पानी की कमी और आम जनजीवन

6 Jul 2012
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जहां हमारे पूर्वज पानी को सहेजने के लिए तालाब, कुआं, बावड़ी और पोखर आदि बनवाते थे और इन्हें बचाने के लिए अनेक प्रकार की तकनीक अपनाते थे वहीं आज नये-नये मशीनीकरण और औद्योगिकीकरण की वजह से तालाबों पर अवैध कब्जा किया जा रहा है। नदियों में कारखानों तथा घरों का कचरा डालकर मारा जा रहा है। जहां पानी का खजाना हुआ करता था वहां अब सुखाड़ ही सुखाड़ है। मध्यप्रदेश का गांव पाठखोरी अरावली पहाड़ की गोद में बसा है। कुछ साल पहले यह गांव पानी के मामले में धनी हुआ करता था अब यहां पानी के लिए एक-दूसरे का कत्ल करने पर उतारू है। पानी के लिए तरस रहे लोगों के बारे में जानकारी दे रहे हैं बी.आर.पूनिया।

मैंने पाया है कि शहरी आदमी पानी के प्रति सबसे अधिक निर्दयी होता है। सरकार, स्वयंसेवी संस्थाएं, जागरूक व्यक्ति, मीडिया आदि सभी बरसाती पानी को जमीन में डाल कर बचाने की गुहार कर रहे हैं ताकि दिनों-दिन गिरता भू-जलस्तर ऊपर आ सके। कहीं-कहीं ये प्रयास सफल भी होते प्रतीत हो रहे हैं। यह जरूरी भी है लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है पानी के किफायती उपयोग की संस्कृति पैदा करना। एक-एक जन को पानी की हर बूंद को पवित्र मान कर इसकी कद्र करनी होगी। तभी बच पाएगा पानी और उस पर निर्भर जीवन।

काल ने लहू की नदी में स्नान करने का निर्णय कर लिया है। अब यह युद्ध आपके रोके नहीं रुकेगा महाराज।' यह संजय का जवाब था राजा धृतराष्ट्र को। कौरवों व पांडवों की सेना के कुरुक्षेत्र के मैदान की तरफ बढऩे के दृश्य संजय के मुंह से सुनकर राजा को युद्ध के भयावह परिणाम का आभास हो गया था। उन्होंने संजय की राय जाननी चाही, 'संजय तुम क्या सोचते हो? क्या यह युद्ध उचित है? क्या मुझे दोनों सेनाओं को वापस बुला लेना चाहिए?' संजय के उत्तर से यह स्पष्ट था कि स्थिति हाथ से निकल चुकी थी। हाथों में खाली मटके लिए अपना रोष प्रकट करती पानी की कमी से पीड़ित औरतों के चित्र अखबारों के मुखपृष्ठ पर गर्मी की शुरुआत के साथ ही दिखाई देने लगते हैं। पानी की कमी से परिवार में सभी प्रभावित हैं लेकिन यह अलग बात है कि हमारे समाज में पानी के प्रबंधन की चिंता सिर्फ औरतों की ही है। आजकल मेवात के किसी भी गांव में चले जाइए। कलेजा फट पड़े ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं। गांव के गली-कूचे में ऐसा कोई स्थान नहीं जहां भरी दुपहरी में लड़कियां, औरतें सिर पर खाली मटके लिए पानी की तलाश में इधर से उधर भटकती न दिखाई दें।

बरसात के पानी को बचाने/सहेजने की बात पर हर तरफ जोर दिया जा रहा है। इस दिशा में काम हो भी रहा है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि पानी बचाने से पहले पानी के विवेकपूर्ण उपयोग की संस्कृति पैदा करनी होगी। तभी समाज इस विकराल समस्या से निपट पाएगा। वरना पानी कितना ही बचाइए अगर उसका उपभोग निरंकुश तरीके से होता रहा तो समस्या और भयावह होती जाएगी। जिस तरह से सामान्य जन आज पानी की समस्या के प्रति उदासीन नजर आ रहा है उससे तो लगता है कि स्थिति हाथ से निकल गई है। लगता है काल ने लहू की नदी में स्नान करने का निर्णय ले लिया है। गांव पाठखोरी अरावली पहाड़ की गोद में बसा है। पहाड़ से उतरकर तीन बड़े-बड़े नाले गांव व इसके खेतों में से होकर निकलते हैं। बरसात में पहाड़ से उतरने वाले पानी से ये नाले उफनते हुए व गांव की मिट्टी को सराबोर करते हुए आगे बढ़ते हैं। अभी कुछ वर्षों पहले पानी के मामले में समृद्ध गांव हुआ करता था। गांव के बीचों-बीच बने कुओं व खेतों के कुओं में खूब पानी होता था। फिर विकास की बयार चली। तकनीकी विकास के नाम पर जिन कुओं में से पहले जहां बैलों की सहायता से पानी निकाला जाता था वहीं इन कुओं पर जनरेटर रखे गए। अब पहले से कहीं ज्यादा फसलें होने लगीं। किसान निहाल हो गए। महात्मा गांधी कहा करते थे कि 'मशीनों के प्रयोग से मनुष्य का लालच बढ़ता है।' वह और ज्यादा कमाना चाहता है। तकनीकी और विकसित हुई तो जनरेटर की जगह बोर मशीन ने ले ली और जरूरत की फसलों की जगह नकदी फसलें बोई जाने लगीं। पाठखोरी के लोग गेहूं की जगह प्याज बोने लगे। इस फसल ने धरती के पानी को सुखा डाला। कुएं सूखते गए तो लोग बोर को और गहराई में ले जाते गए। हालात यह हुए कि 600 फुट की गहराई में भी पानी नहीं मिलता था। गांव में पीने के पानी के कुएं इस कदर सूख गए कि लोग एक-एक बूंद को भी तरसने लगे। पानी के लिए गांव में अक्सर खूनी झगड़े होने लगे।

सरकार ने, एनजीओ ने गांव में बरसाती पानी को रोकने के लिए पहाड़ी नालों पर छोटे-छोटे बांध बनाए। पहाड़ से उतर कर भागता हुआ पानी अब रुक-रुक कर आगे बढ़ने लगा। नाले के रास्तों में सोखता-कुएं बनाए गए ताकि बरसात का पानी गांव की धरती के अंदर जाकर जमा हो जाए और उसे बावक्त निकाला जा सके। धरती का जल स्तर कुछ ऊपर आया लेकिन लोगों का लालच जस का तस था। उन्होंने फिर वही अधिक पानी का उपयोग करने वाली सब्जी उगाना जारी रखा। नतीजन जमीन से पानी नदारद। अब गांव के लोग गंभीरता से सोच रहें हैं कि क्या उन्हें यह गांव छोड़ अन्यत्र जाना पड़ेगा क्योंकि इस गांव में पीने का पानी भी खरीद कर पीना पड़ता है।

यह सब देखकर मुझे अपना बचपन याद आता है। मैं पानी की किल्लत वाले रेगिस्तानी इलाके में पैदा हुआ। यहां पानी की संस्कृति जीवन के हर कण में व्याप्त थी। मुझे स्मरण है कि जून महीने के अंतिम दिनों में मेरी दादी हमारे मकान की कच्ची छत को बुहार कर साफ कर देती थी। मेरी ड्यूटी हुआ करती थी कि मैं किसी भी पक्षी को छत पर न बैठने दूं ताकि वे छत गंदी न कर पाएं। बरसात का पानी जैसे ही छत से नीचे गिरने लगता तो हम दादी-पोता घर के हर बर्तन को इस पानी से भर लेते थे। फिर यही पानी काम में आता था। याद है मुझे! मेरे गांव के बाहर एक तालाब हुआ करता था। तालाब के चारों तरफ लंबा चौड़ा क्षेत्र खाली पड़ा रहता था। इस तालाब को भरने के लिए जून महीने में पूरा गांव मिल कर इसके आस-पास के क्षेत्र की सफाई किया करता था। एक बार सफाई हो जाने पर किसी भी व्यक्ति को जूते पहने हुए इस क्षेत्र के आर-पार जाने की इजाजत नहीं थी। बरसाती दिनों में इस क्षेत्र के पानी से तालाब भर जाता था। फिर पूरे वर्ष इसी तालाब का पानी मनुष्यों और पशुओं की जरूरतें पूरी किया करता था। बरसात के बाद गांव में जगह-जगह पोखर भर जाते थे। हमें समझाया गया था कि इन पोखरों के पानी में पेशाब करने पर पाप लगता है। हम इस नियम का पालन डर से ही सही लेकिन बड़ी सख्ती से करते थे।

वह समय ज्यादा दूर नहीं गया है जब पानी के बचाव की संस्कृति जीवन का एक अटूट हिस्सा हुआ करती थी। इसी नियमबद्ध पद्धति के चलते ही रेगिस्तान जैसे अल्प वर्षा वाले क्षेत्र में लोग जीवन बचा पाए।

मैंने पाया है कि शहरी आदमी पानी के प्रति सबसे अधिक निर्दयी होता है। सरकार, स्वयंसेवी संस्थाएं, जागरूक व्यक्ति, मीडिया आदि सभी बरसाती पानी को जमीन में डाल कर बचाने की गुहार कर रहे हैं ताकि दिनों-दिन गिरता भू-जलस्तर ऊपर आ सके। कहीं-कहीं ये प्रयास सफल भी होते प्रतीत हो रहे हैं। यह जरूरी भी है लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है पानी के किफायती उपयोग की संस्कृति पैदा करना। एक-एक जन को पानी की हर बूंद को पवित्र मान कर इसकी कद्र करनी होगी। तभी बच पाएगा पानी और उस पर निर्भर जीवन।

(लेखक गुड़गांव स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ रूरल रिसर्च एंड डेवलपमेंट में कार्यरत हैं।)

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