड एवं मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड, रायपुर के तत्कालीन प्रबंध संचालकों एवं मध्य प्रदेश राज्य औद्योगिक निगम लिमिटेड के मुख्य अभियंता के विरुद्ध षड़यंत्रपूर्वक शासन को हानि पहुँचाने, शासकीय सम्पत्तियों को अविधिमान्य रूप से दस्तावेजों की कूटरचना करते हुए एवं हेराफेरी करके निजी संस्था को सौंपे जाने के आरोप में प्रथम सूचना प्रतिवेदन कर उनके विरुद्ध अभियोजन की कार्यवाही संस्थापित की जाए और इस आपराधिक षडयंत्र में सहयोग करने और छलपूर्वक शासन को क्षति पहुँचाते हुए लाभ प्राप्त करने के आधार पर रेडियस वॉटर लिमिटेड के मुख्य पदाधिकारी के विरुद्ध भी अपराध दर्ज कराया जाए।

सिफारिश में कहा गया था कि मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड, रायपुर एवं जल संसाधन विभाग के तत्कालीन अधिकारी जिनकी संलिप्तता इस सम्पूर्ण षडयंत्र में परिलक्षित हो, इस संबंध में भी विवेचना कर उनके विरुद्ध भी कड़ी अनुशासनात्मक कार्यवाही एक माह की अवधि में आरंभ की जाए।

लोक लेख समिति ने यह भी कहा कि समिति द्वारा अनुशंसित सम्पूर्ण कार्यवाही सम्पादित करने की जिम्मेदारी सचिव स्तर के अधिकारी को सौंपते हुए शासन का हित रक्षण करने के लिए उत्कृष्ट विधिक सेवा प्राप्त करते हुए आवश्यकतानुसार न्यायालयीन प्रकियाओं में विधिक प्रतिरक्षण हेतु भी प्रयाप्त एवं समुचित कार्यवाही सुनिश्चित की जाए ताकि विधिक प्रतिरक्षण के अभाव में अथवा कमज़ोर विधिक प्रतिरक्षण के कारण शासन को अनावश्यक रूप से अलाभकारी स्थिति में न रहना पड़े।

लेकिन एक सप्ताह में रेडियस वाटर लिमिटेड और मध्य प्रदेश औद्योगिक केंद्र विकास निगम लिमिटेड रायपुर के समझौते को रद्द करने की कौन कहे, इस पूरे मामले में दिसंबर 2007 तक संबंधित सिफारिश के मामले में विधिक विमर्श की प्रक्रिया ही पूरी नहीं हो सकी।लोकलेखा समिति के सदस्य और पानी के मामलों के जानकार विधायक रामचंद्र सिंहदेव कहते हैं- “यह संविधान का मजाक है। इससे भयावह कुछ नहीं हो सकता कि लोकलेखा समिति की रिपोर्ट को ठंढ़े बस्ते में डाल दिया जाए।”

शिवनाथ अब भी कब्जे में है। गाहे-बगाहे आंदोलन करने वाले लोग अपनी आवाज़ उठाते हैं और फिर उनकी आवाज़ पूंजी और भ्रष्टाचार के दरवाजों से होते हुए सत्ता के गलियारे में गुम हो जाती है।

नदिया बिकती जाए


लेकिन दुनिया में नदी के निजीकरण की यह पहली कहानी यहीं खत्म नहीं होती। छत्तीसगढ़ में शिवनाथ के निजीकरण के बाद तो नदियों के निजीकरण का एक सिलसिला शुरु हो गया। केलो, कुरकुट, शबरी, खारुन, मांड…! एक-एक कर इन सभी नदियों को निजी हाथों में सौंप दिया गया। हजारों किसान और मज़दूरों की आवाज अनसुनी रह गई। नदी को बचाने की लड़ाई में लोगों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। अपनी जान तक।

अब केलो नदी का ही मामला लें। रायगढ़ से गुजरने वाली 95 किलोमीटर लंबी केलो रायगढ़ की जीवनदायिनी नदी है। 1991 के आसपास रायगढ़ में जब जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड ने पांच लाख टन प्रति वर्ष उत्पादन क्षमता वाले स्पांज आयरन के उद्यम की शुरुवात की तभी से केलो को कब्जे में लेने की कवायद शुरु हो गई। बाद में जिंदल ने अपना विस्तार शुरु किया और पावर प्लांट आदि की स्थापना की। 1996 में जिंदल ने जब केलो नदी से पानी लेने का प्रस्ताव दिया तो सरकार ने यह प्रस्ताव यह कहते हुए ठुकरा दिया कि इससे आम जनता के पेयजल का संकट शुरु हो जाएगा। लेकिन सरकारी अफसरों की यह जनपक्षधरता साल भर में ही बदल गई और जिंदल को इस नदी से न केवल पानी लेने की इजाजत दी गई, बल्की 35,400 क्यूबीक मीटर पानी प्रतिदिन लेने के लिए जिंदल द्वारा स्टॉप डैम बनाने के प्रस्ताव को भी सरकार ने मंजूरी दे दी।

केलो के किनारे बसे बोंदा टिकरा समेत कई गांवों के सामने पानी का संकट गहराता हुआ जब नजर आया तो गांव के लोग सामने आए। बोंदा टिकरा, गुड़गहन के किसान केलो नदी का पानी जिंदल समूह को सौंपे जाने के खिलाफ इसलिए भी थे क्योंकि एक दूसरी सिंचाई योजना के नाम पर उनकी जमीने पहले ही बंधक रखी जा चुकी थीं। ऐसे में अगर किसानों को केलो से खेतों की सिंचाई के लिए पानी नहीं मिलता तो उनके सामने भूखों मरने या पलायन के सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं था।

अंततः किसानों ने मोर्चाबंदी की और जिंदल के खिलाफ अपनी लड़ाई शुरु की। धरना, प्रदर्शन के बाद बात नहीं बनी तो आदिवासी किसान आमरण अनशन पर आ गए और अंततः नदियों के निजीकरण के खिलाफ लड़ते हुए सत्यभामा सौंरा नामक आदिवासी महिला 26 जनवरी 1998 को भूख से मर गई।

सत्यभामा के बेटे कृष्णा कहते हैं- “ हमें लगा कि मेरी मां का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। अंततः केलो के पानी पर जिंदल का कब्जा हो गया।”केलो के बाद कुरकुट की बारी आई।

कहानी कुरकुट की


2004 में रायगढ़ के ही कुरकुट में जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड ने अपने एक हजार मेगावाट पावर प्लांट और जिंदल स्टील एंड पॉवर प्लांट के विस्तार के लिये करीब 143 एकड़ में संयंत्र लगाने अतिरिक्त भूमि के अधिग्रहण का काम शुरु किया तो लोग सड़क पर आ गए। हालांकि जिंदल ने कुरकुट के आसपास के कई गांवों में लोगों की जमीन पर पहले से ही सड़क बनवा दी थी और 1995 से ही इस इलाके में उसने सर्वे का काम भी शुरु कर दिया था। लगभग 10 साल बाद जब यहां डैम बनाने की घोषणा हुई तो लोग घबरा गए।लेकिन सरकार गांव वालों को आश्वस्त करती रही।

पानी के मुद्दे पर कोई भी सरकारी अधिकारी या मंत्री बात करने के लिए तैयार नहीं है। अधिकांश अधिकारी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। सब फाइलों का हवाला देते हैं।जाहिर है, सरकार अभी पानी और पानी की धार देख रही है। पहले तो सरकार ने इस 1729 मीटर लंबे और 18 मीटर की ऊंचाई वाले डैम से किसी के प्रभावित होने या डूब में आने को ही नकारने की कोशिश की। यह भी कहा गया कि इस डैम का इस्तेमाल सरकार किसानों के लिए करेगी लेकिन सरकारी सच एक-एक कर सामने आता गया। 15 गांवों के छह हजार से अधिक परिवारों को जब लगा कि वे किसी न किसी तरह इस डैम के कारण प्रभावित होंगे तो उन्होंने प्रस्तावित डैम के आसपास के इलाके में नाकेबंदी कर दी।रायगढ़ में नदियों और प्रदूषण के मामले में सक्रिय जनचेतना के रमेश अग्रवाल कहते हैं- “ लगभग 355 हेक्टेयर वन भूमि और हजार हेक्टेयर सिंचित भूमि के इस डैम की जद में आने की आशंका के कारण गांव वाले बेहद आक्रोशित थे। आखिर यह उनके जीवन-मरन का प्रश्न था।”थर्मल पावर प्लांट से प्रभावित होने वाले पतरापाली, सरईपाली, चिराईपानी, किरोड़ीमलनगर, गोरखा, भगवानपुर, धनागर, , जोरापाली, ननसियां, उर्दना, डोंगीतराई, कुसमुरा, उच्चभिट्ठी, कोसमपाली, खैरपुर, टीपाखोल, डूमरपाली, गेजामुड़ा, कांशीचुआं, बंधनपुर, बनहर, जामपाली, उसरौठ, बरमुड़ा जैसे लगभग 2 दर्जन से भी अधिक गांवों में रहने वालों को जिंदल की इस विस्तार परियोजना का तब पता चला, जब जिंदल समूह ने उन्हें गांव खाली करने के निर्देश दिए।

