नई सदी में प्राकृतिक आपदाएं एवं चुनौतियां

समय रहते हम अगर इन चुनौतियों को काबू में नहीं कर पाते हैं तो पूरी मानव-जाति के साथ-साथ पर्यावरण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अतः हमें समय रहते कारगर नीति बनानी होगी। बच्चों को प्राइमरी स्कूल से ही प्राकृतिक आपदा, आपदा प्रबंधन, पुनर्वास नीति, सतत् जागरुकता एवं संचेतना अभियान के बारे में चित्रों द्वारा जानकारी दी जाए तथा पर्यावरण मित्र की सार्थकता पर जोर दिया जाए। विद्यालय में विश्वविद्यालय तक प्राकृतिक आपदा को संबद्ध किया जाए। प्रकृति में जल, जंगल और जमीन का अहम् योगदान है। मानव के अनेक प्रकार के अस्वस्थ क्रियाकलापों के कारण पर्यावरण के तत्वों एवं प्रकृति के सुसंचालन में बाधा उत्पन्न की जा रही है, परिणामस्वरूप जीवन-चक्र की गुणवत्ता में अंतर आता जा रहा है। प्राकृतिक आपदा का सीधा संबंध, पर्यावरण से है। आपदा जो प्रकृति के कारण हो वह प्राकृतिक आपदा है। प्राकृतिक आपदा आज विश्वव्यापी है। भूकंप, बाढ़, हिस्खलन, दावानल, तड़ित, चक्रवात, सुनामी लहर, सूखा, हेल्सटॉर्म, लू, हरिकेन, टायफून, आइस एज, टोरनेडो, लैला, संक्रामक रोग (स्वाइन फ्लू, प्लेग, हैजा आदि) पर्यावरण असंतुलन आदि प्राकृतिक आपदा से संबंधित हैं। समय-समय पर राष्ट्रीय,अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन जागरूकता का कार्य करते रहते है। जनवरी, 2011 में चेन्नई में आयोजित राष्ट्रीय विज्ञान कांग्रेस में वैज्ञानिक ने बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग पर गहरी चिंता जताई है। आज अधिकांश ग्रीनहाउस गैसें अपने उच्च पैमाने से तीन गुना ज्यादा हो गई हैं। आई. पी.सी. सी की चौथी मूल्यांकन रिपोर्ट ने एंथ्रोपोजेनिक गैस पर सवालिया निशान खड़ा किया है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीट्रोलॉजी के प्रो.बी.एन. गोस्वामी के अनुसार आज हम पर्यावरण असंतुलन के कारण मानसून की भविष्यवाणी नहीं कर सकते।

थियोफ्रेस्टस्, हैकेल, टांसलेन हेगेंट, मॉकहाउस, स्माल, स्क्रोलर, शाइमा नासरी, प्रो. वायजी जोशी, सुरेश प्रसाद, नारलिकर, डॉ. दधिच आदि ने पर्यावरण से जुड़े व उपजी प्राकृतिक आपदा पर अपना-अपना मंतव्य व्यक्त किया है। अप्रत्याशित मौसमी परिवर्तन का धरती पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। प्रकृति का नियामक उपकरण विफल हो गया है। समय से पहले आम के पेड़ों में मंजर, गर्मी में बरसात होना, राजस्थान जैसे शुष्क और कम वर्षा वाले क्षेत्र में कभी-कभी बाढ़ आना, पंजाब व हरियाणा में जहां कम बारिश होती थी, वहां अतिवृष्टि का प्रकोप होना, बर्फीली पहाड़ियों पर कम बर्फ गिरना, लेह में असमय बादल फटना, राजस्थान में ही बीकानेर का तापक्रम-2 डिग्री सेंटीग्रेट, माउंट आबू का -4 डिग्री सेंटीग्रेट, चुरु भी बदहाल (जनवरी माह), गंगानगर हाइवे भी अति प्रभावित। ऐसा लगता है जैसे मरुभूमि न बनकर हिमभूमि हो गया हो, यह सब अपशकुन के संकेत हैं।

