निजीकरण का नमूना बना बिजली क्षेत्र

पानी व बिजली क्षेत्र की समानताओं के कारण यह स्वाभाविक है कि पानी का निजीकरण भी बिजली की तर्ज पर किया जा रहा है। दरअसल बिजली क्षेत्र को दी गई बहुत सी रियायतें पानी क्षेत्र के निजीकरण पैकेज का भी हिस्सा है। इनमें न्यूनतम सुनिश्चित मुनाफा, सरकार या अन्य सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं द्वारा भुगतान की गारंटी, ‘पानी लो या पैसे चुकाओ’ अनुच्छेद, किसी इलाके में आपूर्ति करने का एकाधिकार, विदेशी मुद्रा विनिमय दर में उतार-चढ़ाव से हिफाजत आदि शामिल हैं। बिजली व पानी के क्षेत्रों में कई समानताएं हैं। पानी व बिजली, दोनों ही विकास की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाते हैं। पानी एक जैविक जरूरत भी है। इस कारण लंबे समय से बिजली व पानी का इंतजाम समुदाय व सरकार की सामाजिक व नैतिक जिम्मेदारी माना जाता रहा है। ऐसा ही भारत में भी है: चूंकि भारत में आमदनी और संसाधनों के बँटवारे में भारी गैर बराबरी है, इसलिए हमारे यहां आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो पानी व बिजली की न्यूनतम जरूरी आपूर्ति की कीमत भी नहीं चुका सकता। इसलिए ये सेवाएं कम दरों पर मिलना जरूरी हैं। यही वजह है कि दोनों ही सेवाएं अब तक सार्वजनिक क्षेत्र में थीं और दोनों में सब्सिडी भी मिलती रही है। बड़े पैमाने के निवेश और विशाल वितरण की वजह से दोनों ही क्षेत्र अब तक स्वाभाविक एकाधिकार के क्षेत्र माने जाते थे। भारत में इन दोनों ही संसाधनों के बँटवारे में और इन तक लोगों की पहुंच में भारी गैर-बराबरी है। जहां आबादी का बड़ा हिस्सा पानी व बिजली के न्यूनतम इंतजाम से भी वंचित है, वहीं चंद दौलतमंद लोग बड़ी मात्रा में इनका उपभोग करते हैं।

पानी क्षेत्र के निजीकरण के लिए भी वही बहाने बनाए जाते हैं, जो बिजली क्षेत्र के लिए बनाए जाते हैं - सरकार के पास संसाधनों की कमी का रोना, लागत से कम मूल्य पर आपूर्ति के कारण अंदरूनी संसाधनों की कमी और सार्वजनिक क्षेत्र का निकम्मापन तथा भ्रष्टाचार।

इसलिए बिजली क्षेत्र के निजीकरण के अनुभव से हमें पानी क्षेत्र के बारे में काफी कुछ पता चल सकता है।

भारत में बिजली क्षेत्र के निजीकरण के सबक


भारत में बिजली क्षेत्र का निजीकरण 1991 में शुरू हुआ था। करीब 90 हजार मेगावॉट की नई क्षमता लगाने के लिए बड़े गाजे-बाजे के साथ निजी कंपनियों के साथ अनुबंधों पर दस्तखत किए गए थे। इनमें से ज्यादातर कंपनियां विदेशी थीं और यह सब बेवजह की हड़बड़ी और पूर्ण गोपनीयता के साथ किया गया। जनता के बीच कोई बहस भी नहीं चलाई गई। भय का एक माहौल बनाते हुए कुछ ऐसी तस्वीर पेश की गई कि तेज बढ़ती मांग आपूर्ति को बहुत पीछे छोड़ देगी और बिजली गुल होने से अगले सालों में जनजीवन और अर्थव्यवस्था में अफरा-तफरी फैल जाएगी। इस दहशत का इस्तेमाल बहस को दबाने और जल्दबाजी को जायज ठहराने के लिए किया गया।

निजीकरण को सही ठहराने के लिए कहा जाता है कि ‘मांग व आपूर्ति की इस खाई’ को भरने के लिए भारी निवेश की जरूरत है। सरकार भयानक वित्तीय संकट का सामना कर रही है और बिजली क्षेत्र में लगाने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। एक और तर्क यह दिया जाता है कि किसानों व दूसरे तबकों को बिजली हास्यास्पद रूप से लागत से काफी कम मूल्य पर दी जा रही है, इस कारण से बिजली क्षेत्र बड़े घाटे का सामना कर रहा है और निवेशों के लिए अंदरूनी संसाधन नहीं हैं।

यह तर्क भी दिया जाता है कि सार्वजनिक क्षेत्र नाकारा है, आधुनिक तकनीक के मामले में ठन-ठन गोपाल है, बदइंतजामी का शिकार है, प्रबंध कौशल में घटिया है और भ्रष्ट है। यदि परिणाम इतने भयानक न होते तो शायद यह बात एक अच्छा लतीफा होती कि सरकारें अपने ही निकम्मेपन और भ्रष्टाचार को निजीकरण के बहाने के रूप में पेश कर रही हैं।

