पानी व्यवस्था की प्रबन्धक भारतीय महिलाएँ

पानी की व्यवस्था में लगीं महिलाएँ
पानी की व्यवस्था में लगीं महिलाएँ

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस 08 मार्च 2017 पर विशेष


पानी की व्यवस्था में लगीं महिलाएँमार्च का पहला सप्ताह 8 मार्च को मनाए जाने वाले अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के चलते विश्व स्तर पर नारीमय होने लगता है। हमारे भारत में भी इस समय महिला सशक्तिकरण सप्ताह मनाया जा रहा है। वैसे हमारी भारतीय महिलाओं के लिये किसी ने बहुत पहले कहा था कि यदि प्रबन्धन सीखना हो तो किसी भारतीय पत्‍नी से सीखो।

यह बात सौ प्रतिशत सच भी है, क्योंकि भारत में स्त्रियाँ जन्मजात प्रबन्धक होती हैं। वैसे तो एक कुशल प्रबन्धन समाज के हित में व्यक्ति का विकास करता है, लेकिन किसी समाज की सबसे आधारभूत इकाई, परिवार, में प्रबन्धन उस घर की मुख्य महिला ही करती है, जो भारत में दादी, माँ या पत्नी हो सकती है। इनके अलावा परिवार में जो अन्य महिला सदस्य होती हैं, वे प्रमुख महिला प्रबन्धक की सहायिकाओं के रूप में घरेलू प्रबन्धन में अपने-अपने अनुकूल हाथ बटाँती हैं।

कोई भी घरेलू छोटे-बड़े काम हों, भारतीय महिला से अधिक कुशल प्रबन्धक कोई हो ही नहीं सकता। इन कामों में सबसे महत्त्वपूर्ण काम होता है, अपने-अपने घरों में पानी की व्यवस्था सुचारु रूप से बनाए रखना। पानी वैसे भी जीवन का मूलभूत आधार और आहार है, यह बताना कोई नई बात नहीं है।

पानी हमारे लिये कितना अहम है। यह भी हम सभी भलीभाँति जानते हैं। हमारे शरीर का 70 प्रतिशत और पृथ्वी का 71 प्रतिशत भाग पानी से बना हुआ है। पृथ्वी की इस कुल जलराशि का 1.6 प्रतिशत पानी भूमिगत है और लगभग 0.001 प्रतिशत पानी वाष्प और मेघों के रूप में विद्यमान है।

पृथ्वी की सतह पर जो पानी है उसमें से भी एक बड़ी मात्रा 97 प्रतिशत सागरों और महासागरों में समाई हुई है, जो पेयजल की श्रेणी में नहीं आती। केवल तीन प्रतिशत, जो पानी पीने योग्य है, उसमें से भी 2.4 प्रतिशत हिमनदों और उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों में जमा हुआ है। अब शेष मात्र 0.6 प्रतिशत पानी, जो नदियों, झीलों और तालाबों में मिलता है, वास्तव में पेयजल है। आँकड़ों के अनुसार एक व्यक्ति औसतन 30-40 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करता है।

भारत के घरों में इस प्रतिदिन वाले पानी की व्यवस्था महिलाएँ ही बनाए रखती हैं, इस विषय पर चिन्तन की आवश्यकता है। देखने में या सुनने में ऐसा लगता है कि इसमें चिन्तन करने जैसी कौन सी गहरी बात है। लेकिन थोड़ा सोचिए एक दिन भी यदि अचानक आपके घर का नल आना बन्द हो जाये, तो सबसे पहले चिन्ता की शिकन उस घर की महिला के चेहरे पर ही दिखाई देती है।

वह येनकेन प्रकारेण घर के लिये पानी की जुगाड़ शुरू कर देती है और इन्तजाम करने पर घर के ड्रम से लेकर चम्मच तक पानी से लबालब भरकर रखने की व्यवस्था वही करती है। वह अगले कुछ दिनों तक पानी न आने की स्थिति में भी किस तरह घर को सीमित पानी की मात्रा में चलाना है, इससे सम्बद्ध रणनीति मन-ही-मन बुन लेती है और कपड़े धुलने के बाद बचे गन्दे पानी का इस्तेमाल बड़ी निपुणता से शौचालय में कर लेने का प्रबन्ध भी कर लेती है।

मेरा मानना है, जो घर में सबसे पहले जागता है और द्वार खोलता है, सही मायनों में घर का स्वामी वही है। और अमूमन हर भारतीय घर चाहे वह गाँव, कस्बा, नगर, शहर और महानगर का हो, दिन की शुरुआत उस घर की महिला से ही होती है। अतः वही गृह-स्वामिनी होती है। भारत में गरीब, निम्न व मध्यमवर्गीय परिवारों की बहुलता है, इसलिये यहाँ हम बहुलता वाले घरों में पानी की व्यवस्था पर विमर्श कर रहे हैं, जहाँ जल प्रबन्धन वाकई एक प्रमुख घरेलू व्यवस्था के रूप में मायने रखता है।

उच्च मध्यमवर्गीय और धनाढ्य भारतीय घर इस पानी व्यवस्था में शामिल नहीं किये जा सकते हैं, क्योंकि प्रायः वहाँ पानी की अव्यवस्था नहीं के बराबर होती है। फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऐसी सम्भ्रान्त भारतीय महिलाएँ भी अपने ऐश्वर्य के मुताबिक पानी की व्यवस्थाओं में अपनी भूमिका अवश्य निर्वहन करती दिख ही जाती हैं। एक आम भारतीय महिला बेहद सहजता से अपने घर को समेटने और सहेजने में पारंगत होती है और अपनी इसी कला के माध्यम से वह अपने घर के लिये भी पानी का सदियों से प्रबन्धन करती आ रही है।

सबसे पहले सुबह उठकर स्नानघर, फिर रसोईघर, किसी के आने पर जलपान का प्रबन्ध, कपड़े धोने से लेकर घर की सफाई, पेड़ों पक्षियों के लिये भी पानी की व्यवस्था हर सामान्य भारतीय घर का रोज का नियम है। इन नियमित दैनिक कार्यों के लिये उत्तरदायित्त्वपूर्ण ढंग से भारतीय महिलाएँ सदियों से जहाँ ग्रामीण सुदूर इलाकों में नदियों, तालाबों या कुओं अथवा अन्य किसी साधन से अपने सिर पर रखकर पानी को अपने घरों में लाती आ रही हैं, वहीं थोड़े परिष्कृत ग्रामनुमा कस्बों और शहरों में भी चौराहों पर लगे सार्वजनिक नलों से पानी लाने की किल्लतों में महिलाएँ ही अधिक जूझती दिखती आई हैं।

मुम्बई जैसे महानगरों में भी पानी के लिये सुबह से रात तक भागती दौड़ती महिलाओं को कौन नहीं जानता। गर्मियों में टैंकरों से आने वाले पानी को बड़ी सूझ-बूझ के साथ अपने घरों के बर्तनों में भरने की कवायद से निःस्वार्थ सेवा में लगी महिलाएँ किसी जलदेवी से कम नहीं होतीं, क्योंकि कभी-कभी ये ही देवियाँ पानी के लिये रणचण्डी रूप भी धारण करने को मजबूर हो जाती हैं।

इसमें कोई शक नहीं कि गर्मियों में हमारे देश के कितने इलाके जल के लिये रण के क्षेत्र बन जाते हैं। पर फिर भी घरों से लेकर चौराहों तक के लोकस्तर के जलविवादों को भारतीय महिलाएँ बेहद निपुणता से रोज निपटाती हैं और घरों में लोग भरपेट खाकर पानी पीकर सन्तोष से काम करते रहते हैं। भारतीय महिलाएँ ही हैं, जो अपने कौशल से रोज पनपते जलविवादों से संघर्ष करती हुई अपराजिता की तरह जलविवाद का सफल निष्कर्ष निकालकर अपने घरों की प्यास बुझाती हैं।

जबकि दुनिया के तो छोड़िए ही हमारे अपने देश के जल के बँटवारे को लेकर उत्पन्न हुए अन्तरराष्ट्रीय सतलज-रावी-व्यास जल विवाद से लेकर कावेरी, कृष्णा, नर्मदा, सोन, यमुना, गोदावरी जैसे अन्तरराज्यीय जल विवाद अपने-अपने प्रश्नचिन्हों के साथ आज भी वहीं खड़े हैं। मुझे लगता है यदि भारतीय महिलाओं को इनका निर्णायक बना दिया जाता, तो वे मिनटों में कबके हल हो गए होते।

पानी के अभाव या कमी की पीड़ा को समझने या फिर पानी की कम उपलब्ध मात्रा में सकल घरेलू कार्यों को सुचारु ढंग से निपटाने में भारतीय महिलाएँ एक कुशल प्रबन्धक इसलिये साबित हो पाती हैं, क्योंकि उनके इस प्रबन्धन में कोई निजी स्वार्थ या राजनीति या आर्थिक मोह नहीं होता। वे सिर्फ-और-सिर्फ पानी की मानवीय महत्ता का प्रबन्धन करती हैं।

जब मुद्दा चाहे वह पानी का ही क्यों न हो, राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थों की चिनगारियों से धधकाया जाने लगता है, तब विवाद बन जाता है और कोई भी विवाद न्यायपूर्ण निर्णय की आस रखने लगता है, तो न्यायालय की चौखट पर पहुँच जाता है। फिर न्याय के लिए तो न्यायाधीश ही कुछ कर या कह पाते हैं। लेकिन एक आम भारतीय नारी एक सुयोग्य न्यायाधीश भी हर रोज साबित होती है, क्योंकि वो एक मटके पानी से भी भरी गर्मी में अपने घर के हर सदस्य की न्यायपूर्ण तरीके से प्यास बुझाती है। यह प्रबन्धन निःसन्देह उसके संस्कारों से आता है। ये संस्कार भारतीय महिला कहीं-न-कहीं अपनी भ्रूणावस्था से ही अपनी माँ से ग्रहण कर लेती है।

ये महिलाओं का अपने घरेलू स्तर पर किया जा रहा सफल प्रबन्धन कहा जा सकता है, जिसमें पानी से लेकर और भी कई छोटे-बड़े आर्थिक-पारिवारिक घरेलू मुद्दे शामिल होते हैं। आज भी महिलाएँ अपने स्तर पर अपने परिवार के प्रबन्धन में सीमित अपने जीवन से बेहद सन्तुष्ट व सुखी हैं। लेकिन महिलाएँ देश के मुद्दे भी बनी हुई हैं और मुद्दे हैं तो विवाद है और विवाद है, तो न्याय की गुहार है।

न्याय महिला अधिकारों के वंचित होने के मुद्दे से उठते हैं और परिवार की सीमाएँ लाँघकर सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय आकार ले लेते हैं और एक आम भारतीय महिला की प्रबन्धन क्षमता से दूर न्याय के लिये सिसकने पर उसे मजबूर कर देते हैं। जहाँ आम महिलाएँ खास महिलाओं में तब्दील होती सी दिखने लगती हैं और उनके अधिकार भी स्वयं के प्रति न मिलने वाली जागृति की भावना के अभाव से छटपटाने लगते हैं। तब घरेलू और पारिवारिक स्तर वाले अपने गृह प्रबन्धन से ऊपर उठकर एक महिला सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा व साक्षरता, स्वास्थ्य व शिशु कल्याण, बीमा, पूँजी-निर्माण, वैकल्पिक रोजगार जैसे विषयों की दिशा में अग्रसर होने लगती है।

पिछले कुछ दशकों से महिलाओं को राजनीतिक सशक्तीकरण के कारण पंचायती राज व्यवस्था में प्रतिनिधित्व मिल पाया है। अपनी कुशल प्रबन्धन क्षमता के बल पर भारतीय महिलाओं ने अपने घर के पानी प्रबन्धन के अनुभवों से अपनी पंचायतों की प्यास बुझाने में भी बड़ी भूमिका निभाई है।

ग्रामीण परिषदीय स्तर से लेकर राज्य एवं केन्द्रीय स्तरों तक के विभिन्न पदों पर बैठीं भारतीय महिलाएँ अपनी नितान्त पारिवारिक एकान्तता में सिर्फ एक घरेलू महिला ही होती हैं, जो कभी भी अपनी पानी की व्यवस्था करने के उत्तरदायित्व को भूलना नहीं चाहतीं। वे ही सही मायनों में समस्त मानव सभ्यता की जल संवाहक रही हैं और रहेंगी।


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