हमने देखा कि प्राकृतिक आपदा का सीधा तात्पर्य पर्यावरण से है और पर्यावरण का संबंध जलवायु एवं मौसम से है। जलवायु परिवर्तन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके साथ ही कई प्रतिक्रियाएं जुड़ी हैं। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑफ क्लाइमेंट चेंज (IPCC) के अनुसार तापमान में बढ़ोतरी के परिणामस्वरूप सन् 2030 तक विश्व में समुद्र के पानी का स्तर 20 सेमी. तक और अगली सदी के अंत तक 65 सेमी. तक बढ़ जाएगा। नतीजतन 300 प्रशांत प्रवाल द्वीप पूरी तरह से समुद्र में समा जाएंगे और हिंद महासागर तथा कैरेबियन सागर के अनेक द्वीप भी बुरी तरह से तबाह हो सकते हैं। यही नहीं, समुद्र के पानी के सतह की ओर प्रवाह से दुनिया के कई हिस्सों में, भूमि लवण से दूषित हो जाएगी। उपजाऊ भूमि पर खारे पानी के प्रवेश से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो जाएगी, जानलेवा उष्णकटिबंधीय रोगों का प्रसार होगा।

पूर्वोत्तर भारत भीषण गर्मी की तपिश से छटपटा रहा है। देश के कई भागों में अब दिन का तापमान पचास डिग्री को पार कर रहा है। उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल में ‘लू’ लगने से मरने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। दरअसल, पिछली शताब्दी में धरती के औसतन तापमान में 1 डिग्री फॉरनेहाइट (0.6 डिग्री सेल्सियस) की वृद्धि ने तापमान में बढ़ोतरी को लेकर किसी तरह की कोई शंका नहीं छोड़ी थी। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में सर्दियों में बर्फ गिरने का समय डेढ़ सौ वर्ष पूर्व की तुलना में 10 दिन आगे बढ़ गया है, जबकि बर्फ के पिघलने का समय 9 दिन पहले हो गया है। पृथ्वी की ठंडक और गर्मी के चक्र की एक सामान्य प्रक्रिया है। समशीतोष्ण इलाकों में हिमखंडों की हालत अधिक नाजुक है। वर्तमान में अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन में कुछ मुख्य बिंदु शामिल किए जो निम्न हैं-

पृथ्वी और सूर्य के बीच ज्यामितीय संबंध,
सौर विकिरण,
महासागरों की भूमिका,
अलनीनों की भूमिका,
वायुमंडलीय एरोसॉल की उपस्थिति,
वैश्विक ताप वृद्धि।

साथ ही अप्रत्याशित मौसमी परिवर्तन का धरती पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। जलवायु का संतुलन बिगड़ जाने से सन् 2000 में इंग्लैंड व वैल्स में तीन महीने तक जबरदस्त बारिश हुई। लगातार सूखे के कारण जुलाई, 2000 में ग्रीस के सामोस द्वीप में भयंकर आग लग गई, जिससे 20 प्रतिशत द्वीप तबाह हो गया। 1999 में अपने देश के ओड़िशा राज्य में भयंकर चक्रवात आया जिसने विनाश लीला का तांडव किया।

ऐसा अनुमान है कि 21वीं शताब्दी के अंत तक भारत में वायुमंडल का औसत तापमान 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। उत्तरी तथा पश्चिमी भाग में यह परिवर्तन अधिक होगा, गंगा नदी की घाटी के पश्चिमी भाग में वर्षा ऋतु की लंबाई में कमी होगी। दूसरी ओर गोदावरी तथा कृष्णा नदी की घाटियों में वर्षा ऋतु की लंबाई बढ़ जाएगी। इसका परिणाम यह होगा कि देश के कुछ भाग में सूखे का प्रकोप बढ़ेगा तो दूसरे क्षेत्र में बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो सकती है। मनुष्यों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी ग्लोबल वार्मिंग से अछूते नहीं हैं। कुछ समय पहले लखीमपुर खीरी जनपद में फरवरी माह के अंतिम दिनों में सारस पक्षी बेमौसम स्वयंवर रचा रहे थे। शोध के मुताबिक सारस जुलाई से अक्टूबर माह के बीच तालाबों के किनारे एकत्रित होते हैं। फिर ये जोड़े मीटिंग करते हैं, लेकिन अब इनका जीवन-चक्र भी अस्त-व्यस्त हो गया है।