कहा गया कि अगर निजी कंपनियां आ गईं तो ये सारी समस्याएं छू-मंतर हो जाएंगी। सरकार ने साष्टांग दण्डवत किया और निजी कंपनियों को रिझाने के लिए बहुत सी रियायतों की घोषणा की:

i. 4:1 का उदार कर्ज अंश पूंजी अनुपात- इसका मतलब है कि परियोजना के कुल खर्चे में से कंपनी को अपनी तरफ से सिर्फ 20 प्रतिशत लगाना होगा-बाकी वह बैंकों व वित्तीय संस्थाओं से उधार ले सकती है और उसका ब्याज उपभोक्ताओं से वसूला जाएगा।

ii. लागत से ऊपर गणनाएं- बिक्री की दरें इस हिसाब से तय की जाएंगी कि कंपनी को पूरी लागत (कर्ज अदायगी की लागत, ब्याज वगैरह समेत) वापस मिले और मुनाफा उसके ऊपर हो। इस सबसे कुल लागत में तेजी से इजाफा होता है।

iii. अंश पूंजी पर 16 प्रतिशत की सुनिश्चित मुनाफा दर और फिर बोनस। इससे वास्तविक मुनाफा दर बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।

iv. बिजली खरीद की गारंटी। यानी किसी समय बिजली चाहिए हो या नहीं और इस कंपनी की दरें सस्ती हों या नहीं, सरकार कंपनी से एक न्यूनतम मात्रा में बिजली खरीदने को बाध्य होगी। यह मात्रा न खरीदी जाए, तब भी उसके लिए पैसा चुकाना होगा। यह बिजली खरीद समझौते के ‘बिजली लो या पैसे चुकाओ’ अनुच्छेद में अंकित है।

v. बिजली दरें डॉलर की विनिमय दरों से जोड़ी गई, ताकि कंपनी मुनाफे को अपने मूल देश भेज सके और विदेशी कर्ज का भुगतान डॉलर में कर सके। इसका मतलब यह है कि डॉलर की विनिमय दर में उतार-चढ़ाव का बोझ उपभोक्ता वहन करेंगे। यह भी हो सकता है कि बिजली उत्पादन की लागत न बढ़े मगर डॉलर की विनिमय दरों में थोड़े हेर-फेर के कारण बिजली दरें बढ़ जाएं।

vi. पनबिजली परियोजनाओं के मामले में, जल संबंधी जोखिम सरकार को उठाने होंगे (मसलन किसी साल नदी में पर्याप्त पानी नहीं आया) और इस कारण से बिजली पैदा न होने की सूरत में भी निर्धारित न्यूनतम भुगतान करना होगा।

vii. अनुबंध व बिजली खरीद समझौते खुली निविदाओं की बजाय सौदेबाजी के जरिए किए गए। नतीजतन कई संदेहास्पद सौदे हुए। बहुत सी परियोजनाएं भ्रष्टाचार और कदाचार के आरोपों के चलते विवादों का केंद्र बनी।

viii. निजी कंपनियों को भुगतान सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार की गारंटी, केंद्र सरकार की संप्रभु प्रति-गारंटी दी गई या फिर सशर्त अनुबंध खातों (एस्क्रो अकाउंट) की व्यवस्था की गई।

आज 12 साल बीत गए हैं और यह साफ हो गया है कि बिजली का निजीकरण एक बचकाना कदम था, जो विस्तृत व गहरी छानबीन किए बिना, दिमाग लगाए बिना और कोई सुविचारित रणनीति बनाए बिना उठाया गया था और आशंकाओं के अनुरूप यह औंधे मुंह गिरा। निजी क्षेत्र की क्षमताओं और सामर्थ्य के बारे में किए गए ऊंचे-ऊंचे दावों की पोल भी खुल गई।

बहुत सी परियोजनाएं तो शुरू ही नहीं हो सकीं। जो हुई थीं, उनमें से कुछ ही पूरी हो पाई और बाकी धीरे-धीरे घिसट रही हैं। बहुत सी विदेशी कंपनियां मैदान छोड़ गई। ज्यादातर परियोजनाएं अपने दावों के विपरीत वित्त जुटाने में नाकाम रहीं। इसके चलते उस सरकारी आदेश में संशोधन किया गया, जिसके अनुसार कंपनियां परियोजना लागत के एक निश्चित हिस्से से ज्यादा धन सार्वजनिक निधियों से नहीं ले सकती थीं। जो परियोजनाएं पूरी हो पाई, वे बहुत ऊंची लागत पर बिजली बना रही हैं। एनरॉन सबसे जाना-माना उदाहरण है - इसे बिजली की लागत बहुत ज्यादा होने के चलते बंद कर दिया गया (एनरॉन सबसे बड़ी परियोजनाओं में से एक थी)। वितरण के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली कंपनियां भी अपने बढ़े-चढ़े दावों को पूरा करने बूरी तरह से नाकाम रही हैं। न तो वे बिजली तक पहुंच बढ़ा पाई, न वसूली बढ़ा पाईं और न ही संचारण या वितरण के दौरान होने वाले नुकसान पर काबू कर सकीं। अलबत्ता बिजली दरों ने जरूर छलांगे लगाई।

पानी व बिजली क्षेत्र की समानताओं के कारण यह स्वाभाविक है कि पानी का निजीकरण भी बिजली की तर्ज पर किया जा रहा है। दरअसल बिजली क्षेत्र को दी गई बहुत सी रियायतें पानी क्षेत्र के निजीकरण पैकेज का भी हिस्सा है। इनमें न्यूनतम सुनिश्चित मुनाफा, सरकार या अन्य सार्वजनिक वित्तीय संस्थाओं द्वारा भुगतान की गारंटी, ‘पानी लो या पैसे चुकाओ’ अनुच्छेद, किसी इलाके में आपूर्ति करने का एकाधिकार, विदेशी मुद्रा विनिमय दर में उतार-चढ़ाव से हिफाजत आदि शामिल हैं।

जल क्षेत्र के निजीकरण से उपजी समस्याएं व मुद्दे भी वैसे ही हैं क्योंकि बिजली क्षेत्र के निजीकरण की समस्याएं व नतीजे दरअसल निजीकरण की प्रक्रिया से ही जुड़े हुए हैं। वे निजीकरण में निहित हैं। आगे हम यही चर्चा करेंगे कि ऐसा क्यों है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading