निजी कंपनियों के दबाव में बिकाऊ हुए प्राकृतिक संसाधन

23 May 2014
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सैडेड द्वारा कामेश्वर बहुगुणा की ली गई साक्षात्कार पर आधारित बातचीत।

आप अपना परिचय दीजिए?
मेरा जन्म चम्बा के पास साबुली गांव में हुआ। हमारे परिवार के अधिकतर लोग पौड़ी गढ़वाल के किंगसार गांव में रहे, मेरे दादाजी भी वहां रहते थे इसलिए मैंने बचपन के कुछ वर्ष उन्हीें के साथ बिताए। हमारा पुरोहितों का परिवार होने के कारण हमारे घर में पुरोहित के काम के साथ पूजा पाठ और धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन मनन भी होता था। हमारे दादाजी खूब अध्ययन-मनन करते थे इसलिए हमें उस सब का थोड़ा बहुत परिचय हुआ।

उन दिनों हम बच्चे थे जब ब्रिटिश गढ़वाल में कांग्रेस का आंदोलन चला करता था हम लोग कांग्रेस के नारे सुना करते थे। हम लोग कापियों के पन्ने फाड़कर झंडा बनाकर घुमाया करते थे। उन दिनों हमारे गांव में रामलीला होती थी स्वभाव से मेरा कंठ बहुत अच्छा था इसलिए मैं बहुत बढ़िया गाता था। महिलाएं मेरे मुंह से रामायण का पाठ सुनकर बहुत आनंद विभोर हो जाया करती थी। मैं रामलीला भी खेलता था और अक्सर वहां राम और लक्ष्मण का पाठ किया करता था एक बार संयोग से हमको रंग पोतकर और पूंछ लगाकर हनुमान बना दिया।

जब हमारी दादी को इस बात का पता चला तो वह हम पर बहुत बिगड़ी कि ब्राह्मण के बेटे को बंदर बना दिया और उसके साथ वह यह भी कहने लगी कि सत्यानाश हो इस गांधी का जिसने इस देश में ब्राह्मण और अब्राह्मण का भेद ही मिटा दिया। संयोग से मैंने गांधी का नाम पहली बार सुना था उसे सुनते ही मेरे मन में ये सवाल आया कि हनुमान और गांधी में क्या संबंध है?

मेरी दादी मुझे आधे ही पाठ में उठाकर ले आई और कहने लगी कि राम और लक्ष्मण का पाठ तो ठीक है लेकिन हनुमान बनाना बहुत गलत बात है। वो नीच योनि का था और हम तो ब्राह्मण हैं। वे कहने लगी कि कांग्रेस में ये जो गांधी नाम का नेता है वो सबसे यही कहता फिरता है कि सभी जातियों में कोई भेद नहीं होता, कोई ऊंच-नीच नहीं होती।

ये सब बातें मेरे दिमाग में जम गई। उसके कुछ दिनों बाद में अपने पिताजी के पास साबुली गांव में वापस आ गया। हमारी प्रारंभिक शिक्षा यहीं गांव में हुई। हम लोग ब्राह्मण थे और ब्राह्मण होते हुए भी हमारे गांव में भी पुराने रिवाज के अनुसार नवरात्र में भैसें काटने का रिवाज था। मुझे ये बात बिल्कुल समझ में नहीं आती थी कि भला ये कैसा रिवाज है, ये कैसे देवता हैं जो भैंसें कटवाते हैं।

उन भैसों को कटाने से पहले उन्हें खाना तो दिया जाता था लेकिन वो बहुत थोड़ा सा और जब वे उस खाने को खा रहे होते थे तो तब उनकी गर्दन पर तलवार से वार किया जाता था। जब वह भागता था तो लोग उसके पीछे तलवार लेकर भागते थे कोई उसकी टांग पर वार करता था तो कोई पीठ पर मारता था। इन दृश्यों को देखकर हमें लगा कि भला ऐसा भी कोई देवता हो सकता है? अगर कोई, ऐसा करता है तो उसके खिलाफ आवाज उठानी चाहिए लोगों में जागृति पैदा करनी चाहिए।

हमने बाल-सभा नाम से गांव में बच्चों का एक संगठन बनाया वो संगठन पशु बलि के खिलाफ आवाज उठाता था। उन दिनों वहां एक और प्रथा थी जब कोई भैंस नर बच्चा पैदा करे तो उस बच्चे को दूध ही नहीं दिया जाता था और पैदा होते ही उसको झाड़ी में फेंक देते थे। वो सब हमें अच्छा नहीं लगता था इसके लिए भी हमने बच्चों की एक छोटी पार्टी बनाई, वो बच्चे घरों-घरों में जाकर जासूसी का काम किया करते थे।

जब भी उन्हें पता चलता था कि गांव के किसी आदमी ने अपनी भैंस के नर बच्चे को फेंक दिया है वे तुरंत उसके पास पहुंचकरउसकी खबर लेने पहुंच जाते थे। एक बार की बात है एक बार एक बच्चा खेतों में शौच कर रहा था तभी अचानक, उसे टें-टें की आवाज सुनाई दी, वह यह सोचकर डर गया कि शायद भूत आया है। फिर वह अपने दो साथियों के साथ वहां गया तो पता चला कि किसी ने अपनी भैंस के बच्चे को वहां फेंक दिया है। जब उस भैंस का दूध निकालने का समय होता था उस समय उसके बच्चे को उसके सामने रख दिया गया, अपने बच्चे को देखकर भैंस बिगड़ गई और वो आदमी हमारे पीछे डंडा लेकर भागने लगा। हमने उससे कहा कि अगर तुमने दुबारा ऐसा किया तो हम बार-बार ऐसा ही करेंगे।

इसके बाद हमें चम्बा स्कूल में भर्ती होने का मौका मिला। उन दिनों चम्बा स्कूल नया-नया बना था, वह पहले प्राथमिक था तथा बाद में हाईस्कूल हो गया। उस समय वहां के राजा का लड़का हुआ जिसे टीका साहब कहकर पुकारा गया, तो टीका साहब के जन्म पर सारे राज्य में खुशियां मनाई गईं। स्कूल में कहा गया कि हर बच्चा आठ आने लाएगा जिस जमा पैसे से राजा साहब के बेटे की जन्म की खुशी में मिठाई बांटी जाएगी।

हमारे दिमाग में सहज रूप से एक सवाल खड़ा हुआ कि लड़का उनके घर में पैदा हुआ है और पैसे हमसे मांगे जा रहे हैं। बल्कि मिठाई तो स्वंय उन्हें खिलानी चाहिए जिनके घर में लड़का हुआ है और वे उल्टा हम से ही जुर्माना मांग रहे हैं। हमने इस बारे में कुछ लड़कों से बात चलाई और हमने पैसा न देना तय किया। इससे हमारे हैडमास्टर साहब बहुत नाराज हुए और उन्होंने पूछा कि ये सब किसने सिखाया है, हमने कहा कि ऐसा किसी ने भी नहीं सिखाया है बस, हमारे मन में ये बात आ गई कि लड़का तो उनका हुआ है और मिठाई हम खिलाएं ऐसा कैसे हो सकता है?

यह बात राज्य तक पहुंच गई, उन्होंने हैडमास्टर साहब को बहुत झिड़की लगाई उन्होंने तुरंत पिताजी के पास आदमी भेजकर हमारे पिताजी को बुलाकर डांट लगाई कि तुम्हारा लड़का बहुत बिगड़ गया है। संयोग से इसी चक्कर में हमारे इम्तहान हो गए और हम सजा से बच गए वरना वो तो हमें स्कूल से ही निकाल देते।

चम्बा में मौजूद एक दुकानदार को जैसे ही इस बात की खबर लगी कि हमारे पिताजी को दंड हो गया है वैसे, ही वो हमारे पास आए और हमें समझाने लगे कि देखो राजा के खिलाफ कुछ लोग विद्रोह कर रहे हैं। ये विद्रोह अर्थात झंडकी प्रजामंडली है तुम इसके चक्कर में मत आना। इस बहाने हमारे दिमाग में प्रजामंडल का नाम आया, प्रजामंडल के बारे में जानने की हमारी जिज्ञासा बढ़ी। बाद में जब हम आठवीं पास करने के बाद टिहरी पहुंचे तो प्रजामंडल के बारे में काफी बातें सुनने को मिली। वहां 1946 को प्रजामंडल का एक दफ्तर भी खुल गया था। जिससे हम सहज ही उन लोगों के संपर्क में आ गए।

इस तरह से प्रजामंडल के विद्यार्थियों का एक विंग खड़ा हो गया। उसमें मैं, और विद्यासागर नौटियाल तो मौजूद थे और हमारे साथ अन्य साथी भी थे। हम लोगों ने प्रजामंडल के आंदोलन में बहुत सक्रिय रूप से भाग लिया।

1947 में जब हिन्दुस्तान आजाद हो गया तो टिहरी राज्य को भी आजादी मिली। मुझे याद है उस समय टिहरी पर अवध बिहारी लाल नामक राजा का शासन था। देश की आजादी के मौके पर टिहरी के चना खेत के बड़े मैदान में एक सभा हुई जिसमें उन्होंने तिरंगा फहराया, उन्होंने अपने भाषण में कहा कि अंग्रेज चले गए हैं और राज्य स्वतंत्र हो गया है। राज्य स्वतंत्र होने के पीछे उनका मंतव्य बाद में समझ में आया।

अंग्रेजों ने राजाओं के एक संगठन नरेन्द्र मंडल को यह कहा कि आने वाले 15 अगस्त से आप आजाद हैं, आप चाहें तो आप भारत या पाकिस्तान में से किसी भी देश में रह सकते हैं और जब टिहरी के प्रधानमंत्री ने कहा कि अब हम भी स्वतंत्र हैं तो मैं समझ गया कि अब ये लोग टिहरी को अलग राज्य बनाने वाले हैं।

टिहरी प्रजामंडल के एक नेता थे पूर्णानन्द पैन्यूली वे टिहरी जेल से अन्डर ग्राउन्ड होकर ऐसे भाग गए जैसे जे.पी. जी हजारीबाग से दीवार फांदकर भागे थे। वे देहरादून में काम करते थे जोकि ब्रिटिश शासन का हिस्सा था। उस दिन उन्होंने राजा को कह दिया कि अब तो हम आजाद हैं, हमारा घर और शहर टिहरी है इसलिए मैं, टिहरी में आ रहा हूं। रास्ते में उन्हें नरेन्द्र नगर में पकड़ लिया गया।

जैसे ही लोगों केा पता चला के प्रजामंडल के अध्यक्ष आ रहे हैं वो उनके स्वागत में सब लोग जुलूस बनाकर मोटर अड्डे पर पहुंचे तो पता चला कि उन्हें पकड़ लिया गया है। फिर क्या था स्वागत का वह जुलूस विरोध का जुलूस बन गया। उनकी गिरफ्तारी के विरोध में बाजार बंद हो गए और हड़ताल हो गई। अगले ही दिन 16 अगस्त को टिहरी में सत्याग्रह हुआ। मैं भी उसी सत्याग्रह में शमिल हो गया।

राजा ने भी प्रजामंडल के खिलाफ प्रजा परिषद नाम की एक पार्टी बनाई थी। हम अपने इस विरोध प्रदर्शन के दौरान प्रजा परिषद के एक सदस्य की दुकान में विरोध स्वरूप लेट गए। मैं, और विद्यासागर का बड़ा भाई बुद्धि सागर नौटियाल नीचे लेटे हुए थे। लेटे-लेटे एक मजेदार किस्सा हुआ।

ऊपर से वर्षा आ रही थी और नीचे से घेराव जारी था ऐसे में गोली चल पड़ी। उस गोली में नागेन्द्र सकलानी और मोलू सिंह भण्डारी नामक दो आदमी शहीद हो गए। इस घटना ने एक जबरदस्त चिंगारी का काम किया। वहां से प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं ने दोनों शवों को कंधे पर उठाकर कीर्तिनगर से टिहरी तक लगभग 40 मील का लंबा जुलूस निकाला, वो जुलूस 11 जनवरी से चलकर 14 जनवरी तक टिहरी पहुंचा। वो जुलूस अहिंसक राजनीति का एक अद्भुत नजारा था।

टिहरी पर उनका कब्जा हो गया। उस समय गंगा जी पर आने-जाने के लिए एक पुल पर फाटक हुआ करता था, प्रजामंडल के लोगों ने सबसे पहले फाटक बंद कर दिया। इससे कोई भी आदमी टिहरी से नहीं आ सकता था हमने, हमारे इन्टर काॅलेज के प्रिंसिपल, पुलिस के कोतवाल, जेलर और मिलिट्री के कुछ बड़े अफसरों सहित कुल 5-7 अफसरों को अपने-अपने घरों में पकड़ लिया और ये बात फैला दी कि उन सब लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है।

