नर्मदा का नरमदा प्रसाद

14 Sep 2013
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वर्ष 2012 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने ओंकारेश्वर बांध और इंदिरा सागर बांध के विस्थापितों के सवालों पर जल सत्याग्रह किया था। ओंकारेश्वर में सरकार ने मांगे मानी और दूसरी तरफ इंदिरा सागर में आंदोलनकारियों पर दमन किया गया। दसियों दिनों से पानी में खड़े लोगों को जेल में डाला गया। ओंकारेश्वर में जो मांगे मानी गर्इ, पूरा उन्हें भी नहीं किया। 1 सिंतबर, 2013 को पूरा जल सत्याग्रह का इलाक़ा पुलिस छावनी में बदल दिया गया था। पुनर्वास नहीं, ज़मीन नहीं, जो पैसा दिया भी गया वो भी इतना कम की स्वयं से शर्म आ जाए।पानी गरम था और पैर के नीचे चिकनी, मुलायम, धंसती, सरकती मिट्टी। इसी में से चलकर अंदर गंदे भारी पानी में लगभग 20 गाँवों के प्रतिनिधियों के रूप में महिला पुरूष बैठे थे। पीछे बैनर था नर्मदा बचाओ आंदोलन, ज़मीन नहीं तो बांध खाली करो। जोश के साथ नारे लग रहे थे, लड़ेंगे-जीतेंगे, वगैरह-वगैरह। जो नारे नर्मदा से निकले और देश के आंदोलनों पर छा गए थे ये जगह अजनाल नदी के किनारे नहीं बल्कि अजनाल के रास्ते इंदिरा सागर बांध में रुके नर्मदा के पानी की है। अजनाल के किनारे का टप्पर अब इंदिरा सागर बांध के जलाशय के किनारे आ गया है खेती-पेड़ सब डूबे हैं। यहां नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में जल सत्याग्रह चालू है।म.प्र. के तीन जिलों में इंदिरा सागर का जलाशय फैला है, खंडवा, देवास और हरदा के 213 गाँवों को डुबोया है। 2005 में चालू हुए बांध ने अब तक 3000 हजार करोड़ का फायदा दिया है और लगभग इतना ही पैसा बांध विस्थापित लोगों के पुनर्वास, अनुदान आदि के लिए चाहिए। 41 और गाँवों मे डूब आ रही है। इस क्षेत्र में भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सर्वे को म.प्र. शासन ने रोक दिया। पर डूब तो आ गर्इ।

हरदा से लगभग 26 कि.मी. दूर बिछौलागांव, फिर वहां से जल सत्याग्रह स्थल 5 कि.मी. था से हम जंगल होते हुए हनीफाबाद टोला पहुंचे थे। जहां लोग खाना खा रहे थे पेड़ के नीचे नरमदा प्रसाद भी था दोनों पैर अशक्त है तीन पहिए की साइकिल पर, साथ के बच्चे उसे धकेल कर पानी में जाते हैं। सिरालिया गांव में अपना मकान बांध में डूबा चुका नरमदा प्रसाद हर महीने सरकार से 150 रु. पाता है। आदिवासी है। मन में जोश है उसका शरीर उतना सहयोग नहीं देता है। पर हक की लड़ार्इ है। पूछता है 150 रु0 में क्या होता है? बिछौला गांव की कृष्णाबार्इ जिसे बरसों से देखा है दुबली-पतली गहरे रंग की? प्रशासन की आंख में किरकिरी है। अपना पैर दिखा रही थीं। पैर में पिछले साल पानी में खड़े होने के कारण एग्ज़ीमा हो गया है। कितने ही और महिला-पुरूषों के पैर सड़ गए थे। एक महिला को आंखों से दीखना काफी कम हो गया है। जलाशय का पानी घरों तक आ गया है। कर्इ बच्चे पिछले वर्षों में डूबकर, फंसकर मर गए हैं। तो अब करे भी तो क्या करें। सिवाए अहिंसात्मक संघर्ष के नए-नए आयामों को लेकर आगे बढ़ना। सरकार तो सिर्फ प्रचार कर रही है कि बांध से हजारों करोड़ कमाया। पर कमाया कैसे? जब आप पुनर्वास पर्यावरण के खर्चों को ही समाप्त कर देंगे तो आपका फायदा तो स्वत: ही बढ़ा हुआ दिखेगा।

वर्ष 2012 में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने ओंकारेश्वर बांध और इंदिरा सागर बांध के विस्थापितों के सवालों पर जल सत्याग्रह किया था। ओंकारेश्वर में सरकार ने मांगे मानी और दूसरी तरफ इंदिरा सागर में आंदोलनकारियों पर दमन किया गया। दसियों दिनों से पानी में खड़े लोगों को जेल में डाला गया। ओंकारेश्वर में जो मांगे मानी गर्इ, पूरा उन्हें भी नहीं किया। 1 सिंतबर, 2013 को पूरा जल सत्याग्रह का इलाक़ा पुलिस छावनी में बदल दिया गया था। कृष्णाबार्इ ने बताया हम 1 सिंतम्बर को उंवागांव में बैठे तो पुलिस ने बैठने नहीं दिया गिरफ्तार करके हरदा ले गए। दूसरी टुकड़ी बिछौला गांव में पानी में बैठ गर्इ उसे भी 2 तारीख को पुलिस हरदा जेल ले गर्इ। 2 सितम्बर को हनीफाबाद टोला में भी लोग बैठ गए 3 सितम्बर को पुलिस ने उन्हें पानी में से निकालकर दूर बाहर करके छोड़ दिया। 7 सितम्बर से लोग दुबारा बैठे। तब से लगातार बैठे हैं इस बार पुलिस नहीं आर्इ। सरकार समझ गर्इ है कि लोग नहीं मानेंगे।

इंदिरा सागर बांध डूब क्षेत्र में आने वाली अपनी जमीन के विरोध में जल सत्याग्रह करते स्थानीय निवासीनर्मदा बचाओ आंदोलन की सशक्त महिला नेता चित्तरूपा पलित को इस बार जल सत्याग्रह के शुरूआती दिनों में ही पुलिस घसीट कर उठा लिया था। 9 दिनों बाद इंदौर की जेल से छूटी। वो कहती हैं पुलिस से कोर्इ लड़ार्इ नहीं है। उस पर सैंकड़ों मुकदमे हैं। लंबे उपवासों के दौर झेले हैं। वो सर्वोच्च न्यायालय में प्रभावितों के हक के लिए भी आंदोलन केस स्वयं लड़ती हैं। 'लाठी गोली खाएंगे आगे बढ़ते जाएंगे' आंदोलन का नारा है। आंदोलन को तोड़ने के लिए 144 धारा का इस्तेमाल करना पुराना तरीका होता है जिसका इस्तेमाल खूब हुआ पर लोगों की नर्इ-नर्इ टुकड़ियां कमान संभालती गर्इ। बिछौला में खुद उपजिलाधिकारी हरदा ने मार्इक से घोषणा की आप लोग पानी में से निकल आओ नही ंतो ज़बरदस्ती करेंगे। कृष्णाबार्इ बता रही थीं कि ''हमने पूछा हमारा अपराध बताओ? तो उनके पास जवाब नहीं था। पुलिस ने चारों तरफ से घेरा और बाहर किया। हम डरते नहीं हैं।'' यहां जबर मारे और रोने ना दे की कहावत चरितार्थ होती है।

पुनर्वास नहीं, ज़मीन नहीं, जो पैसा दिया भी गया वो भी इतना कम की स्वयं से शर्म आ जाए। दस छोटी व साल भर बहने वाली नदियां नर्मदा में मिलती है। तवा, गंजाल, अजनाल, मायक, कालीमायक, सियाड़, छोड़ापछाड़, रूपारेल, अगिन, भामसुक्ता। किसी में बैकवाटर सर्वेक्षण नहीं हुआ। नतीजा हुआ की घर डूबे तो कहीं खेत, किसी का घर नापा पर खेत छोड़ा जबकि वो उसी सीध में है। पूरा सर्वे ही अपने में एक उलझी सी ऊन है। सभी नदियों के किनारे गाँवों का नक्शा बहुत अजीब हो गया है पानी कहीं से भी आने की बात है वैसे सर्वेक्षण पर भरोसा भी नहीं। पूरे देश से लेकर नर्मदा में भी यह नया नहीं है चाहे वो तवा बांध हो या बरगी बांध जिसमें 101 गांव का सर्वे था और डूबे 162 गांव। लोग सोते रहे और उनके घरों में पानी आ गया था। बिछौला गांव की लाड़की बार्इ की 19 में से 10 एकड़ ज़मीन डूबी, कुआं, 50 सागौन के पेड़, आम के अनेक पेड़। मिला सिर्फ 4 लाख रु. ज़मीन का और 1700 रु. पेड़ों का।

''अपने ही खेत में उगे पेड़ जब हम मांगते थे अपने मकान में लगाने के लिए, तो नहीं मिलते थे। अब हमारे सामने ही सारे पेड़ काटकर सरकार ले गर्इ। घर के दरवाज़े से 5 मीटर की गली के पार वाला मकान डूब में लिया है यानि पानी वहां आया तक क्या होगा?'' यहां की धरती खूब उपजाऊ है गेहूं, मूंग, चना, सोयाबीन की फसलें मुख्य हैं। जल सत्याग्रह में बैठे भरत गुर्जर ने कहा कि हम सब अब मज़दूर ही हो गए हैं। जमीनें तो गर्इं। उसके चेहरे का दर्द ज़मीन बदले-ज़मीन की मांग की जरूरत बता रहा था। इसके साथ उसने भारत के राष्ट्रपति जी का 18 जुलार्इ को ''एसएमएस पोर्टल'' के आरंभ के अवसर पर भेजा एसएमएस दिखाया। उसमें लिखा था ''मानसून खुशहाली लाएगा, खाद्य सुरक्षा लाएगा।'' भैया हमारी तो जमीनें डूब गर्इ हैं मानसून में बिना ज़मीन कौन सी खाद्य सुरक्षा?

इंदिरा सागर बांध डूब क्षेत्र में आने वाली अपनी जमीन के विरोध में जल सत्याग्रह करते स्थानीय निवासीआलोक अग्रवाल कानपुर आर्इआर्इटी से पढ़े हैं। नर्मदा के बांधों और विस्थापितों के हक के लिए लड़ रहे हैं। कहते हैं कोर्ट से ज़मीन का मसला तय होगा पर सरकार जो कर सकती है वो तो करे। मध्य प्रदेश में विधान सभा चुनाव होने वाले है। लोग देखेंगे। पर हमारी लड़ार्इ तो लंबी है। थोड़ा-थोड़ा करके ही आगे कुछ होता है। उतराखंड आपदा के समय तीर्थयात्रियों के लिए प्रदेश मुख्यमंत्री बहुत चिंतित थे, उनके दुख में द्रवित थे। 2011 में दस हजार एकड़ भूमि गो-संवर्धन के लिए सहारा कंपनी को दिए। गौ माता के लिए चिंतित मुख्यमंत्री जी उनके लिए भूमि की आवश्यकता बतार्इ। बात गले नहीं उतरती आदिवासी व समृद्ध किसानों की ज़मीनें हजारों गाँवों में फैली हैं सरकार ने उनकी ज़मीन छीनी जिसे जिंदगी छीनना ही कहा जाएगा। किसानों के पास 25 कि.मी. तक कोर्इ 11-12वीं के लिए कोर्इ विद्यालय नहीं जिनकी बच्चियां इसी कारण पढ़ नहीं पातीं उनके साथ ही ऐसा क्यों?

प्रदेश में मुख्यमंत्री जी की 'जनआर्शीवाद यात्रा' चालू है और जिस दिन 12 सितंबर को हम हरदा जिले के टप्परगांव में जल सत्याग्रह में पहुंचे थे उसी दिन स्थानीय विधायक जी भी इस यात्रा को लेकर आगे बढ़ रहे थे उन्हें केले में तौला गया था वे तेदूं पत्ता मज़दूरों को बोनस भी बांट रहे थे। पर हजारों की जिंदगियों के लिए मौन। लोग इस चुनावी खेल से परिचित लग रहे थे। तीनों जिलों में आंदोलन के वरिष्ठ कार्यकर्ता जलसत्याग्रह चला रहे हैं सब छोड़कर वहीं जमें हैं गाँवों से लोग आते हैं। आगे की रणनीति बढ़ती है। गाँवों में गणेश जी की स्थापना व कीर्तन भी है।

हरदा, देवास, खंडवा जिले में पहले दिन करीब 600 जल सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया गया। लोगों के लिए ये सत्याग्रह आंदोलन जेल साल भर के त्यौहार जैसे ही है। वे हंसते-हुए कष्ट सहते हैं पर लड़ार्इ नहीं छोड़ते। यदि छोड़ी तो आगे की पीढ़ी के लिये भुखमरी ही रहेगी। लड़ेगे-जीतेंगे-बढ़ेगे।

(जनआंदोलनो का राष्ट्रीय समंवय की ओर से विमलभार्इ, राष्ट्रीय संगठक और बिलाल खान समंवय के साथी जल सत्याग्रह में समर्थन देने गए थे। वही से लौटकर विमलभार्इ का लेख।)

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