नदियों के किनारे चल पड़ी हैं पदयात्रियों की टोलियाँ

8 Sep 2011
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कोसी का जल प्रवाह यदि रुका तो सबसे पहले रामनगर की निकटवर्ती ग्रामीण बसाहटों पर संकट आयेगा और पीछे सरकते ग्लेशियरों की तरह धीरे-धीरे यह ऊपर को सरकेगा। किन्तु रुचिकर यह जानना है कि इस संकट के समाधान की सोच नदी के उद्गम स्थल की दिशा से ही आ रही है। कोसी की मुख्यधारा की महिला मंडलों ने वन संरक्षण द्वारा नदी के जल को बढ़ाने के भगीरथ प्रयास किये हैं।

उत्तराखंड की नदी-घाटियाँ 2008 की शुरूआत के साथ ही जन जागरण और जन आन्दोलनों के गीतों से गूँजने लगी हैं। नदी किनारे की बसाहटों से होकर, जल, जंगल और जमीन पर आसन्न संकट के खिलाफ लोगों को सक्रिय होने का संदेश दे रही, लगभग 15 पदयात्राओं का सिलसिला जारी है। जन-आन्दोलनों के गीत, पदयात्रायें तथा जागरूकता अभियान उत्तराखंड की धरती के लिये नये नहीं हैं। चिपको, नशा नहीं रोजगार दो और सर्वोपरि उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के दौरान ऐसा होता रहा है। जनता द्वारा जनता के बीच, जनता के लिये चलाये गये व चलाये जा रहे आन्दोलन उत्तराखंड की पहचान हैं। नया अगर कुछ है तो वह है उत्तराखंड राज्य प्राप्ति के बाद सपनों के उत्तराखंड को जमीन पर लाने के लिये सरकारों के आश्रित हो जाने के स्थान पर जनता द्वारा चीजों को अपने हाथ में लेने की कोशिश का सूत्रपात। इस बार सरकार या किसी राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ने नहीं, वरन् लोगों ने अपनी पहल पर अपनी ओर से उत्तराखंड में 2008 को ‘नदी बचाओ वर्ष’ घोषित किया है और खुद अपने बीच कार्यक्रमों/अभियानों की शुरुआत इस उम्मीद में की है कि राज्य की सरकारें जनता के बुनियादी मुद्दों से सरोकार रखने वाली किसी ठोस नीति एवं प्राथमिकताओं के प्रति वस्तुतः गंभीर हों।

उत्तराखंड की जनता की इस नई अंगड़ाई के मूल में पानी का वह संकट है जो धीरे-धीरे पूरी दुनिया के सामने खड़ा हो रहा है। सभी जानते हैं कि जीवनदायक जल की उपलब्धता के आधार पर ही पूरी दुनिया में सभ्यतायें नदी-घाटियों में ही पनपीं। किन्तु सभ्यताओं के बढ़ते कदमों के साथ जल की अनन्त आपूर्ति के प्रति आश्वस्त मानसिकता में पानी के तमाम तरह से उपयोग हमारी आदत का हिस्सा हो गये। मनुष्य जिस किसी भी चीज के उपयोग का आदी हो जाता है, आम तौर पर उसके विषय में तभी सोचना प्रारम्भ करता है, जब स्थिति संकट की होती है। पानी अब संकट में है, घट रहा है और तेजी से घट रहा है। कारखानों के क्षेप्य एवं नगरों के मलिन जल से सड़ रही, बदबूदार प्रदूषित गंगा और अन्य नदियाँ, दिल्ली के निकट से बहने वाली यमुना जैसी गाद, कीचड़ की नदियाँ, जल संस्थानों द्वारा नगरों/कस्बों में वितरित किये जाने वाले पेयजल को लेकर आये दिन सम्बन्धित अधिकारियों एवं कार्मिकों से विवाद, घेराव एवं पिटाई की स्थितियाँ और लोगों की आपसी सिर फुटव्वल नगरीय क्षेत्रों में इस संकट के सामान्य लक्षण/संकेतक हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में भी ऐसे लक्षणों की भरमार है।

