पानी से हुई क्रांति

जनवरी 2000 में कोचाबांबा में नागरिकों का समन्वय ‘‘पानी और जीवन की रक्षा के लिए महासंघ‘‘ का गठन हुआ और इस घटना से जन आंदोलन को प्रोत्साहन मिला। ‘‘लोग सड़कों पर निकल आए, जनआंदोलन ने शहर बंद करवा दिया तथा किसी के भी शहर में आने तथा बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी गई। पहले सरकार ने लोगों का दमन किया जिससे इस दौरान कुछ लोगों की जानें भी गई। लेकिन, बाद में सरकार को झुकना पड़ा और वह निजी कंपनियों के साथ हुए अनुबंधों को खत्म करने के लिए राजी हुई।

आम नागरिकों के निजीकरण विरोधी अभियान ने एक बड़ी क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया जिसके तहत अंततः बोलिविया की पहली देशज सरकार बनी। नीचे गिरते भूजल स्तर और खत्म होती प्राकृतिक संरचनाओं के कारण जल सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु दुनियाभर में पीने लायक पानी के स्थाई प्रबंधन हेतु बहस के साथ ही मुफ्त जल उपलब्धता के मूलभूत अधिकार पर भी इन दिनों बहस जारी है। खासकर तब जबकि कईं देशों में जीवन के लिए अनिवार्य इस संसाधन के निजीकरण का प्रयास जारी है। ‘‘उस देश में जहां हर चीज का निजीकरण हो गया था और सरकार भी बाहरी ताकत से संचालित थी वह बोलिविया अब ऐसे देश में तब्दील हो गया है, जो अपने संसाधनों पर नियंत्रण रखता है, अपने धन का प्रबंधन करता है और अपनी जनता की भलाई के लिए काम करता है। ‘‘यह बात जल कार्यकर्ता और संयुक्त राष्ट्र में बोलिविया के पूर्व राजदूत पाब्लो सोलोन ने अपने भारत दौरे में इस लेटिन अमरिकी देश में पानी के निजीकरण पर लगाम लगाने के अनुभवों और उससे आए बदलावों को साझा करते हुए कही।

सोलोन ने बताया कि जलप्रदाय करने वाली निजी कंपनियों को खदेड़ने के लिए बोलिविया के लापाज शहर में 1997 में और कोचाबांबा में 1998 में पानी के निजीकरण विरोधी संघर्ष शुरू हुआ था जो सात से अधिक सालों तक लगातार चला, जिसमें तीन जानें गईं और सैकड़ों महिला-पुरुष जख़्मी हुए। उन्होंने याद करते हुए बताया कि ‘‘निजी कंपनियों का एकमात्र उद्देश्य था- मुनाफा कमाना। उन्होंने कोई निवेश नहीं किया। वे देश के बुनियादी संसाधनों का उपयोग कर सिर्फ मुनाफा ही कमाना चाहते थे। कोचाबांबा में उनका (कंपनियों का) पहला काम था 300 प्रतिशत जल दरें बढ़ाना। इससे लोग सड़कों पर आ गए। बोलिविया में पानी को धरती माता का खून माना जाता है इसलिए पानी के निजीकरण से आम आदमी गुस्से में था। सोलोन ने कहा ‘‘गैस, बिजली, रेलवे सबका पहले से ही निजीकरण हो चुका था। लेकिन जब निजी कंपनियों को जलक्षेत्र भी प्रस्तावित कर दिया गया तो इससे लोग उत्तेजित हो गए, वे संगठित हुए और अपने संसाधनों को वापस प्राप्त करने की मांग करने लगे।”

कंपनी की जो पैसा दे सकता था उसे अच्छी सेवाएं देने की कंपनी की नीति ने ग़रीबों को अलग-थलग कर दिया। ‘‘इस नीति का परिणाम यह हुआ कि लोग पानी की गुणवत्ता और संसाधनों में समानता के अधिकारों की मांग करने लगे। निजी कंपनियां बुनियादी ढांचे और उन्हें प्राप्त संसाधनों जैसे - बांध, शुद्धिकरण संयंत्रों की भी देखभाल नहीं कर रही थीं। इसके बावजूद निजी कंपनी ने लापाज शहर से साल भर में 30 लाख डॉलर की कमाई की। जो धन लोगों के विकास के लिए काम आना था उसे कंपनियों को लुटा दिया गया।

जनवरी 2000 में कोचाबांबा में नागरिकों का समन्वय ‘‘पानी और जीवन की रक्षा के लिए महासंघ‘‘ का गठन हुआ और इस घटना से जन आंदोलन को प्रोत्साहन मिला। लोग सड़कों पर निकल आए, जनआंदोलन ने शहर बंद करवा दिया तथा किसी के भी शहर में आने तथा बाहर जाने पर पाबंदी लगा दी गई। पहले सरकार ने लोगों का दमन किया जिससे इस दौरान कुछ लोगों की जानें भी गई। लेकिन, बाद में सरकार को झुकना पड़ा और वह निजी कंपनियों के साथ हुए अनुबंधों को खत्म करने के लिए राजी हुई। पाब्लो सोलोन लेटिन अमेरिकी देशों के समूह के एकता एवं व्यापार संबंधित मामलों के राजदूत और सचिव रह चुके हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पानी के मानवाधिकार, अंतरराष्ट्रीय धरती दिवस, प्रकृति से सामंजस्य और देशज समूहों के अधिकारों से संबंधित प्रस्तावों का नेतृत्व किया है।

निजीकरण रद्द करवाने वाले जनआंदोलन का प्रभाव स्थानीय राष्ट्रवादी आंदोलन के लिए नींव का पत्थर साबित हुआ जिसके तहत बोलिवियावासी अपनी सरकार चुनने के लिए आगे आए। ‘‘पहली बार मूल निवासियों ने अपनी ताकत पहचानी और वोट के लिए आगे आए। उन्होंने अपना राजनीतिक संगठन बनाने का निर्णय लिया। सन् 2005 में पहली बार हमेशा की तरह 30 प्रतिशत के बजाय 54 प्रतिशत मतदान हुआ। उन्होंने भारत से आग्रह किया कि वह बोलिविया के अनुभव से सीख लेते हुए जलक्षेत्र में पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) से बचे। उन्होंने कहा यह हमारा धन (करों से इकट्ठा होने वाला) है जिसे निजी कंपनियां इस्तेमाल करती है वे बहुत थोड़ा या फिर बिल्कुल भी निवेश नहीं करती हैं तो फिर सरकार को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण क्यों नहीं बरकरार रखना चाहिए? जनता को युद्ध छेड़ना पड़े इससे तो बेहतर यही है निजीकरण को अभी से रोक दिया जाए।

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