पानी के लिये स्थापित प्रतिमानों का आपसी संघर्ष

(पानी एक सामाजिक सम्पत्ति है या आर्थिक सम्पत्ति? प्रतिमानों की इस भीषण लड़ाई के लिये युद्धक रेखाएं खींची जा रही हैं)
गर्मी के दिनों में स्वाभाविक रूप से मन में “पानी” का खयाल आता ही है। देश के लाखों नागरिकों, खासकर स्त्रियों के लिये, यह एक भीषण समस्या का रूप ले लेता है। काफ़ी राज्यों ने पानी की सुगमता के लिये आवश्यक “लाइफ़लाइन” बना ली है। लेकिन ताजा साफ़ पानी की उपलब्धता के सन्दर्भ में कोई खास सुधार नहीं दिखाई देता। हालांकि पानी एक “अक्षय” स्रोत है, इसका पुनर्चक्रीकरण किया जा सकता है, फ़िर भी यह सीमित है। भारत में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1947 में 6608 क्यूबिक मीटर से घटकर 2001 में 1820 क्यूबिक मीटर रह गई है, और अगले 30 साल में इसमें और तेजी से कमी आने की सम्भावना है। वैसे प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़े गुमराह करने वाले होते हैं, क्योंकि इनसे पानी की उपलब्धता में भारी असमानता के बारे में पता नहीं चलता। प्रति व्यक्ति प्रति लीटर (LPCD) का आँकड़ा अधिक वास्तविक है, जहाँ कि नाटकीय रूप से कुछ व्यक्तियों को औसतन 30 लीटर पानी ही उपलब्ध है, जबकि कुछ व्यक्तियों को 400 लीटर पानी प्रतिदिन मिल जाता है। जबकि एक व्यक्ति के सामान्य जीवनयापन के लिये पानी की उपलब्धता के अंतर्राष्ट्रीय मानदण्ड 50 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है।

पानी की आकाश छूती माँग को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, इसलिये विकास के लिये होने वाली बहस में सीमित रूप से ताजे पानी की उपलब्धता के मुद्दे को केन्द्र में लाने में भी सफ़लता मिली है और यह सही भी है। फ़िर भी भारत में इस मुद्दे पर कई बार अतिवादी और अनावश्यक बहस जारी है, जो कि असल में प्रतिमानों के संघर्ष का ही एक रूप है। समस्या के हल के लिये आगे बढ़ने से पहले इन भिन्न-भिन्न प्रतिमानों को समझना होगा और पानी के स्रोतों के प्रबन्धन तथा वितरण के लिये जो विवाद सामने आये हैं या आने की सम्भावना है उनका हल हो सके।

कुछ समय पहले तक समूचे विश्व में माना जाता था कि “पानी” भगवान की अनुपम देन है, जो काफ़ी संतोषजनक मात्रा में है और मुफ़्त में हासिल है। यह मान्यता और आधारभूत मूल्य काफ़ी लोगों के लिये एक मायने रखते थे, लेकिन इसमें एक खतरनाक मोड़ तब आया जब विश्व की सबसे बड़ी बोतलबन्द पानी बेचने वाली कम्पनी के एक प्रतिनिधि ने यह जुमला उछाला, कि “पानी भगवान ने मुफ़्त दिया है, लेकिन पाइप नहीं…”, और तभी से इस पानी के मुद्दे पर विभाजन की रेखा खिंच गई है। अब यदि भगवान पाइप डालना भूल गये हैं तो किसी को तो यह करना ही पड़ेगा, यदि हम आधुनिक सुविधायें और अर्थव्यवस्था चाहते हैं। लेकिन फ़िर यह काम कौन करेगा, और कैसे करेगा, यही सबसे बड़ा सवाल है।

