पानी की सियासत

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नदी परियोजना को एक राष्ट्रीय परियोजना स्वीकार जरूर कर लिया, लेकिन इसके बावजूद उसने कुछ नहीं किया। यही नहीं, प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के समय ब्रह्मपुत्र घाटी विकास परियोजना बनाने के बावजूद आज तक केंद्र सरकार ने इसमें कोई ठोस काम नहीं किया। इस परियोजना में बोर्ड का गठन किया गया था, लेकिन इसकी कोई बैठक ही नहीं होती है। लोगों को पता नहीं कि ब्रह्मपुत्र घाटी विकास परियोजना के लिए किसी बोर्ड का गठन किया गया है।

जल संपदा का बंटवारा चाहे राज्य के बीच हो या अंतर्राज्यीय या राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो, बड़ा ही संवेदनशील मामला है। इसलिए केंद्र की यह जिम्मेदारी बनती है कि एक राय बनाकर ही वह कोई निर्णय ले। हमारे देश में दक्षिण के कई राज्यों में नदी जल बंटवारे को लेकर मतभेद हैं। सतलुज को लेकर पंजाब और हरियाणा में मतभेद हैं, तो गंगा को लेकर केंद्र और पश्चिम बंगाल के बीच विवाद की स्थिति रही है। हालांकि गंगा के पानी को लेकर एचडी देवगौड़ा के प्रधानमंत्रित्वकाल में बांग्लादेश के साथ समझौता हुआ था, तब ज्योति बसु पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। अभी केंद्र और पश्चिम बंगाल, दोनों ही जगह संप्रग के घटक दलों की सरकारें हैं। मगर गंभीर समस्याओं को लेकर उनमें समन्वय नहीं है। इसी का नतीजा है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रधानमंत्री के साथ बांग्लादेश यात्रा पर नहीं गईं। विवाद की जड़ तीस्ता नदी है, जिसे लेकर बांग्लादेश से समझौता होना था।

पड़ोसी मुल्कों के साथ हमारे जो संबंध हैं, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। बांग्लादेश के साथ हमारा बेहतर संबंध दक्षिण एशिया में पड़ोसी मुल्कों के साथ अच्छे संबंध का एक उत्कृष्ट उदाहरण बन सकता है। पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में यातायात के लिए बांग्लादेश के साथ संबंध का बड़ा महत्व है, लेकिन वर्षों से ये मुद्दे लंबित पड़े हैं। जहां तक तीस्ता नदी के जल के बंटवारे का सवाल है, तो यह एक अंतर्राष्ट्रीय मामला है। तीस्ता नदी सिक्किम से निकलती है और उत्तर बंगाल से होते हुए बांग्लादेश चली जाती है और वहां ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है। उत्तर बंगाल के छह जिलों के लिए यह नदी जीवनदायिनी जैसी है। वास्तव में तीस्ता जल बंटवारे का विवाद नया नहीं है। ममता बनर्जी का कहना है कि उन्हें विश्वास में लिए बिना ही केंद्र ने बंटवारे का मसौदा तैयार कर लिया। ममता बांग्लादेश को तीस्ता का 23 हजार क्यूसेक पानी देने को राजी हैं, तो केंद्र 33 हजार क्यूसेक पानी देने पर सहमत हो गया था। यही बात ममता बनर्जी को नागवार गुजरी।

जल बंटवारे से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय समझौता करने के लिए केंद्र और राज्य के बीच तालमेल होना चाहिए लेकिन प्रधानमंत्री की यात्रा के समय जब तीस्ता नदी का मामला तय हो चुका था, उसी समय अचानक पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने खुद को उनकी यात्रा से अलग कर सबको अचंभित ही नहीं किया, पूरे मामले को नाटकीय मोड़ दे दिया। इससे कई पहलू सामने आए। पहला यह कि संप्रग सरकार के तमाम घटक दलों में सहमति नहीं है। दूसरी बात यह कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच तालमेल का साफ अभाव दिखा। वास्तव में ममता बनर्जी को अंतिम समय में यात्रा टालने के बजाय पहले ही संबंधित विभागों से संपर्क साध लेना चाहिए था। तीसरी बात, चूंकि इस मामले में वर्षों से केंद्र और राज्य सरकार के बीच बातचीत हो रही थी और पूर्ववर्ती वाम मोर्चा सरकार तीस्ता जल बंटवारे पर उत्तर बंगाल की चिंता से केंद्र सरकार को अवगत करा चुकी थी, इसलिए केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की जिम्मेदारी बनती थी कि वे एक सर्वदलीय बैठक में सहमति बनाते। चौथी बात, इस पूरे मामले में पारदर्शिता का घोर अभाव है। आज तक देश की जनता को जल संबंधी मसौदा क्या है, इसकी जानकारी नहीं है।

तीस्ता नदी का जल बँटवारा

राजनीतिक स्वार्थ झगड़े की जड़ होते हैं। इससे समस्या लंबित होती है और समाधान भी दूर होता जाता है। इसका ताजा उदाहरण अभी देखने को मिला, जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने ऐन आखिर में प्रधानमंत्री की बांग्लादेश यात्रा से खुद को अलग कर लिया। हकीकत में इस कदम के जरिए ममता उत्तर बंगाल में कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव को कम कर अपना राजनीतिक प्रभाव बढ़ाना चाहती हैं। ममता बनर्जी के राजनीतिक उत्थान से जो लोग वाकिफ हैं, वे भली-भांति जानते हैं कि वह किस तरह ऐसे मौकों से राजनीतिक लाभ उठाना चाहती हैं और अपनी छवि निखारना चाहती हैं। फिर चाहे इसके लिए प्रधानमंत्री के सम्मान को या पड़ोसी मुल्क के साथ संबंध को हाशिये पर क्यों न डालना पड़े?

(लेखक माकपा के पूर्व सांसद हैं)

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