पानी परेशानी और बेइमानी


पानी की परेशानी विश्वव्यापी हो चली है। लेकिन समस्या सिर्फ पानी की नहीं है। उसके साथ बेईमानी भी जुड़ी है जो अमीर और गरीब में भेद करती है। विकसित देशों में पानी की बर्बादी आम है और गरीब देश बिना पानी के प्यासे मर रहे हैं। उनकी प्यास बुझाने के लिये फिर उन्हें कर्ज दिया जाता है। समस्या वहीं की वहीं रहती है।जब भी हम पति-पत्नी बड़े बेटों के साथ समय बिताने अमेरिका जाने लगते हैं, पत्नी यही दुहराती जाती है कि छोटे बेटा-बहू को पानी की बड़ी परेशानी हो जाएगी। हमारे मुहल्ले को दिन में कुल दो बार आधे-आधे घंटे के लिये पानी दिया जाता है जिसका प्रेशर हमारे ब्लॉक तक आते-आते इतना कम हो जाता है कि शक्तिशाली पम्प से न खींचा जाये, तो वह पहली मंजिल तक नहीं चढ़ता।

देर से अपनी-अपनी नौकरी से लौटने वाले बेटा-बहू शाम का पानी दिये जाते समय तक घर नहीं लौटे होते हैं और सुबह का पानी दिये जाते समय तक उठ नहीं पाते। पम्प ऑन नहीं हो पाता। इन गर्मियों में पानी कुल एक बार और सो भी कुल दस मिनट के लिये दिया जाने लगा और इतने कम प्रेशर से कि पम्प ऑन करने पर भी नहीं चढ़ा। विडम्बना कि उनका ई-मेल से प्रेषित दुखड़ा मैंने तब पढ़ा जब मैं गुनगुने पानी से भरे टब में स्नान करके आया था।

दिल्ली में हमारे फ्लैट में जो गिनती के दस-बारह गमले हैं उनमें गर्मियों भर पानी नहीं दिया जा पाता। यहाँ अमेरिका के रेगिस्तानी राज्य एरिजोना की फीनिक्स नगरी तक में मैंने होम लॉन और बाग-बगीचे, टब और पूल भर-भरकर नहाने के लिये पानी की कोई कमी नहीं पाई। फीनिक्स में साल भर में कुल सात इंच पानी बरसता है, फिर भी औसत घर में पानी की दैनिक खपत सात सौ गैलन है।

आधुनिक इंसान के बारे में एक आम खुशफहमी यह है कि वह मानवीयता और वैज्ञानिकता का पुतला होता है। अफसोस कि पानी के ग्लोबव्यापी संकट की कहानी उसकी नादानी, बेईमानी और बेरहमी की कहानी है। विज्ञान बताता है कि जिस जल के कारण हमारी पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है उसकी मात्रा सीमित है। गणित बताता है कि पानी का सबसे अधिक उपयोग करने वाले जानवर, यानी इंसान की आबादी जितनी ही बढ़ती जाएगी प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता उतनी ही कम होती जाएगी, लेकिन हो यह रहा है कि आबादी से कहीं ज्यादा बढ़ रही है पानी की खपत।

बीसवीं सदी के अन्तिम पचास वर्षों में दुनिया की आबादी दोगुनी हुई और पानी की खपत छह गुनी। इसका मतलब यह है कि प्रति व्यक्ति उपलब्ध पानी इस अवधि में 58 प्रतिशत कम हो चुका है और ऐसा समझा जाता है कि 2050 तक वह 81 प्रतिशत कम हो चुका होगा।

संसार का कुल ढाई-तीन प्रतिशत पानी ही मीठा है। उसमें से भी दो तिहाई या तो ध्रुव प्रदेशों और हिमनदों में जमा हुआ है या फिर जमीन में इतने गहरे दबा है कि वहाँ से उसे निकालना कठिन है। जो एक तिहाई उपलब्ध है उसका भण्डार अमीर व्यक्ति और देश-प्रदेश बड़े तेजी से खत्म करते जा रहे हैं।

कुल एक बटा सौ प्रतिशत पेयजल भण्डार ही ऐसा है जो वर्षा से फिर-फिर भरता रहता है, शेष खत्म होता रहता है, तो पानी अन्धाधुन्ध बर्बाद करने वाली आधुनिक बिरादरी चिन्तित क्यों नहीं है? इसलिये कि उसकी ‘वैज्ञानिक समझ’ यह कहती है कि विज्ञान कोई-न-कोई हल निकाल ही लेगा। जैसे यह कि सागर के खारे जल को मीठा बनाते रहने का या ध्रुववर्ती प्रदेशों की बर्फ पिघलाने का कोई उपाय खोज निकालेगा। उपाय महंगा होता तो होता रहे। पर्यावरण सन्तुलन बिगड़ता है, तो बिगड़ता रहे।

पिछड़े गरीब तो आज भी सचमुच प्यासे मर रहे हैं। संसार के एक अरब दस करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है और इसके चलते हर साल कम-से-कम पचास लाख लोग जल-जन्य रोगों से मरते हैं। डेढ़ अरब लोगों के पेट में कीड़े पैदा होते हैं जिनमें से एक लाख की मौत हो जाती है। और तो और, यूरोप के पिछड़े देशों में भी बारह करोड़ गरीबों के लिये पीने के साफ पानी का संकट प्रस्तुत है।

जानकारों का अनुमान है कि सन 2025 तक कोई पौने तीन अरब गरीबों के लिये पानी का भयंकरतम संकट हो जाएगा और ढाई अरब और लोगों को भी न्यूनतम आवश्यकता से कुछ कम जल ही मिल सकेगा।

हमारी वैज्ञानिकता का एक और नमूना यह है कि हम जमीन के भीतर के हजारों वर्ष पुराने भण्डारों से पानी यह जानते हुए भी पम्प किये चले जा रहे हैं कि वे दुबारा भरने वाले नहीं हैं। भारत और चीन-जैसे घनी आबादी वाले देशों को तो छोड़िए, विरल आबादी वाले अमेरिका तक में यही हो रहा है। कैलिफोर्निया में फल-सब्जी और दक्षिणी राज्यों में कपास-अनाज उगाने वाले निगमों को भूमिगत भण्डार उलीचते चले जाने की छूट दे दी गई है। इन अमीर निगमों को हर तरह की सुख-सुविधा इसलिये दी जा रही है कि वे गरीब देशों के किसानों की रोजी-रोटी छीन सकें। सच तो यह है कि हर देश में गरीब किसानों की दुहाई देकर अमीर किसानों की भलाई के लिये पानी की राजनीति की जा रही है।

वैज्ञानिकता का तकाजा है कि पानी के संरक्षण के कुआँ-बावड़ी-पोखर-जैसे तमाम पुराने उपाय फिर आजमाए जाएँ, ड्रिप (पानी बूँद-बूँद टपकाने वाली) सिंचाई करके कम पानी से ज्यादा पैदावार की जाये और घरों में पानी का इस्तेमाल बहुत किफायत से किया जाये। अफसोस कि आधुनिक इंसान उसे बेची जा सकने वाली जिंस मानता है।

(वाणी प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘आज का समाज’ से संपादित अंश)

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