नर्मदा सेवा, पर्यटन या शिगूफा यात्रा

15 Dec 2016
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प्रदूषण बढ़ाने वाली दर्जनों तापविद्युत परियोजनाएँ बरगी और अन्य बाँधों के क्षेत्र में जो कि नदी से मात्र 5/10 कि.मी. दूरी पर स्थित हैं, को लाने वाले शासक, प्रदूषण रोकने की मंशा रखते हैैं या केवल प्लास्टिक से बचाकर नदी को प्रदूषण मुक्त रखेंगे? नर्मदा का पानी ओंकारेश्वर जलाशय से प्रति सेकेंड हजारों लीटर्स पानी उठाकर बड़ी पाइप लाइनों के जरिए उद्योगों को देने की योजनाएँ नर्मदा-क्षिप्रा, नर्मदा-गम्भीर, नर्मदा-काली सिंध नदी जोड़ क्या नर्मदा की ‘सेवा’ योजनाएँ हैं या उद्योगपतियों के लिये नर्मदा का ‘मेवा’। मध्य प्रदेश शासन द्वारा प्रायोजित नर्मदा सेवा यात्रा, करोड़ों रुपए खर्च करके क्या कुछ अर्जित कर पाएगी? इसका चमकता प्रचार-प्रसार जारी है। प्रदूषण रोकने की, वृक्षारोपण की, तथा कचरा और लाश फेंकने के अलावा रेत खनन के असरों से भी नदी बचाने की बात का दावा यह यात्रा करती है। परन्तु विनाशकारी कार्य को आगे बढ़ाने वाले, उसे कानूनी जामा पहनाने में सक्रिय व्यक्ति, संस्थाएँ व शासकीय अधिकारी इस यात्रा का आयोजन करते हुए दिखाई देते हैं।

आज किसानों, आदिवासियों या दलितों के मुद्दों के तिरस्कार और प्राकृतिक संसाधनों के शोषण पर आधारित पूँजीनिवेश और पूँजीपतियों की लूट व बड़ा मुनाफा कमाने में मददगार अर्थ नीति के चलते अन्ततः ‘नर्मदा’ के साथ भी, ‘गंगा’ जैसा ही व्यवहार होगा।

नर्मदा नदी की सेवा करने वाले भक्तों, सच्चे साधु-सन्तों तथा घाटी के लाखों लाख निवासियों ने आज तक 1300 कि.मी. लम्बी नर्मदा को स्फटिक जैसे शुद्ध रखा है। झरनों से लेकर उपनदियों तक से बहता पानी ही नर्मदा को प्रवाहमान रखता है। परन्तु आज नर्मदा को केवल डूब क्षेत्र बना दिया गया है।

इस नदी कछार के क्षेत्र की धरती, अति उपजाऊ खेती, पीढ़ियों पुराने गाँव, हजारों घर तथा पेड़ डुबोकर क्या बचेगा? जलग्रहण क्षेत्र में जलाशय बनाने से अब ना तो नदी का पानी कलकल बहेगा और ना ही शुद्ध रहेगा। 30 बड़े व 135 मझोले बाँधों से नदी को बाँधकर उसे तालाबों की शृंखला में परिवर्तित करके संचित प्रदूषित पानी देने वाला म.प्र. शासन किस आधार पर नर्मदा नदी और सहायक 41 नदियों को बचाने या बहती रखने का दावा करता है?

नर्मदा घाटी पर बने सरदार सरोवर जलाशय का उदाहरण लीजिए। मध्य प्रदेश के हजारों विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का आश्वासन मिला था और सर्वोच्च अदालत में शपथपत्र दाखिल हुआ था। गुजरात और महाराष्ट्र ने विस्थापितों के कुल 14000 परिवारों को 2-2 हेक्टेयर जमीन दी, जबकि मध्य प्रदेश ने मात्र 50 परिवारों को जमीन दी है।

यहाँ कइयों को घर प्लॉट तक नहीं मिला। मध्य प्रदेश में मछुआरों को महाराष्ट्र जैसा मछली पर अधिकार भी नहीं मिला। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारी के आधार पर शिकायत निवारण प्राधिकरण में बिठाए गए पूर्व न्यायाधीश जवाब देते हैं कि जमीन नहीं है। जबकि कम्पनियों के लिये 1,50,000 एकड़ जमीन मध्य प्रदेश शासन के पास तैयार है।

नर्मदा के हजारों परिवार पुनर्वास में जमीन मिलने की राह देखते हुए 31 सालों से लड़ रहे हैं। वर्ष 1999 में सर्वोच्च अदालत में दर्ज जानकारी के मुताबिक मध्य प्रदेश 8000 हेक्टेयर जमीन उपलब्ध थी, परन्तु उसे अनदेखा करके विस्थापितों को मात्र खराब, अनुपजाऊ पथरीली जमीन दिखाकर पुनर्वास से वंचित रखा गया।

सरदार सरोवर परियोजना से विस्थापित हजारों परिवारों को जमीन का कानूनन हक होते हुए भी उन्हें सरकार से खेती लायक जमीन नहीं मिली इसीलिये उन्हें विशेष पुनर्वास अनुदान याने नगद पैकेज देकर फँसा दिया गया। सरकार ने जमीन न देकर नगद मुआवजे का प्रावधान इसलिये किया ताकि आसानी से भ्रष्टाचार किया जा सके।

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त मा. न्यायमूर्ति एसएस झा आयोग की 7 सालों की जाँच से निकला कि 1589 फर्जी रजिस्ट्रियों का घोटाला किया गया है। आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि नगद राशि देने की गलत नीति के कारण यह भ्रष्टाचार हुआ है और अधिकारी तथा दलाल इसके लिये दोषी हैं।

इस पूरे जमीन घोटाले के लिये अब तक मात्र विस्थापित क्रेता व विक्रेता, जिनमें पूरी निमर्मता से फँसाए गए आदिवासी, दलित, कई अन्धजन एवं विधवा शामिल हैं, के खिलाफ दलालों के साथ आपराधिक प्रकरण दाखिल कर रहे हैं। इसमें आरोपियों की सूची में आयोग की ओर से डाले गए अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की भी खबर नहीं है।

अधिकारियों को बचाने की पूरी साजिश शिवराज सिंह सरकार रच रही है। क्या इसी नर्मदा सेवा के लिये यात्रा के दौरान इन अधिकारियों को शासन पुरस्कार भी देगा? इन बाँधों में हजारों हेक्टेयर का घना जंगल डुबाते वक्त शासन के नुमाइंदों ने झूठे दावे किये थे। तीन गुना पेड़ लगाने का वायदा किया गया। परन्तु प्राकृतिक जंगल का पुनर्निर्माण असम्भव होने की वैज्ञानिक बात से क्या इनके विशेषज्ञ भी परिचित नहीं हैं।

सरकार आज सरदार सरोवर के जलग्रहण क्षेत्र में धार एवं बड़वानी जिले के गाँव गाँव में खस का जंगल खड़ा करने का ढोंग कर रही है। पहले भी पर्यावरण मंत्रालय और तमाम संस्थाओं की मंजूरी/सहमति लेते गए व करोड़ों रुपयों का खर्च मात्र कागज पर दिखाया गया है।

अब नर्मदावासियों को फल के वृक्ष देने के लिये 600 करोड़ रु. खर्च और बजट तय करने के बाद भी क्या उन लाखों पेड़ों की भरपाई सम्भव होगी। स्थानीय प्रजातियों के बदले शासक छोटे फलवृक्ष लगाकर क्या मिट्टी का बहना रोक सकेंगे। नर्मदा सेवा यात्रा अवैध रेत खनन को कैसे रोकेगी, इसका जवाब तो वे ही दें जो इस दावे को बिना कोई विवरण के प्रचारित कर रहे हैं।

नर्मदा किनारे बड़वानी जिले के ठीकरी तहसील के छोटा बड़दा, पेण्डा, भीलखेड़ा, गोई नदी इत्यादि क्षेत्र में आज तक अवैध रेत खनन चल रहा है। धार जिले के खुजावा (धरमपुरी) गोपालपुरा, गोगावाँ इत्यादि क्षेत्रो में अलिराजपुर के चाँदपुर, सेजा इत्यादि गाँव आज भी जारी रेत खनन अवैध है।

प्रदूषण बढ़ाने वाली दर्जनों तापविद्युत परियोजनाएँ बरगी और अन्य बाँधों के क्षेत्र में जो कि नदी से मात्र 5/10 कि.मी. दूरी पर स्थित हैं, को लाने वाले शासक, प्रदूषण रोकने की मंशा रखते हैैं या केवल प्लास्टिक से बचाकर नदी को प्रदूषण मुक्त रखेंगे? नर्मदा का पानी ओंकारेश्वर जलाशय से प्रति सेकेंड हजारों लीटर्स पानी उठाकर बड़ी पाइप लाइनों के जरिए उद्योगों को देने की योजनाएँ नर्मदा-क्षिप्रा, नर्मदा-गम्भीर, नर्मदा-काली सिंध नदी जोड़ क्या नर्मदा की ‘सेवा’ योजनाएँ हैं या उद्योगपतियों के लिये नर्मदा का ‘मेवा’।

पर्यटन के लिये 7 मीटर चौड़ा पथ बनाकर वाहन-परिक्रमा को बढ़ाने की ओर परन्तु पैदल परिक्रमा को खत्म करने की ओर उठा कदम क्या अम्बानी जैसे बड़े उद्योगपतियों को पर्यटन का जिम्मा सौंपना नहीं है? नर्मदा की प्राकृतिक पूँजी, आदिवासी, किसान, मछुआरे, कुम्हारों से छीनकर जमीन और जल भी धन्ना सेठों आबंटित करने की ओर मध्य प्रदेश सरकार चल पड़ी है।

मध्य प्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा माई को कोका-कोला, नैनो और अन्य कार कारखानों या अडानी के लिये मोड़ने वाली गुजरात सरकार के प्रतिनिधि के रूप में मुख्यमंत्री विजय रुपाणी भी यात्रा की शुरुआत में उपस्थित रहे। वहीं 15 जुलाई से आज तक सरदार सरोवर बाँध के पास क्रमिक अनशन पर बैठे गुजरात के विस्थापितों को मिलने के लिये रुपाणी जी के पास समय नहीं है, जबकि एक आदिवासी की मौत भी हो चुकी है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी आज तक कभी किसी विस्थापित गाँव का दौरा नहीं किया और न ही देखा कि पुनर्वास हुआ भी है कि नहीं?

अनिल माधव दवे पर्यावरण मंत्री बनने के बाद जब ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में आये तब वे बताते, क्या नर्मदा का पानी उठाकर, इतने सारे उद्योगों को पानी उपलब्ध कराने की (5,7,0000 करोड़ रुपए निवेश की घोषणा) योजना सम्पूर्ण परिणाम जाँचकर, पर्यावरणीय मजूरी के लिये कभी प्रस्तुत की गई है? क्या निवेश से पूर्व इसे सार्वजनिक करने के पहले पर्यावरणीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं है? क्या उद्योगों के पर्यावरणीय, सामाजिक असर जाँचे गए हैं? क्या नर्मदा को खेती की कीमत पर उद्योगों की ओर मोड़ना भी उन्हें मंजूर है? सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या वे सरदार जलाशय सरोवर के गेट बन्द करके बसे-बसाए गाँवों के 2.5 लाख लोगों की जलसमाधि को भी नर्मदा की सेवा ही मानेंगे?

और क्या कहें? नर्मदा माई की जय।

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