उत्तराखंड के पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों पर नजर डालें तो लगभग विलुप्त हो गये धारे-नौले, सूखते गधेरे और गैर-ग्लेशियर तथा ग्लेशियर नदियों का घटता जल प्रवाह इसी भयावह संकट के सायरन हैं। वैज्ञानिक शोध ने बताया है कि अल्मोड़ा के निकट 1994 में मापा गया कोसी का 995 लीटर प्रति सेकेंड का जल प्रवाह 2003 में घट कर केवल 85 लीटर प्रति सेकेंड रह गया था। यही घटता जल प्रवाह गत शताब्दी के अन्तिम वर्षों में अल्मोड़ा नगर के जल संकट के रूप में सामने आया और पेयजल आपूर्ति एवं सिंचाई हेतु जल के सवाल को लेकर अल्मोड़ा का नागर समुदाय और बौरारो का ग्रामीण समुदाय एक दूसरे के सामने खड़े थे। नागर समुदाय के साथ पुलिस बल धारी अल्मोड़ा का प्रशासन भी था। यह स्थिति अपवाद नहीं है। इसे बार-बार आना है। जहाँ-जहाँ नगरीय जल आपूर्ति ग्रामीण क्षेत्र से बहती नदी पर निर्भर है, नदी के जल प्रवाह के घटते जाने के साथ समुदायों के बीच संघर्ष ने भी जन्म लेना ही है।

उत्तराखंड की हिमपोषित नदियों पर संकट है। संकट की जड़ में है बिजली उत्पादन हेतु निर्माणाधीन एवं प्रस्तावित ऐसी परियोजनायें, जिन्हें बाँधों एवं सुरंगों के माध्यम से काम करना है। नदियों का यह संकट अन्ततः मानव जीवन एवं मानवीय बसाहटों के ध्वंस में प्रतिफलित होना है। विष्णुप्रयाग जल विद्युत परियोजना के कारण जोशीमठ के सामने के गाँव ‘चाँईं’ का ध्वस्त हो जाना इसका प्रमाण है। कपकोट के निकटवर्ती सूपी गाँव में ऐसी ही एक अन्य परियोजना के कारण संकट में आया ग्रामीण समुदाय आन्दोलित है। उत्तराखंड की बाह्य हिमालय से निकलने वाली गैर ग्लेशियर नदियाँ भी संकट में हैं। जंगल से पैदा होने वाली, वर्षा पोषित इन नदियों का जल प्रवाह घटता जा रहा है। कुल मिला कर जल पर संकट है और जल का संकट है। ग्रामीण समुदाय तक के लिये अनजाना न रह गया और लगभग दूध के भाव पर बिकता बोतलबंद पानी मानव समुदाय के सम्मुख मौजूद इस संकट का प्रतीक चिन्ह माना जाना चाहिये।

उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में वस्तुतः जीवन पर आसन्न संकट है, अच्छा इतना ही है कि उत्तराखंड की परम्परागत आत्मनिर्भर जीवन शैली को पीढ़ियों तक टिकाये रखने वाली जल संस्कृति को इस क्षेत्र के जनजीवन का आधार मानने वाले ग्रामीण समुदाय का एक हिस्सा एवं पर्वतीय भूभाग के जल आधारित जीवन एवं संस्कृति की समझ रखने वाले कुछ व्यक्ति संगठन इस संकट के समाधान हेतु सक्रिय हुए हैं ओर कुछ मॉडल/ नमूने सामने भी आये हैं। पौड़ी जिले के उफरैंखाल के ग्रामवासियों द्वारा वृक्षारोपण/रक्षण, चेकडैम तथा चाल-खाल के माध्यम से एक सूखी नदी को पुनर्जीवित किया जाना एवं कोसी नदी की मुख्य घाटी के बौरारो क्षेत्र में महिला मंडलों एवं ग्रामीण जनों द्वारा 2003-04 से चलाये जा रहे ‘कोसी बचाओ अभियान’ इसके उदाहरण हैं। इन्हें जल और तदनुसार अपने जंगल और जमीन को बचाने सम्बन्धी जन प्रयासों और प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में लिया जाना चाहिये।

लक्ष्मी आश्रम, कौसानी की बसंती बहन द्वारा बौरारो क्षेत्र में जन जागरण का जो काम पिछले चार वर्षों में किया गया, वह इस क्षेत्र में जल और जंगल को बचाने में संलग्न ‘कोसी बचाओ अभियान’ के रूप में सामने आया है और वहीं से जनता के नदी बचाओ वर्ष 2008, उत्तराखंड की नदी-घाटियों में पदयात्राओं की श्रृंखला और इस श्रृंखला की आधारित कड़ी/मुख्यधारा के रूप में कौसानी से रामनगर तक की ‘कोसी बचाओ पदयात्रा’ सम्बन्धी सोच निकली है। 1 जनवरी 2008 को कौसानी से प्रारंभ यह पदयात्रा 15 जनवरी को रामनगर पहुँचेगी। रामनगर इस पदयात्रा का स्वाभाविक पारायण-स्थल है, क्योंकि कौसानी के निकटवर्ती पिनाथ पर्वत से निकलने वाली कोसी पहले भले ही रामनगर से आगे भी बहती रही हो, किन्तु अब ऐसा केवल बरसात के कुछ दिनों में ही होता है। बाकी समय यह रामनगर की निकटवर्ती ग्रामीण बसाहटों में पेयजल और सिंचाई का स्रोत बनने के साथ दम तोड़ देती है। कोसी का जल प्रवाह यदि रुका तो सबसे पहले रामनगर की निकटवर्ती ग्रामीण बसाहटों पर संकट आयेगा और पीछे सरकते ग्लेशियरों की तरह धीरे-धीरे यह ऊपर को सरकेगा। किन्तु रुचिकर यह जानना है कि इस संकट के समाधान की सोच नदी के उद्गम स्थल की दिशा से ही आ रही है। कोसी की मुख्यधारा की महिला मंडलों ने वन संरक्षण द्वारा नदी के जल को बढ़ाने के भगीरथ प्रयास किये हैं।

उत्तराखंड की कोसी नदी बचाने का अभियानउत्तराखंड की कोसी नदी बचाने का अभियान‘कोसी बचाओ अभियान’ की इस मुख्य (पदयात्रा) धारा की संयोजिका बसन्ती बहन हैं। इसमें शामिल हैं कोसी के स्रोत के निकटवर्ती इलाके की महिलाओं का प्रतिनिधित्व करतीं वयोवृद्ध पार्वती आमा और मुन्नी देवी। पदयात्रा में शिरकत से इतर अपनी ओर से कुछ अतिरिक्त जोड़ पाने सम्बन्धी मुन्नी देवी की व्यग्रता ‘जहाँ गीत वहाँ नाच’ में तब्दील होती रहती है। इस यात्रा में ग्रामीण जनों का प्रतिनिधित्व कर रहे पिनाथ के निकटवर्ती गाँवों के प्रताप गिरि एवं शिव गिरि हैं। चिड़ियों की तरह चहचहाती, नुक्कड़ नाटक दिखाती और जन जागरण के नारों से पदयात्रा के मार्ग को गुंजायमान करतीं लक्ष्मी आश्रम कौसानी की छात्रायें हैं। यात्रा को कैमरे में कैद करता धौलादेवी का अनिल जोशी है। पदयात्रा की खबरों को समाचार पत्रों के माध्यम से पूरे राज्य/देश में लोगों तक पहुँचाने की कोशिश में लगा दन्या का बसंत पाण्डे हैं। गुप्तकाशी की अर्चना बहुगुणा हैं और धूमाकोट का मनीष सुन्दरियाल। 14/15 वर्षों से निरंतर कौसानी के एक किसान के घर पर आवास करने वाली और जनता के उत्तराखंड की सही सोच रखने वाली 77 वर्षीय पामेला चटर्जी हैं और सबसे आगे इस अभियान दल का नेतृत्व करतीं सुश्री सरला बहन की प्रिय शिष्या, जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्षा 75 वर्षीय सुश्री राधा बहन हैं।

जनकवि गिरदा के गीत हैं। गाड़, गधेरों की तरह नदी के प्रवाह को बल देने के लिये पदयात्रा में शामिल हैं उत्तराखंड की थात को संजोने में लगे प्रख्यात घुमक्कड़ एवं पहाड़ के यशस्वी सम्पादक पद्मश्री शेखर पाठक, उत्तराखंड लोक वाहिनी के डॉ. शमशेर बिष्ट, लोगों के बीच सक्रिय हंसा सुयाल, जन सरोकारों को 30 वर्षों से अभिव्यक्ति दे रहे उत्तराखंड के पाक्षिक ‘नैनीताल समाचार’ के साहसी सम्पादक राजीव लोचन साह। बीच-बीच में पदयात्रा में भागीदारी करने वाले और नया स्पंदन, नयी स्फूर्ति देने वाले तमाम जन सरोकारों से जुड़े संगठनों के प्रतिनिधि हैं। पदयात्रा में नहीं हैं, मगर पदयात्रा में हैं वे तमाम ग्रामीण महिलायें, ग्राम प्रधान, सरपंच, जो यात्रा के रात्रि विश्राम स्थलों पर भोजन तथा आवास व्यवस्था में संलग्न हैं और देर रात और अलस्सुबह चलने वाली गोष्ठियों एवं बात-बहस में शामिल हैं, तमाम तरह से पदयात्रा से जुड़े और पदयात्रा की तैयारियों में लगे लोग इसका अनिवार्य हिस्सा हैं। यात्रा की परिणति 16 तथा 17 जनवरी को रामनगर में एक सम्मेलन के रूप में होनी है। आखिर में इतना ही कि आगे आने वाले समय में उस सोच को लगातार ताकत मिलनी चाहिये, जिसे सैकड़ों बरस पहले रहीम ने स्वर दिया था: ‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून…..’।
 

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