पानी का हक : संवैधानिक

9 Feb 2009
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जागरण याहू, नई दिल्ली। सुप्रीमकोर्ट ने कहा है कि पानी की कमी के चलते सामाजिक तनाव फैलने के साथ ही बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। साथ ही न्यायालय ने केंद्र को निर्देश दिया है कि ऐसे किसी भी संकट से निपटने के उपाय सुझाने के लिए तत्काल वैज्ञानिकों की एक उच्च अधिकार संपन्न समिति गठित की जाए।

न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने कहा कि मेरे विचार से केंद्र सरकार को वैज्ञानिकों की ऐसी समिति का तत्काल गठन करना चाहिए और उसे सभी प्रकार के अधिकार मुहैया कराएं क्योंकि ऐसा नहीं करने पर भारत के लोगों की परेशानियों में और इजाफा होगा तथा इससे हर जगह सामाजिक तनाव फैल जाएगा।

उड़ीसा तथा आंध्र प्रदेश के बीच जल विवाद को सुलझाने के लिए केंद्र को विशेष जल पंचाट गठित करने का निर्देश देते हुए उन्होंने यह विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि उच्च अधिकार प्राप्त समिति को युद्धस्तर पर अपना काम तत्काल शुरू कर देना चाहिए। उन्होंने कहा कि वैज्ञानिकों की इस समिति को सभी वित्तीय, तकनीकी तथा प्रशासनिक सहायता केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा मुहैया कराई जाएं। हालांकि पीठ के अध्यक्ष न्यायाधीश अलतमस कबीर ने जल संकट पर किसी प्रकार की टिप्पणी नहीं की और खुद को केंद्र को जल विवाद पंचाट छह महीने के भीतर गठित करने का निर्देश दिए जाने तक ही सीमित रखा।

मौजूदा विवाद में नेरादी सिंचाई परियोजना का निर्माण शामिल है। आंध्रप्रदेश का दावा है कि कटरागाड़ा पर वामसधारा नदी से उड़ीसा को जल की आपूर्ति बुरी तरह प्रभावित होगी और इससे प्रदेश में हजारों लोगों की जीविका पर भी बुरा असर पड़ेगा। सुप्रीमकोर्ट ने पंचाट का फैसला आने तक आंध्रप्रदेश सरकार से बांध के निर्माण पर यथास्थिति बनाए रखने को भी कहा। न्यायाधीश काटजू ने अपने फैसले में कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा वैज्ञानिकों से अपील की जानी चाहिए कि वे इस संबंध में राष्ट्र के लिए अपने कर्तव्य को पूरा करें और देश में जल संकट की समस्या को सुलझाने के लिए वैज्ञानिक शोध करें। उन्होंने केंद्र से यह भी कहा कि उसे इस क्षेत्र में विदेशों में बसे भारतीय वैज्ञानिकों तथा विदेशी वैज्ञानिक विशेषज्ञों की सलाह तथा मदद भी लेनी चाहिए।

न्यायाधीश काटजू ने कहा कि नदियां दम तोड़ रही हैं या सिकुड़ रही हैं और भूजल का अधिक दोहन हो रहा है। उद्योग तथा होटल आदि खतरनाक गति से भूल जल को इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे भूजल स्तर में भारी कमी आ गई है।

पानी का हक


सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसलों के क्रम में ताजा कड़ी यह है कि उसने पानी के हक को बुनियादी हक माना है। एक याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने पिछले हफ्ते कहा कि पानी प्राप्त करने का अधिकार जीने के अधिकार का अनिवार्य हिस्सा है। गौरतलब है कि संविधान के अनुच्छेद इक्कीस में जीने के अधिकार को मान्यता दी गई है। पर इसे कभी भी ठीक से परिभाषित ही नहीं किया गया। इस पर कभी वैसी चर्चा भी नही हुई जैसी होनी चाहिए थी। इसका सबसे प्रमुख कारण हमारे नीति नियामकों और राज काज चलाने वालों का यह डर ही हो सकता है कि अगर अनुच्छेद इक्कीस को पूरे परिप्रेक्ष्य में देखा गया तो भोजन, शिक्षा, आवास आदि बुनियादी जरूरतों को संवैधानिक अछिकारों में गिना जाने लगेगा। इससे सरकारों पर अपनी नीतियों और प्राथमिकताओं को बदलने का दबाव बनेगा। इसलिए ऐसे समय में भी जब मानवाधिकारों को सरकारों के लिए अहम कसौटी माना जाने लगा है, संविधान के अनुच्छेद इक्कीस पर चुप्पी छाई हुई है। जब- तब सुप्रीम कोर्ट ने जरूर अपने किसी फैसले या आदेश से इस तरफ हमारा ध्यान खींचा है। कईं बार भुखमरी और कुपोषण की घटनाओं पर अदालत ने संबंधित राज्य सरकारों को नोटिस भेजा है। कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने किसी को बेवजह गिरफ्तार करने के खिलाफ पुलिस को चेताते हुए सम्मान के अधिकार को एक बुनियादी अधिकार माना था। अदालत ने पानी के अधिकार को जीने के अधिकार का हिस्सा मानकर अनुच्छेद इक्कीस की सही व्याख्या की है। भोजन के अधिकार को भी इससे जुड़ा मानना चाहिए, क्योंकि इसके बगैर जीने के अधिकार का कोई अर्थ नहीं रह जाता।

अब सवाल उठता है कि पानी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो आस बंधाई है वह कहां तक पूरी होगी। देश के करोड़ों लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं। पानी की उपलब्धता उनका एक नागरिक अधिकार है। यह भरोसा उन्हें कौन दिलाएगा? अदालत ने यह नहीं कहा है कि अगर पानी न मिले तो लोग उसका दरवाजा खटखटा सकते हैं। अलबत्ता उसने केंद्र सरकार के लिए यह हिदायत जरूर पेश की है कि पानी की कमीं दूर करने के लिए उसे वैज्ञानिकों की एक समिति गठित करनी चाहिए। यह समिति पानी को प्रदूषण से बचाने और जल संरक्षण के उपाय सुझाए। देश के अनेक भागों में लगातार दोहन के चलते भूमिगत जल का स्तर काफी नीचे चला गया है। यही नही देश के कईं इलाकों मे बेहद खतरनाक अनुपात में उसमें जहरीले रासायनिक तत्व पाए गए हैं। वैज्ञानिक इस पर रोक लगाने और प्रदूषण से निपटने की योजना तो बना सकते हैं, मगर उस पर अमल सरकारों की राजनीतिक इच्छा शक्ति के बगैर संभव नहीं है। पानी की कमीं बढ़ते जाने के पीछे सबसे प्रमुख कारण है औद्योगिक कचरे और कूड़े- करकट को नदियों और तालाबों के हवाले किए जाने का सिलसिला, पानी का काफी विषम वितरण, खपत या इस्तेमाल के दौरान होने वाली बर्बादी और भूमिगत जल का बेलगाम दोहन। जाहिर है, सरकारों को इन सब पर अंकुश लगाने के लिए कुछ कठोर फैसले करने होंगे और उनका कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना होगा। देश के सम्पन्न तबके चूंकि खरीद कर पानी की अपनी जरूरत पूरी कर सकते हैं, इसलिए पानी का कारोबार सबसे फलने- फूलने वाला उद्योग हो गया है। लेकिन पानी की उपलब्धता को नागरिक अधिकार बनाना है तो देश के सभी लोगों को चिंता करनी होगी।

1 साभार- जागरण याहू,

2 साभार- जनसत्ता

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