नए भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं का रोडमैप

25 Jan 2020
0 mins read
नए भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं का रोडमैप
नए भारत की स्वास्थ्य सुविधाओं का रोडमैप

 

अगर हम विश्वस्तरीय स्वास्थ्य प्रणाली करना चाहते हैं, तो हमें पहले मेडिकल से जुड़ी शिक्षा में निवेश कर इसे विश्व-स्तर का बनाना होगा। सरकार ने इसी साल राष्ट्रीय मेडिकल परिषद अधिनियम 2019 पारित किया है। भारत में मेडिकल शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव लाने के मकसद से यह कानून लाया गयाहै। कुशल नर्सिंग पेशेवरों की संख्या बढ़ाने के लिए भी इसी तरह के प्रयास किए जा रहे हैं।

भारत में पिछले दो दशकों में स्वास्थ्य और पोषण के मामले में उल्लेखनीय प्रगति हासिल की है। पोलियो, गिनी कृमि रोग, नवजात बच्चों और उनकी माताओं से सम्बन्धित टेटनस आदि बीमारियों का उन्मूलन हो चुका है। वर्ष 2005-06 में देश में कुल प्रजनन दर 2.7 थी, जो 2015-16 में घटकर 2.2 हो गई। और पहली बार जन्म कोहार्ट का आंकड़ा घटकर 2.5 करोड़ से नीचे पहुँच गया है। प्रसूति मृत्युदर (139 का लक्ष्य था, जबकि मौजूदा-स्तर 130) के मामले में सहस्राब्दि विकास लक्ष्य हासिल करने में भी भारत सफल रहा। साथ ही, 5 साल से कम आयु के बच्चों में मृत्युदर को कम करने में उल्लेखनीय सफलता हासिल हुई है। बाल मृत्युदर को 43 के स्तर पर लाने का लक्ष्य तय किया गया था, जबकि मौजूदा स्तर लक्ष्य से भी बेहतर यानी 42 है। नवजात मृत्युदर की बात करें, तो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक, 2005-06 में प्रति हजार जीवित पैदा हुए बच्चों पर यह आंकड़ा 57 था, जबकि 2015-16 में यह घटकर 41 प्रति हजार तक पहुँच गया।

भारत विशाल आबादी और विविध संस्कृतियों वाला देश है। ऐसे में यहाँ स्वास्थ्य और पोषण के मोर्चे पर हुए सुधार के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता। हालांकि, भारत की स्वास्थ्य प्रणाली को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। राज्यों के भीतर और बाहर स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में काफी असमानताएं हैं और सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों को अभी भी पर्याप्त रूप से स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं मिल पा रही है। साथ ही, एक तरफ जहाँ गैर-संक्रामक बीमारियों का दबाव बढ़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ, बाल और मातृत्व सम्बन्धी संक्रामक बीमारियों के उन्मूलन का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया है।

स्वास्थ्य प्रणाली कई स्तरों पर अलग-अलग तरीके से काम करती है। फिलहाल, सरकार (केन्द्र और राज्य, दोनों मिलकर) स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 1.13 प्रतिशत खर्च करती है। नतीजतन, लोगों को स्वास्थ्य-सम्बन्धी खर्च का बड़ा हिस्सा खुद से वहन करना पड़ता है। साथ ही, स्वास्थ्य बीमा का प्रचलन काफी कम है। देश की 35 प्रतिशत से भी कम आबादी स्वास्थ्य सम्बन्धी आपातकालीन जरूरतों के लिए किसी ऐसा योजना से जुड़ी है।

स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने का मामला भी छोटी-छोटी इकाइयों से जुड़ा है। तकरीबन 95 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं ऐसे प्रदाताओं द्वारा मुहैया कराई जा रही हैं, जहाँ 10 से भी कम स्वास्थ्यकर्मी काम करते हैं। जाहिर तौर पर इससे सेवाओं की गुणवत्ता और दक्षता पर असर पड़ता है। स्वास्थ्य सेवा की इकाइयों में इस्तेमाल की जाने वाली डिजिटल प्रणालियों का भी कोई मानक नहीं है। इसके कारण मरीजों के स्वास्थ्य का बेहतर और प्रमाणिक रिकॉर्ड नहीं मिल पाता। इस सम्बन्ध में हम वैसी सूचनाओं से वंचित रह जाते हैं, जो स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी नीतियों के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकती हैं। इस बात में कोई शक नहीं कि किसी भी क्षेत्र में कामकाज की बेहतर प्रणाली विककसित करने में दशकों लग जाते हैं। सरकार ने पिछले कुछ सालों में गम्भीर प्रयास शुरू किए हैं। इसके तहत स्वास्थ्य प्रणाली की व्यापक समीक्षा कर इसे प्रभावित करने वाले पहलुओं पर गौर किया गया है।

सार्वजनिक और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं

 इन्द्रधनुष मिशन के तहत दो साल में 2.55 करोड़ से ज्यादा बच्चों और 70 लाख से भी ज्यादा गर्भवती महिलाओं को टीके लगाए गए। यह कार्यक्रम सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में वैश्विक-स्तर पर बेहतरीन कार्यक्रम के रूप में उभरकर सामने आया है। साथ ही, दो साल से कम उम्र के बच्चों को रोटा वायरस और डायरिया से सुरक्षा प्रदान करने के लिए टीके लगाए गए।

देश में पहली बार स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे में इलाज की पारम्परिक और देशी प्रणालियों को शामिल करने के लिए बड़े पैमाने पर पहल की गई है। राष्ट्रीय आयुष मिशन के तहत यह प्रयास किया जा रहा है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली की तर्ज पर 2017 में अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान की स्थापना की गई। इस संस्थान की स्थापना का उद्देश्य आयुर्वेद के पारम्परिक ज्ञान को आधुनिक तकनीक से जोड़ना है।

बीमारियों की रोकथाम में ‘स्वच्छता’ की अहम भूमिका है। स्वच्छ भारत अभियान लागू होने के बाद देश के ग्रामीण इलाकों के तकरीबन सभी घरों में शौचालय की सुविधा उपलब्ध हो गई है, जबकि 2005-06 में महज 29.1 प्रतिशत घरों में शौचालय की सुविधा थी।666 सरकार ने 2017 में नई राष्ट्रीय रणनीतिक योजना बनाकर टीबी के खिलाफ अभियान को भी और तेज कर दिया है। पहले सप्ताह में तीन दिन इसके इलाज की सुविधा थी, जिसे अब बढ़ाकर रोजाना कर दिया गया है। वित्त वर्ष 2018-19 के केन्द्रीय बजट में टीबी के मरीजों को पोषण सम्बन्धी मदद के लिए 600 करोड़ रुपए आवंटित किए गए।

राज्यों को अब प्राथमिकता के स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्यकर्मियों की टीम तैयार करने की जरूरत है। साथ ही, उन्हें जरूरी कौशल की प्रशिक्षण भी दिया जाए, ताकि स्वास्थ्य से जुड़े अहम पहलुओं के बारे में जानकारी हासिल की जा सके और उनका उपयोग स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाने में हो सके।

सरकार ने मजबूत प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली तैयार करने के उद्देश्य से 2018-22 के दौरान 1,50,000 हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर खोलने का ऐलान किया है। ‘आयुष्मान भारत’ योजना के तहत यह पहल की गई है। फिलहाल, देश में 27,000 से भी ज्यादा हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर चल रहे हैं। अब तक देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सीमित सेवाएं ही मुहैया कराई जाती रही हैं। हालांकि, हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर में संक्रामक और गैर-संक्रामक बीमारियों की जांच और इलाज समेत व्यापक-स्तर पर सुविधाएं उपलब्ध होंगी। इसके अलावा, ये सेंटर मुफ्त में जाँच और दवाइयां मुहैया कराएंगे। जाहिर तौर पर इससे लोगों को आर्थिक तौर पर बड़ी राहत मिल सकेगी। गौरतलब है कि दवाओं पर भी मरीजों को बड़ी रकम खर्च करनी पड़ती है।

 गम्भीर बीमारियों के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं

 आयुष्मान भारत का दूसरा स्तम्भ प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएम-जेएवाई) है। इसके तहत देश के 10 करोड़ गरीब परिवारों को 5 लाख रुपए सालाना का स्वास्थ्य बीमा दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में स्वास्थ्य बीमा की की योजनाओं को एक दायरे में समेटने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, इसके जरिए सरकार ने ‘एक देश, एक योजना’ की दिशा में महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है, ताकि देश के सभी नागरिकों गम्भीर बीमारियों के इलाज के लिए सुविधाएं आसानी से उपलब्ध हो सकें। लिहाजा, अब तक 19,624 अस्पतालों को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के दायरे में लाया जा चुका है और इसके तहत 70 लाख से भी ज्यादा मरीज भर्ती हुए हैं।

स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए मानव संसाधन

अगर हम विश्व-स्तरीय स्वास्थ्य प्रणाली तैयार करना चाहते हैं, तो हमें पहले मेडिकल से जुड़ी शिक्षा में निवेश कर इसे विश्व-स्तर का बनाना होगा। सरकार ने इसी साल राष्ट्रीय मेडिकल परिषद अधिनियम 2019 पारित किया गया है। भारत में मेडिकल शिक्षा व्यवस्था में बड़ा बदलाव लाने के मकसद से यह कानून लाया गया है। केन्द्र और राज्य सरकारों के तहत आने वाले मेडिकल कॉलेजों में सुविधाएं बढ़ाई जा रही हैं, ताकि इन कॉलेजों में 2020-21 तक अंडर ग्रेजएट और पोस्ट ग्रेजुएट-स्तर पर क्रमशः 10,000 और 8,058 सीटों की बढ़ोत्तरी की जा सके। सीटों की संख्या में बढ़ोत्तरी के जरिए हर 3-5 संसदीय क्षेत्रों और हर राज्य में कम-से-कम एक मेडिकल कॉलेज की मौजूदगी सुनिश्चित करने की बात है। कुशल नर्सिग पेशेवरों की संख्या बढ़ाने के लिए भी इसी तरह के प्रयास किए जा रहे हैं। देश के विभिन्न जिलों में 112 सहायक नर्सिग स्कूल और 136 सामान्य नर्सिंग स्कूल खोले जा रहे हैं। इसके अलावा, मेडिकल संस्थानों में शिक्षकों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता को भी तर्कसंगत बनाया गया है। इससे मेडिकल संस्थानों में भर्ती के योग्य उम्मीदवारों की संख्या बढ़कर 3,700 तक हो जाने का अनुमान है।

दवाएं और उपकरण

लोगों को सस्ते मूल्य पर अच्छी दवाएं मिल सकें, इसके लिए देशभर में 5,500 से भी ज्यादा जन औषधि स्टोर खोले गए हैं। साथ ही, सरकार की योजना 2020 तक इन स्टोर्स की संख्या बढ़ाकर 7,500 तक करने की है। एक अनुमान के मुताबिक, ये स्टोर रोज तकरीबन 10-15 लाख लोगों की दवा सम्बन्धी जरूरतों को पूरा करेंगे। किफायती मूल्य पर सभी लोगों तक दवाओं की पहुँच सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने तकरीबन 850 दवाओं के लिए कीमतों की सीमा भी तय की है। साथ ही, स्टेंट की कीमत में भी कमी की गई है। इसका इस्तेमाल दिल की बीमारियों से जुड़े इलाज में किया जा सकता है। स्टेंट की कीमत को 30,180 रुपए से घटाकर 27,890 रुपए कर दिया गया। यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है, क्योंकि हर साल लगभग 5 लाख मरीजों को स्टेंट की जरूरत पड़ती है।

 स्वास्थ्य प्रणाली के बेहतर ढंग से काम करने में मेडिकल उपकरणों की भूमिका काफी अहम है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने 2017 में मेडिकल उपकरण नियमों के लिए अधिसूचना जारी की। इस अधिसूचना से पहले सिर्फ 15 उपकरण नियमन के दायरे में थे। भारत ने इस साल के शुरू में अपनी पहली राष्ट्रीय जरूरी डायग्नोस्टिक सूची को भी अंतिम रूप दिया है, ताकि देशभर में अलग-अलग तरह की जांच के लिए जरूरी दिशा-निर्देश मुहैया कराए जा सकें। इसके अलावा, इस क्षेत्र में देशी उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए सरकार भारत में मेडिकल उपकरण पार्क की स्थापना में सहयोग प्रदान कर रही है।

 स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़ी तकनीक और डाटा प्रणाली

टेलीहेल्थ मोबाइल हेल्थ और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जैसे टूल अस्पतालों और मरीजों के बीच दूरियों को कम करने में मददगार साबित हो रहे हैं। इससे खासतौर पर टॉयर 2 और टॉयर 3 में स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं को बेहतर बनाने में मदद मिल रही है। भारत में सूचना संचार तकनीक (आईसीटी) के जरिए प्रसूति और बाल स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता बेहतर करने में पर्याप्त प्रगति की है। उदाहरण के तौर पर, सार्वजनिक स्वास्थ्यकर्मियों को गर्भवती महिलाओं का रजिस्ट्रेशन करने में सहूलियत हो, इसके लिए ‘अनमोल’ ऐप्लिकेशन तैयार किया गया है। साथ ही, यह ऐप्लिकेशन नवजातों के लिए टीकाकरण कार्यों पर नजर रखने में भी मददगार है।

नीति आयोग ने 2018 में डिजिटल स्वास्थ्य के क्षेत्र में ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य सटैक’ का प्रस्ताव किया था। यह एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके जरिए डिजिटल स्वास्थ्य के क्षेत्र में उच्च तकनीक को शामिल करने की बात है। ऐसी तकनीकों से स्वास्थ्य के क्षेत्र में डिजिटल सुविधाओं को लागू करने की प्रक्रिया तेज होगी। इससे बड़े पैमाने पर देशभर का स्वास्थ्य सम्बन्धी डाटा भी इकट्ठा करने में मदद मिलेगी। इस पहल से नीति निर्माताओं के लिए नीतियों के स्तर पर प्रयोग करना आसान होगा, स्वास्थ्य बीमा में धोखाधड़ी का पता लगया जा सकेगा और कार्यक्रमों के परिणामों के आकलन में भी मदद मिलेगी। कुल मिलाकर कहा जाए, तो इससे बेहतर नीति तैयार करना सम्भव हो सकेगा।

सरकार ने 2019 में राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य का खाका पेश किया था। इसमें संघबद्ध ढांचा तैयार करने के साथ अलग-अलग ब्लॉक की बहुस्तरीय प्रणाली, यूनीक स्वास्थ्य आईडी (यूएचआईडी), निजता और सहमति प्रबंधन, राष्ट्रीय पोर्टेबिलिटी, इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड (ईएचआर) आदि शामिल हैं। हर नागरिक के लिए इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड सम्बन्धी सुविधा को चालू करना स्वास्थ्य सूचना प्रणालियों के बेहतर इस्तेमाल के लिहाज से बेहद अहम है। इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड से बीमारियों, खर्चों और प्रदर्शन के बारे में निगरानी रखना सम्भव होगा, ताकि स्वास्थ्य सम्बन्धी बेहतर परिणाम हासिल किए जा सकें।666 आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से डॉक्टरों को बीमारी का पता लगाने, इलाज के विकल्पों के इस्तेमाल और सम्भावित जोखिम और अनुमानित परिणामों के बारे में एक अन्य निष्पक्ष राय मिल सकती है। डॉक्टरों पर अक्सर निश्चित समय-सीमा के भीतर काम करने का दबाव होता है। मरीजों की जांच रिपोर्ट इकट्ठा करने, उनके मेडिकल रिकॉर्ड का अध्ययन करने और इलाज सुलझाने में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस काफी मददगार हो सकती है। यह डॉक्टरों को बीमारी के शुरुआती लक्षणों के बारे में भी बता सकता है, जिससे शुरुआती दौर में ही उस बीमारी की रोकथाम या इलाज सम्भव हो सकेगा। कैंसर पता लगाने और उसके इलाज में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बड़े पैमाने पर मददगार हो सकती है। भारत में हर साल एक करोड़ से भी ज्यादा कैंसर के मामले सामने आते हैं। जीवनशैली में बदलाव और बुजुर्ग लोगों की संख्या में बढ़ोत्तरी के कारण इस बीमारी से पीड़ित लोगों की संख्या आने वाले समय में और बढ़ सकती है। कैंसर की जांच और इलाज में मददगार उन्नत सामग्री और तकनीक तैयार करने के लिए नीति आयोग एक कार्यक्रम शुरू करेगा।

 पोषण

बीमारियों की एक मुख्य वजह कुपोषण है। हालांकि, पिछले कई वर्षों में अलग-अलग सरकारों ने स दिशा में कई योजनाओं को शुरु किया, लेकिन इनमें ठोस और एकीकृत रवैये का अभाव दिखा। इसके कारण देश में अभी भी कुपोषण का स्तर बेहद ज्यादा है। इस चुनौती से व्यापक-स्तर पर निपटने के लिए ‘पोषण अभियान’शुरू किया गया है। इस अभियान का मकसद पोषण सुनिश्चित करने के लिए अनुकूल स्थितियां मुहैया कराना है, जैसे कि स्वच्छता और स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना। इस अभियान के तहत कुपोषण, रक्तहीनता और वजन कम होने के मामलों में सालाना क्रमशः 2 प्रतिशत और 2 प्रतिशत तक की कमी करने का लक्ष्य रखा गया है।

पोषण अभियान में सभी सम्बन्धित पक्षों को शामिल करने पर जोर है, ताकि पोषण को जन-आंदोलन का रूप दिया जा सके। पिछले दो साल से सितम्बर में राष्ट्रीय पोषण माह मनाया जा रहा है। पिछले साल यानी 2018 में इसके तहत 25 करोड़ लोगों तक पहुंच गया और उन्हें बच्चे के जन्म के बाद मां और नवजात की देखभाल, स्तनपान, रक्तहीनता, स्वच्छता, लड़कियों के विवाह के लिए उचित उम्र आदि के बारे में जानकारी प्रदा की गई। राष्ट्रीय पोषण माह, 2019 के दौरान बच्चों के जीवन के पहले 1000 दिनों में होने वाली बीमारियों, जैसे कि डायरिया आदि की रोकथाम और पोषण सम्बन्धी जरूरतों के बारे में जागरूकता फैलाने का प्रयास किया गया। साथ ही, साफ पानी, स्वच्छता आदि के महत्व के बारे में भी लोगों को जागरूक किया गया। हाल के राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण (2016-18) नतीजों से पता चलता है कि हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। यह सर्वे बताता है कि बच्चों की स्टंटिंग के मामलों में 1.8 प्रतिशत सालाना तक की गिरावट आई है।

एक और अहम चुनौती मोटापे के बढ़ते मामलों से निपटने की है। मोटापे के कारण गैर-संक्रामक बीमारियों का खतरा काफी बढ़ जाता है। फिलहाल, यह समस्या मुख्यतौर पर समाज के समृद्ध तबके तक सीमित है, लेकिन धीरे-धीरे सभी वर्गों के लोगों के बीच इसका असर देखने को मिल सकता है। मोटापे की समस्या से निपटने के लिए ऐसा सिस्टम तैयार करने की जरूरत है, जिसमें पोषण के हिसाब से संतुलित खानपान पर जोर हो। मोटापे की समस्या के आकलन और निगरानी के लिए एक बेहतर-तंत्र बनाया जाना चाहिए। साथ ही, हर आयु वर्ग में शारीरिक गतिविधियों और योग को बढ़ावा देने की जरूरत है।

 नीति आयोग ने अपने तीन साल के एक्शन एजेंडा में बड़े पैमाने पर संस्थानों के निर्माण की बात कही है। आयोग के मुताबिक, इन संस्थानों में सरकारों की अहम भूमिका होगी। ये संस्थान मौजूदा चुनौतियों से निपटने में और मिली-जुली स्वास्थ्य प्रणाली की सम्भावना को बेहतर बनाने में सहायक होंगे। सरकार ने पिछले कुछ साल में कई सुधार कार्यक्रम शुरू किए हैं, जिन्हें सख्ती से लागू किए जाने की जरूरत है। इसके अलावा, स्वास्थ्य प्रणाली से जुड़े सुधारों को सक्षम बनाने वाले कारक, जैसे कि वित्तीय प्रावधान, संस्थान, सेवाएं मुहैया कराने की सुविधा और स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े डिजिटल सिस्टम को मजबूत बनाने की जरूरत है। इस साल के शुरू में नीति आयोग की तरफ से जारी की गई पुस्तक ‘हेल्थ सिस्टम फॉर ए न्यू इंडियाः बिल्डिंग ब्लॉक्स’ में ये सुझाव दिए गए हैं।

(आलोक कुमार, नीति आयोग में सलाहकार, (स्वास्थ्य और पोषण) है और उर्वशी प्रसाद, सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ हैं।)

ई-मेलःalokkumar.up@nic.in urvashi.prasad@nic.in

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading