पानी की हैसियत घटाता-सारणी

2 Mar 2010
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सतपुड़ा पर्वत माला में मठारदेव की पहाड़ियों से घिरा सारणी एक जमाने में इसलिए प्रसिद्ध था क्योंकि मठारदेव गोंडों के महत्वपूर्ण देवता हैं। शाहपुर के पास असीरगढ़ के गोंड़ राजा मठारदेव को अपना गुरू मानते थे। डब्ल्यूसीएल यानि ‘वेस्टर्न कोल फील्ड्स’ की खदानों से निकले कोयले, सस्ते मजदूर और बारामासी जलस्रोतों के कारण यहां बिजली उत्पादन का यह कारखाना लगाया गया था। लेकिन खदानों और कारखानों ने मिलकर हर जलस्रोतों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। मठारदेव तो आज भी अपने पहाड़ से एक झरने के जरिए साफ और शुद्ध पानी नीचे की बस्तियों तक भेज रहे हैं, जहाँ पाँच-सात सौ लोग इसका उपयोग भी करते हैं।

1932-35 के दौरान बनी कोयला खदान के बंद हो जाने से वहाँ एक कुण्ड बन गया था जिसे बाघिन कुण्ड के नाम से जाना जाता है। तब काली माँ एवं बाजार के पास दो और खदानें भी थीं। इन खदानों से कोयला निकालकर छोटी लाइन की गाड़ी से घोड़ाडोंगरी के मुख्य रेल मार्ग के स्टेशन पर ले जाते थे। फिर वहाँ के यार्डों में इसे बड़ी लाइन के डब्बों में डालकर देश-विदेश तक पहुँचाया जाता था।

1963 में आज की पहली कोयला खदान पाथाखेड़ा-1 यानि पीके-1 शुरू हुई। ठीक उसी साल मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल ने सारणी के बिजली कारखाने का निर्माण भी शुरु किया। कारखाने के साथ ही तवा नदी पर बम्हनखेड़ा और बिछुआ गाँवों को पूरी तरह डुबोकर बाँध बनाने का काम सौंपा गया। उस जमाने में कारखाने में कुल 50 कर्मचारी थे और एक कुएँ के अलावा बाघिन कुण्ड और नालों के किनारे झिरियाँ खोदकर वे अपनी पानी की जरूरत पूरी किया करते थे। शुरू के एक-डेढ़ साल तक इसी तरह लोगों को पानी मिलता रहा। तब पूरे इलाके में घना जंगल था और लोग दिन में भी आसपास नहीं जा सकते थे। बस्ती में बहुत सफाई रहती थी। तब कुएँ भी कम ही थे। एक इंटेकवेल बनाया गया था लेकिन वह भी राखड़ से भर गया था। 1964 में 1012 हेक्टेयर में फैला तवा का सतपुड़ा जलाशय बनकर तैयार हुआ और उससे मजदूरों, कर्मचारियों के लिए टैंकरों और कुलियों की मदद से पानी पहुँचाना शुरू हुआ। धीरे-धीरे नल योजना बनाकर पाइप लाइन डाली गई और बस्ती तक पानी पहुँचाने की व्यवस्था की गई। सन् 64 से 84 तक तवा जलाशय के मुंहाने से पानी लिया जाता था लेकिन बाद में बीच से पानी लिया जाने लगा। यह पानी कारखाने से निकला गंदा पानी था जिसको पीने से मरीजो की संख्या बढ़ गई।

1967 में शुरू हुई सतपुड़ा ताप विद्युत गृह की पहली इकाई के बाद आज 12 हजार हेक्टेयर वन भूमि पर बनी 9 इकाइयों से 1150 मेगावाट बिजली पैदा की जाती है। कोयले की भी नौ खदानें हैं।

इस विशाल पैमाने पर हुए औद्योगीकरण के बाद लोगों की बुनियादी जरूरत पानी के क्या हाल हैं? लोगों का कहना है कि वे पानी पीकर मर रहे हैं। कोयला खदान के मजदूरों के हालात खास तौर पर बदतर हैं। वे सारणी की झील से ही पानी लेते हैं लेकिन सारी कोयला खदानें तवा जलाशय के जलग्रहण क्षेत्र में हैं जिससे उनका प्रदूषित राखड़ का पानी तवा नदी और जलाशय में जाता है। नतीजे में बाँध में गाद भी जमा होती जाती है। इस पानी में मछलियाँ मरकर उसके प्रदूषित होने का लगातार सबूत देती हैं। हैंडपम्प इन्हीं खदानों की गहराई के कारण खराब या बेकार हैं और उनका पानी भी प्रदूषित है। खदानों की ‘दफाई’ कही जाने वाली मजदूर बस्तियों में 40 प्रतिशत घर बनाने की योजना के बावजूद बड़ी संख्या में मजदूर झोपड़ियों में ही रहते हैं। इन मजदूरों को डब्ल्यूसीएल ने पानी की कोई सुविधा नहीं दी है इसलिए वे सीधे पाइप में छेद करके पानी चुरा लेते हैं।

3 से 8 जून, 1998 के बीच पाथाखेड़ा की बस्तियों में खदानों का 20 साल रुका बासा पानी दिया गया जिससे कइयों को गले एवं पेट की बीमारियाँ हुईं। लोगों का कहना है कि बिजली कारखाने से निकली राखड़ और कोयले के कण जमीनों पर जमकर पत्थर हो जाते हैं। इससे एक तो फसलें, पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ आदि बर्बाद हो गई हैं और जमीन पर बिछी इस परत के कारण बरसात का पानी भी नीचे नहीं जाता। लेकिन दूसरी तरफ इलाके भर के 300 नलकूपों और कोयला खदानों की मार्फत पानी उलीचा जाता है इसलिए कुओं में अक्टूबर-नवम्बर में ही पानी की कमी होना शुरू हो जाती है और मार्च में कम पानी देने की चेतावनियाँ मिलने लगती हैं। कोयला खदानों के सारे जलस्रोत सूख गए हैं। पाथाखेड़ा बस्ती में पानी की बड़ी किल्लत है और यहाँ कभी दिन में तो कभी-कभी हफ्ते में एक बार पानी मिल पाता है। कारखाने और खदानों की राखड़ के कारण देनवा नदी तो पूरी तरह खत्म ही हो गई है, उसे अब राखड़ नदी कहा जाता है। इसी तरह फोपस और तवा नदी की भी हालत खराब है और तवा के जरिए नर्मदा पर भी राखड़ का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।

सारणी से 9 किलोमीटर दूर बसी तीन, साढ़े तीन सौ घरों की बस्ती सलैया में पहले झिरियाँ, तीन-कुओं और एक तालाब से पानी लिया जाता था लेकिन नलकूपों और कोयला खदानों के कारण यहाँ का पानी सूख गया है। प्रदूषित पानी पीने के कारण जानवरों के पेट में राखड़ जम जाती है। अभी हाल में एक दुधारु जानवर का पोस्टमार्टम करने पर उसके पेट से दो किलोग्राम राखड़ निकली थी। पहले अपने एकमात्र कुएँ से खदान के कर्मचारियों, मजदूरों को पानी पिलाने वाला सलैया गाँव अब खुद प्यासा मर रहा है।

सारणी के बिजली कारखाने में कार्यरत 4500 कर्मचारी कॉलोनी में रहते हैं। और उन्हें दिन में तीन बार पानी भी मिलता है, कुल मिलाकर कारखाने में आठ से दस लाख टन पानी का उपयोग होता है। जिसमें से 4-5 लाख टन पॉवर हाउस में जाता है। और बाकी का कॉलोनी में। लेकिन यह पानी शुद्ध नहीं कहा जा सकता। कॉलोनी के लोगों का कहना है कि उन्हें बहुत बड़ी संख्या में पेट, गैस संबंधी बीमारियाँ होती रहती हैं। कारखाने से निकलने वाली राखड़ में जस्ता, ताँबा, लोहा तथा तेल घुला रहता है और यह उड़कर या पानी के साथ जलस्रोतों में पहुँच जाता है। 67में शुरू हुए इस कारखाने में पंद्रह साल बाद 1982-83 में राखड़ रोकने के लिए ईपी. यानि इलेक्ट्रोस्टेटिक प्रेसीपिटेर लगाए गए थे। लेकिन इससे राखड़ का चिमनियों के जरिए हवा में उड़ना भर रुकता है। राखड़ तो नीचे जमती ही जाती है और हवा तथा पानी के साथ जलस्रोतों तक पहुँचती रहती है।

छिंदवाड़ा के शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में वनस्पति शास्त्र के प्राध्यापक डॉ. शंकरन उन्नी ने अपने छात्रों के साथ मिलकर पानी और पारिस्थितिकी पर सारणी और महाराष्ट्र के कोराड़ी ताप विद्युत गृहों से होने वाले प्रभावों का विस्तृत अध्ययन किया है।

डॉ. उन्नी ने अपने अध्ययन के आधार पर कुछ परिणाम और सुझाव दिए हैं जिनके अनुसार सारणी पावर हाऊस से दस किलोमीटर बाद तक तवा नदी का पानी राखड़ से प्रभावित है। भौतिक-रासायनिक गुणों तथा तलछट के अध्ययन से पानी की खराबी जाहिर होती है। सारणी पावर हाउस के बंधान राखड़ से छलकते पाए गए। यह राखड़ सीधी नदीं में जाती है जबकि तलछट में जमी राखड़ को ही नदी में जाने देना चाहिए। पानी के भारी धातुओं के अंश और तलछट सारणी पावर हाउस में सीमा से अधिक प्रदूषित पायी गईं। इस अध्ययन से पता चला है कि यह पानी कई तरह के जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों को खत्म कर रहा है।

बेहिसाब राखड़ को जलाशय में डाला जाता है। इस प्रदूषण से जलाशय में पीएच, कठोरता, क्लोरीन, सल्फेट, नाइट्रेट, सोडियम और पोटैशियम की मात्रा डेढ़ से तीन गुनी बढ़ गई है जिससे मछली उत्पादन पर भी असर पड़ता है। इसका विस्तार से अध्ययन करना जरूरी है। क्योंकि ये तत्व मछली में और फिर मछली के द्वारा आसपास के लोगों में खतरनाक प्रभाव डालते हैं।

जलाशयों की सफाई और निर्माण बेहद कठिन काम है। ये भारी धातुओं के कूड़ादान बन गए हैं इसलिए अब कारखाने की राखड़ और दूसरे प्रदूषकों को बहाकर लाने वाली नहरों को इनसे बचाते हुए मोड़कर ले जाना चाहिए। इन जलाशयों को तत्काल साफ किया जाना जरूरी है जो कि पहले से रासायनिक और दूसरे कचरे से भरे गए हैं।

सारणी ताप विद्युत गृह से निकलने वाला गरम प्रदूषित पदार्थ तवा नदी के ऊपरी हिस्से में डाला जाता है जहाँ से यह जलाशय और पावर हाउस के बीच घूमता रहता है। दिसम्बर 1984 से जून 1986 के बीच तवा नदी का ऊपरी हिस्सा और तवा की सहायक नदी फोपास, जिसमें पावर हाउस का कचरा बहाया जाता है, का अध्ययन किया गया था। पानी में मिलाकर राखड़ को राखड़ तालाबों में डाला जाता है और यह राखड़ फिर सीधे नदी के निचले हिस्से में बहाई जाती है।

एक तरफ आम समाज के मजदूर, किसान और सामान्य नागरिक बिजली कारखाने से बिगड़ते जा रहे जलस्रोतों की बात करते हैं और दूसरी तरफ डॉ. उन्नी सरीखे वैज्ञानिक अपनी शोधों से यह साफ कर देते हैं कि हमारे औद्योगीकरण से लदे-फंदे विकास में कहाँ और कैसी खोट है। इन सारे अनुभवों के बाद भी 1997-98 की सतपुड़ा ताप विद्युत गृह की पत्रिका ‘सतपुड़ा उत्कर्ष’ में लिखा है- ‘सतपुड़ा संकुल के द्वारा निसर्जित राख के उपयोग के लिए नई संभावनाएँ, नई राहें खोजने के लिए सेमिनार आयोजित किए गए। ईंटों के निर्माण, सड़क के निर्माण के साथ-साथ विभिन्न उपयोगी निर्माण हेतु दिशा-निर्देश एवं परामर्श देने वाले इस संगोष्ठी से बहुत सार्थक परिणाम की आशा हुई है।’ ‘सतपुड़ा जलाशय की साफ-सफाई एवं गाद निकालने के लिए प्रयत्न चालू हैं। 5 लाख क्यूबिक मीटर ड्रेजिंग पूर्ण कर ली गई हैं।’ ‘एशबंड (राखड़बाँध) की संग्राहक क्षमता में वृद्धि की गई है। निस्तारित जल की गुणवत्ता में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानदण्डों का पूर्णतः पालन किया जा रहा है।’

औद्योगिक विकास के लिए बिजली ओर उसे बनाने वाले कारखाने प्राकृतिक संसाधनों को कैसे मटियामेट करने में लगे हैं इसकी एक मिसाल है-सारणी। सिर्फ पानी को ही देखें तो उस तरह के विकास को समझा जा सकता है जिसमें स्थानीय समझ, ज्ञान और संसाधनों को अनदेखा करके सिर्फ ‘दोहन’ और बाजार को अहमियत दी जाती है। सारणी एक उदाहरण है लेकिन मध्यप्रदेश समेत देश के बाकी इलाके भी इससे बच नहीं पा रहे हैं।

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