बाद में जिले के आला सरकारी अधिकारी भी जिंदल की पैरवी में गांव वालों को गांव खाली करने की चेतावनी देने पहुंचने लगे। अंतत: राबो जैसे गांव के लोगों ने तय किया कि किसी भी कीमत पर बांध के लिए गांव का बलिदान स्वीकार नहीं करेंगे। गांव वालों ने इस कार्य को रोकने के लिए कटे हुए पेड़ का बेरियर बनाकर काम रोकने व विरोध का बैनर लगा दिया। रात-रात भर गांव के प्रवेश द्वार पर पहरेदारी होती रही।

लेकिन जिंदल ने विरोध और विविध सरकारी सहमतियों की चिंता किए बगैर अपना निर्माण कार्य जारी रखा। अंततः जन विरोध के बाद मुख्यमंत्री के निर्देश पर बांध का काम बंद कर दिया गया। ग्राम सभाओं में यह स्पष्ट किया गया कि ग्राम सभा कुरकुट पर बांध के खिलाफ है। लेकिन जिंदल ने मुख्यमंत्री के निर्देश और ग्राम सभा के प्रस्ताव को हफ्ते भर बाद ही किनारे लगा कर बांध का काम शुरु कर दिया।

राबो गांव के एक नौजवान वेणुधर कहते हैं- “इस राज्य में केवल जिंदल की चलती है।”कुछ ही दिनों बाद सरकारी अधिकारी खुल कर जिंदल के पक्ष में काम करने लगे।कलेक्टर से लेकर एसपी तक पूरी ताकत से जिंदल के पक्ष में गांव वालों को प्रलोभन देने और धमकाने का काम करने लगे। कलेक्टर ने गांव वालों की बैठक बुलाकर कहा कि जो भी बांध का विरोध करेगा, उसे जेल में डाल दिया जाएगा। एसपी ने कहा- प्रेम से नहीं दोगे तो झगड़ा होगा। एसडीएम ने कहा- जमीन सरकार की होती है, तभी तो ग्रामीण लगान देते हैं। ऐन-केन प्रकारेण लोगों का भरमाने और धमकाने की पूरी कोशिश हुई।

फिर शुरु हुई कथित जनसुनवाई
भारी भीड़ के कारण पहले तो सरकार की ओर से जनसुनवाई ही टलती रही, बाद में जब जनसुनवाई हुई तो हजारों आपत्तियां दर्ज कराई गईं। लेकिन यह सारी कागजी कार्रवाई बेकार गई। जिंदल के सरकार ने जो अनुबंध कर रखा है, उसमें दर्ज है कि सरकार जिंदल को दूसरी तमाम मदद के अलावा राज्य और केंद्र के स्तर पर अनुमोदन और अनुमति दिलाने में भी मदद करेगी।सरकार ने यही किया।

अब कुरकुट के पानी पर जिंदल का कब्जा है।

किस्से सैकड़ों हैं


लेकिन नदियों पर निजी कब्जे की कहानी शिवनाथ, केलो और कुरकुट तक आ कर खत्म नहीं होती। राज्य के नक्सल प्रभावित बस्तर के दंतेवाड़ा की शबरी नदी का बड़ा हिस्सा एस्सार के कब्जे में है। दंतेवाड़ा से आंध्र प्रदेश के विजाक शहर तक एस्सार ने पाईपलाइन बिछा रखा है। इस पाईपलाइन में लौह अयस्क डालकर उसे दंतेवाड़ा से शबरी नदी के पानी के सहारे बिजाक तक पहुंचाने की योजना है।

रायपुर के खारुन नदी पर निको जायसवाल और मोनेट इस्पात नामक औद्योगिक घरानों के अपने बांध हैं। निको जायसवाल खारुन से 3 एमजीडी और मोनेट इस्पात 2 एमजीडी पानी लेता है। शिवनाथ नदी के 0।75 एमजीडी पानी पर लाफार्ज इंडिया का कब्जा है।

बजरंग इस्पात एंड पावर लिमिटेड, एस के एस इस्पात, मेसर्स साऊथ एशीयन एग्रो लिमिटेड जैसी कंपनियां अभी कतार में हैं, जिन्होंने यहां की नदियों पर अपना हक़ जमाने के लिए सरकार से अनुबंध कर रखा है।

और सरकार ?


पानी के मुद्दे पर कोई भी सरकारी अधिकारी या मंत्री बात करने के लिए तैयार नहीं है। अधिकांश अधिकारी इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहते। सब फाइलों का हवाला देते हैं।जाहिर है, सरकार अभी पानी और पानी की धार देख रही है।

(सीएसई की मीडिया फेलोशीप के तहत किए गए अध्ययन का हिस्सा)

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