समय रहते हम अगर इन चुनौतियों को काबू में नहीं कर पाते हैं तो पूरी मानव-जाति के साथ-साथ पर्यावरण का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। अतः हमें समय रहते कारगर नीति बनानी होगी। बच्चों को प्राइमरी स्कूल से ही प्राकृतिक आपदा, आपदा प्रबंधन, पुनर्वास नीति, सतत् जागरुकता एवं संचेतना अभियान के बारे में चित्रों द्वारा जानकारी दी जाए तथा पर्यावरण मित्र की सार्थकता पर जोर दिया जाए। विद्यालय में विश्वविद्यालय तक प्राकृतिक आपदा को संबद्ध किया जाए। प्रकृति में जल, जंगल और जमीन का अहम् योगदान है। जल की बर्बादी रोकने के लिए छोटे-छोटे स्तर पर प्रयास होना चाहिए।

भूगोलविद् प्रो.वाई.जी. जोशी ने कहा है, ‘अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार यदि किसी देश में सतही जल की उपलब्धि 1700 घनमीटर से कम हो तो उसे जल की कमी वाला और एक घनमीटर से कम होने पर जल समस्या ग्रस्त की श्रेणी में रखा जाता है। बादल भी मौसम बदलाव को नियंत्रित करते हैं। टेक्सास ए. एंड एम. यूनिवर्सिटी की प्रो. शाइमा नासरी का कहना है कि मध्य-स्तर के बादल आकाश में कम प्रभावी होते हैं, लेकिन मध्य स्तर के बादल वातावरण में हो रहे परिवर्तन को बहुत हद तक प्रभावित करते हैं। इसलिए मध्य-स्तर के बादलों पर काफी रिसर्च की जरूरत है। एक नई सेटेलाइट टेक्नोलॉजी से आशातीत सफलता मिल सकती है।

इस प्रकार प्राकृतिक आपदा में भारत के लिए चुनौती भरा कार्य सामने है। इन चुनौतियों से जूझने के लिए निम्न कदम उठाए जा सकते हैं-

विद्यालय से विश्वविद्यालय तक कारगर रूप से विषय के रूप में अनिवार्य करना।
निगरानी एवं बचाव दल को समुचित प्रशिक्षण देना।
पर्यावरण संबंधी कानून लगभग 200 से अधिक हैं, जिनमें से प्रमुख कानून हैं-

खान एवं खनिज संपत्ति (विनियम एवं विकास) अधिनियम, 1947; नदी मंडल अधिनियम, 1956; वन्य-जीवन (संरक्षण) अधिनियम, 1972; जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1977-78; वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980; वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981; कीटनाशक अधिनियम, 1979; मीटर वाहन अधिनियम, 1938 तथा संशोधन, 1988 फ़ैक्टरी अधिनियम, 1881 एवं 1984, भारतीय अधिनियम 1927; भू-संरक्षण अधिनियम, 1955; राष्ट्रीय वनस्पति अधिनियम, 1988 आदि। इनका अक्षरशः कठोरता से पालन हो।

4. सभी टी.वी. रेडियो चैनलों पर प्राकृतिक आपदा एवं बचाव से संबंधित विज्ञापनों को आवश्यक रूप से दिखाया जाए।
5. बच्चों बचपन से ही साहस एवं कठिन वचनबद्धता के प्रति प्रेरित किया जाए।
6. इसरो ने (12/01/11/ हितावदा) एक नए ट्रांसमीटर का विकास किया है, जो आपात स्थिति में मछुआरों की मदद करेगा।
7. इटालियन कंपनी ने एक सिस्टम बेवी (Webby) का विकास किया है, जो मौसम की जानकारी देने में अद्भुत है।
8. हिमालयी पारिस्थितिकी-तंत्र को स्थिर रखना।
9. ग्रीन इंडिया प्लान।
10. जलवायु मौसम पर रणनीतिक ज्ञान।
11. कृषि का विकास एवं वृक्षारोपण।
12. दुनिया के सभी देश, क्वोटो समझौते की शर्तों के अनुसार अपने-अपने यहां CO2 एवं अन्य हानिकारक गैसों का उत्सर्जन वर्ष 2012 तक 1990 के स्तर से 5.2 प्रतिशत के औसत पर लाएं।
13. पूर्व चेतावनी प्रणाली का विकास करना।
14. आपदा प्रबंधन का विकास करना।
15. मौसम विभाग को आम समुदाय से जुड़ने की तकनीक का विकास करना।
16. राष्ट्रीय आपदा कोष एवं मिशन को अमलीजामा पहनाना।
17. IIFM की तर्ज पर छोटे स्तर पर पर्यावरण एवं जीवन से संबंधित विषय पर जोर दिया जाए।
18. आपदा-कीट की व्यवस्था से सुसज्जित रहना।
19. सोलर पॉवर का ज्यादा इस्तेमाल किया जाए(छ.ग./उ.प्र.)।
20. ISRO, CSIR, DRDO, NPL, Research Centre, मौसमी केंद्र, आदि में गुणात्मक विकास किया जाए।
21. पर्याववरण से जुड़े कानूनों का सख्ती से पालन किया जाए।

