नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना का क्षिप्रा के जल पर प्रभाव

27 Dec 2019
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नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना का क्षिप्रा के जल पर प्रभाव
नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना का क्षिप्रा के जल पर प्रभाव

सारांश

क्षिप्रा नदी उज्जैन शहर से गुजरने वाली एक पौराणिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक महत्व की नदी है, किंतु पिछले कुछ वर्षों में प्रदूषण एवं अन्य मानवीय क्रियाओं के द्वारा नदी के जल का प्रदूषण अपने चरम पर है, तथा नदी जल का प्रवाह भी पूर्ण रूप से रुक चुका है। उज्जैन जिले में कुछ वर्षों से वर्षा जल में भी कमी आई है व सिंचाई आदि कार्य में भी नदी का दोहन हो रहा है। इन समस्याओं के निवारण हेतु राज्य शासन द्वारा नर्मदा नदी के जल को क्षिप्रा में पाइप लाइन द्वारा जोड़ा गया जिससे कि नदी प्रवाहमान हो सके व क्षेत्र की जल समस्या से निपटा जा सके। यह इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि उज्जैन शहर में हर 12 वर्षों में सिंहस्थ (कुंभ) मेले का आयोजन किया जाता है और जल संसाधनों पर अत्यधिक दबाव रहता है।

क्षिप्रा जल के नर्मदा नदी से जुड़ने के पूर्व तथा पश्चात की स्थिति का पता लगाने के लिए जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक लक्षणों का परीक्षण एपीएचए (American Public Health Association, 1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया। इस अध्ययन हेतु चार घाटों (नमूना संग्रह स्थल) क्रमशः त्रिवेणी घाट, गउ-घाट, रामघाट एवं मंगलनाथ घाट से जल के नमूनों को एकत्रित किया गया तथा पीएच, तापमान, चालकता, घुलित आक्सीजन, रासायनिक घुलित आक्सीजन, कठोरता, क्षारियता, फीकल कोलीफार्म, टोटल कोलीफार्म, तथा फीकल स्ट्रेप्टोकोकाई आदि प्राचलों का प्रयोगशाला में विश्लेषण किया गया। अवलोकन एवं विश्लेषण के उपरांत पाया गया कि नर्मदा नदी के लिंक से पूर्व क्षिप्रा नदी का जल अपेक्षाकृत अधिक प्रदूषित था एवं जांचे गए सभी मापदंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों से कहीं अधिक थे। नर्मदा नदी का जल क्षिप्रा नदी से मिलने के बाद प्रदूषण के स्तर में कमी आई तथा अधिकांश मापदंड विभिन्न संस्थाओं द्वारा दर्शाए गए मानकों के करीब प्राप्त हुए।

इस अध्ययन के द्वारा इस बात को बल मिलता है कि नदी जोड़ो अभियान प्रदूषण के स्तर को कम करने में भी बहुत अधिक सहायक है, साथ ही वहां पर उपस्थित जैव विविधता के संरक्षण को भी लाभ पहुंचा सकता है। क्षिप्रा नर्मदा लिंक परियोजना इस बात को सही साबित करती है कि नदियों के आपस में जुड़ने से प्रदूषित एवं अप्रवाहमान नदियों के स्तर को सुधारा जा सकता है, एवं क्षेत्रीय जल संकट से उभरा जा सकता है।

मुख्य शब्दः American Public Health Association, भारतीय मानक ब्यूरो, पार्ट्स पर मिलियन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, मिली लीटर

