नर्मदा बचाओ आंदोलन को समर्पित एक पत्रकार

6 Oct 2014
0 mins read
The river and life book cover
The river and life book cover
संजय संगवई एक समर्पित पत्रकार, अध्ययनशील लेखक और कार्यकर्ता थे। वे गहरे अध्येता व पैनी दृष्टि वाले लेखक थे। पुणे से उन्होंने अपना अच्छा खासा कैरियर छोड़कर नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े तो अपने अंतिम समय तक सक्रिय रहे। जब कभी कोई यह कहता है कि बांध तो बन गया अब नर्मदा बचाओ आंदोलन क्यों लड़ रहे हो, तब मुझे आंदोलन से जुड़े ऐसे कई समर्पित कार्यकर्ताओं की याद हो आती है जिन्होंने नर्मदा को बचाने के लिए आंदोलन व नर्मदा घाटी लोगों के लिए अपना जीवन ही समर्पित कर दिया। इनमें से एक थे संजय संगवई।

संजय संगवई एक समर्पित पत्रकार, अध्ययनशील लेखक और कार्यकर्ता थे। वे गहरे अध्येता व पैनी दृष्टि वाले लेखक थे। पुणे से उन्होंने अपना अच्छा खासा कैरियर छोड़कर नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े तो अपने अंतिम समय तक सक्रिय रहे। ठिगनी कद काठी, दाढ़ी और साधारण से दिखने वाले संजय भाई प्रेरणादायी व्यक्तित्व थे।

संजय संगवई से मेरा परिचय घनिष्ठ नहीं था। हालांकि नर्मदा बचाओ आंदोलन और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के कार्यक्रमों मैं पहले उनसे मिल चुका था। लेकिन जब मैं 2005-06 सीएसडीएस दिल्ली में एक शोध कार्य में संलग्न था तब संजय भाई से मुलाकात हुई और करीब एक माह मिलना-जुलना होता रहा। वे अपना काम योगेन्द्र जी के कम्प्यूटर पर करते थे।

उन्होंने बताया कि वे सीएसडीएस की फैलोशिप के लिए आए हैं और एक माह तक रहेंगे। इस दौरान हम दोनों लगभग रोज ही मिलते और साथ-साथ मेट्रो से पटपड़गंज जाते, जहां वे गेस्ट रूम में रुके थे और मैं भी वहीं रहता था।

वे स्वभाव से मितभाषी और अल्पहारी थे। मिलनसार व प्रकृतिप्रेमी, अनुशासनप्रिय और तन्मयता से काम करने वाले धुन के पक्के। उनका यही सरल व सहज व्यवहार आकर्षित करता था।

मुझे यह जानकार सुखद आश्चर्य हुआ कि उनकी साहित्य में गहरी रुचि है। उनसे मैंने कई लेखकों के बारे में जाना। उन्होंने मुझे केदारनाथ की कविताएं और नर्मदा की कहानी सुनाई थी।

मेट्रो स्टेशन पर एस्केलेटर को देखकर उन्होंने टिप्पणी की थी कि अगर 24 घंटे इसे चलाना है, तो टिहरी बांध बनाना ही पड़ेगा। लेकिन साथ ही एक सवाल दागा कि क्या इसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता? क्या हमारा काम सीढ़ियों से नहीं चल सकता?

जब दोपहर के भोजन का समय होता हम पास ही फुटपाथ पर भोजन करने चले जाते। वहां गरम-गरम रोटी और सब्जी की छोटी दुकान पर खाना खाते। संजय भाई वहां पर यह टिप्पणी करते अगर बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला करना है, तो छोटे-छोटे दुकानदारों को बढ़ावा देना होगा, वही इनका मुकाबला कर सकते हैं। आज एफडीआई वगैरह के दौर में उनकी टिप्पणियां याद आती हैं।

उनकी एक और बात याद आती है कि उन्होंने एक खेल की तरह यह देखने के लिए कहा कि क्या कोई कार सुरक्षित है, यह कभी-न-कभी दुर्घटनाग्रस्त हुई है? इसके लिए उन्होंने दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाली कारों को देखकर पता लगाने के लिए कहा था। फिर हम दोनों ने साथ-साथ यह देखा और पाया कि ज्यादातर कारें कहीं-न-कहीं पीछे से टूटी-फूटी थीं।

संजय भाई हमेशा ही विकास के मौजूदा मॉडल पर सवाल उठाते थे। वे एक वैकल्पिक जीवन पद्धति में विश्वास करते थे और वैसे ही जीते थे।

आज जब मुख्यधारा के मीडिया में कई कारणों से दूरदराज के गांवों व ग्रामीण भारत की खबरों को उचित स्थान नहीं मिल पाता। ऐसे में संजय संगवई जैसे साथियों ने अपना सब कुछ छोड़कर ऐसे लोगों की आवाज को आगे पहुंचाया जिनकी आवाज अनसुनी रह जाती है। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने ऐसे लोगों को खड़ा किया है।

भाखड़ा नंगल बांध के बारे में नेहरू जी ने कहा यह आधुनिक भारत के मंदिर हैं, इसे हम पढ़ते-सुनते भी रहे लेकिन नर्मदा बचाओ के उभरने के बाद ही बड़े बांधों पर कई सवाल उठे हैं। यह संघर्ष 25 सालों से ज्यादा से चल रहा है। 1989 की हरसूद की संकल्प रैली में देश भर से जुड़े हजारों लोगों ने नारा दिया था- हमें विकास चाहिए- विनाश नहीं।

बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर, ओमप्रकाश रावल जैसी हस्तियों ने रैली को संबोधित किया था। मौजूदा विकास पर कई सवाल उठाए थे। वे सवाल आज भी हमारे सामने हैं, भले ही आज बांध बन गया। पुराना हरसूद भी नहीं रहा।

आमतौर पर विस्थापन का समाधान पुनर्वास मान लिया जाता है। लेकिन जब आप उजड़ने वालों से मिलेंगे और असंख्य उजड़ने वालों की दर्द भरी अनंत कहानियां सुनेंगे जो आपका दिल दहलाकर रख देगी। ऐसी कहानियां संजय संगवई ने सुनी थी और अपने लेखों व किताबों का उन्हें विषय बनाया था। जब टेलीविजन पर मेधा बहन को नर्मदा घाटी में आधा-अधूरे पुनर्वास और भ्रष्टाचार की कहानियां बयां करते सुनता हूं तो आंखें नम हो जाती हैं।

उन्होंने अपनी हृदय और फेफड़ों की बीमारी का भी एलोपैथी पद्धति से इलाज नहीं करवाया था। वे अपना इलाज आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति से करवाते रहे। अंततः बीमारी से जूझते हुए उन्होंनेे प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र में असमय ही दम तोड़ दिया। उनका निधन महज 48 वर्ष की अल्पायु में हो गया। 29 मई 2007 को हमारे बीच नहीं रहे। समाज के प्रति उनका समर्पण और काम सदा हमें प्रेरणा देते रहेंगे।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading