नई नीति : नया प्रयास

9 May 2015
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भारतवर्ष अपने भौगोलिक एवं जलवायुगत कारणों से आपदाओं की सम्भावनाओं से घिरा रहा है। बाढ़, सूखा, भूकम्प, चक्रवात, तूफानी लहरें एवं भूस्खलन का प्रकोप हमेशा होता रहा है। भारतवर्ष की भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा भूकम्प झेलता है। 8 प्रतिशत इलाका तूफानी लहरों से होने वाली तबाही के लिए खतरनाक है।मानव धरती के सबसे शक्तिशाली जीवों में से एक है। परन्त वह अभी भी आपदा एवं उसके प्रभाव को खत्म करने में सक्षम नहीं हो पाया है। मानव प्रकृति का एक हिस्सा है। प्राकृतिक घटनाक्रम को पूर्णरूपेण रोक पाने में हम वर्तमान तकनीकी जानकारी के आधार पर सक्षम नहीं हो पाए हैं। लेकिन इतनी क्षमता अवश्य विकसित कर ली गई है कि इन आपदाओं के दुष्परिणाम का प्रभाव मानव एवं अन्य जीवों पर कम से कम पड़े। ‘आपदा’ का अंग्रेजी शब्द ‘डिजास्टर’ फ्रांसीसी शब्द है जो desastre से आया है। यह दो शब्दों से बना है des एवं astre जिसका अर्थ है तारे या ग्रह। परन्तु आज के वैज्ञानिक युग में इसे प्राकृतिक या मानवजनित घटना के रूप में जाना जाता है।

आपदा अचानक आती है तथा यह मानव सभ्यता, सम्पत्ति, सामान्य कार्यशैली पर व्यापक प्रभाव डालती है। आपदा-पश्चात रहने के स्थान, भोजन, कपड़ा, सामाजिक एवं चिकित्सा जैसी सहायता बाहरी सहयोग की आवश्यकता पड़ती है। आज के इस वैज्ञानिक युग में आपदा को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है :

प्राकृतिक आपदाएँ


(क) वायुजनित आपदा : तूफान, चक्रवाती पवन, चक्रवात, समुद्र की तूफानी लहर।
(ख) जलजनित आपदा : बाढ़, बादल फटना, आकस्मिक स्थानीय बाढ़, अत्यधिक वर्षा, सूखा।
(ग) धरतीजनित आपदा : भूकम्प, सुनामी, हिमानी पहाड़ खिसकना, ज्वालामुखी।

मानवजनित आपदा


(क) दुर्घटना : रेल, सड़क, हवा, समुद्र
(ख) औद्योगिक दुर्घटना : कारखानों में विस्फोट, लीक, तोड़फोड़, रिसाव इत्यादि।
(ग) आग : बिल्डिंग, कोयला, तेल
(घ) आतंकवादी गतिविधियाँ
(ङ) युद्ध : सामान्य युद्ध, रासायनिक युद्ध एवं नाभिकीय युद्ध।

विकास पर आपदा का प्रभाव


डिडिया ओडिथी टेल महासचिव, रेडक्रॉस एवं रेड क्रिसेंट सोसायटीज ने कहा है कि “सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आपदाएँ विकास के लिए और विशेष रूप से विश्व के सबसे अधिक गरीब और गरीबी के कगार पर खड़े लोगों के विकास के लिए एक बड़ा खतरा होती हैं। आपदाएँ गरीबों को खोज निकालती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि वे गरीब ही बने रहें।' आपदाओं से सबसे ज्यादा गरीब मुल्क ही प्रभावित होते हैं। धनी राष्ट्र इनका मुकाबला करने के लिए पहले से ही तैयार रहते हैं तथा आपदा-पश्चात इनका निवारण भी कर लेते हैं।

आपदाओं से होने वाले मानव एवं प्राकृतिक क्षति को कम करने के दृष्टिकोण से संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1990-2000 को अन्तरराष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण दशक घोषित किया गया। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य यह था कि सभी देश अपनी आर्थिक प्रगति योजना में सम्भावित आपदा का भी आकलन करें तथा इन आपदाओं के सम्बन्ध में सामुदायिक जागरुकता और शिक्षा का कार्यक्रम बनाएँ। इसके अतिरिक्त विश्व में उपलब्ध आपदा सूचना प्रसारण तन्त्र का उपयोग एवं फैलाव किया जाए।

