‘ओरण’ का मरुक्षेत्र के पारिस्थितिकी तन्त्र से गहरा ताल्लुक


‘ओरण’ की परम्परा के सम्बन्ध में मान्यता यह है कि गाँव की भूमि का एक भूखंड अपने लोकदेव के प्रति अपार श्रद्धा के रूप में लोक कल्याण हेतु छोड़ने से उनके प्रति ‘उऋण’ हुआ जा सकता है और इसी कारण यह भूखंड ‘ओरण’ कहलाता है। मरुक्षेत्र में इन ‘ओरणों’ का पारिस्थितिकी तन्त्र से कितना निकट सम्बन्ध है, इसकी लेख में रोचक चर्चा है।

‘ओरण’ मरुक्षेत्र की प्राकृतिक, भौगोलिक एवं पर्यावरणीय परिस्थितियों से सम्बद्ध एक ऐसा ‘लघु वनक्षेत्र’ है जो मरुस्थलीय क्षेत्रों की विकट स्थिति में भी वहाँ के अनूठे पारिस्थितिकी-तन्त्र के माध्यम से गाँवों के स्वावलंबन एवं आत्मनिर्भरता में क्रांतिकारी परिवर्तन का सूत्रपात करता है। इतिहास गवाह है कि पश्चिमी राजस्थान के विशाल थार मरुस्थल क्षेत्र में शताब्दियों से स्थान-स्थान पर नखलिस्तान रूपी ‘ओरणों’ के चमत्कार से ही पशुपालन व्यवसाय आधारित अर्थव्यवस्था के बल पर ही यहाँ के ग्रामीण अत्यन्त पिछड़े युग में भी भीषणतम अकालों का सहजता से मुकाबला करते रहे हैं। दुर्भाग्य से पिछले लगभग दो दशकों से ग्रामीणों में ‘ओरणों’ के प्रति आस्था कम होते जाने एवं आबादी के जबर्दस्त विस्तार के कारण इन जीवनदायिनी धरोहरों का विनाश जारी है। सैकड़ों ओरणें तो अपना अस्तित्व ही खो चुकी हैं जिससे मरुक्षेत्र के ग्रामीणों को अकाल के दौरान अपनी एवं पशुओं की जान के लाले पड़ने लगे हैं।

उल्लेखनीय है कि अकाल एवं ओरण के मध्य मरुस्थलीय पारिस्थितिकी तन्त्र में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आरोग्य एवं पर्यावरणीय दृष्टि से गहरा सम्बन्ध रहा है। दूरस्थ ग्रामीण मरुस्थल समाज की सदियों पुरानी ‘लघु वन’ आधारित इस अनूठी आत्मनिर्भर व्यवस्था का जीवन्त स्वरूप ‘ओरण’ संस्कृति में देखा जा सकता है। देश की आजादी एवं तत्पश्चात विकास के आधार पर मरुक्षेत्र की अर्थव्यवस्था एवं पर्यावरण सुधार की धुरी बने इन ‘ओरणों’ की संख्या में इजाफा होने की बजाय दुर्भाग्य से इनकी संख्या में तेजी से गिरावट आती गई और मरुस्थल की प्राकृतिक धरोहर हजारों ‘ओरणें’ विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई। ओरण एवं मरुस्थलीय समाज में उत्पन्न असन्तुलन वर्तमान में प्रतिवर्ष अकाल एवं अल्प वर्षा में बाढ़ के हालात के प्राकृतिक प्रकोप के रूप में मरुक्षेत्र के बाशिन्दों के जान-माल एवं संसाधनों का अप्रत्याशित रूप से हरण करता हुआ क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को झकझोर रहा है। आजादी के बाद भूमि के नियमनों में ‘ओरणों’ का कृषि जोतों में बदला जाना, उनकी भूमि पर अतिक्रमण, वहाँ के वृक्षों की अवैध कटाई, विलायती बबूल के साथ-साथ घातक विदेशी खरपतवारों में लेन्टेना, सत्यानाशी पार्थेनियम का अनियन्त्रित अतिक्रमण, वन्यजीवों का शिकार, मानवीय संवेदना एवं आध्यात्म में घटती रुचि आदि के कारण ओरण संस्कृति विलुप्ति के कगार पर पहुँच गई।

‘ओरण’ की परम्परा के सम्बन्ध में यह स्पष्ट है कि मरुक्षेत्र में ढाणियाँ एवं गाँव बसने के साथ-साथ गाँव की भूमि के एक भूखंड को स्थानीय ग्रामीणों द्वारा अपने किसी लोक देवी-देवता या पितरों के नाम संकल्पित कर छोड़ देने की परम्परा शताब्दियों पुरानी है। ऐसा माना जाता है कि अपने लोक देव या पितरों के प्रति अपार श्रद्धास्वरूप लोक कल्याण में इस भूखंड का दान कर उनके प्रति ‘उऋण’ होने के अनूठी परम्परा की वजह से ही इसका नाम ‘ओरण’ पड़ा। कुछ लोग वन अर्थात ‘अरण्य’ शब्द के अपभ्रंश स्वरूप से ‘ओरण’ शब्द की उत्पत्ति मानते हैं। इस देव-सम्पत्ति भूखंड पर स्वतः विभिन्न वन सम्पदाएँ पनपती जाती हैं और कालांतर में छोटे-छोटे वन्य जीवों का भी विकास होता रहता है। ग्रामीण इसे नष्ट करने की बजाय इसके प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं तथा इसे और समृद्ध करने में ही अपने परिवार का कल्याण मानते हैं। शीघ्र ही ‘ओरणें’ गाँव के पशुओं के लिये शानदार चराई एवं आश्रय-स्थल बन जाती हैं.... तथा 20-25 वर्षों के भीतर ग्राम विकास के एक महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में अपनी भूमिका अदा करने लगती हैं।

‘ओरणों’ के प्रति श्रद्धा एवं भय बनाये रखने के लिये इनमें एक छोटा सा मंदिर अर्थात ‘थान’ भी ग्रामीणों द्वारा स्थापित किया जाता था। लोक देवी-देवताओं में भैरू, माताजी, बापजी, नागजी, ठाकुरजी, भोपोजी आदि के छोटे-छोटे ‘थान’ बनाकर विधिवत दर्शन, पूजा एवं मेला उत्सव चलते थे। गाँवों की समृद्धि का अपरोक्ष सम्बन्ध वहाँ की परिपक्व ‘ओरणों’ से था तथा लोग अपनी पुत्री की शादी करने में इसी को प्राथमिकता देते थे ताकि उनकी लाड़ली एवं होने वाली संतानें ओरण के फलस्वरूप उपलब्ध गाँव के जल एवं पशु-संसाधनों की समृद्धि जीवनपर्यन्त भोग सकें। किसी अनिष्ट के भय की परम्परागत भावना के कारण इस ओरण से वृक्ष या लकड़ी तो दूर, वनस्पति की एक पत्ती, फल या फूल तक तोड़ने से ग्रामीण भय खाते थे। प्रकृति की धरोहरस्वरूप वनस्पतियों के साथ इस प्रकार की स्वप्रेरित ‘न छूने’ की बेजोड़ व्यवस्था वनस्पतियों को स्वतन्त्र रूप से फलने-फूलने का मौका देती थी जिसके चलते फलों-फूलों से लदी वनस्पतियों का प्राकृतिक सौन्दर्य, तथा स्वतः भूमि पर गिरे वानस्पतिक उत्पाद एवं विचरते पशुओं के गोबरमिश्रित पोषणकणों से युक्त मुलायम, अतिउर्वरा मिट्टी की सौंधी खुशबूयुक्त ‘ओरण’ का खुशनुमा माहौल जीव-जन्तुओं को बेहद सुकून देता था। ग्रामीण नियमित रूप से ऐसे माहौल की ओरण में आकर देव-दर्शन के साथ जाने-अनजाने पापों के प्रायश्चितस्वरूप ओरण में आश्रयप्राप्त वन्य जीवों को दाना-पानी डालकर जैव विविधताओं का विकास एवं ‘ग्राम स्वावलंबन’ की बुनियाद मजबूत करते थे। इन ओरणों में मात्र एक-दो पगडंडियाँ छोड़कर सड़क का निर्माण वर्जित था ताकि वन्यजीव सहजता से विचरण एवं विकास करते हुए पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तन्त्र का सन्तुलन बनाये रखें।

‘ओरणों’ में जलस्रोतों के साथ-साथ विशालकाय बरगद, इमली, पीपल, आंवला, आम, कैर के वृक्षों एवं झाड़ियों के अलावा सुगंधित जड़ी-बूटियाँ भी बहुतायत में मिलती हैं। घास-चारा की प्रमुख प्रजातियों में बोरडी, खेजडी, देसी बबूल, सजानो, गुगरिया आदि वनस्पतियाँ भी बहुतायत में पाई जाती हैं। ‘विग्ना एकोनिटिफोलिया’, ‘बोथरियो चालोआ पर्टुसा’, ‘क्रिपसिस स्योएनोएड’, ‘डिगिटरिया पेनेटा’, ‘डिगनेथिया हिर्टेला’, ‘ऐलिओनुरस रायलीनस’, ऐनिआपोगस सेंचराइड’, ‘ऐ. ब्रेंचिस्टासियम’, तथा ‘ऐ. सिम्प्रेनस’ भी ओरणों में मिलती है। स्थानीय अज्ञात नामों वाली चराई वनस्पतियों में ‘इरेग्रोसटीला बाइफेरिया’, ‘इ. डाइरिहना’, ‘इरेग्रोस्टिस गेग्गेटिका’, ‘टरगस रोक्सबर्गी’, एवं ‘ट्रिपोगोन जक्वेमोण्टी’ भी ‘ओरणों’ में मिलती हैं।

गौरतलब है कि पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर संभाग क्षेत्र की ओरणों के साथ ही लुप्तप्राय इन घास-चारा वनस्पतियों से उत्तम पोषकता का पशु आहार तैयार किया जा सकता है तथा कुछ वनस्पतियों में चमत्कारी औषध-गुण भी विद्यमान हैं। ये ओरणें हरिण, खरगोश, सरीसृप, सेही, गिलहरी, लंगूर, मोर, जंगली बिल्ली, वन्यजीवों सहित काफी तादाद में अनेक पक्षियों का प्राकृतिक आवास हैं। मरुक्षेत्र के गाँवों में अलग-अलग आकार की ओरणें मिलती हैं तथा जल-संसाधन समृद्ध गाँवों की बस कुछेक ‘ओरणें’ तो आज भी विशालकाय प्राकृतिक वनोद्यान का स्वरूप लिये हैं। ‘गोचर’ (ग्रासलैण्ड) एवं जलस्रोत की ‘आगोर’ (कैचमेंट) जैसे दुर्लभ परम्परागत भूखंड भी विशाल ओरणों का हिस्सा रहे हैं। मरुक्षेत्र के सिमटते चारागाह तथा ओरणों के लुप्त होने के कारण पशु संख्या में तेजी से गिरावट के साथ-साथ उन्नत पशु-नस्ल, पर्यावरण एवं स्थानीय अर्थव्यवस्था का ह्रास जारी है।

मरुस्थल में ओरण संस्कृति का विकास ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ कहावत के अनुसार हुआ। ‘थार’ जैसी विषम परिस्थितियों से जूझने के लिये अनूठी समझ क्षेत्रीय पर्यावरण सृजन एवं सुधार के रूप में विकसित हुई। जब इसका प्रत्यक्ष लाभ अन्य गाँवों के ग्रामीणों को समझ में आने लगा तो गाँव-गाँव में ‘ओरणों’ का विकास होने लगा। अकाल के दौरान विकसित ‘ओरणों’ वाले ग्रामीणों पर संकट का न होना एवं ओरणविहीन गाँवों में भीषण अकाल से ग्रामीणों के पीड़ित होने के परिणामस्वरूप ग्रामीणों को ओरण की महत्ता समझ में आने लगी। शनैः शनैः मरुक्षेत्र के सभी गाँवों में ‘ओरणों’ की परम्परा-सी चल पड़ी।

शताब्दियों तक मरुक्षेत्र की अर्थव्यवस्था की धुरी रहा गौरवशाली ‘पशुपालन व्यवसाय’ इन ‘ओरणों’ की आधारभूमि पर ही टिका है। आजादी के पश्चात इन ओरणों के विलुप्त होने से क्षेत्र के इस एकमात्र व्यवसाय की कमर टूट गई और गाँवों की आत्मनिर्भरता शनैः शनैः खंडित होती गई। देश के ‘कृषि एवं वन विशेषज्ञों’ तथा ‘नीति निर्माताओं’ की उदासीनता आश्चर्य का विषय है। जबकि ‘मरू विकास’ योजनाओं के नाम पर सरकार अरबों रुपये व्यय कर चुकी है लेकिन फिर भी मरुक्षेत्र की अकाल स्थिति भयावह बनी हुई है।

वर्तमान में गाँव एवं वहाँ की आबादी के अनुपात में अत्यन्त न्यून संख्या में ओरणें बची हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार 19.63 लाख की आबादी वाले बाड़मेर जिले के 28 हजार 387 वर्ग कि.मी. क्षेत्र के 10 हजार 996 हेक्टेयर कुल वनक्षेत्र में 250 ओरणें; 14.48 लाख की आबादी वाले जालोर जिले के 10 हजार 640 वर्ग कि.मी. क्षेत्र के 20 हजार 468 हेक्टेयर कुल वनक्षेत्र में 112 ओरणें; तथा 5.07 लाख की आबादी वाले जैसलमेर जिले के 38 हजार 401 वर्ग कि.मी. क्षेत्र के 6 हजार 201 हेक्टेयर कुल वनक्षेत्र में 30 ओरणें वर्तमान में अवस्थित हैं। इसी प्रकार 28.80 लाख की आबादी वाले जोधपुर जिले के 22 हजार 850 वर्ग कि.मी. के 4 हजार 336 हेक्टेयर कुल वनक्षेत्र में 25 ओरणें; 18.19 लाख की आबादी वाले पाली जिले के 12 हजार 387 वर्ग कि.मी. क्षेत्र के 84 हजार 500 हेक्टेयर कुल वनक्षेत्र में 55 ओरणें; तथा 8.50 लाख की आबादी वाले सिरोही जिले के 5 हजार 136 वर्ग कि.मी. क्षेत्र के 1.41 लाख हेक्टेयर कुल वन क्षेत्र में 90 ओरणों में से कुछेक को छोड़कर अधिकांश दयनीय अवस्था में भूखंडों के अत्यन्त न्यून क्षेत्रफल के रूप में उपेक्षित-सी अवस्थित हैं। राजस्थान मात्र में ही पाई जाने वाली ‘ओरण संस्कृति’ इन जिलों के अलावा नागौर, उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, राजसमन्द, अलवर, बारां, सीकर, भरतपुर, झूंझनू सवाई माधोपुर, दौसा, चित्तौड़ आदि जिलों के कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में अल्प संख्या एवं न्यून क्षेत्रफल में अवस्थित हैं।

ताज्जुब की बात है कि राजतन्त्र के उस काल में वर्तमान की तरह सरकार, मीडिया, तीव्र संचार एवं यातायात, तथा भूमंडलीकरण सुविधा कल्पना मात्र भी नहीं थी। फिर भी अकाल के प्रकोप से आज जैसा संकट ओरणों की संस्कृति के कारण गाँवों में कदापि नहीं रहा। प्रजातन्त्र व्यवस्था के अत्याधुनिक युग में इन गौरवशाली ओरणों का लुप्त होना विकसित मानव के मस्तिष्क पर कलंक का टीका है। ओरण आधारित समृद्धि की यह बात तो आजादी से पूर्व एवं पश्चात प्रति व्यक्ति पशु संख्या अनुपात के आँकड़ों से स्पष्ट है। आजादी के पश्चात मरुक्षेत्र की आबादी में तो बेतहाशा वृद्धि हुई लेकिन दुधारु पशुओं की संख्या का अनुपात आठ गुना पिछड़ गया जिसका पुनर्भरण राज्य में विश्व बैंक की मदद से चल रही ‘जलग्रहण विकास परियोजनाओं’ में ओरण एवं चारागाह विकसित करके किया जा सकता है। वर्तमान में भी ग्रामीण विकास के मसीहा अलवर जिले के तरुण भारत संघ के राजेन्द्र सिंह; सूचना के अधिकार की प्रणेता तिलोनिया एवं भीम की महारानी अरुणा राय तथा महाराष्ट्र के अण्णा हजारे के गोद लिये गाँवों की ‘आत्मनिर्भरता’ के प्रेरक ‘सुखद मॉडलों’ में ओरण संस्कृति की बुनियाद ही छुपी है।