Abstract

Kshipra river passing through Ujjain city is a mythologically, spiritually and religiously important holy river. But in the recent past due to the pollution and other anthropological activities river water pollution is at its extreme and even the flow of water has come to stagnation. Ujjain is facing a shortage of precipitation since past few years and to aggregate the situation excessive water for agro–irrigation is pumped out from the river. This has caused an acute shortage of water in the City. To overcome this shortage of water Madhya Pradesh government has attempted to link Narmada river with Kshipra through a long pipeline so as to restore Kshipra flow again. This Narmada Kshipra link project was very crucial and important because holy city Ujjain celebrates Simhastha (Kumbh) Mela after every 12 years and all resources including natural water resource are at extreme pressure.
Kshipra river water was tested for physical-chemical and biological parameters before and after its linkage with Narmada river water. For the analysis of these parameters, the American public health association (APHA, 1998) was followed. Water samples were collected from four different sites viz., Triveni ghat, Gau ghat, Ram ghat and Mangalnath ghat. pH, temperature, conductivity, chemical oxygen demand (COD), hardness, alkalinity, faecal coliforms, total coliforms, and faecal Streptococci were taken as parameters to assess the water quality in the laboratory.
Observations and results reveal that water quality of Kshipra river before its linkage with Narmada water was comparatively more deleterious and all parameters were much above than the permissible limit of the pollution control board. All the pollution level decrease after Narmada linkage and the values of parameters were nearly permissible to standards of various organizations.
Results of this study suggest that the river linkage project can help to enhance the water quality and conserve the biodiversity of the existing water resource under constraints. Narmada-Kshipra link project positively supports the above fact and enhance water quality status of the stagnant water of Kshipra. It may further lead to coping up with the regional water crisis.
Keywords: American public health organization association (APHA), Parts per million, World Health Organization, Milliliter.

1. प्रस्तावना

भारत में नदी जोड़ों का विचार सर्वप्रथम 1858 में ब्रिटिश सिंचाई इंजीनियर सर आर्थर थाॅमस काटन ने दिया था। लेकिन तब से अब तक इस मुद्दे पर कोई खास प्रगति नहीं हुई है। दरअसल, राज्यों के बीच असहमति, केंद्र की दखलंदाजी के लिये किसी कानूनी प्रावधान का न होना और पर्यावरणीय चिंता इसकी राह में कुछ बड़ी बाधाएँ बनकर सामने आती रही हैं। जुलाई 2014 में केंद्र सरकार ने नदियों को आपस में जोड़ने संबंधी विशेष समिति के गठन को मंजूरी दी थी। नदियों को मनुष्यों और अन्य समस्त जीव-जगत की जीवन-रेखा माना जाता है तथा दुनिया की तमाम बड़ी मानव सभ्यताएँ किसी न किसी नदी के किनारे ही विकसित हुई। सिंचाई और पेयजल का प्रमुख स्रोत नदियाँ ही होती हैं। इसके अलावा, जलमार्गों को परिवहन का सबसे किफायती माध्यम माना जाता है और नदियों के साथ लाखों लोगों की आजीविका भी जुड़ी रहती है। पानी की उपलब्धता को प्रभावित करने वाले स्थानिक और अस्थायी कारण भी हैं। इसकी वजह से भारत में सूखा और बाढ़ जैसे हालात साथ-साथ चलते हैं। ऐसे देश के लिए जहाँ की आबादी के एक बड़े हिस्से को साफ पानी उपलब्ध नहीं है, यह स्थिति निश्चित ही चिंतनीय है।

मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र पिछले 3-4 दशकों से पानी की कमी की समस्या से जूझ रहा है, जो कि कुछ वर्षो से विकराल रूप धारण करती जा रही है। लगातार हो रहा भूमि जल का दोहन, अनियमित वर्षा, तथा अनियन्त्रित जल के उपयोग ने आने वाले समय में मालवा क्षेत्र के मरुस्थल में परिवर्तन के संदेह को जन्म दे दिया है।

