पैदावार बढ़ाने की मुश्किलें

खेती छोटे जोतों में घाटे का सौदा सिद्ध हो रही है। खेती वाली जमीनें आवासीय क्षेत्रों में तब्दील हो गई हैं। लेकिन जहां खेती की जमीन कम हो रही है वहीं बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों के लिए घटते खेतों से अधिक पैदावार लेने की होड़ बढ़ गई है। पर्यावरण संरक्षण के मामलों में खेती को हम अक्सर भूल जाते हैं। लेकिन खेती ही आदिम मानव की वह पहली मुख्य गतिविधि थी, जिससे पर्यावरण बड़े पैमाने पर प्रभावित हुआ था। आदिम मानव ने जंगलों को जलाने या बिल्कुल साफ करने की शुरुआत खेतों को बनाने के लिए की थी। खेती करने से मनुष्य को खाने के लिए जंगलों में जगह-जगह भटकने की मजबूरी कम हो गई थी।

पर्यावरण के नजरिए से खेती को समझना जरूरी है। एक ही तरह के फसल चक्र से जमीन में सूक्ष्म खनिज संबंधी असंतुलन पैदा हो जाता है। यह जैव विविधता खेती में तब और कम हो जाती है जब बड़े पैमाने पर व्यावसायिक लाभ के लिए प्रयोगशाला में निर्मित बीजों से एक ही तरह के फसल की खेती की जाती है। इससे खेती पर निर्भर जीव जंतुओं की विविधता और उनके भोजन चक्र पर भी असर पड़ता है। एकल प्रजातियां विविधता भी खत्म कर रही हैं और नए-नए प्रकार के खर-पतवार और कीट भी पैदा कर रही हैं।

खेती अब मशीनी हो गई है और रसायनों पर निर्भर हो गई है लेकिन आदिम मानवों ने जो खेती के साथ घरेलू काम और बोझा ढोने के लिए पशुपालन शुरू किया था वह अब भी जारी है। धनी देशों में खेती से ज्यादा पशुओं को पालने के लिए खेती की जाती है। पशुओं के खुले जुगान से वनस्पतियों के फैलाव और खर-पतवारों के प्रसार पर भी असर पड़ा है। आज पर्यावरण संरक्षण के लिए जानवरों के खुले जुगान को प्रतिबंधित करने की बात की जा रही है।

खेती छोटे जोतों में घाटे का सौदा सिद्ध हो रही है। खेती वाली जमीनें आवासीय क्षेत्रों में तब्दील हो गई हैं। लेकिन जहां खेती की जमीन कम हो रही है वहीं बढ़ती जनसंख्या की जरूरतों के लिए घटते खेतों से अधिक पैदावार लेने की होड़ बढ़ गई है। इसका असर जमीन की उर्वरता पर पड़ रहा है।

भारत में तो पैदावार में ठहराव आ गया है। इसलिए कहा जा रहा है कि दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है। खेती से जो पैदावार बढ़ाई गई थी वह नुकसानदेह साबित हो रही है। यह कृत्रिम उपायों से जानवरों का मांस और दूध बढ़ाने जैसा था। खेती के मूल में बीज है। जो बीज व्यावसायिक कंपनियां बाजार में ला रही है, उसे ही किसानों को खरीदना पड़ता है। ये बीज भी हर साल कार के मॉडलों की तरह बदल जाते हैं।

कंपनियां इन बीजों के साथ इनमें लगने वाले कीटों के लिए खास दवाइयां भी लाती हैं। उत्पादन बढ़ाने के लिए ज्यादा मात्रा में रासायनिक उर्वरकों की जरूरत होती है। जमीन में इस प्रकार के उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग से जमीन पानी और हवा का प्रदूषण बढ़ता है।

यही रसायन सतह और भूमिगत जलस्रोतों को भी प्रभावित करता है। इस पानी का उपयोग मानव और पशुपक्षियों के लिए खतरनाक हो जाता है। ये रसायन भोजन चक्र में तो पहुंचते ही हैं, कई बार किसानों के मित्र-कीटों और दूसरे जंतुओं को भी मार देते हैं। ये कीटनाशक हानिकारक कीटों के लिए तैयार किए जाते हैं लेकिन कुछ ही साल बाद कीट अपनी प्रतिरोधी शक्ति विकसित कर लेते हैं। एक स्पर्द्धा जैसी बन जाती है। हर दवाओं को ज्यादा जहरीला बनाया जाता है, जिससे पर्यावरण की क्षति बढ़ती चली जाती है।

संकर बीजों और रसायनों के बाद आधुनिक खेती सिंचाई पर बहुत ज्यादा निर्भर है। इससे उत्पादन तो बढ़ता है लेकिन दूसरी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। सिंचाई के लिए बड़े-बड़े बांध और नहरें बनाई गईं लेकिन मुख्य रूप से जमीन के भीतर के पानी का ज्यादा से ज्यादा दोहन किया गया। नतीजतन भूमिगत जल भंडारों में पानी में कमी आई है।

हरित क्रांति के साथ शुरू हुआ नलकूपों का सिलसिला अभी भी जारी है। अब यह पहाड़ी, पठारी क्षेत्रों के ओर भी बढ़ रहा है। भारत में इस समय दो सौ करोड़ से ज्यादा नलकूप हैं और हर साल लाखों नए नलकूप इसमें जुड़ रहे हैं। लेकिन भूमिगत जल का इतना अकाल हो गया है कि कई जगहों पर नए नलकूपों की खुदाई पर पाबंदी लगानी पड़ी है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ भूमिगत जल के कुप्रबंधन से पर्यावरण बिगड़ रहा है। नहरें भी कम चिंता का विषय नहीं है। तमाम उपजाऊ क्षेत्र जल भराव की समस्या से ग्रस्त हो रहे हैं। जमीन क्षारीय या अम्लीय होती जा रही है। हरित क्रांति के ध्वजवाहक क्षेत्रों- पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो पारिस्थितिकीय बिगड़ाव ज्यादा हो रहा है।

हर साल सिंचित क्षेत्र का दस फीसद क्षेत्र बंजर होता जा रहा है। खेतों में जितना जरूरी पानी पहुंचाना है उतना ही जरूरी उसकी निकासी है।

जरूरत है पानी के हर बूंद को सिरजने की। रसायनों से फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को मारने के बजाय एकीकृत फसलनाशी कीटों के प्रबंधन और जैवीय कीट नाशकों और मिश्रित फसल चक्र का उपयोग भी जरूरी है। जैवीय खेती की पद्धति को अपनाने से भी पर्यावरणीय हानि कम होगी। हालांकि बायो-टेक्नोलाजी से उत्पादन बढाने के पक्षधर वैज्ञानिकों का तर्क रहता है कि संशोधित बीजों पर कीटों का असर करने या बेकार करने का काम जीन परिवर्तन के दौरान ही किया जा सकता है। वास्तव में सारी दुनिया में यह महसूस किया जा रहा है कि सघन व्यावसायिक खेती से जमीन अपनी उर्वरता खोती जा रही है। उसकी उर्वरा शक्ति बनाए रखने के लिए गरीब होते किसान ज्यादा खर्च नहीं कर पा रहे हैं।

जमीन प्राकृतिक रूप से केवल मानव को ही आहार देने के लिए नहीं थी, दूसरे जीवों और वनस्पतियों को भी वह आहार और ठिकाना देती है। इस सच्चाई को स्वीकार किए बगैर कोई भी उपाय व्यर्थ ही होगा।

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