आज आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक गाँव का एक-एक जागरुक व्यक्ति गाँव सेवा के लिये संकल्पित हो। कुछ उत्साही ग्रामीणों को साथ लिये बिना सरकारी सहायता की ओर देखें गाँव की ओरण, गोचर एवं आगोर जैसी परम्परागत भूमि को अतिक्रमणकारियों से प्रेम एवं ग्राम कल्याण प्रोत्साहन भावना पूर्वक समझाइश से छुड़वा कर ओरणों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करें। अपने ही गाँव के विकास के प्रति संकल्पित होकर निःस्वार्थ भाव से किये जाने वाले ऐसे लोक कल्याणकारी प्रयासों से शुरू में तो जबर्दस्त विरोध एवं हताशा का सामना करना पड़ेगा लेकिन धैर्य रखने से अन्ततोगत्वा निःसंदेह सफलता मिलेगी। अपने दैनिक जीवन में से मात्र थोड़ा समय नियमित इस क्रम में दिया जाये तो उपेक्षित ओरण एवं स्थानीय ग्रामीण समुदाय के मध्य लाभकारी सन्तुलन स्थापित होते ही गाँव की आत्मनिर्भरता के एकीकृत सुखद परिणाम सभी को नजर आने लगेंगे। ओरण विकास के कार्यों के लिये तकनीकी सहयोग गाँव के ही किसी तकनीकी विशेषज्ञ के सहज लिया जा सकता है।

पिछले कुछ वर्षों से निरन्तर पड़ रहे अकालों से मरुक्षेत्र के पीड़ित बाशिन्दों में ओरण संस्कृति की महत्ता का भान होने लगा है। वैसे सरकार राजस्थान में विशाल क्षेत्रफल वाले अभ्यारण्यों की व्यवस्था पर तो प्रति वर्ष करोड़ों रुपये व्यय कर रही है। फिर भी क्षेत्रीय लोगों को उनकी सुरक्षा के प्रति जवाबदेह नहीं बना सकी है। इसका प्रमाण लम्बे समय से अभ्यारण्यों में वन्य जीवों का अवैध शिकार, वनों की कटाई एवं वनकर्मियों के साथ उनके संघर्षों की दुर्भाग्यशाली घटनाओं से स्पष्ट है। इन स्थितियों के मद्देनजर सर्वप्रथम पश्चिमी राजस्थान में लुप्त हो चुकी एवं दयनीय स्थिति वाली ओरणों के सर्वेक्षण पश्चात समुचित विकास की कार्ययोजना की आवश्यकता है। गाँव-गाँव में उत्साही व्यक्तियों के समूह द्वारा ‘ओरणों’ के नेटवर्क की स्थापना एवं संरक्षण अभ्यारण्यों की तुलना में अधिक उपयुक्त है। ‘ओरणों’ से गाँवों का पर्यावरण सुधरेगा; पशुओं को चारा एवं आश्रय मिलेगा; वर्षा, आँधी एवं तूफान में ओरणों की उर्वरा मिट्टी का ग्रामीणों के खेतों में प्राकृतिक वितरण होगा; भीषण कर्मी में गाँवों का तापमान नमीयुक्त, ठंडा रहेगा तथा वर्षों से सूखी पड़ी नदियों का पौराणिक सदानीरा स्वरूप लौटने के अलावा गाँव की अर्थव्यवस्था की धुरी ‘पशुपालन व्यवसाय’ सुदृढ़ होकर गाँवों को ‘अकाल’ के प्रभाव से निःसंदेह निजात भी दिलायेगा।

(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।)

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