नर्मदा घाटी - धीरज तो वृक्ष का

24 Jan 2017
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“अफलज, सुर सदा सी रह रहे, वद ना लाख करोड़।
सबको पहले कुद पड़, पीछे न आवे मोड़।।’’

अफजल साहब

“अफजल साहब कहते हैं कि जो शूरवीर होते हैं, वे लाखों करोड़ों शत्रुओं का पता नहीं करते। वे सबसे पहले रणभूमि में कूद पड़ते हैं और कभी मुँह नहीं मोड़ते।’’ गाँधी

मध्य प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से पिछले एक दशक से मिलने का प्रयास नर्मदा बचाओ आन्दोलन कर रहा है। वे बड़वानी आये वहाँ भी नहीं मिले। जब नबआ कार्यकर्ता भोपाल गए तो समय दिये जाने के बावजूद भी नहीं मिले और कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर लिये गए। भले ही कोई नतीजा न निकला हो पर मुख्यमंत्री रहते और बाद में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री के नाते उमा भारती नबआ से मिलती रही हैं। ऐसा ही दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में भी था।

आज से करीब 250 वर्ष पहले बड़वानी (मध्य प्रदेश) की गलियों में इकतारा बजाते और रामनाम जपते अफजल साहब ने सोचा भी नहीं होगा कि नर्मदा घाटी में इक्का-दुक्का नहीं बल्कि ऐसे शूरवीरों की पूरी सेना खड़ी हो जाएगी जो विपक्ष की अगाध शक्ति व सत्ता की परवाह किये बिना, अपने तरह की अनूठी रणभूमि में बिना आगा-पीछा सोचे कूद पड़ेगी।

नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने जब सरदार सरोवर बाँध पर पहली बार प्रश्न उठाए तो शायद उसे भी अन्दाजा नहीं होगा कि उनका संघर्ष पीढ़ियों की सीमा पार कर लेगा। आज आन्दोलन के साथ तीसरी पीढ़ी जुड़ गई है। विजय अभी दूर कहीं क्षितिज पर दिखाई तो देती है, लेकिन बढ़ते कदमों के साथ वह पीछे घिसटती सी दिखाई पड़ती है। परन्तु नर्मदा घाटी में निवासरत मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात का डूब प्रभावित समुदाय जानता है कि वह एक-न-एक दिन इस क्षितिज को पा ही लेगा।

पिछले दिनों मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय की इन्दौर खण्डपीठ में न्यायमूर्ति एस.सी शर्मा की एकल पीठ के निर्णय ने डूब प्रभावितों की सच्चाई और संघर्ष के प्रति उनके विश्वास को नवजीवन प्रदान किया है। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) ने सरदार सरोवर जलाशय (बाँध) के लिये गठित शिकायत निवारण प्राधिकरण (जीआरए) के निर्णय कि प्रत्येक खातेदार फिर चाहे वह बालिग व शादीशुदा लड़की हो या नाबालिग उसे पुनर्वास नीति के अन्तर्गत वर्णित सभी लाभ प्राप्त करने का अधिकार है, के खिलाफ मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी।

एनवीडीए विरुद्ध हीरु बाई वाले इस मुकदमे में उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्येक खातेदार को पुनर्वास नीति का सम्पूर्ण लाभ मिलना ही चाहिए। किसी प्रकार का लैंगिक (जेंडर) भेदभाव अस्वीकार्य है। ऐसी करीब 110 याचिकाएँ अभी लम्बित हैं। इस निर्णय में करीब 15 याचिकाओं का निपटारा हुआ है। इसके अलावा निर्णय में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक कब्जाधारी को भी 2 हेक्टेयर भूमि देना ही पड़ेगी। इसी के साथ सह-स्वामित्व वाले मामलों में भी यह निर्णय लागू होगा।

गौरतलब है, सर्वोच्च न्यायालय ने नबआ विरुद्ध मध्य प्रदेश शासन के मामले में निर्णय दिया था कि पुनर्वास उस व्यक्ति के (जीवन) स्तर की पुनर्स्थापना है, जिसका कुछ चला गया है और वह विस्थापित हो गया है, तथा यह एक ऐसे व्यक्ति को बनाए रखने का प्रयास है जिसके पास अब गरिमामय जीवन जीने का कोई और रास्ता न बचा हो। यह संविधान के अनुच्छेद 300 अ के अन्तर्गत मुआवजा व सम्पत्ति से सम्बन्धित है और यह संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में दर्शाए गए तत्वों के अन्तर्गत आता है। ऐसे लोग जो दीन-हीन और निराश्रय हो गए हैं, उन्हें स्वयं को बनाए रखने के लिये आजीविका का स्थायी स्रोत सुनिश्चित कराना अनिवार्य है।

इसी निर्णय के अनुच्छेद 84 में अधिक स्पष्टता के साथ कहा गया है कि पुनर्वास को विस्थापन के स्तर तक का किया जाना चाहिए। पुनर्वास अपनी प्रकृति में ऐसा होना चाहिए जो कि विस्थापित (व्यक्ति) को यह सुनिश्चित करा सके कि उसका जीवनस्तर उस दिन जैसा होगा जिस दिन सन 1894 के कानून के अन्तर्गत अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू की गई थी। (उपरोक्त अनुवाद साधारण भाषा में है।) नर्मदा बचाओ आन्दोलन और डूब प्रभावित सरकार से उतना ही माँग रहे है जितना कि पुनर्वास नीति में उल्लेखित है और सर्वोच्च न्यायालय ने अपेक्षा की है। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस.सी शर्मा ने भी अपने निर्णय में उपरोक्त को उद्धृत किया है।

