पानी की कमी, घटने लगे मोर

22 Sep 2016
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मोरों के प्राकृतिक विहार अब पूरी तरह उजड़ चुके हैं। जहाँ मोर मिलते हैं वहाँ न तो गाँव वाले और न ही वन विभाग कभी कोई दाने या पानी का इन्तजाम करता है। हालांकि सैकड़ों सालों से मोर बिना किसी के दाने या पानी के जिन्दा रहते रहे हैं लेकिन उन दिनों में और अब के दिनों में बड़ा अन्तर यह है कि अब न तो उन्हें पीने के पानी के लिये कोई सोता बचा है और न ही खेतों में कटाई के बाद बचा रह जाने वाले अनाज के दाने। यहाँ तक कि पर्यावरणीय असन्तुलन से पहले की अपेक्षा कीड़े-मकोड़ों की संख्या भी घटी है। बरसात के दिनों में अब उतने मोर नहीं नाचते। मोर भी अब नो मोर होते जा रहे हैं। बस्तियों के आसपास गर्मियों के दिनों में पानी की कमी और बढ़ता तापमान हमारे सबसे खूबसूरत पक्षी मोर की जिन्दगी पर भारी पड़ता जा रहा है। ज्यादातर मोरों की मौतें कीटनाशक या शिकार की वजह से हो रही है तो कहीं पानी या अनाज के दाने का अभाव भी कारण बनता है।

मध्य प्रदेश के आँकड़ों पर गौर करें तो बीते 20 सालों में यहाँ मोर बड़ी तादाद में कम हुए हैं। हर साल गाँवों और उसके आसपास रहने वाले मोरों की मौतें होने की घटनाएँ सामने आ रही हैं।

वनक्षेत्र की दृष्टि से मध्य प्रदेश देश का सबसे समृद्ध इलाका है लेकिन बीते 20-25 सालों में वनों में कमी आई है या इनमें लोगों की आवाजाही बढ़ी है। इसका असर वन्य जीवों पर भी हुआ। कभी इन जंगलों में सुन्दर पक्षी मोर बहुतायत में मिलते थे।

अकेले पश्चिमी मध्य प्रदेश के मालवा-निमाड़ में बीते बीस सालों में राष्ट्रीय पक्षी मोर की तादाद तेजी से कम हुई है। इनमें करीब 30 से 40 फीसदी तक की कमी आई है। पर्यावरण के जानकार इसे बड़ा संकट बताते हैं। वे बताते हैं कि यही हालत रहे तो अगले कुछ सालों में मोर की तादाद चिन्ताजनक रूप से कम हो सकती है।

मोरों के अस्तित्व पर संकट होने के बावजूद वे हर साल गर्मियों के दौरान तीखी धूप और भीषण गर्मी के दौर में भी अपनी जिन्दगी के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं। हमने अनियोजित और कथित विकास की दौड़ में मोरों के प्राकृतिक आहार विहार के लिये न कोई जगह बचने दी और न ही पीने के पानी का कोई सोता। इससे प्रदेश के सैकड़ों मोरों के सामने जिन्दगी का संकट पैदा हो गया है।

मालवा-निमाड़ के कई जिलों में मोरों की संख्या हजारों से घटकर सैकड़ों तक ही सिमट गई है। अकेले झाबुआ के पेटलावद क्षेत्र में 1994 तक 9000 मोर हुआ करते थे जो अब घटकर लगभग एक हजार तक रह गई है।

सत्तर के दशक तक यहाँ करीब 20 हजार मोर हुआ करते थे। इसके गाँव जामली में सत्तर के दशक में 500 से ज्यादा मोर हुआ करते थे, जो अब घटकर मात्र 5-6 रह गए हैं। इसी तरह धार जिले के कलसाडा, कानवन, नागदा, सनावदा, मनासा और तीसगाँव में सैकड़ों मोर जिन युवाओं ने अपने बचपन में देखे, आज वहाँ इक्का-दुक्का ही बचे हैं।

कुछ जिलों में मोरों को बचाने के लिये वन विभाग गर्मियों में दर्जनों स्थानों पर दाना और पानी की व्यवस्थाएँ करता है। लेकिन कई जिलों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की जाती है। कहीं-कहीं तो न वन विभाग जागता है और न ही स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ता इन मूक पक्षियों की पीड़ा को समझने की कोशिश कर पाते हैं। मोरों के शिकार पर कानून में कड़ी सजा का प्रावधान है लेकिन उनकी जिन्दगी बचाने और भीषण गर्मी के दौर में उन्हें जिन्दा बचा पाने की ललक समूचे प्रदेश में कहीं शिद्दत से देखने में नहीं आती।

मोरों के प्राकृतिक विहार अब पूरी तरह उजड़ चुके हैं। जहाँ मोर मिलते हैं वहाँ न तो गाँव वाले और न ही वन विभाग कभी कोई दाने या पानी का इन्तजाम करता है। हालांकि सैकड़ों सालों से मोर बिना किसी के दाने या पानी के जिन्दा रहते रहे हैं लेकिन उन दिनों में और अब के दिनों में बड़ा अन्तर यह है कि अब न तो उन्हें पीने के पानी के लिये कोई सोता बचा है और न ही खेतों में कटाई के बाद बचा रह जाने वाले अनाज के दाने। यहाँ तक कि पर्यावरणीय असन्तुलन से पहले की अपेक्षा कीड़े-मकोड़ों की संख्या भी घटी है।

ऐसे में गर्मी के दिनों में लू लग जाने और तेज बुखार की वजह से कई मोर अपनी जिन्दगी की जंग हार जाते हैं। बीते साल तेज गर्मियों में इन्दौर जिले में तापमान के बढ़ते पारे से मोरों को निजात दिलाने के लिये करीब 100 जगहों पर पीने के पानी तथा हर दिन दाने डालने का जतन किया गया था।

यदि इनमें से कुछ जतन भी मोरों को राहत दे पाया तो बड़ी बात होगी। लेकिन अधिकांश जिलों में फिलहाल अब तक वन विभाग ने ऐसी कोई पहल शुरु नहीं की है। इतना ही नहीं मोरों के प्राकृतिक विहार के आसपास रहने वाले ग्रामीणों और इलाके की किसी भी स्वयंसेवी संस्था ने इस तरह का कोई प्रयास शुरू नहीं किया है।

देवास में रियासतकाल के दौर के पहले से ही 2 किमी दूर मेंढकी चक तथा 3 किमी दूर बिलावली मोरों के प्राकृतिक विहार हुआ करते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं है। यहाँ जंगल काटकर शहर घुस जाने से हजारों मोर घटकर दर्जनों के आँकड़े में ही सिमट गए हैं। कभी यहाँ सैकड़ों मोर-मोरनियों के झुण्ड नजर आते थे। लेकिन अब इक्का-दुक्का ही नजर आते हैं। हर साल दर्जनों मोर बेमौत मारे जाते हैं। पुलिस रेकार्ड के मुताबिक ही अकेले देवास में हर साल दर्जन भर से ज्यादा मोरों के शिकार की शिकायतें दर्ज होती हैं। कई शिकायतें तो पुलिस तक पहुँच ही नहीं पाती।

मेंढकी चक के विक्रमसिंह और सूरजसिंह ठाकुर बताते हैं कि 30 साल पहले बचपन में गाँव से लगे जीवनेश्वर महादेव के मन्दिर के आसपास सुबह शाम सैकड़ों मोरों के झुण्ड नजर आते थे। लेकिन नाला सूख जाने, तालाब में गन्दला पानी होने और पर्याप्त मात्रा में दाने नहीं मिलने की वजह से लगातार मोर कम हो रहे हैं। बीते साल बिजली ग्रिड में करंट लगने या उलझ जाने से दर्जन भर मोर मर चुके हैं।

बिलावली के 80 साल के बुजुर्ग आशाराम नाथूजी वर्मा भी दोहराते हैं कि महादेव मन्दिर के पास ग्रामीण ज्वार के दाने डाल दिया करते थे। इससे मोरों की जिन्दगी बसर हो जाती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। लोगों में पक्षियों के लिये अनाज डालने की परम्परा ही खत्म हो गई अब तो केवल सावन के महीने में यहाँ दर्शन करने वाले ही कभी-कभार दाने डाल देते हैं। जबकि सावन में मोरों को दाने की जरूरत हीं नहीं होती। जरुरत तो गर्मी के दिनों में ही होती है, जब खेत सूने होते हैं।

मेंढकी चक के भीमनारायणसिंह राजपूत बताते हैं कि मोरों को अपने जिन्दगी बचाने के लिये पशुओं की ठेल से काम चलाना पड़ता है। लेकिन यह उनके लिये खतरा भी होता है। कई मोर दाना पानी नहीं होने की वजह से पड़ोसी गाँव छायन की ओर भी चले जाते हैं। वहाँ तालाब होने से उन्हें पानी तो मिल ही जाता है।

बिलावली के राजबहादुर यशवंतसिंह ठाकुर बताते हैं कि पहले की अपेक्षा अब यहाँ केवल 10 से 15 प्रतिशत ही मोर बचे हैं। आवास नगर के गन्दे पानी के नाले की वजह से कई मोर बीमार हो जाते हैं।

26 जनवरी 1963 को मोर राष्ट्रीय पक्षी तो बना पर इसके संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया। 53 बरस बाद अब मोर अपने अस्तित्व के लिये लड़ाई लड़ रहे हैं। खासकर बीते बीस सालों में इनकी संख्या अप्रत्याशित ढंग से घटी है। मोरों के प्राकृतिक आवास उजड़े हैं और उनके मारे जाने की घटनाएँ बढ़ी हैं।

निम्न जन्म दर और अण्डों के लिये सुरक्षित स्थान न हो पाने से इनकी नई पीढ़ी का संकट गहराता जा रहा है। मालवा को तो कभी मोरों का स्वर्ग कहा जाता था। गाँव-गाँव मोरों का बसेरा था और यहाँ के लोग इनसे खासे हिले हुए थे। इनकी कर्णप्रिय आवाज सुनना और बारिश में फुहारों के बीच इन्हें नाचते हुए देखना आल्हादकारी हुआ करता था। पर अब ये बीते दिनों की कहानी बनती जा रही है।

धार जिले के कलसाडा के बुजुर्ग केसरसिंह बताते हैं कि इन्हें सबसे ज्यादा नुकसान खेतों में रासायनिक दवाओं के छिड़काव से हुआ। इसके अलावा कुछ लोग चन्द रुपयों के लिये कुकड़िया या बलिया (शिकार का उपकरण) से इन्हें मार देते हैं। इनके अंगों की तस्करी भी आम है, वहीं इसका मांस भी महंगे दाम बिकता है।

ज्यादा वजन होने से ये देर तक उड़ नहीं पाता और आसानी से शिकारी के चंगुल में आ जाता है। गाँव वाले बताते हैं कि कई बार शिकारियों का पीछा भी किया पर कोई फायदा नहीं। वे ज्यादातर सूनसान इलाकों में और रात या दोपहर में शिकार करते हैं। सवाल है कि राष्ट्रीय पक्षी ही महफूज नहीं तो बाकी जीव-जन्तुओं का क्या होगा।

इन्दौर के वन अधिकारी बताते हैं कि मोरों सहित अन्य पक्षियों के लिये वन विभाग द्वारा बजट आवंटित किया जाता है। मोर वाले चिन्हित क्षेत्र में अनाज के दाने और पीने के लिये पानी की व्यवस्था वन विभाग पंचायतों के माध्यम से संचालित करता है ताकि लोगों की जनभागीदारी भी हो।

मोरों को गर्मी से बचाने के लिये हर सम्भव कोशिश की जाती है। इनमें कमी मौतों की वजह से नहीं निम्न जन्म दर से हो रही है। जबकि पुलिस अधिकारी मानते हैं कि मोरों का शिकार करने वालों के खिलाफ वे पशु-पक्षी संरक्षण अधिनियम में सख्त कार्रवाई करते हैं। वे कई ऐसे दर्ज मामले भी गिनाते हैं।

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