नर्मदा–क्षिप्रा लिंक से उद्योगों को पानी देने पर सवाल

31 Aug 2017
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मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल के ताज़ा फैसले में 432 करोड़ लागत वाली महत्त्वाकांक्षी नर्मदा–क्षिप्रा लिंक से देवास के उद्योगों को पानी दिए जाने पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। इससे एक तरफ पीने के पानी का संकट बढ़ सकता है वहीं देवास औद्योगिक इलाके की जलापूर्ति के लिये कुछ सालों पहले 150 करोड़ की लागत से 135 किमी दूर नर्मदा तट नेमावर से उदवहन कर पानी लाए जाने की योजना भी ठप्प हो जाएगी। उधर उद्योगों को पर्याप्त पानी नहीं मिलने से उत्पादन प्रभावित हो रहा था।

नर्मदा क्षेत्र में पर्यावरण के मुद्दे पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद इसे लेकर खासे चिंतित हैं। उनका मानना है कि नर्मदा नदी का इन दिनों अत्यधिक दोहन किया जा रहा है, जो कहीं से भी उचित नहीं है। फिलहाल राज्य सरकार नर्मदा से इंदौर, जबलपुर जैसे 18 बड़े शहरों को पहले से पानी दे रही है। अब नई योजनाओं में भोपाल, बैतूल, खंडवा जैसे 35 और शहरों को भी इसका पानी दिए जाने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। बिजली उत्पादन के लिये पहले ही बड़े–बड़े बाँध बनाए गए हैं। उन्होंने चिंता जताई है कि ऐसी स्थिति में नर्मदा नदी के पानी का कितना उपयोग हो सकेगा और इसका विपरीत प्रभाव कहीं नदी की सेहत पर तो नहीं पड़ेगा। अत्यधिक दोहन से सदानीरा नर्मदा कहीं सूखने तो नहीं लगेगी। नर्मदा के पर्यावरण पर भी इसका विपरीत असर पर सकता है और इससे बड़े भौगोलिक बदलाव भी हो सकते हैं।

पर्यावरण के जानकार सुनील चतुर्वेदी बताते हैं कि नर्मदा के पानी का अत्यधिक दोहन नदी के सूखने या उसके खत्म होने का सबब भी बन सकता है। नदी तंत्र पर इसका विपरीत असर हो सकता है। इसमें सावधानी बरतने की ज़रूरत है। हर जगह नर्मदा जल के इस्तेमाल से बचना होगा।

देवास शहर और आस-पास के कुछ गाँवों को लिंक योजना से उम्मीद थी कि नर्मदा के पानी के सहारे वे गर्मियों में भयावह जल संकट के वक्त पीने का पानी ले सकेंगे लेकिन यदि उद्योगों को पानी दिया जाएगा तो पीने के पानी का संकट बढ़ सकता है।

नर्मदा क्षिप्रा लिंक योजना का प्राथमिक उद्देश्य यही था कि इससे हर साल सूख जाने वाली क्षिप्रा नदी लगातार बहती रहेगी और आसपास के गांवों–शहरों को इससे पीने के पानी का संकट नहीं होगा। उज्जैन और देवास जिले के क्षिप्रा किनारे करीब ढाई सौ से ज़्यादा गाँवों के लोगों को पानी मिलेगा। साथ ही नदी में पानी भरा रहने से आस-पास के तालाब और अन्य जलस्रोत भी भरे रहेंगे और उनके जलस्तर में सुधार होगा। कुएँ और तालाबों के रिचार्ज होने से इस पर खेती की निर्भरता को बढ़ावा मिलेगा लेकिन हुआ इससे ठीक उल्टा। खेती के लिये नदी किनारे के किसानों ने जहाँ नदी से नर्मदा का बेशकीमती पानी उलीचना शुरू कर दिया तो सरकार ने भी यह पानी अब देवास के उद्योगों को दिए जाने का निर्णय किया है। देवास के बाद अब पीथमपुर, उज्जैन और इंदौर के उद्योगों ने भी लिंक योजना से पानी दिए जाने की मांग उठाना शुरू कर दी है।

कांग्रेस के प्रदेश महामंत्री मनोज राजानी प्रदेश सरकार के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि सरकार की नीतियाँ असफल हो रही हैं। पहले करोड़ों की बर्बादी कर नेमावर से पानी लाया गया और अब लिंक योजना से पानी देने की बात है, लेकिन उद्योगों को पानी मिल नहीं पा रहा। इससे शहर से कई उद्योग खासकर कपड़े की इकाइयाँ बंद हो चुकी हैं। शहर को गर्मियों में पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा है। लोग बाल्टी–बाल्टी पानी को मोहताज हैं। पानी का पहला उपयोग पीने के लिये होना चाहिये।

1 अगस्त 2017 को मंत्रिमंडल की बैठक में देवास के उद्योगों को 23 एमएलडी पानी नर्मदा–क्षिप्रा लिंक से मुहैया कराने का निर्णय लिया है। देवास औद्योगिक इलाके में करीब 600 इकाइयाँ हैं। यहाँ साल दर साल बढ़ते जा रहे जल संकट के कारण उद्योगों को पानी समुचित मात्रा में नहीं मिल पा रहा था। स्थानीय उद्योगपति लिंक योजना से पानी के लिये बीते तीन साल से गुहार लगा रहे थे। एसोसिएशन ऑफ़ इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष अशोक खंडोलिया बताते हैं कि नेमावर से दस साल पहले नर्मदा के पानी को पाइपलाइन से यहाँ लाने की बीओटी योजना शुरू की गई थी, लेकिन अब ज़रूरत का दस प्रतिशत पानी भी उद्योगों को नहीं मिल पा रहा है। 30 सालों के लिये बनाया प्रोजेक्ट दस साल में ही दम तोड़ चुका है। शर्तों के अनुरूप हर दिन करीब 30 एमएलडी पानी मिलना था लेकिन पाइपलाइन जर्जर होने से फ़िलहाल दो एमएलडी पानी भी नहीं मिल पा रहा है। पर्याप्त पानी नहीं मिलने से उद्योगों को बाहर से महँगे दाम पर पानी खरीदना पड़ रहा है। वहीं पानी की कमी से कुछ उद्योग बंद होने की कगार पर हैं। उत्पादन क्षमता भी प्रभावित हो रही है।

दरअसल देवास के औद्योगिक क्षेत्र को पानी देने के लिये 2002 में राज्य सरकार ने नर्मदा से बीओटी आधार पर वेलस्पून कम्पनी से एक अनुबंध किया था। इसमें अनुबंध के मुताबिक हर दिन 30 एमएलडी पानी पहुँचना था। तब उद्योगों की ज़रूरत महज 23 एमएलडी पानी की ही थी लेकिन 2007 में परियोजना के प्रारंभ होने से लेकर अब तक उद्योगों को पर्याप्त पानी नहीं मिल सका है। इतना ही नहीं रास्ते में पड़ने वाले 23 गाँवों तथा कुछ कस्बों को इससे पीने के पानी देने की बात भी अनुबंध में शरीक थी। लेकिन कुछ जगह ही पीने का पानी मिल सका वह भी कभी-कभार। अब योजना के ठप्प हो जाने से इन गाँवों के सामने फिर संकट होगा।

सूत्र बताते हैं कि परियोजना में शुरू से ही कुछ खामियाँ और तकनीकी समस्याएँ रही हैं। इनका समुचित निराकरण नहीं होने से ये स्थिति बनी है। कम्पनी ने जल आपूर्ति में जीआरवी पाइपों का इस्तेमाल नहीं किया। इससे आपूर्ति पाइपों के बार-बार फटने और बड़ी मात्रा में जल रिसाव हुआ और पाइपलाइन बुरी तरह प्रभावित हुई है। कई बार स्थानीय अधिकारियों ने इसके सुधार का मसला बैठकों और पत्रों में किया लेकिन कम्पनी के उच्च सूत्रों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। अब इस पर कम्पनी के अधिकारी मीडिया से कुछ भी कहने को तैयार नहीं है। कुछ गाँवों और खेतों में पानी के लिये पाइपों में तोड़फोड़ भी की।

industriesइन खामियों के कारण ही 30 साल की परियोजना 10 साल में ही चौपट हो गई। इससे अनुबंध की शर्तों का उल्लंघन होता है लेकिन यह प्रदेश की पहली बीओटी परियोजना थी और इसमें सरकारी धन नहीं लगा है। इसमें सिर्फ़ समयसीमा में अपेक्षित पानी नहीं पहुँचाने की शर्त का ही उल्लंघन है। अनुबंध में इस पर ज़्यादा कुछ स्पष्ट नहीं है। कंपनी को उद्योगों से मिलने वाले राजस्व का घाटा ज़रूर हो रहा है।

वेलस्पून के प्लांट हेड एमएम खान का भी मानना है कि पाइपलाइन इतनी जर्जर हो गई है कि अब इसकी मरम्मत भी संभव नहीं है। सवा सौ किमी लंबी पाइपलाइन बदलने का काम बहुत श्रमसाध्य तथा काफी खर्चीला है। कंपनी को फिलहाल उद्योगों से अपेक्षित राशि नहीं मिल रही है। इसका पानी महँगा होने से उद्योग खरीदने में कतराते हैं। साथ ही तकनीकी दिक्कतों से जल आपूर्ति भी प्रभावित होती है। इसलिए कम्पनी का पैसा नहीं निकल रहा और न ही उसे संभावना नजर आ रही है। इसलिए पाइपलाइन बदलने की बात नहीं की जा रही है। पाइपलाइन बदलने में करीब-करीब उतना ही खर्च आ रहा है, जितने में नयी परियोजना लगाई जा सकती है।
 

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