भारतवर्ष और आपदा


भारतवर्ष अपने भौगोलिक एवं जलवायुगत कारणों से आपदाओं की सम्भावनाओं से घिरा रहा है। बाढ़, सूखा, भूकम्प, चक्रवात, तूफानी लहरें एवं भूस्खलन का प्रकोप हमेशा होता रहा है। भारतवर्ष की भूमि का 60 प्रतिशत हिस्सा भूकम्प झेलता है। 8 प्रतिशत इलाका तूफानी लहरों से होने वाली तबाही के लिए खतरनाक है। भारत में वर्ष 2001 तक आपदा से हुए नुकसान के कुछ आँकड़े तालिका-1 एवं 2 में दिए गए हैं।

नयी नीति - नया प्रयास तालिका 1

नयी नीति - नया प्रयास तालिका 1

तालिका से स्पष्ट है कि इन आपदाओं से जानमाल के नुकसान के साथ-साथ सम्पत्ति, पशुधन, प्राकृतिक सम्पदा एवं मनुष्य की जीवनशैली सभी पर सीधा प्रभाव पड़ता है। आपदा का प्रभाव और गहरा तब हो जाता है जब राष्ट्र में अधिक आबादी, अशिक्षा एवं गरीबी हो। भारतवर्ष एक विकासशील देश है तथा यहाँ अभी इन तीनों प्रमुख बिन्दुओं पर समस्याएँ हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबन्धन की दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदम


उड़ीसा में अक्तूबर 1999 में आए महाचक्रवात एवं जनवरी 2001 गुजरात के भुज में भूकम्प से हुई तबाही ने इस दिशा में एक चौतरफा दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिसमें वैज्ञानिक, अभियान्त्रिकीय, वित्तीय, सामाजिक सभी पहलुओं का समावेश कर आपदा से होने वाली क्षति को कम किया जा सके। इन विचारों के कारण भारत की नीति में यह परिवर्तन आया कि कोई भी विकास योजना तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक आपदा न्यूनीकरण कार्यक्रम को उसमें सम्मिलित नहीं किया जाता। यहाँ यह भी सोच बनी कि आपदा न्यूनीकरण के लिए किया गया कोई भी निवेश उस आपदा पर की जाने वाली सहायता के खर्च से कहीं ज्यादा लाभप्रद है।

इन्हीं बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर एक ढाँचा तैयार किया गया जिसके आधार पर सभी राज्यों को अपना ढाँचा तैयार करना है जिससे आपदा प्रबन्धन को बल मिल सके। इसके लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन फ्रेमवर्क तैयार किया गया है जिसकी कुछ बातें निम्नलिखित हैं :
  1. प्रशासनिक ढाँचे में परिवर्तन
  2. स्पष्ट नीति निर्धारण
  3. कानूनी एवं तकनीकी नीति निर्धारण
  4. आपदा न्यूनीकरण कार्यक्रम को विकास योजनाओं में सम्मिलित करना
  5. वित्तीय प्रबन्धन
  6. विशेष आपदा न्यूनीकरण योजनाएँ
  7. आपदा-पूर्व तैयारी की योजना
  8. क्षमता में वृद्धि
  9. मानव संसाधन विकास योजना
  10. सामुदायिक भागीदारी

उपर्युक्त फ्रेमवर्क के तहत कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ

  1. केन्द्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आपदा प्राधिकरण का गठन जिसे कानूनी, वित्तीय एवं प्रशासनिक शक्तियाँ प्राप्त हैं।
  2. राज्य स्तर पर आपदा प्रबन्धन विभाग का सृजन।
  3. राज्य स्तर पर राज्य आपदा प्रबन्धन।
  4. आपदा न्यूनीकरण कार्यक्रम को विकास के कार्यक्रम से जोड़ना।
  5. समय-समय पर पुराने कानून एवं कोड पर पुनर्विचार (बिल्डिंग एवं कंस्ट्रक्शन कोड)।
  6. राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया दल का गठन।
  7. राज्य स्तर पर आपदा प्रबन्धन योजना बनाना।
  8. जिला स्तर पर आपदा प्रबन्धन योजना बनाना।
  9. प्रखण्ड स्तर पर आपदा प्रबन्धन योजना बनाना।
  10. सामुदायिक सहयोग आधारित ग्राम आपदा न्यूनीकरण योजना बनाना।