नर्मदा नदी को मध्य प्रदेश की जीवन दायनी कहा जाता है, जो ना केवल मालवा के क्षेत्रों बल्कि लगभग पूरे मध्यप्रदेश को सिंचित तथा जल प्रदान करने का कार्य करती है। मध्य प्रदेश की अन्य प्रमुख नदियों में उज्जैन शहर से गुजरने वाली क्षिप्रा नदी का स्थान भी है। वर्ष 2016 में उज्जैन शहर में होने वाले कुम्भ मेले को ध्यान में रखते हुए तत्कालीन सरकार द्वारा नर्मदा नदी के जल को पाइप से क्षिप्रा नदी से जोड़ा गया, जिससे की कुम्भ 2016 में आने वाले लाखों श्रद्धालु क्षिप्रा नदी में पुण्य की डुबकी लगा सकें। राज्य शासन ने इस कार्य हेतु नर्मदा वेली डेवलपमैंट अथोरिटी (एनवीडीए) को अधिकृत किया तथा क्षिप्रा नदी को नर्मदा नदी जल से जोड़ने वाली इस योजना को "नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना" नाम दिया, जिसकी शुरुआत 29 नवंबर 2012 को हुई तथा यह प्रोजेक्ट 14 माह के रिकार्ड समय में पूर्ण हुआ। नर्मदा नदी के जल को क्षिप्रा नदी से 25 फरवरी 2014 (नर्मदा जयंती) को इन्दौर शहर के पास स्थित क्षिप्रा के उद्गम स्थल से जोड़ा गया (http//www.mpsdc-gov.in/nvda/brief%20introductionNKSL&1&3&14-pdf)। क्षिप्रा जल के नर्मदा नदी से जुड़ने के पूर्व तथा पश्चात की स्थिति का पता लगाने के लिए जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक लक्षणों का परीक्षण एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया।

2. कार्य योजना एवं रूपरेखा

क्षिप्रा जो कभी अविरल धारा के रूप में प्रवाहमान रहती थी अब केवल वर्षा के कुछ महीनों में ही प्रवाहमान रहती है। इसके किनारे बसे गाँव व उज्जैन शहर के बीच विकास एवं फैलाव के कारण इसका जल संग्रहण क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है। साथ ही जल में संदूषकों की मात्रा दिन प्रतिदिन बढती जा रही है। उससे उत्पन्न होने वाली बीमारियों तथा जीवाणुओं में भी वृद्धि हो रही है। साथ ही इन जीवों की प्रतिरोधक क्षमता का बढना भी एक जटिल समस्या बन रही है। इस अध्ययन का मुख्य उद्देश्य था क्षिप्रा जल के मौलिक स्तर को नर्मदा नदी के जुड़ने से पूर्व तथा पश्चात की स्थिति का पता लगाना। इस हेतु चार घाटों (नमूना संग्रह स्थल) क्रमशः त्रिवेणी घाट, गऊघाट, रामघाट एवं मंगलनाथ घाट से जल के नमूनों को एकत्रित किया गया तथा पीएच, तापमान, चालकता, घुलित आक्सीजन, रासायनिक घुलित आक्सीजन, कठोरता, क्षारियता, फीकल कोलीफार्म, टोटल कोलीफार्म, तथा फीकल स्ट्रेप्टोकोकाई आदि प्राचलों का प्रयोगशाला में विश्लेषण किया गया। चारों नमूना स्थलों का वर्णन निम्न है।

त्रिवेणी घाट- यह उद्गम स्थान से लगभग 115 कि.मी. दूर है। त्रिवेणी घाट उज्जैन के दक्षिण पश्चिम में स्थित है तथा यहाँ विश्व प्रसिद्ध नवग्रह (शनि) मंदिर है। इसी स्थान पर खान नदी दक्षिण दिशा से आकर क्षिप्रा नदी में मिलती है। खान नदी इन्दौर से आते हुए अपने साथ बहुत सारा घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट लाती है एवं क्षिप्रा में त्रिवेणी पर समाहित होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार त्रिवेणी पर तीसरी धारा को इलाहाबाद संगम की तरह सरस्वती नदी की तरह लुप्त माना गया है।

गऊघाट - यह उद्गम स्थल से लगभग 124 कि.मी. दूर स्थित है इस स्थान पर धार्मिक आयोजन तथा मानवीय गतिविधियाँ अधिक होने के कारण इस स्थान पर प्रदूषण अधिक है। इस स्थान से भी जल नमूना एकत्रित कर परीक्षण किया गया।

रामघाट - यह उद्गम स्थल से लगभग 130 कि.मी. दूर स्थित है। यह हिन्दुओं का पवित्र घाट है। सिंहस्थ मेले के दौरान समस्त शाही स्नान एवं वर्ष भर अनेकों पवित्र स्नान इसी घाट पर होते हैं। लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहाँ घाट पर स्नान करते हैं। किन्तु इसी घाट के समीप शहर के घरेलू नाले भी इसमें समाहित होते हैं, जो कि यहाँ जल प्रदूषण के मुख्य स्त्रोत माने गए हैं।

मंगलनाथ - यह उद्गम स्थल से लगभग 140 कि.मी. दूर स्थित है। यहाँ विश्व प्रसिद्ध भगवान मंगलनाथ का मंदिर है। यह स्थान भी उज्जैन के उत्तर में स्थित है। घरेलू एवं मंदिर से निकलने वाले अपशिष्ट सीधे नदी में प्रवाहित होते हैं, जिससे यहाँ का जल प्रदूषित एवं अत्यधिक सुपोषी हो रहा है।

तालिका 1ः नमूना संग्रह स्थल की जानकारी अक्षांश देशांश में 2.1 प्रतिचयन विधि

क्रं

नमूना संग्रहण स्थल

उद्गम से दूरी (कि.मी)

ऊंचाई

(मीटर)

अंक्षातर

देशांतर

प्रदूषण के स्रोत

1

त्रिवेणीघाट

 115

453

23o  09'  उ

75o  43' पू

घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट

2

गऊघाट

 124

 453

23o  09'  उ

75o  43' पू

घरेलू अपशिष्ट

3

रामघाट

 130

 453

23o  09'  उ

75o  43' पू

घरेलू अपशिष्ट

4

मंगलनाथ

 140

 453

23o  09'  उ

75o  43' पू

घरेलू एवं अन्य अपशिष्ट

जल के नमूने निर्जर्मिकृत आसुत जल से साफ की गई प्लास्टिक बोतलों में एकत्रित किये गए। सूक्ष्मजीव परीक्षण हेतु शुुष्क बोतल का उपयोग किया गया जो 0.5 मि.ली. सोडीयम थायोसल्फेट (10 प्रतिशत घोल) द्वारा उपचारित की गई थी। परीक्षण हेतु जल नमूने जल सतह से 30-40 से.मी. की गहराई से एकत्रित कर प्रयोगशाला में ले जाये गए। जल नमूनों का परीक्षण भौतिक, रासायनिक एवं जैविक स्तर पर मानक विधियों द्वारा किया गया।

2.1.1 भौतिक परीक्षण

मुख्य भौतिक लक्ष्णों में पीएच, तापमान, धुन्धलता, चालकता, एवं कुल घुलित ठोस का परीक्षण एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया। चार नमूना संग्रहण को चिन्हित किया गया एवं इन घाटों पर जल नमूना संग्रहण नर्मदा नदी के क्षिप्रा से जुड़ने के पहले एवं बाद में किया गया नमूना संग्रहण दिन में तीन अलग अलग समय (प्रातः 8 बजे, दिन में 1 बजे एवं शाम 6 बजे) पर किया गया जिससे कि परिणामों का भली भांति अध्ययन किया जा सके।

पीएच - जल के पीएच का निर्धारण "सिस्ट्रोनिक  पीएचमीटर-335" द्वारा किया गया जिसमे प्रत्येक जल के नमूनों को प्रयोगशाला में नापा गया।

तापमान -  इस हेतु जल के तापमान का पता कांच के थर्मामीटर द्वारा लगाया गया।

चालकता - मापन के लिए चालकता मीटर का उपयोग किया गया जिसे पहले आसुत जल के द्वारा केलिब्रेट किया गया।

धुंधलापन - धुंधलापन को नापने के लिए सामान्य दृश्य विधि अपनाई गयी, जिसमे जल के नमूनों को आसुत जल के साथ रखकर देखा गया एवं उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा गयाः अपारदर्शी, अर्धपारदर्शी एवं पारदर्शी।

कुल ठोस - कुल ठोस के निर्धारण हेतु जल के नमूनों को दो भागो में विभाजित किया गया, जिसके एक भाग से कुल अघुलित ठोस का तथा दूसरे भाग से कुल घुलित ठोस का निर्धारण किया गया।

कुल अघुलित ठोस - इसकी मात्रा का पता लगाने के लिए छनन विधि का उपयोग किया गया, जिसमे 50 मि.ली. जल को वाह्टमन फिल्टर पेपर सं.1 के द्वारा छान लिया गया तथा इसके पश्चात पेपर को 102o से. तापमान पर सुखाया गया पेपर का भार दो बार नापा गया तथा जिन्हें पूर्व तथा पश्चात नाम भार दिया गया तथा कुल अघुलित ठोस का पता लगाया गया।

कुल घुलित ठोस - एक साफ स्वच्छ बीकर का भार लिया गया तथा इसमें 50 मिली जल लेकर 100o से. तापमान पर इसका वाष्पोत्सर्जन किया। इसके बाद पुनः बीकर का भार लिया गया तथा कुल घुलित ठोस का पता लगाया गया।

2.1.2 रासायनिक परीक्षणः

घुलित आक्सीजन - "विंकलर विधि" का उपयोग के द्वारा घुलित आक्सीजन का निर्धारण किया गया। इस विधि में मेंगनीज सल्फेट क्षारीय माध्यम में मेंगनीज हाइड्राक्साइड के अवक्षेप बनाता है जो कि आक्सीजन की उपस्थिति में भूरे रंग के अवक्षेप बनाता है जो कि अम्लीय माध्यम में आयोडाइड आयन से अपचयित होकर आयोडाइड बनाता है, जो कि आक्सीजन की उपस्थिति एवं मात्रा को दर्शाता है।

जैव रासायनिक आक्सीजन मांग - यह आक्सीजन की वह मात्रा है जो सूक्ष्मजीव कार्बनिक पदार्थो को वायु की उपस्थिति में अपघटित करने के लिए उपय¨ग में लाते है।

रासायनिक आक्सीजन मांग - वह आक्सीजन की मात्रा जिससे जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थो को किसी कठोर आक्सीकारक की उपस्थिति में आक्सीकृत किया जाता है। इस विधि में जल के नमूनों को फ्लास्क में लेकर उसे लिए बिग रिफ्लक्स कंडेंसर पर लगाकर फेरोईन संसूचक की उपस्थिति में टाइट्रेशन विधि द्वारा ज्ञात किया।

कठोरता - इसके लिए काम्पलेक्सोमेट्रिक विधि का उपयोग किया गया, जो कि एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित की गयी। कठोरता सामान्यत कैल्शियम एवं मैग्नीशियम की उपस्थिति के कारण होती है। कैल्शियम तथा मैग्नीशियम एरीक्रोम ब्लैक टी के साथ क्रिया करके वाइन रेड रंग का निर्माण करते हैं, जो कि इङीटीए की उपस्थिति में नीले रंग को बनाते है।

क्षारीयता - यह विधि एसिड बेस टाइट्रेशन पर आधारित है, जिसमें मिथाइल आरेंज तथा फिनोफ्थेलिन सूचक के रूप में उपयोग किया जाता है। क्षारीयता के प्रमुख कारण कार्बोनेट तथा बाइकार्बोनेट आयन होते हैं।

2.1.3 जीवाणवीय परीक्षण

कुल कोलीफार्म एवं विष्टा कोलीफार्म - इसके लिये जल नमूनो का परीक्षण अति समभव्य संख्या विधि द्वारा किया गया। जीवाणु की वृद्धि के लिये उपयोग में लाये गये संवर्धन माध्यम मेकान्की ब्राॅथ, ब्रिलिएंट ग्रीन लेक्टोस ब्रोथ तथा इओसिन मेथिलीन ब्लू अगर माध्यम थे।

विष्ठा स्ट्रेण्टोकोकाई - इन जीवाणुओं के परीक्षण हेतु अजाईड डेक्स्ट्रोस ब्राॅथ एवं फाइजर सेलेक्टिव एन्टेरोकोकस अगर संवर्धन माध्यम का उपयोग एपीएचए (1998) द्वारा वर्णित विधियों से किया गया। सभी परिणामों को सांख्यिकीय मानकों पर जांचा गया तथा तालिका के रूप में प्रदर्शित किया गया है।

3. परिणाम एवं विवेचना

विभिन प्रकार के मानव जनित कार्यो के द्वारा नदियों के प्रदूषण में वृद्धि होती जा रही है, जिसके परिणाम स्वरूप स्वच्छ जल के मौलिक स्तर एवं मात्रा में कमी आती जा रही है। इस अध्ययन के द्वारा उज्जैन शहर की जीवन रेखा कही जाने वाली क्षिप्रा नदी के जल नमूनों को एकत्रित कर उसके भौतिक रासायनिक तथा सूक्ष्मजीवीय स्वास्थ्य को जानने का प्रयास किया गया। इस अध्ययन में क्षिप्रा जल को एकत्रित करने के लिए जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि चार नमूना स्थलों को जल संग्रहण के लिए चिन्हित किया गया। जल संग्रहण प्रातः 8 बजे, दिन में 1 बजे तथा शाम को 6 बजे किया गया। पहले भाग में क्षिप्रा जल से मिलने के पूर्व जल संग्रहण तथा आकलन किया गया, जबकि दूसरे भाग में क्षिप्रा जल का संग्रहण नर्मदा नदी जल के मिलने के पश्चात भी किया गया।

जल का तापमान बहुत महत्वपूर्ण होता है क्योकि जीवों की कई जैव रासायनिक क्रियाएं तापमान पर निर्भर करती हैं। क्षिप्रा जल को नर्मदा नदी के जुड़ने से पूर्व एवं पश्चात नमूना स्थलों से एकत्रित कर थर्मोमीटर द्वारा मापा गया। सबसे अधिक औसत तापमान (28.4) रामघाट पर प्राप्त, जो कि नर्मदा जल के जुड़ने के पश्चात् हुआ, जबकि सबसे कम औसत तापमान गऊघाट (26.8) प्राप्त हुआ, जो कि नर्मदा जल के क्षिप्रा नदी से जुड़ने के पूर्व की स्थिति को दर्शाता है (तालिका 2)। तापमान में इस प्रकार का परिवर्तन इस बात को साबित करता है कि तापमान पर बाहरी वातावरण का भी बहुत अधिक प्रभाव होता है। जल का पीएच 6.5-8.5 होने पर इसका प्रत्यक्ष प्रभाव जीवो पर पड़ता है। इस अध्ययन में न्यूनतम पीएच 6.8 तथा अधिकतम पीएच 9.1 रामघाट क्षेत्र से प्राप्त हुआ।

 

 

 

 

 

चालकता 2.1 म्यू मोह्स/सें.मी. भी रामघाट पर प्राप्त हुई तथा न्यूनतम 0.78 गऊघाट पर प्राप्त हुई तालिका 2 में सभी भौतिक चालकों के बारे में दर्शाया गया है। धुंधलापन का पता लगाने के आसुत जल के साथ नमूना जल को देखकर ज्ञात हुआ कि सभी स्थानों के जल के नमूने में धुंधलापन बहुत अधिक पाया गया (चित्र 5)। इसी प्रकार घुलित आक्सीजन वायवीय श्वसन करने वाले जलीय जीवों के लिए आवश्यक है। घुलित आक्सीजन की सबसे अधिक मात्रा रामघाट क्षेत्र (8..9) में प्राप्त हुई तथा सबसे कम मंगल नाथ (3.0) क्षेत्र में प्राप्त हुई। जैव रासायनिक आक्सीजन मांग तथा रासायनिक आक्सीजन मांग जल के प्रदूषण के सूचक माने जाते हैं। जैव रासायनिक आक्सीजन का सर्वाधिक मान गउ-घाट पर प्राप्त हुआ, जबकि न्यूनतम मान (12.5) मंगल नाथ घाट पर प्राप्त हुआ। रासायनिक आक्सीजन मांग के सभी नमूना स्थलों पर वि‐स्वा.सं. के मानकों से ज्यादा पाई गई, जो कि अधिकतम त्रिवेणी घाट (78.6) तथा न्यूनतम (15.9) मंगलनाथ घाट पर प्राप्त हुई। जल की कठोरता यदि 200 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) से अधिक पाई जाती है तो यह जल में पाए जाने वाले जैविक कारको के लिए हानिकारक होती है। वि‐स्वा.सं. एवं भारतीय मानक ब्यूरो के मानकों के आधार पर चारों घाटों की कठोरता बहुत अधिक पाई गयी (तालिका 3), जो कि नर्मदा जल के जुड़ने के बाद वि‐स्वा.सं. के मानकों के आसपास प्राप्त हुई। भारतीय मानकों के अनुसार 300 पीपीएम क्षारीयता वहन करने योग्य है। किन्तु इस अध्ययन में रामघाट नमूमा क्षेत्र में सर्वाधिक 510 पीपीएम कठोरता पाई गई जबकि न्यूनतम 300 पीपीएम त्रिवेणी घाट पर प्राप्त हुए (तालिका 3)। जैसा कि हम जानते हैं कि जल हमारे पारितंत्र का एक बहुत अनिवार्य एवं महत्वपूर्ण अंग है। लगभग सभी जीव-जंतु को अपने जीवन यापन के लिए जल की आवश्यकता होती है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण, रासायनिक उर्वरकों का उपयोग तथा अन्य मानव जनित प्रदूषकों द्वारा स्वच्छ जल लगातार प्रदूषित हो रहा है। अतः यह बहुत आवश्यक है कि नदी तथा अन्य स्वच्छ जल के संसाधनों को समय समय पर जांचा जाए एवं उनका सही ढंग से उपचार किया जाए।

बस्वराजा ऐट. आल., (2011) ने यह बताया कि जल में उपस्थित जैविक एवं रासायनिक कारकों का अध्ययन बहुत आवश्यक है। शुद्ध जल की आपूर्ति के लिए आवश्यक है कि उसमें बहुत काम मात्रा में अशुद्धता हो जो कि कई बार एरोसोल कणो के कारण, कई मानव जनित क्रियाओं, तथा घरों से निकलने वाले अपशिष्ट के कारण होता है (अदेयेये, 1994; असायलु 1997)।

औद्यागिक क्षेत्र के विभिन्न प्राचलों का अध्ययन किया गया तथा यह पाया गया कि कुछ प्राचल मानकों से बहुत अधिक पाए गए गुप्ता ऐट.आल., (2009) ने कैथल नदी से 20 जल नमूनों का अध्ययन किया तथा पाया कि आई. सी. एम. आर. (भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद) एवं वि‐स्वा.सं. के मानकों के अनुरूप नहीं पाये गए, जो कि इस अध्ययन से भी स्पष्ट होता है। सावंत तथा देशमुख (2012), नवनीत कुमार ऐट.आल., (2010), डे-कल्लोल ऐट.आल., (2005), पुनकोयी तथा पर्वतम (2005) ने नदी जल के विभिन प्राचलों का अध्ययन किया तथा बताया कि भारत की कई नदियां प्रदूषण के अधिकतम स्तर पर हैं। क्षिप्रा नदी के जल के अध्ययन से साबित होता है कि नदी जल का प्रदूषण बहुत चिंता का विषय है, जिसे बड़ी एवं प्रवाहमान नदियों को आपस में जोड़कर कुछ हद तक दूर किया जा सकता है। रोकड़े एवं गणेशवाड़े (2005) ने अपने शोध में पीएच, कठोरता आदि के बारे में विस्तार से बताया। यूनेप (संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम) 1991 की रिपोर्ट के अनुसार विकासशील देशों की 75 प्रतिशत जनसंख्या को स्वच्छ जल की आपूर्ति नहीं हो पा रही है तथा जनसंख्या विस्फोट इसका एक प्रमुख कारण है।

प्रदूषण की समस्या उज्जैन में बहने वाली क्षिप्रा नदी के लिए भी है क्योंकि लगातार जनसंख्या में वृद्धि, गाँवों से लोगों का शहर की ओर स्थाई प्रवास, शहरीकरण, उद्योगों का लगातार बढ़ना तथा कृषि में नए प्रयोगो के फलस्वरूप क्षिप्रा जल के स्तर में कमी भी आयी है तथा प्रदूषण में वृद्धि भी हुई है। कुमावत एवं शर्मा (2015) ने क्षिप्रा जल के भौतिक, रासायनिक एवं सूक्ष्मजीवीय प्राचलों का अध्ययन किया तथा यह पाया कि सभी प्राचल केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ध्वि‐स्वा.सं. के मानकों से बहुत ज्यादा है। नाइजीरिया में गंगोला नदी के जल का अध्ययन करने पर यह ज्ञात हुआ कि टोटल कोलीफाॅर्म एवं फीकल कोलीफाॅर्म की संख्या बहुत अधिक पाई गयी जो कि हमारे प्रस्तुत अध्ययन में स्पष्ट होती है (तालिका 4)। वि‐स्वा.सं. के अनुसार इ.कोली की संख्या प्रति 100 मि. ली. जल में 0 (शून्य) होनी चाहिए तथा फीकल कोलीफाॅर्म की संख्या 103 प्रति 100 मिली होनी चाहिए जो कि क्षिप्रा जल में बहुत अधिक पाई गयी (तालिका 4)। विभिन्न अध्ययनों के द्वारा यह स्पष्ट होता है कि टोटल कोलीफार्म, फीकल कोलीफार्म तथा फीकल स्ट्रेप्टोकोकाई की उपस्थिति जल को प्रदूषित करती है तथा इस प्रकार के जल का उपयोग किसी भी कार्य में नहीं किया जाना चाहिये।

4. उपसंहार

इस अध्ययन के द्वारा इस बात को बल मिलता है कि नदी जोड़ो अभियान प्रदूषण के स्तर को कम करने में बहुत अधिक सहायक है, साथ ही वहां पर उपस्थित जैव विविधता के संरक्षण को भी लाभ पहुंचा सकता है। नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना इस बात को सही साबित करती है कि नदियों के आपस में जुड़ने से प्रदूषित एवं अप्रवाहमान क्षिप्रा जैसी नदियों के स्तर को सुधारा जा सकता है, एवं क्षेत्रीय जल संकट से उभरा जा सकता है। धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए नदी के जल का समुचित उपचार बहुत आवश्यक है। वर्तमान अध्ययन के कई स्थानों पर प्रदूषण का प्रमुख कारण धार्मिक आयोजनों के द्वारा होने वाले स्वाभाविक कार्य हैं। जिन्हें रोका जाना लगभग अंसभव है किन्तु जनमानस में जागरुकता से इसे कम किया जा सकता है। चूंकि क्षिप्रा जल, जलीय वातावरण में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवों का वास स्थान है तथा इनकी अत्यधिक संख्या इस ओर संकेत करती है कि इन जीवाणुओं की उपस्थिति नदी के पानी को आने वाले समय में और अधिक प्रभावित कर सकती है।

वर्तमान अध्यनन से स्पष्ट है कि बड़ी एवं प्रवाहमान नदी का छोटी, अप्रवाहमान नदी से जुड़ना उस क्षेत्र के कृषि, व्यापार, जल आपूर्ति एवं पर्यावरण हेतु लाभप्रद हो सकता है।

5. आभार

इस शोध पत्र के लेखक तकनीकी सहयोग के लिए डा. कुमेर सिंह मकवाना (विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन) का आभार व्यक्त करते हैं, जिनके द्वारा शोध पत्र के टंकण एवं कंप्यूटर सम्बन्धी कार्य में सहायता प्रदान की गई।

तालिका 2ः भौतिक प्राचलों का अध्ययन (प्रत्येक नमूना स्थल से नर्मदा जल के क्षिप्रा नदी में मिलने केे पूर्व तथा पश्चात जल संग्रहण)

 

 

तालिका 3ः विभिन्न रासायनिक प्राचलों की विभिन्न नमूना स्थलों पर स्थिति

 

तालिका 4ः सूक्ष्मजीवीय प्राचलों का अध्ययन

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