इसके अतिरिक्त भारत के मानचित्र पर एक नजर डालने पर ऐसा आभास होता है कि हमारा देश हमेशा प्राकृतिक आपदा के चंगुल में फंसा रहता है। उदाहरण के तौर पर उत्तर भारत में हिस्खलन, राजस्थान में तूफान, गुजरात में भूकंप, महाराष्ट्र में लैला एवं भूकंप, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल में भीषण चक्रवात एवं समुद्री तूफान, तटीय प्रदेश में सुनामी, उत्तर-पूर्व भारत में अतिवृष्टि, बिहार, उत्तर प्रदेश में बाढ़, छत्तीसगढ़ में स्वाइन-फ्लू आदि अपनी-अपनी दस्तक देकर पहचान बना चुके हैं। भारत में सर्वप्रथम आपदा से संबंधित साइक्लोन रिस्क स्कीम लागू की गई है, जो 1496,71 करोड़ रु. की है। इससे उड़ीसा और आंध्र प्रदेश को मुक्ति मिलेगी। इस तरह यह प्रोजेक्ट (NCRMP), 13 तटीय प्रदेशों-आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, गुजरात, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, केरल, दमन दीव, पांडिचेरी, लक्षद्वीप एवं अंडमान निकोबार में भी गालू की जाएगी। यह प्रोजेक्ट चक्रवात की भविष्यवाणी, चेतावनी प्रणाली पर केंद्रित रहेगा, पृथ्वी के अंदर, खदानों का धंसना एवं जहरीली गैसों के प्रकोप से हजारों जानें चली जाती हैं। सन् 2010 के अंतिम माह में अंजना हील्स खदान में जहीरली गैस के प्रकोप से उनके कुशल कर्मचारी अपनी जान गंवा बैठे।

अंत में यह कहा जा सकता है कि हमें प्राकृतिक आपदा के प्रति काफी सजग रहने की जरूरत है। प्राकृतिक आपदा के अंतर्गत पर्यावरण संरक्षण के प्रयास स्टाकहोम (स्वीडन) 1972 से कोपनहेगेन (डेनमार्क) 2010 तक किए गए अनेक सुझाव शामिल हैं। भारत में बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, असम में बाढ़ का प्रकोप, जम्मु, हिमाचल में हिमस्खलन, राजस्थान में तूफान, गुजरात, महाराष्ट्र में भूकंप एवं समुद्री तूफान, गोवा, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र में टोरनेडो एवं लैला, ओडिशा, पश्चिम बंगाल में चक्रवात शामिल हैं। विगत समय में दक्षिण भारत में सुनामी, उत्तर भारत में बादल फटना, पश्चिमी भारत में टोरनेडो एवं लैला, पूर्वी भारत में चक्रवात, उत्तर-पूर्व में बाढ़ एवं अतिवृष्टि ने विनाश के अपने-अपने मंजर दिखा चुके हैं। प्राकृतिक आपदा की सचेतता की राह में मालदीव के राष्ट्राध्यक्ष ने सागर के अंदर, नेपाल के राष्ट्राध्यक्ष ने ग्लेशियर पर तथा बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार राजगीर की पहाड़ी पर बैठक कर एक अग्रणी भूमिका निभाई है। अतः प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य बनता है कि इस दिशा में कार्य करके एवं ठोस पहल करें। अंत में राष्ट्र कवि दिनकर की निम्न पंक्तियां हैं –

सच है विपत्ति जब आती है,
कायरों को ही दहलाती है,
सूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं, धीरज खोते।
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं।


डॉ. सी.वी. विश्वविद्यालय. कारगी रोड, कोटा, बिलासपुर-49113 (छ.ग.)

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