बिहार के सन्दर्भ में आपदा


बिहार देश का सबसे ज्यादा बाढ़ प्रभावित प्रदेश है। सम्पूर्ण राज्य का 73 प्रतिशत तथा उत्तर बिहार का 76 प्रतिशत इलाका बाढ़ प्रभावित है। बाढ़ की विभीषिका से देश में होने वाले नुकसान का 30 प्रतिशत प्रतिवर्ष केवल बिहार की जनता झेलती है। बिहार की कुल आबादी 8.28 करोड़ एवं आबादी का घनत्व 880 व्यक्ति प्रतिवर्ग हेक्टेयर है। कुल आबादी की 6 करोड़ जनता बाढ़ से प्रभावित है। बिहार की समस्या मात्र राज्य एवं राष्ट्र की ही समस्या नहीं है बल्कि यह अन्तरराष्ट्रीय समस्या है जिसका हल नेपाल के सहयोग के बिना सम्भव नहीं दिखता। उतर बिहार से होकर बहने वाली अधिकांश नदियाँ, जैसे कोसी, गण्डक, कमला बलान, बागमती, महानन्दा एवं अधवारा समूह की नदियों के उद्गम स्थल नेपाल एवं तिब्बत में हैं। इन नदियों का जलग्रहण क्षेत्र नेपाल एवं तिब्बत में 61 प्रतिशत तथा बिहार में 39 प्रतिशत है। ये नदियाँ पहाड़ों से जब बिहार के समतल मैदानों में आती हैं तो अपने साथ बाढ़ की विभीषिका भी लाती हैं। बाढ़ की समस्या बिहार की नियति बन चुकी है। नीचे तालिका-3 से विगत तीन वर्षों में यहाँ बाढ़ से हुई क्षति का अन्दाजा लगाया जा सकता है।

नयी नीति - नया प्रयास तालिका 3
बाढ़ के अतिरिक्त देश के अन्य भागों की तरह बिहार को कई अन्य आपदाओं से भी निपटना पड़ता है, जैसे भूकम्प, गर्मी के मौसम में आगजनी, शीतलहर का प्रकोप एवं विभिन्न बीमारियों का प्रकोप। बिहार भूकम्प के दृष्टिकोण से काफी खतरनाक क्षेत्र में अवस्थित है। राज्य का एक बड़ा इलाका भूकम्प के लिए बनाए गए सिसमोग्राफिक क्षेत्र के कोटि 4 एवं 5 में आता है। यह कोटि अत्यन्त ही संवेदनशील माना जाता है। बिहार में वर्ष 1934 एवं 1988 के भूकम्प का काफी व्यापक प्रभाव पड़ा था। 1934 के भूकम्प में 11,000 एवं 1988 में 1,100 लोगों की मृत्यु हुई थी। प्रत्येक वर्ष गर्मी के मौसम में आगजानी तथा ठण्ड के मौसम में शीतलहर के कारण भी काफी लोगों की मृत्यु होती है।

आपदा प्रबन्धन के लाभ


आपदाओं से सम्बन्धित सभी आँकड़ों के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि मानव जाति को आपदाओं के साथ ही जीवन गुजारना है। परन्त अगर इन आपदाओं से निपटने की पूर्व तैयारी हो तो, इनका प्रभाव तथा जानमाल का नुकसान काफी हद तक कम किया जा सकता है। विकसित राष्ट्र पर इन आपदाओं का प्रभाव काफी कम होता है। जापान जैसे राष्ट्र में भूकम्प लगभग रोज आते हैं परन्त उनके मकान, कल-कारखाने सभी भूकम्परोधी तन्त्र से युक्त हैं। इस कारण वहाँ के नागरिकों के जीवन तथा सम्पत्ति पर इसका प्रभाव न के बराबर पड़ता है।

बिहार भूकम्प के दृष्टिकोण से काफी खतरनाक क्षेत्र में अवस्थित है। राज्य का एक बड़ा इलाका भूकम्प के लिए बनाए गए सिसमोग्राफिक क्षेत्र के कोटि 4 एवं 5 में आता है। यह कोटि अत्यन्त ही संवेदनशील माना जाता है।आपदा एवं उसके प्रभाव को हम किस प्रकार कम कर सकते हैं इसे उदाहरण से समझें। अगर किसी इलाके में बाढ़ से खतरे का आकलन करना है तो उस इलाके के लिए सम्भावित संकट (नदी, डैम इत्यादि) हो सकते हैं। अगर उक्त इलाके की जनसंख्या घनी है तो उस क्षेत्र में रहने वाले सभी नागरिकों पर इसका व्यापक प्रभाव होगा। वे एक प्रकार से असुरक्षित हैं। अगर वहाँ के लोगों द्वारा इस सम्भावना के मद्देनजर पूर्व तैयारी कर ली जाए, जैसे ऊँचे स्थान का चुनाव, नाव की व्यवस्था, बाढ़ की दशा में भोजन की व्यवस्था, दवा इत्यादि की व्यवस्था, वृद्ध, महिला एवं बच्चों के रहने के लिए समुचित व्यवस्था, बाढ़ की सूचना जल्द से जल्द प्रसारित करने की व्यवस्था, तो निश्चित रूप से बाढ़ का खतरा काफी हद तक कम किया जा सकता है एवं उससे होने वाले नुकसान भी काफी कम होंगे। इन व्यवस्थाओं को क्षमता के रूप में जानते हैं। इसे नीचे निम्न सूत्र से दर्शाया जा सकता है :

नयी नीति नया प्रयास - चित्र 2

सरकार आपातकाल, आपदा प्रबन्धन के लिए चार बातों को महत्त्व देती है। ये चार बातें हैं :
  1. पहले से तैयारी
  2. जवाबी कार्रवाई
  3. सामान्य जीवन स्तर पर लौटना और
  4. रोकथाम आयोजन/दुष्प्रभाव को कम करना।
पीआरआरपी संस्थान इन बातों का पालन करने के लिए आपदा प्रबन्धन व्यवस्था तैयार करने की हिमायत करती है।

आपदा प्रबन्धन के घटक
पहले से तैयारी

  1. सामुदायिक जागरुकता और शिक्षा
  2. समुदाय, स्कूल, व्यक्ति के लिए आपदा प्रबन्धन योजनाएँ तैयार करना
  3. भार ड्रिल, प्रशिक्षण, अभ्यास
  4. सामग्री और मानवीय कौशल संशोधन- दोनों प्रकार के संसाधनों की सूची
  5. समुचित चेतावनी प्रणाली
  6. पारस्परिक सहायता व्यवस्था
  7. असुरक्षित समूहों की पहचान करना

राहत कार्रवाई

  1. आपात केन्द्र (नियन्त्रण कक्ष) को चालू करना
  2. आपदा प्रबन्धन योजनाओं को कार्यरूप देना
  3. स्थानीय समूहों की सहायता से सामुदायिक रसोई स्थापित करना
  4. संसाधन जुटाना
  5. ताजा स्थिति के अनुसार चेतावनी देना
  6. समुचित आश्रय और टॉयलेट की व्यवस्था
  7. रहने के लिए अस्थायी व्यवस्था करना
  8. प्रभावितों को ढूँढने और उनका बचाव करने के लिए दल भेजना
  9. खोज एवं बचाव दल तैनात करना
नयी नीति नया प्रयास - चित्र

सामान्य जीवन स्तर पर लौटना और पुनर्वास

  1. समुदाय को स्वास्थ्य और सुरक्षा उपायों की जानकारी देना
  2. जिनके परिजन बिछड़ गए हैं उन्हें दिलासा देने का कार्यक्रम
  3. अनिवार्य सेवाओं – सड़कों, संचार सम्पर्क की पुनः शुरुआत
  4. आश्रय/अस्थायी आवास सुलभ करना
  5. निर्माण के लिए मलबे में से प्रयोग लायक सामग्री इकट्ठा करना
  6. आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना
  7. रोजगार के अवसर ढूँढना
  8. नये भवनों का पुनर्निर्माण करना