पानी एक सामाजिक सम्पत्ति है या एक आर्थिक सम्पत्ति, इस सवाल पर युद्ध रेखायें खिंच चुकी हैं। एक पक्ष है जो मानता है कि पानी का “वस्तुकरण” (व्यवसायीकरण) नहीं किया जा सकता, और इसमें निजी क्षेत्र का कोई दखल नहीं होना चाहिये, जनता को पानी प्राप्त करने का बुनियादी हक हासिल है, और सरकारों को पानी पर कब्जे और उसके समान वितरण के लिये कोई निश्चित नीति बनानी चाहिये। जबकि दूसरा पक्ष है जो सोचता है कि भले ही पानी एक सामाजिक सम्पत्ति है लेकिन इसे एक आर्थिक सम्पत्ति भी माना जाना चाहिये, और “बाज़ार” इस संसाधन को जुटाने और उपयोग करने में एक अहम भूमिका निभा सकता है। यह पक्ष पानी के अधिकारों को परिभाषित करने में विश्वास करता है। यह पक्ष पानी के सही प्रबन्धन और इसके घरेलू, औद्योगिक और कृषि हेतु उचित और समान वितरण के लिये पानी के मूल्य निर्धारण की माँग कर रहा है।

इतने बड़े मुद्दे को इस एक छोटे से लेख में पूरी तरह समेटना नामुमकिन है, लेकिन मैं कोशिश कर रही हूँ कि इस मुद्दे की खूबियों और मतभेदों को उभार सकूं, क्योंकि यह मुद्दा हम सभी के जीवन को प्रभावित करने वाला है। सभी पक्षों को पूरी तरह से शामिल करना सम्भव नहीं है लेकिन यह इस विवादित मुद्दे को समझने की एक तर्कपूर्ण पहल है।

स्थापित प्रतिमानों के बीच संघर्ष का अगला उदाहरण है पानी के प्रबन्धन हेतु केन्द्रीय व्यवस्था अथवा विकेन्द्रीकृत व्यवस्था। केन्द्रीय व्यवस्था का मतलब है बड़े बाँध, बड़े इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट, सिंचाई नहरें और लम्बी दूरी की पाइप आधारित जल व्यवस्था, जिसमें जल वितरण की तमाम सुविधायें और नियन्त्रण सरकारों के हाथों में होता है। इस व्यवस्था में सरकारों की मुख्य भूमिका सभी प्राकृतिक स्रोतों, जल आधारित अर्थव्यवस्था तथा पानी के पुनर्वितरण पर निगाह रखने वाले एक प्रेक्षक की होती है।

जबकि जल की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था मूलतः सहायक की भूमिका में होती है तथा यह महात्मा गाँधी तथा ईएफ़ शूमाकर जैसे चिंतकों के राजनैतिक दर्शन पर आधारित होती है। इस व्यवस्था का लक्ष्य होता है कि समुदायों के बीच भागीदारी बनाई जाये और प्राकृतिक संसाधनों की सीमा को पहचानते हुए उसका वितरण और रखरखाव करे।

इन दो विचारों के बीच भारत में तनाव की स्थिति है, जिसमें पहला पक्ष नदियों को आपस में जोड़ना चाहता है, जबकि दूसरा पक्ष मुख्यतः छोटी-छोटी जल-इंजीनियरिंग के साथ एक स्थानीय हल चाहता है।

दृष्टिकोणों का एक और संघर्ष रेखीय मॉडल और बन्द लूप आधारित मॉडल की व्यवस्था के बीच भी है। यह संघर्ष विचारधारा आधारित तो नहीं है, बल्कि समझ विकसित करने के संकट से जुड़ा हुआ है। इस बीच हमारे खेत, हमारे उद्योग/मशीनरी तथा हमारे नगर और शहर प्रदूषित पानी का उपयोग कर रहे हैं, Fm सबके बीच दो और प्रतिमान भी हैं जिनके बीच संघर्ष है, और वह है मानव आधारित पर्यावरण और जीव-जन्तुओं तथा समुद्री जलचर आधारित पर्यावरण, जिसमें सिर्फ़ अपना अस्तित्व बचाने के बारे में सोचा जा रहा है दूसरी प्रजातियों और पर्यावरण की रक्षा के बारे में नहीं।

पानी की ऐसी विकट स्थिति को देखते हुए बीच का रास्ता कैसे निकाला जा सकता है इस बारे में सोचना आवश्यक है। आगे आने वाले भीषण सूखे के दिनों से बचने के लिये हमें जल के उपयोग हेतु उच्च नैतिक प्रतिमान, व्यवहार और नीतियाँ स्थापित करनी होंगी, जो वैश्विक और सार्वभौमिक स्तर पर मान्य की जा सकें… हालांकि यह एक बेहद कठिन काम होगा।
 

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