प्रजामंडल के इस सत्याग्रह आंदोलन के नेता दौलतराम थे, हम उनको दादा दौलतराम कहते थे। उनके नेतृत्व में प्रजामंडल की अस्थायी सरकार का गठन हुआ, दादा दौलतराम प्रधानमंत्री नियुक्त हुए। महाराजा साहब टिहरी जाना चाहते थे लेकिन उन्हें फाटक का दरवाजा बंद मिला और उन्हें अंदर नहीं घुसने दिया गया जिससे वे वापस चले गए। उन्होंने नरेन्द्र नगर जाकर भारत सरकार तथा पन्त जी को कहा कि टिहरी में कम्यूनिस्टों का कब्जा हो गया है, यहां पर क्रांति हो जाएगी, यह सीमा का राज्य है इसलिए तुरंत हमारी मदद की जाए। इसके परिणामस्वरूप भारत सरकार फौज की एक टुकड़ी और पन्त जी का एक प्रशासक दूसरे-तीसरे दिन वहां पहुंच गया। इस प्रकार प्रजामंडल की अस्थाई सरकार केवल 5-6 दिन तक ही रह पाई।

उसके बाद टिहरी पर भारत सरकार का सीधा हस्तक्षेप हुआ और उत्तर प्रदेश शासन के एक प्रशासक ज्योति प्रसाद जी के साथ प्रशासन में उनकी मदद के लिए प्रजामंडल के बीच से ही चार लोगों को नियुक्त कर लिया गया। चुनाव कराए गए टिहरी विधानसभा में कुल 30 सीटें थी। इन 30 सीटों में से 23 सीटों पर प्रजामंडल की जीत हुई तथा बाकी की 7 सीटों पर राजा की प्रजा पार्टी जीती। इस प्रकार प्रजामंडल की सरकार बन गई।

इसके बाद हम टिहरी में आकर कक्षा 9 में पढ़ने लगे। इस तरह से छात्रावास की नींव पड़ी, 1951 में हमने 12वीं की कक्षा टिहरी से पास की। 1951 को विनोबा जी सहारनपुर होते हुए देहरादून के चोरपुर नामक जगह पर पहुंचे जिसे आज विकास नगर नाम से जाना जाता है। उस समय जो दृश्य मैंने देखा वो आज भी मेरी आंखों में जीवंत है। लगभग एक किलोमीटर लंबा जुलूस, निकाला गया जिसमें विनोबा जी के साथ घुटने तक की धोती तथा चप्पल पहने हुए हजारों लोग चल रहे थे। मैं भी उनके साथ था, उस रात में कालसी आश्रम में था।

मैं, उनके साथ एक-दो दिन रहा जो मुझे इतना अच्छा लगा कि मैं, अपनी परीक्षा के बारे में ही भूल गया।

जिस दौरान भूदान और ग्रामदान का आन्दोलन चल रहा था उस समय सरला बहन कौसानी में काम कर रही थी। उसके बाद सर्वोदय का एक पूरा समूह तैयार हो गया था। ये समूह मुख्य रूप से किस बात पर काम कर रहा था और पहाड़ और उत्तराखंड को लेकर उसका क्या सपना था?
भूदान आंदोलन के दौरान विनोबा जी ने यात्रा की, मैं उस यात्रा के दौरान 10-15 दिन तक उनके साथ रहा। मैंने उनकी बातों को बहुत विस्तार से सुनने और समझने के बाद मुझे यह लगा कि उनका आंदोलन भूमि के बंटवारे का आंदोलन नहीं था। उन्होंने बार-बार कहा कि भारत की गरीबी तथा लोकतंत्र की मूल समस्या भूमि है और इसे हल किए बगैर देश के लिए कोई भी योजना नहीं बनाई जा सकती। इसीलिए उन्होंने भूदान आंदोलन चलाया।

उनकी ये सब बातें मुझे अच्छी लगी इसलिए हम भी विनोबा जी के साथ-साथ चल पड़े। लेकिन हमारे साथियों ने कहा कि पहाड़ में तो जमीन है ही नहीं, यहां तो जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े हैं और ये और भी छोटे हो जाएंगे। मैंने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की और कहा कि विनोबा जी जमीन के टुकड़े नहीं कर रहे हैं। बल्कि वो तो कहते हैं कि यहां के लोगों के दिलों के टुकड़े हो गए हैं और वे उन्हें जोड़ रहे हैं। लेकिन ये बात उनकी समझ में नहीं आई। जब मैंने देखा कि ये लोग विरोध कर रहे हैं तो मैं तुरंत सरला बेन के पास पहुंचा। वहां के आश्रम में मेरी पत्नी भी पढ़ती थी। मैंने सरला बहन से कहा कि बहन जी, सुंदर लाल तथा मेरे अन्य संगी-साथी भी इस बात का विरोध कर रहे हैं।

उन्होंने कहा तुम उनकी चिन्ता मत करो, वो काम एक अच्छा काम है और ये पहाड़ में रचनात्मक काम करने का एक अच्छा माध्यम बन सकता है। तुम इस काम को शुरू करो मैं, तुम्हारा साथ दूंगी। बहन जी ने कहा कि कोटद्वार के मान सिंह जी के विचार भी आप ही की तरह हैं। जब हमारा उनसे परिचय हुआ तो सरला बहन, मान सिंह तथा मैंने मिलकर भूदान का कार्यक्रम शुरू करने की इच्छा जाहिर की।

हमने कर्ण भाई के माध्यम से उत्तर प्रदेश में एक तदर्थ कमेटी बना दी, भूदान कमेटी, और उसका सेकेट्री मुझे बना दिया गया। उस नाते हमने सरला बहन के सहयोग से फिर पदयात्रायें करना शुरू किया और भूदान का कार्य शुरू हुआ। भूदान यात्रा के दौरान टिहरी में ही 1100 नाली जमीन भूदान में मिली। इस दौरान सरला बहन, शंकर दत्त डोभाल तथा मैंने कुछ यात्राएं की। हालांकि हमारे दूसरे साथी काम में बाधा डालते रहे लेकिन फिर भी हमने अपनी यात्राएं जारी रखी।

आपको क्या लगता है कि पहाड़ में सरला बहन के समूहों, ग्रामदान, भूदान या चिपको आंदोलनों ने उत्तराखंड में लोकतंत्र तथा लोगों की ताकत को कैसे तथा कितना प्रभावित किया है।
हमने गांव-गांव जाकर नाटकों, संगीत, लोकनृत्यों और बैठकों के माध्यम से दहेज, छूआछूत, भूदान और ग्रामदान के खिलाफ विचार तथा प्रचार किए। इस काम में सरला बहन ने भी हमारी काफी मदद की। हमने इसमें कई साल लगाए इसलिए उस जमाने में लोक चेतना जागृत करने में भूदान-ग्रामदान के पहाड़ी लोक गीत घर-घर में फैल गए। मुझे अच्छी तरह याद है उस समय सुमन जी के सहादत तथा ग्रामदान-भूदान के गीत खूब गाए जाते थे। हमलोग तो इन्हें गाते ही थे इसके अलावा इसके माध्यम से गांव-गांव तथा घर-घर में कवि पैदा हो गए।

इस प्रकार इस आंदोलन के द्वारा गांवों में एकता स्थापित हुई। छुआछूत तथा कन्याओं को न पढ़ाने की प्रवृति तथा दहेज प्रथा जैसी सामाजिक समस्याओं को विरोध होना शुरू हुआ। सचमुच में इससे ऐसी लोक जागृति पैदा हुई कि इससे चिपको आंदोलन तक की शुरूआत हो गई। पहाड़ में पनपा चिपको आंदोलन सरला तथा मीरा बहन का भी क्षेत्र रहा है। मीरा बहन ने शुरू से ही पर्यावरण संरक्षण का विचार दिया। वे बापू राज पत्रिका नाम की एक छोटी सी पत्रिका निकालती थी जिसमें वे लिखती थी कि पहाड़ में मौजूद शंकुधारी वृक्ष, पहाड़ के खिलाफ हैं वे यूकेलिप्टस को भी खराब मानती थी तथा बांझ को बुरांस को उपयुक्त माना करती थी।

वे चाहती थी कि यहां जल और मिट्टी को पकड़े रहने वाले सदाबहार और मोटी पत्ती वाले वृक्ष अधिक से अधिक संख्या में लगाए जाने चाहिए। वे मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए चीड़ और देवदार के पेड़ों को अच्छा मानती थी। वे इस तरह के पहले से लगाए गए वृक्षों को कटवाने के पक्ष में तो नहीं थी पर वे चाहती थीं कि इस तरह के वृक्षों को लगाने की बजाय ऐसे वृक्ष लगाएं जिनकी जड़े जालनुमा हो, वो मिट्टी को ज्यादा मजबूती से पकड़ सकें तथा उनमें ज्यादा नहीं हो।

इस तरह के विचार मीरा बहन के जमाने से ही चल रहे थे और हमारे कैंप फायर के दौरान सरला बहन भी लड़कियों को यही बातें मानने की सलाह देती थी। उन दिनों कैंप फायरों के माध्यम से ग्रामदान, भूदान की बातों का विचार भी खूब प्रसारित हुआ।

आगे चलकर रोजगार के विषय में बातचीत हुई कि वहां ठेकेदारों के बजाए स्थानीय लोगों को रोजगार मिलना चाहिए। हमने श्रमिकों की सहकारी समिति बनाने का आंदोलन शुरू किया। उन श्रमिक सहकारी समितियों का उद्देश्य था कि हमें ठेकेदारों से बात करने की बजाए सरकार से बात करनी चाहिए कि यह श्रमिकों की सहकारी संस्था है इसलिए यह काम इन्हीें को दिया जाए, छोटे-छोटे उद्योग, आरा मशीन लगाने तथा लीसा निकालने का काम भी इन्हीं लोगों को दिया जाना चाहिए।

हालांकि वो उद्देश्य पूरा नहीं हुआ और इस काम के लिए जो श्रमिक समितियां बनी, इस बारे में हम लोग असावधान रहे और अन्य लोग पिछले दरवाजे से घुस गए। और अंत में ये हुआ कि श्रमिक समितियां ही ठेकेदार बन बैठी। वो सरकार से काम लेते थे और खुद करने की बजाए ठेकेदारों को देकर अपना कमीशन खाकर चुप-चाप बैठ जाते थे। इससे विकृति आनी शुरू हुई और उसके परिणामस्वरूप वहां कई आंदोलन सक्रिय होते चले गए। इन्हीं आंदोलनों में से एक चिपको आंदोलन था।

जिस तरह से किसी को गले लगाते हैं, जिसे पहाड़ में ’अंगवाल’ कहकर पुकारा जाता है वैसे ही वहां की महिलाओं ने पेड़ों पर अंगवाल लगाई अर्थात उन्हें कटने से बचाने के लिए उनसे चिपक गई, जब गौरा देवी ने भी यही काम किया तो यह संदेश दूर तक गया, इस आंदोलन को समझते हुए सुंदर लाल ने इसका नाम चिपको आंदोलन रखा जो आज भी काफी प्रसिद्ध है।

आपको नहीं लगता कि चिपको आंदोलन ने न केवल उत्तराखंड के जंगलों को कटने से बचाने बल्कि आम उत्तराखंडी में प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की भावना को पहले की अपेक्षा बढ़ा दिया है?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस आंदोलन ने पेड़-पौधों को वहां के लोगों के जीवन का एक अभिन्न हिस्से के रूप में स्थापित कर दिया है। दूसरा फायदा इससे यह हुआ कि अब महिलाएं ज्यादा जागृत हो गई हैं। घास तथा लकड़ी की कमी का सबसे ज्यादा नुकसान उन्हें को होता था इसलिए उन्होंने अपनी इस समस्या का हल तुरंत निकाल लिया, उन्हें समझ में आ गया कि यदि हमारे घर-आंगन का पेड़ जिंदा रहेगा तो हमें लकडि़यों के लिए दूर नहीं जाना पड़ेगा। इससे महिलाओं ने अपनी समस्याओं को हल होते हुए देखा इसलिए वे उसकी और आकर्षित हुई।

महिलाओं ने सर्वोदय की संस्थाओं की जगह महिला मंडल बनाए और महिला मंडलों का काम था वृक्ष लगाना और उनकी हिफाजत करना। और कई जगह उन्होंने इसका काम अपने हाथ में ले लिया उन्होंने तय किया कि तुम यहां की घास नहीं काटोगे, पशुओं को ज्यादा देर तक नहीं चरने दिया जाएगा यहां तक कि महिला मंडलों ने वन प्रबंधन का काम भी अपने हाथ में ले लिया। और यह काम आज की तरह बिछे संस्थाओं के जाल से नहीं आता था बल्कि अवैतनिक रूप से होता था।

यह सब स्वैच्छिक काम था। गांव की महिलाएं अपने घर तथा खेतों का सारा काम करने के बाद यह काम किया करती थी। इसमें जितना भी पैसा आया वो महिला सामाख्या आंदोलनों के द्वारा एकत्र किया गया। शुरू-शुरू में इस महिला सामाख्या का रानीचैरी में विरोध हुआ इसमें बिहारी लाल जैसे लोग भी शामिल थे। हमने उन्हें समझाते हुए कहा कि इससे महिला संगठनों को थोड़ी मदद मिल जाएगी। मैंने कहा कि ये तो परखने की बात है, हमें इनकी विरोध करने की बजाए इनको परखना चाहिए। तो इस तरह से महिला सामाख्या का काम शुरू हुआ।

लेकिन इसको लागू करने में हुई कुछ गलतियों के कारण जिस गांव में महिला मंडल थे उस गांव में महिला सामाख्या की वैतनिक कार्यकर्ता भी खड़ी हो गई। जिससे महिलाओं में विरोध पैदा हो गया, कुछ कहने लगी कि इनको वेतन क्यों मिल रहा है? हम लोग तो मुफ्त में काम कर रहे हैं और ये लोग पैसा देकर काम कर रहे हैं जबकि उनकी अपेक्षा हम लोग अधिक काम कर रहे हैं और अच्छा भी कर रहे हैं।

गांव में इस तरह का भाव पैदा होने से वैमनस्य की भावना पैदा हो गई। जिससे परिणामस्वरूप इसके समांतर कई महिला संगठन खड़े हो गए। लेकिन फिर भी इस सबके बावजूद भी इन संगठनों के माध्यम से वनों के संरक्षण की बात, मनुष्य के जीवन में वनों तथा जंगलों के संरक्षण की बात, चिपको के माध्यम से ही शुरू हुई। इसने लोक मानस में बहुत गहरा असर डाला।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन पूरे दो या तीन दशक तक चला, ऐसे में राज्य की मूल भावना या राज्य की मूल मांग को आप किस रूप में देखते हैं?
उत्तराखंड राज्य आंदोलन में मूल रूप से अपनी अस्मिता की रक्षा की मांग की गई थी। आप देखेंगे कि वहां के अधिकतर क्षेत्रों तथा अधिकतर रोजगारों में वहां के लोगों की अपेक्षा बाहरी लोगों का हस्तक्षेप ज्यादा है। वे मैदानी तथा अन्य इलाकों से वहां आकर, वहां के सब संसाधनों तथा रोजगारों पर कब्जा जमा लेते हैं, वे वहां के खेतों, कारखानों, के मालिक बन जाते हैं और जो लोग वहां सैकड़ों सालों से रह रहे हैं वे बेचारे मजदूर बनकर रह रहे हैं या फिर उजड़ गए हैं तो इस बात को लेकर सभी स्थानों की तरह पहाड़ में भी पीड़ा होना लाजमी है। इसीलिए पृथक राज्य की मांग तो 51 से ही उठ रही थी और ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह एक अलग राज्य था। यहां कुलन्द राज्य के नाम से कई सौ साल तक राज रहा और यहां कई राजाओं ने राज किया। उसके बाद ब्रिटिश सरकार ने टिहरी के हिस्से को छोड़कर समस्त कुमाऊं-गढ़वाल पर कई साल तक ब्रिटिश सरकार ने राज किया।

50-51 में कुमाऊं में सी.पी.आई. के पूरनचंद्र जोशी ने भी पृथक राज्य की बात उठाई थी लेकिन उसका रूप अलग था। वो चाहते थे कि इस हिस्से पर राजनैतिक लोगों अर्थात हमारा स्वंय का बर्चस्व रहे। लेकिन इस समय पृथक राज्य की मांग उपेक्षा की पीड़ा के कारण उठी थी।

पढ़े-लिखे लोगों के मन में ये बात घर कर गई थी कि हमारी संस्कृति, भाषा और रीति-रिवाज धीरे-धीरे नष्ट होते जा रहे हैं उनके साथ-साथ हमारे कार्यकर्ता खासकर सर्वोदय विचार को मानने वाले भी यही मानते थे कि भारतीय संस्कृति पर हिमालय का बहुत बड़ा योगदान है और उसका प्रबंध मैदानी भागों की तरह नहीं हो सकता है इसलिए हम चाहते थे कि हिमालयी क्षेत्र और उसके प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा तथा उसके बारे में निर्णय लेने का अधिकार वहां की स्थानीय जनता के हाथ में होनी चाहिए। इस प्रकार पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे वहां की लोक संस्कृति, लोक चेतना, लोक संगठन और लोगों की जीविका की सुरक्षा की मांगें थी। हम वहां मैदानी इलाकों की अपेक्षा भिन्न तरीके की विकास नीति की मांग कर रहे थे।

आज के दौर में विश्व बैंक और निजी कंपनियों के दबाव के कारण प्राकृतिक संसाधनों की बिक्री होती जा रही है। फलिंडा तथा अन्य जंगलों पर यह साफ दिखाई दे रहा है। वहां के जंगलों, पानी, नदियों तथा मिट्टी तक का सौदा हो रहा है। ऐसी स्थिति में आप वहां की प्रकृति तथा पारिस्थितिकी पर साधारण जनता के अधिकारों के बारे में क्या सोचते हैं?
मुझे लगता है कि यहां एक वैकल्पिक राजनैतिक आंदोलन शुरू होना चाहिए जिसे मैं, ग्राम स्वराज आंदोलन के नाम से पुकारता हूं। हम चाहते हैं कि भविष्य में होने वाले ग्राम पंचायत, विद्यान सभा तथा संसद के चुनावों के दौरान स्थानीय जनता को किसी भी पार्टी या उम्मीदवार की बातों में फंसे बिना अपनी बुद्धि तथा विवेक से ही वोट देना चाहिए और उनकी ये कोशिश होनी चाहिए कि कम से कम 40 विद्वान सभा क्षेत्रों में जनता के वो प्रतिनिधि चुनकर आएं जो आम जन से जुड़े विषयों जैसे शराब का विरोध, जल, जंगल और जमीन पर साधारण जनता के अधिकार जैसे विषयों पर सहमत हों।

आज वहां की स्थानीय जनता को कई राजनैतिक पार्टियों तथा अनेक संस्थाओं के संगठनों ने आपस में बांटा हुआ है। वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर जंगलात विभाग का अपना अलग दखल है, स्वजल के नाम से विश्व बैंक का अलग दखल है, ग्राम पंचायतें भी भाजपा, कांग्रेस और सरे-तीसरे दलों में बंटकर खंडित होती जा रही है।

आज हम ग्राम एकता को मजबूत करने के पक्ष में हैं। हम चाहते हैं कि ग्राम एकता को दलीय आधार पर विभाजित न किया जाए। इसके लिए गांव के मतदाता को जागृत और संगठित करना होगा। आज पृथक राज्य बने हुए 4 साल हो चुके हैं लेकिन उसके बावजूद भी आज तक हमारी एक बड़ी ताकत नहीं बन पाई है।

आज किसी भी संस्था या संगठन के नाम पर जितने भी काम हो रहे हैं उनमें हमारी ताकत नहीं बन पाई है। ऐसा भी न हो कि एक पार्टी के बदले ऐसी दूसरी पार्टी खड़ी कर दी जाए जो कि पहली वाली पार्टी की तरह ही हो। हमें पार्टी को नकार कर जन शक्ति पैदा करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि मैं, मानता हूं कि पार्टी और जनशक्ति में विरोधाभास होता है, पार्टी जनशक्ति को तोड़ती है इसलिए जन शक्ति बनाने के लिए व्यापक जन संघर्ष करना होगा। इसके लिए कुछ लोागों को अपना सब कुछ भी न्यौछावर करना पड़ सकता है। साधारण जनता को भी अपनी बौद्धिक दृष्टि से सोचना होगा तभी पहाड़ का तथा देश का भला हो सकता है।

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