परन्तु सरकारों की जिद व मंशा दोनों ही समझ के परे हैं। इसी क्रम में 18 जनवरी 2017 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार पुनः महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन की याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर का कहना था कि सरदार सरोवर बाँध परियोेजना पर कानूनी मसले से कोई हल नहीं निकलेगा। इससे ना तो उन लोगों का फायदा होगा, जिनकी जमीन चली गई है और न ही सरकार को। यहाँ तक कि सरदार सरोवर बाँध की ऊँचाई का काम भी पूरा हो चुका है, लेकिन उसका असर नहीं दिख रहा। बेहतर हो राज्य सरकार और नर्मदा बचाओ आन्दोलन योजना व व्यावहारिक समाधान लेकर न्यायालय में आएँ।

इस सुझाव ने नई सम्भावनाओं के द्वार खोले हैं। गौरतलब है मध्य प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से पिछले एक दशक से मिलने का प्रयास नर्मदा बचाओ आन्दोलन कर रहा है। वे बड़वानी आये वहाँ भी नहीं मिले। जब नबआ कार्यकर्ता भोपाल गए तो समय दिये जाने के बावजूद भी नहीं मिले और कार्यकर्ताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर लिये गए। भले ही कोई नतीजा न निकला हो पर मुख्यमंत्री रहते और बाद में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री के नाते उमा भारती नबआ से मिलती रही हैं। ऐसा ही दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में भी था।

यही स्थिति केन्द्र में भी बनी हुई है वी.पी सिंह, देवगौड़ा, चन्द्रशेखर, नरसिम्हा राव व मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर नबआ से मिलते रहे। वहीं नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद नबआ कार्यकर्ताओं से नहीं मिल रहे हैं। वैसे राजीव गाँधी के समय पर्यावरण व पुनर्वास को लेकर नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण का विस्तार किया गया और सशर्त अनुमति दी गई थी। यह भी माना जाता रहा है कि यह अनुमति विश्व बैंक के दबाव में दी गई थी। जबकि बाद में विश्व बैंक ने इस परियोजना से अपना हाथ खींचते समय कहा था कि यह योजना (सरदार सरोवर) असमर्थनीय मार्ग से ही पूरी की जा सकती है।

अफजल उजड़ जाय बसाएँगे, छाड़ बस्ती बास।
उपर पंथी या पंथ चले, गउ चर सी घास।।


अफजल साहब कहते हैं कि लोग बस्तियाँ छोड़कर उजड़े क्षेत्र को बसा रहे हैं। यहाँ की बस्तियाँ उजड़ जाएँगी। तब यहाँ गाएँ चरेंगी।

अफजल साहब सपने में भी नहीं सोच पाते कि भविष्य में कभी बड़वानी के आसपास ऐसा प्रलय आएगा कि गाय के लिये घास मिलना तो दूर पानी में रहने वाली मछलियों का जीवन भी संकट में पड़ जाएगा। वस्तुतः आज की अनिवार्यता यह है कि सरकार अपनी जिद को छोड़े और एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बातचीत की शुरुआत करे।

इसके लिये पहली आवश्यकता यह है कि दोषारोपण बन्द कर नर्मदा घाटी में ऐसे अधिकारियों को नियुक्त किया जाये जो कि आपसी बातचीत के माध्यम से रास्ता निकालने में प्रयासरत हों। साथ ही एनवीडीए और नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण को भी अपना दायित्व पूरी एकाग्रता से निभाना चाहिए।

राज्य और केन्द्र शासन को इस बात का सम्मान करना चाहिए कि तीन दशकों से भी ज्यादा चलने वाला यह आन्दोलन पूरे विश्व के लिये अहिंसात्मक प्रतिरोध का पर्याय है। यदि किसी आपसी समझौते से हल निकलता है तो यह गाँधी जी की 150वीं जयंती के पहले बड़ी व उल्लेखनीय उपलब्धि होगी।

निमाड़ के एक अन्य सन्त सिंगाजी कहते हैं तपस्या तो पत्थर की/धीरज तो वृक्ष का/सुफेरा तो सूरज का। नर्मदा घाटी के निवासी इन तीनों उपमाओं पर खरे उतरे हैं। वे अपने स्थान पर अडिग रहे हैं। उन्होंने अपनी जड़ों को उखड़ने नहीं दिया है और सूरज की तरह पूरी दुनिया में अहिंसात्मक आन्दोलन की रोशनी को फैलाया है। अब पहल केन्द्र व राज्य सरकारों को करनी है।

साथ ही बिना प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाए नबआ को चर्चा के लिये आमंत्रित किया जाना चाहिए। इससे शासन व प्रशासन दोनों की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी। वरना न्यायालय आज नहीं तो कल कुछ-न-कुछ निर्णय तो देगा ही। डूब क्षेत्र के आदिवासी नायक बाबा महरिया ने तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को लिखा था, “सरकारी और तमाम शहरी लोग यह मानते हैं कि हम जंगल में रहने वाले गरीब-गुरबा पिछड़े और बन्दरों की तरह बसर करने वाले लोग हैं। पर हम आठ साल से लड़ रहे हैं, लाठी-गोली झेल रहे हैं कई बार जेल जा चुके हैं आँजनवाड़ा गाँव में पुलिस ने पिछले साल गोलीबारी भी कर दी थी, हमारे घर-बार तोड़ दिये थे। लेकिन हम लोग- मर जाएँगे-पर हटेंगे नहीं का नारा लगाते हुए आज भी उसी जगह पर बैठै हुए हैं।’’ आप सबकी सूचनार्थ प्रेषित है, बाबा महरिया अभी भी वहीं पर बैठै हैं।

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