रोकथाम एवं दुष्प्रभाव को कम करने के लिए योजना बनाना

  1. भूमि उपयोग की योजना तैयार करना
  2. जोखिम क्षेत्रों में बसावट को रोकना
  3. आपदारोधी भवन
  4. आपदा घटने से भी पहले जोखिम को कम करने के तरीके तलाशना
  5. सामुदायिक जागरुकता और शिक्षा

समुदाय आधारित आपदा प्रबन्धन


आपदा के समय एवं उसके तुरन्त पश्चात समुदाय के लोग ही सबसे पहले शुरू के कुछ घण्टे लोगों के प्राण बचाने तथा क्षति को रोकने के प्रयास करते हैं। राहत पहुँचाने की दृष्टि से ये शुरुआती घण्टे काफी महत्त्वपूर्ण और बहुमूल्य होते हैं। अक्सर ऐसा होता है कि आपदा स्थल तक बाहरी मदद पहुँचने में समय लग जाता है। ऐसी स्थिति में समुदाय के प्रशिक्षित सदस्य जीवनरक्षक सम्पदा के रूप में कार्य करते हैं। इनके अलावा खतरे को कम करने की दिशा में समुदाय एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसीलिए समुदाय की शिक्षा और सहयोग के बिना आपदा प्रबन्धन की कोई भी योजना पूरी नहीं हो सकेगी।

आपदा प्रबन्धन के केन्द्र बिन्दु में समुदाय क्यों होना चाहिए

  1. समुदाय आपदा स्थल पर मौजूद होता है तथा वह सर्वप्रथम आपदा की जवाबी कार्रवाई करने की स्थिति में होता है।
  2. समाज के पास उस इलाके एवं उपलब्ध संसाधन की अधिकतम जानकारी होती है।
  3. अधिकांश आपदाएँ बार-बार आती हैं और इसलिए उनसे निबटने के लिए सदैव परम्परागत रूप से स्थापित एक तन्त्र होता है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है। स्थानीय माहौल में यह तन्त्र तुरन्त जवाबी कार्रवाई करने में सक्षम होता है।

केन्द्र एवं राज्य सरकार की पहल पर आपदा प्रबन्धन योजना


समुदाय को केन्द्र बिन्दु मानकर भारत सरकार द्वारा प्रत्येक राज्य, जिला, ब्लॉक एवं ग्राम स्तर पर आपदा प्रबन्धन योजना बनाने की पहल की गई है। बिहार में जिला स्तर पर यह योजना बनाने का कार्य प्रारम्भ हो चुका है तथा कई जिलों द्वारा इसका प्रारूप बना लिया गय है। इस प्लान में मुख्यतः निम्नलिखित बातें शामिल हैं :

1. जिले के सम्बन्ध में सूचना : भू-आकृति, जलवायु एवं मौसम, पशुपालन, प्रशासनिक ढाँचा, जनसांख्यिकी, आर्थिक स्थिति, व्यावसायिक ढाँचा, जोत का आकार, भूमि उपयोग।

2. जोखिम आकलन एवं असुरक्षित आबादी/सम्पत्ति का विश्लेषण : विद्यालय की संख्या, आपदाओं से प्रभावित परिसम्पत्ति एवं आबादी, आपदाएँ सम्भावित महीने; जिले में आपदाओं का संक्षिप्त इतिहास।

3. क्षमता विश्लेषण
  1. संसाधन की सूची- मोटर बोट, नौका, वाहन, मानव संसाधन, टेण्ट, वायरलेस सेट, वाटर टेण्ट, वी-सैट
  2. संवाद सम्प्रेषण में मीडिया की भूमिका।
  3. आपदा प्रबन्धन के लिए प्रशासनिक तैयारी :
  • − पूर्व तैयारी
  • − निकास एवं बचाव
  • − आश्रय प्रबन्धन
  • − शुद्ध पेयजल सुनिश्चित करना
  • तत्काल सहायता सुविधा
  • मानवीय चिकित्सा सुविधा
  • पशु चिकित्सा।
  • 4. आपदा आधारित क्षमता विश्लेषण एवं मानव संसाधन
    1. कुल पुलिस पदाधिकारियों की संख्या
    2. कुल काँस्टेबुलों की संख्या
    3. कुल चौकीदारों की संख्या
    4. अग्निशमन में कार्यरत कर्मचारियों की कुल संख्या।
    5. परियोजना हितभागियों के कार्य एवं उत्तरदायित्व
    1. पंचायत प्रतिनिधियों के कार्य एवं उत्तरदायित्व
    2. स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्य एवं उत्तरदायित्व
    3. सरकारी तथा गैर-सरकारी उद्योग एवं व्यवसाय
    4. सैनिक एवं अर्द्धसैनिक बल का उपयोग
    5. जिला प्रशासन का अन्य संस्थाओं के साथ समन्वय
    6. आपदाओं से बचाव एवं न्यूनीकरण की रणनीति
    1. बाढ़
    2. सूखा
    3. ओलावृष्टि
    4. महामारी
    5. शीतलहर
    6. अग्निकाण्ड इत्यादि
    नयी नीति - नया प्रयास तालिका 4

    7. आपदा के बाद मूल्यांकन
    1. प्रतिवेदन तैयार करना
    2. क्षति का आकलन करना।
    8. सहायता एवं बचाव कार्य में जिला स्तरीय पदाधिकारियों के कर्तव्य।
    9. आपदाएँ एवं आपदा प्रबन्धन में कौन क्या करे और क्या न करे।
    10. सभी सरकारी विभाग एवं पदाधिकारी की दूरभाष संख्या।
    11. सभी पदाधिकारियों को उनके कार्य एवं अधिकार की जानकारी।
    12. सभी सरकारी आदेशों का संकलन।
    13. आपदा के समय सहयोग करने वाली सभी राष्ट्रीय एजेंसियों का पता, दूरभाष संख्या तथा ई-मेल पता।
    14. आपदा-पश्चात योजना जिसके द्वारा सहायता उपलब्ध कराई जाएगी।
    15. आपदा में सहयोग करने वाली प्रमुख स्वयंसेवी संस्थाओं की सूची।

    बिहार में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदम

    1. आपदा प्रबन्धन अधिनियम का प्राख्यापन
    2. आपदा प्रबन्धन विभाग की स्थापना
    3. विभिन्न आपदा प्रभावित जिलों के लिए जिला आपदा प्रबन्धन योजना के प्रारूप को अन्तिम रूप देने की तैयारी
    4. बिहार प्रशासनिक प्रशिक्षण, पटना में आपदा प्रशिक्षण केन्द्र की स्थापना।
    बिहार के सन्दर्भ में बाढ़ की विभीषिका पर नियन्त्रण सबसे आवश्यक दिखाई पड़ता है। इस विभीषिका से निपटने की दिशा में नदियों को जोड़ने का प्रयास विचाराधीन है। 20 वर्षों के अध्ययन के पश्चात राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी द्वारा एक प्रस्ताव दिया गया है जो काफी उच्च स्तर पर विचाराधीन है। बिहार से सम्बन्धित कुछ योजनाएँ, विशेषकर भारत एवं नेपाल दोनों से होकर गुजरने वाली नदियों को जोड़ने का प्रस्ताव है। इस योजना में पानी के नियन्त्रण के अतिरिक्त बिजली उत्पादन का भी लक्ष्य है। इस दिशा में कुछ मुख्य योजनाओं में कोसी-घाघरा लिंक, गण्डक-गंगा लिंक, घाघरा-यमुना लिंक, कोसी-मेही लिंक प्रमुख है। सम्भवतः बिहार की बाढ़ त्रासदी का यह एकमात्र विकल्प दिखाई पड़ता है।

    जहाँ तक आपदा का प्रश्न है, मानव जाति को इसका मुकाबला हर स्थिति में करना होगा। अगर हम पहले से इसके लिए तैयार होंगे, तब मानवीय एवं आर्थिक क्षति अवश्य ही कम होगी। इस तैयारी में सामुदायिक सहयोग सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है।

    (लेखक प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थान, पटना के आपदा प्रबन्धन केन्द्र में उपनिदेशक हैं)

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