निरंतर जारी खोज

24 Jul 2010
0 mins read

करीब 6000 वर्ष पहले मानव ने सामूहिक तौर पर बसना शुरू किया और पानी के साथ दोहरी लड़ाई शुरू हो गई। एक ओर लोगों को बाढ़ से बचना था, तो दूसरी ओर उन्हें घरेलू उपयोग और सिंचाई के लिए सुरक्षित जल आपूर्ति की जरूरत थी। परिणामतः मानव जाति की शुरुआती तकनीकी उपलब्धियों में जल से जुड़ी तकनीक को गिना जा सकता है।

प्रथम नगरों के निर्माण के साथ कुंड में पानी जमा करने की तकनीक शुरू हो गई थी। प्राचीनतम कुंड फिलस्तीन और यूनान में पाए गए हैं। इन कुंडों में छतों से गिरने वाले पथरीले रास्तों से बहने वाले पानी को जमा किया जाता था। कुछ में जमीन की सतहों में बहने वाले पानी को जमा किया जाता था। प्राचीन कुंड चट्टान को काटकर बनाए जाते थे। चिनाई वाले कुंड बाद में बनने शुरू हुए 2000 ई.पू. से कुंडों में गारे का प्रयोग शुरू हुआ। प्रथम शताब्दी के मध्य से 75,000 घनमीटर जितनी क्षमता वाले बंद कुंडों का निर्माण शुरू हो गया और बांध निर्माण के सभी बुनियादी तत्वों का पता लग चुका था।

विशाल जलागार के लिए बांध का निर्माण सबसे पहले 3000 ई.पू. में जावा (जार्डेन) और 2600 ई.पू. में वाडी गरावी (मिस्र) में हुआ था। संभव है, मगर इस बात के प्रमाण नगण्य हैं कि बांध निर्माण की तकनीक किसी खास जगह विकसित हुई और वहां से दुसरों ने ली। प्राचीन काल में कई सभ्यताओं और देशों ने बांध बनाए और इस मामले में मानव ज्ञान और अनुभव को समृद्ध किया। जर्मनी के ब्रॉश्विंग टेक्निकल यूनिवर्सिटी में जल प्रबंध विशेषज्ञ गुंथर गार्ब्रेख्त का कहना है, इस बात का कोई सबूत नहीं मिलता कि प्राचीन बांध गणितीय गणनाओं के आधार पर बनाए गए। जाहिर है, वे प्रयोग से जुड़े अनुभवों और नियमों, तकनीकी कौशल और पानी के बहाव आदि के बारे में समझदारी के आधार पर बनाए जाते थे। नील टिग्रिस, यूफ्रेंटस, सिंधु और ह्वांग नदियों के किनारे विकसित सभ्यताएं जल प्रबंधन व्यवस्थाओं के बूते ही फूली-फलीं। बीसवीं सदीं के शुरू में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों में खुदाई से सिंधु घाटी सभ्यता (3000 से 1500 ई.पू.) का पता चला जो विशाल क्षेत्र में फैली थी। इस सभ्यता और मेसोपोटामिया की सभ्यता के गहरे व्यापारिक संबंध थे और दोनों का एक-दूसरे पर काफी असर था। इन संस्कृतियों की प्रमुख बातें थीं जल आपूर्ति और मल निकासी की उम्दा व्यवस्थाएं। इनके अंतर्गत जल संबंधी जो तकनीकी ढांचा बनाया था उसकी बराबरी 2000 साल बाद की रोमन सभ्यता भी नहीं कर सकी जिसकी आपूर्ति प्रणालियों को बेहतरीन माना गया है। मेसोपोटामिया की तरह सिंधु घाटी में भी सिंधु नदीं में सालाना आने वाली बाढ़ से बचाव, पैदावार बढ़ाने के लिए सिंचाई और विस्तृत कछार क्षेत्र से जल निकासी का व्यवस्था इस सभ्यता के अस्तित्व की शर्तें थीं।

800-600 ई.पू. के हिंदू ग्रंथों से जल संबंधी बातों का पता चलता है। वेदों-विशेषकर ऋग्वेद-श्लोकों में सिंचित खेती, नदी के बहाव, जलाशयों, कुओं, पानी खींचने वाली व्यवस्थाओं का उल्लेख है। प्रमुख छांदोग्य उपनिषद (वेदों के दार्शनिक विवेचन के 108 ग्रंथ) में कहा गया हैः

“नदियों का जल सागर में मिलता है। वे सागर से सागर को जोड़ती हैं, मेघ वाष्प बनकर आकाश में छाते हैं और बरसात करते हैं.....”

जल संबंधी प्राकृतिक प्रक्रियाओं का यह संभवतः प्राचीनतम उल्लेख है। इससे पता चलता है 1000 ई.पू. में भी प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर प्राकृतिक प्रक्रियाओं की व्याख्या करने की कोशिश की गई थी।

यूनानी दार्शनिक प्लेटो (427-347 ई.पू.) के काल में भी पर्यावरण और जन व्यवस्था के बीच संबंध का एहसास हो गया था।

प्लेटों ने यूनान के एट्टिका में कटाव का आंखो देखा वर्णन इस प्रकार किया हैः

“जो बच गया है उसकी तुलना पहले की स्थिति से की जाए तो उसे बीमार व्यक्ति के कंकाल जैसा माना जा सकता है। मिट्टी की मोटी और चिकनी परत बह गई है और जमीन का ढांचा मात्र रह गया है। लेकिन उस युगांतरकारी क्षण में देश अक्षुण्ण था, इसके पहाड़ों पर कृषियोग्य घाटियां थीं.....इसके पहाड़ों पर काफी जंगल थे जिसके चिह्न आज भी देखे जा सकते हैं, क्योंकि आज कुछ पहाड़ ऐसे रह गए हैं जिन पर केवल मक्खियों के लिए भोजन बच गया है जबकि उन पर अभी हाल तक पेड़ लगे थे, जिन्हें काटकर बड़ी-बड़ी इमारतों के लिए छत बनाई गई.....और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जियस से सालाना बरसात इन्हें समृद्ध करती थी। यह बारिश आज की तरह बेकार नहीं जाती थी, नंगी जमीन से बहकर समुद्र की ओर जाती हुई। तब मिट्टी गहरी थी और बरसात का पानी दोमट मिट्टी में रस-बस जाता था और विभिन्न स्थानों को झरनों और सोतों से सिंचित करता था....”

सेंटर फॉर साइंस एंड इनवायरोनमेंट की पुस्तक “बूंदों की संस्कृति” से साभार
 
Posted by
Attachment
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading