पारिस्थितिकी के सिद्धांत

27 Mar 2018
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पिछले मॉड्यूल (मॉडयूल-1) में आपने पर्यावरण की उत्पत्ति और विकास का अध्ययन किया है। आपने इस बात का भी अध्ययन किया है कि मानव पर्यावरण के साथ किस प्रकार अन्योन्यक्रिया कर रहा है। इस पाठ (यह मॉड्यूल-2 का पहला पाठ है) में आप पारिस्थितिकी, जो विज्ञान की एक प्रतिष्ठित शाखा है, की कुछ मुख्य अवधारणाओं का अध्ययन करेंगे।

उद्देश्य


इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः

- पारिस्थितिकी को परिभाषित कर सकेंगे;
- जीव, मुख्य रूप से मानव को सम्मिलित करते हुए तथा इसके पर्यावास के सम्बन्ध का वर्णन कर सकेंगे;
- पारिस्थितिकीय संघटनों के विभिन्न स्तरों यथा- जीव, जनसंख्या, समुदाय, पारितंत्र, बायोम (Biome) तथा जैवमंडल (Biosphere) की पहचान कर सकेंगे;
- प्राकृतिक पर्यावास और निकेत (Niche) के अन्तर को स्पष्ट कर सकेंगे;
- प्रजाति (species) की अवधारणा का वर्णन कर सकेंगे तथा अनुकूलन, विकास और विलोपन (extinction) की मूल अवधारणाओं की व्याख्या कर सकेंगे;
- जीवों के संदर्भ में समष्टि की अवधारणा का वर्णन कर सकेंगे;
- समष्टि के आकार, वृद्धि, घनत्व और फैलाव की विशेषताएँ बता सकेंगे;
- जीवों की समष्टि को प्रभावित करने वाले कारकों का विश्लेषण कर सकेंगे;
- प्रजातियों की विभिन्नता, पारस्परिक विशिष्ट अन्योन्यक्रिया और पारिस्थितिकीय अनुक्रम के संदर्भ में समुदाय-संरचना का वर्णन कर सकेंगे।

4.1 पारिस्थितिकी की परिभाषा


‘‘जीवों के पारस्परिक तथा वातावरण के साथ उनके सम्बन्धों के वैज्ञानिक अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं।’’

पारिस्थितिकी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन 1869 में जर्मन जीव विज्ञानी अर्नेस्ट हीकेल ने किया। यह ग्रीक भाषा के दो शब्दों ओइकॉस (Icos) जिसका अर्थ है ‘घर’ और लोगोस (logos) जिसका अर्थ है, ‘अध्ययन’ से लिया गया है। ‘‘पारिस्थितिकी को जीवों के पारस्परिक तथा वातावरण के साथ उनके सम्बन्धों के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसमें जीवों और पर्यावरण के जैविक और अजैविक घटकों के बीच सम्बन्धों पर अधिक बल दिया जाता है।’’

4.2 पारिस्थितिकीय संगठन के स्तर


पारिस्थितिकी के अन्तर्गत न केवल जीवों तथा उनके वातावरण के परस्पर सम्बन्ध का ही अध्ययन नहीं किया जाता, बल्कि समष्टियों, समुदायों, पारितंत्रों, बायोम तथा जैव मंडल का भी अध्ययन किया जाता है।

4.3 प्राकृतिक पर्यावास और जीव


पर्यावास (habitat) वह भौतिक पर्यावरण है जिसमें कोई जीव रहता है। प्रत्येक जीव को अपनी उत्तरजीविता के लिये विशिष्ट वस्तुओं की आवश्यकता होती है और यह जीव उस स्थान पर रहता है जहाँ पर्यावरण के द्वारा इन आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। हाथी की पर्यावरण सम्बन्धी आवश्यकता एक जंगल है। आप किसी समुद्र में हाथी के पाये जाने की आशा नहीं कर सकते और न ही किसी जंगल में व्हेल के पाये जाने की आशा की जा सकती है। पर्यावास उन विभिन्न प्रजातियों को सहारा प्रदान कर सकता है जिनकी आवश्यकताएँ समान हैं। उदाहरण के लिये एकल समुद्री पर्यावास व्हेल, दरयाई घोड़ा, सील, पादप प्लवक और अन्य कई प्रकार के जीवों को सहारा प्रदान करता है। अतः विभिन्न प्रजातियां एक ही पर्यावास में रहती हैं अर्थात उनका एक ही ‘‘पता’’ होता है। जंगल, समुद्र, नदी आदि पर्यावास के उदाहरण हैं।

पर्यावास के लक्षणों को इसके संरचनात्मक घटकों के द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है। ये घटक हैं: (1) स्थान (2) भोजन (3) जल और (4) आश्रय

चित्र 4.2 पर्यावास के संरचनात्मक घटकपृथ्वी पर चार प्रकार के मुख्य पर्यावास हैं- (1) स्थलीय (Terrestrial) (2) अलवणीय जल (Fresh water) (3) ज्वारनद मुख (Estuarine) (जहाँ नदियाँ समुद्र में मिलती हैं) (4) समुद्र (sea)। मानव आंत फीताकृमि का पर्यावास है तथा सड़ रही वस्तुएँ कवक का पर्यावास हैं।

4.4 निकेत (NICHE) और जीव


प्रकृति में अनेक प्रजातियाँ एक ही पर्यावास में पायी जाती हैं। परन्तु उनके कार्य भिन्न-भिन्न होते हैं। पर्यावास में किसी प्रजाति के कार्यात्मक लक्षण ‘‘निकेत’’ कहलाते हैं। किसी प्रजाति का पर्यावास इसके ‘पते’ (जहाँ वह रहता है) के समान है जबकि निच को इसके व्यवसाय के रूप में समझा जा सकता है। निकेत का तात्पर्य किसी प्रजाति के समस्त क्रियाकलापों और सम्बन्धों के उस योग से है जिसके द्वारा यह प्रजाति अपनी उत्तरजीविता तथा जनन के लिये अपने पर्यावास के संसाधनों का उपयोग करती है।

किसी प्रजाति का निकेत अद्वितीय होता है जबकि पर्यावास (आवास) में अनेक प्रजातियाँ होती हैं। किसी पर्यावास में दो प्रजातियों का निकेत समान नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि यदि दो प्रजातियों का निकेत समान है तो इनमें एक दूसरे के साथ उस समय तक स्पर्धा होती रहती है जबकि एक प्रजाति विस्थापित नहीं हो जाती। उदाहरण के लिये कीटों की विभिन्न प्रजातियों की एक बहुत बड़ी संख्या एक ही पौधे पर पीड़क (Pest) के रूप में रह सकती है। क्योंकि वह एक ही पौधे के विभिन्न भागों से अपना भोजन प्राप्त करते हैं।

चित्र 4.3 कीटों की विभिन्न प्रजातियाँ एक ही पौधे के विभिन्न भागों से अपना भोजन प्राप्त करते हुए जंगल में पायी जाने वाली वनस्पति इसका एक अन्य उदाहरण है। जंगल पेड़ पौधों की असंख्य प्रजातियों को सहारा प्रदान करता है क्योंकि उनके निकेत (niche) भिन्न-भिन्न हैं। ऊँचे पेड़, छोटी शाक और झाडि़याँ तथा घास जंगल का भाग हैं परन्तु भिन्न-भिन्न ऊँचाई होने के कारण इनकी आवश्यकताएँ (सूर्य का प्रकाश तथा पोषक तत्व) भी भिन्न-भिन्न हैं अतः यह सब एक साथ जीवित रह सकते हैं।

चित्र 4.4 बार्वलर चिड़ियों की तीन प्रजातियाँ जंगल में कीटों की भोजन के रूप में पेड़ से विभिन्न तीन स्तरों पर खोज करती हुई और इस प्रकार विभिन्न निकेतों पर रहती हैंजन्तुओं के निच में सबसे महत्त्वपूर्ण संसाधन भोजन और आश्रय हैं जबकि पादपों के संदर्भ में यह नमी तथा पोषक तत्व (फास्फोरस और नाइट्रोजन) हैं।

चित्र 4.5 मानव जाति का पारिस्थितिक निकेत

पाठगत प्रश्न 4.1


1. पारिस्थितिकी का क्या अर्थ है?
2. निकेत की परिभाषा दीजिए।
3. प्राकृतिक वास और निकेत में एक अंतर स्पष्ट कीजिए।

4.5 अनुकूलन


प्रत्येक जीव एक विशिष्ट पर्यावास में रहने के लिये अनुकूल होता है। आप जानते हैं कि नारियल को रेगिस्तान में नहीं उगाया जा सकता जबकि ऊंट समुद्र में जीवित नहीं रह सकता। प्रत्येक जीव अपने विशिष्ट पर्यावरण में रहने के लिये अनुकूलित होता है। इस प्रकार ‘‘किसी जीव की बनावट या व्यवहार या फिर जीने की पद्धति, जिसकी सहायता से वह किसी विशेष पर्यावरण में जीवित रहता है’’ अनुकूलन (Adaptation) कहलाता है। मछलियों में क्लोमों और पंखों की उपस्थिति जलीय पर्यावास के प्रति अनुकूलन के उदाहरण हैं। जलीय पुष्पीय पौधों में काष्ठ की उत्पत्ति की अनुपस्थिति तथा अल्प विकसित जड़तंत्र जलीय वातावरण के प्रति अनुकूलन के उदाहरण हैं। अनुकूलन का अवलोकन किसी जीव की संरचना, व्यवहार या शरीर क्रियाविज्ञान में किया जा सकता है। अनुकूलन का एक आनुवांशिक आधार है और यह विकास के द्वारा उत्पन्न तथा पूर्ण होता है। इसका अर्थ यह है कि अनुकूलन पीढ़ी दर पीढ़ी विकसित हुए हैं ताकि प्रजातियाँ अपने वातावरण में सफलता के साथ जीवित रह सकें।

पौधो और जन्तुओं को उनके विशेष वातावरण में जीवित रखने में सहायक मूल अनुकूलनों के उदाहरण हैं:

- पक्षी की चोंच की बनावट।
- फर का मोटापन अथवा पतलापन।
- पक्षियों में परों और पंखों की उपस्थिति।
- वृक्षों की सदाबहार और पर्णपाती प्रकृति।
- पत्तियों और तनों पर शूल (कांटों) की उपस्थिति और अनुपस्थिति।

चित्र 4.6 पक्षियों में चोंच के प्रकारों में अनुकूलन: विभिन्न पक्षियों की चोंच विभिन्न प्रकार के भोजन के लिये अनुकूलित हैं

- प्रजाति क्या है


प्रजाति (Species) को ऐसे समान ‘‘जीवों के समूह के रूप में परिभाषित किया जाता है जो अन्तः प्रजनन में सक्षम हैं और सफल संतति (बच्चे) पैदा करते हैं।’’ चीता, सिंह (शेर), कमल और गुलाब विभिन्न प्रजातियों के उदाहरण हैं। प्रत्येक प्रजाति का एक वैज्ञानिक नाम होता है जिसे सम्पूर्ण विश्व के लोग समझते हैं। मानव होमो सैपियंस (Homo Species) प्रजाति से सम्बन्धित है। केवल समान प्रजातियों के सदस्य अन्तःप्रजनन करके जननक्षम संतति पैदा कर सकते हैं। प्रत्येक प्रजाति के अपने आनुवांशिक अभिलक्षण होते हैं जो प्रजाति को अद्वितीय और दूसरी प्रजातियों से भिन्न बना देते हैं।

- विविधता


यद्यपि, प्रजाति सामान्यतया ऐसे समान जीवों का समूह है जो स्वतंत्र रूप से अन्तःप्रजनन कर सकते हैं यद्यपि एक दूसरे से भिन्न दिखाई पड़ते हैं।

विभिन्न नस्ल के लोगों में त्वचा के रंग में अंतर, बालों का प्रकार- घुंघराले या सीधे, रुधिर का प्ररूप मानव प्रजाति में विविधता को दर्शाता है। इसी प्रकार गायों, कुत्तों, बिल्लियों आदि की विभिन्न आकार और आकृति इन प्रत्येक प्रजातियों में विविधता के उदाहरण हैं। पौधों में लम्बी और छोटी मटर की किस्में, बैंगनों के विभिन्न आकार और आकृति इन वनस्पति प्रजातियों में विविधता को दर्शाते हैं। विविधता (variation) आकस्मिक उत्परिवर्तन का परिणाम है। स्पर्धा और प्रकृति चयन इस बात का निर्धारण करते हैं कि कौन सी विविधता सफल होगी और जीवित रहेगी- ऐसी विविधताएँ जो किसी प्रजाति को उसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिये संघर्ष करने में सहायता करती है, उनको बढ़ावा मिलता है।

आम, बैंगन आदि के आकार और आकृति में बहुत अधिक विविधता का अवलोकन किया जा सकता है।

चित्र 4.7 ये चारों एक ही प्रकार के कुत्ते कैनिस ल्यूपस (Canis Lupus) प्रजाति के अन्तर्गत आते हैं

जैव विकास


जैव विकास का सिद्धांत चार्ल्स डार्विन तथा अल्फ्रेड बैलेस के द्वारा सन 1859 में प्रतिपादित किया गया। आनुवांशिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति के साथ-साथ इस सिद्धांत का विस्तार हुआ और यह नव डार्विनवाद के नाम से प्रचलित हुआ। इस सिद्धांत की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

1. जीवों में यह प्रवृत्ति होती है कि वह अधिक संख्या में ऐसी संतानों को उत्पन्न करते हैं जो वातावरण के अनुकूल होती हैं।

2. उत्परिवर्तन (आनुवांशिक पदार्थ में ऐसा परिवर्तन जो डीएनए की प्रकृति में त्रुटि के कारण संकल्पना एवं मुद्दे होता है) के कारण समष्टि के जीवों में नए जीन उत्पन्न हो जाते हैं। इसके साथ-साथ लैंगिक जनन करने वाले जीवों में अर्धसूत्री विभाजन तथा निषेचन प्रत्येक पीढ़ी में जीनों के नए संयोजन के कारण हैं। इसे पुनर्संयोजन (Recombination) कहा जाता है। इस प्रकार, एक ही प्रजाति के सदस्यों में विविधता पाई जाती है और वे यर्थाथतः समरूप नहीं होते। विविधता वंशागत होती है।

3. विकासपरक बल, जिसे डार्विन ने प्राकृतिकवरण (Natural selection) का नाम दिया, उन विविधताओं (उदाहरणः जीन) का चयन करता है जो जीव को वातावरण के प्रति अनुकूल बनाने में सहायक हैं। प्राकृतिकवरण के कारण समष्टि में इस प्रकार के जीनों का अधिक जनन होता है।

4. वे जीव जो अपने वातावरण के प्रति अनुकूल होते हैं उन्हें जीवित रहने का उत्तम अवसर प्राप्त होता है और वे जनन करने की आयु को पहुँचकर अपनी संतति में उपयुक्त अनुकूलनों को स्थानान्तरित कर देते हैं।

5. इस प्रकार जैवविकास के ही कारण प्रजातियों में विविधता और अनुकूलन उत्पन्न होते हैं।

चित्र 4.8 प्राकृतिक वरण का प्रक्रम

4.6 प्रजातियों की उत्पत्तिः प्रजाति उद्भवन


संसार में आज जितनी भी प्रजातियाँ जीवित हैं, वे प्रजाति उद्भवन और विलोपन (विलुप्त) का परिणाम हैं।

प्रजातिउद्भवन (Specication) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा नई प्रजातियों की उत्पत्ति होती है तथा विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रजातिउद्भवन होता है।

एक प्रजाति में अनेक समष्टियों का समावेश होता है। प्रायः एक प्रजाति की विभिन्न समष्टियां कुछ भौगोलिक अवरोध जैसे पर्वत, समुद्र, नदी आदि के कारण एक दूसरे से अलग हो जाती हैं। भौगोलिक विलगन उस समय होता है जब एक प्रजाति की दो समष्टियों के बीच भौतिक विलगन विकसित हो जाता है। भौगोलिक विलगन किसी समष्टि के प्रजातिउदभवन का सबसे सामान्य तरीका है।

- किसी प्रजाति की समष्टि के सदस्य एक विशेष वातावरण में रहते हैं और उसी प्रजाति की अन्य समष्टि के सदस्य के साथ जनन करने में सक्षम होते हैं।

- इस स्थिति में समष्टि एक ऐसे अवरोध के द्वारा दो पूर्णरूप से पृथक समष्टियों में विभक्त हो जाती है जो इनके अन्तःप्रजनन और जीन विनिमय को रोक देता है। विलगन प्रक्रम एक भौतिक अवरोध हो सकता है जैसे पानी, पर्वत, समुद्र।

- पारिस्थितिक विलगन दो समष्टियों के पर्यावरण में तापमान, आर्द्रता, pH आदि के अन्तर के कारण होता है।

- जनन विलगन प्रजाति विभिन्न समष्टियों के सदस्यों के बीच अन्तःप्रजनन में हस्तक्षेप के कारण होता है। जब किसी प्रजाति की दो समष्टियां जनन अवरोध के कारण अन्तःप्रजनन करने में असमर्थ होती हैं।

जनन विलगन निम्नलिखित किसी एक या अधिक कारणों से भी हो सकता हैः

(i) जब दो भिन्न समष्टियां वर्ष के विभिन्न समय पर लैंगिक रूप से ग्रहणशील (विभिन्न समय पर प्रजनन करती हैं) होती है। उदाहरण के लिये ऐसे मेढकों की समष्टि जो मई में प्रजनन करती हैं, उस समष्टि से प्रभावपूर्ण रूप से अलग हो जाती है जो जुलाई में प्रजनन करती है। यद्यपि दोनों समष्टियाँ एक ही क्षेत्र में पाई जा सकती हैं।

(ii) विभिन्न समष्टियों के सदस्य एक दूसरे की तरफ अनुरंजन व्यवहार के द्वारा आकर्षित नहीं होते।

(iii) दो समष्टियों के फूलों के बीच परागण प्रक्रिया असफल हो जाती है।

(iv) यदि किसी प्रजाति की विभिन्न समष्टियों के जननांग एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं तो पर-निषेचन (Gross-fertilization) में रुकावट आ जाती है।

- विलगित समष्टियों में उत्परिवर्तन यादृच्छिक रूप से होते हैं और प्रत्येक उप-समष्टि के भीतर नई विविधता उत्पन्न करते हैं। इन उत्परिवर्तनों में से जो वातावरण के प्रति अनुकूलन में सहायक होते हैं वह प्राकृतिकवरण के कारण अगली पीढ़ी में अधिक संख्या में उत्पन्न होते हैं।

चित्र 4.9 भौगोलिक विलगन (Geological Isolation)- दूसरे शब्दों में, क्योंकि कोई भी दो पर्यावरण एक जैसे नहीं होते हैं, अतः प्रत्येक विलगन उप-समष्टि पर पड़ने वाले प्राकृतिकवरण दाब भिन्न-भिन्न होते हैं और स्थानीय परिस्थितियों जैसे जलवायु, रोग, शिकारी आदि पर निर्भर होते हैं। प्राकृतिकवरण प्रत्येक उपसमष्टि को अलग-अलग तरीके से प्रभावित करते हैं, अतः भिन्न-भिन्न उपसमष्टियों में पोषण या पुनर्संयोजन के कारण विभिन्न विविधताएँ स्थापित हो जाती हैं। समय के साथ-साथ उप समष्टियां एक दूसरे से अधिकाधिक भिन्न होती जाती है।

- लम्बे समय के बाद, उपसमष्टियाँ एक दूसरे से बहुत अधिक भिन्न हो जाती हैं और लैंगिक रूप से पृथक हो जाती हैं अर्थात ये अन्तः प्रजनन नहीं कर सकती हैं।

- बाद में अवरोध समाप्त हो जाने के उपरांत भी उपसमष्टियां अन्तः प्रजनन में सक्षम नहीं होती हैं और इस प्रकार उपसमष्टियां दो भिन्न प्रजातियाँ बन जाती हैं।

नई प्रजाति के उत्पन्न होने का उदाहरण


जबकि उद्भवन का एक वर्तमान उदाहरण गिलहरी की दो प्रजातियों केबाब गिलहरियों तथा एबर्ट गिलहरियों में देखा जा सकता है। यह गिलहरियाँ ग्रांड कैनियन सम्मुख किनारों पर रहती हैं। जीव विज्ञानी यह मानते हैं कि दोनों गिलहरियों की समष्टियां उस स्थिति में अलग-अलग प्रजातियाँ बन गईं। जब दस लाख वर्ष पूर्व कोलोराडो नदी ने अपना मार्ग बदल दिया जिससे गिलहरियों की मूल समष्टि दो भागों में बँट गई। क्योंकि घाटी (कैनियन) के सम्मुख किनारों का वातावरण अलग-अलग है। अतः घाटी के प्रत्येक किनारे पर प्राकृतिकवरण के द्वारा भिन्न-भिन्न लक्षणों का चयन किया जाता है। पृथक होने के कई वर्षों के बाद समष्टियों के बीच आनुवांशिक अन्तर इतना अधिक हो जाता है कि गिलहरी की दोनों समष्टियां दो अलग-अलग प्रजातियाँ बन जाती हैं, वह एक दूसरे से भिन्न दिखाई पड़ती है और अन्तः प्रजनन नहीं करती हैं।

चित्र 4.10 उत्तरी रिम की केबाब गिलहरी और दक्षिणी रिम की ऐबर्ट गिलहरी के पूर्वज एक ही थे

4.6.1 विलोपन (Extinction)


जब से पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई है, तभी से ऐसी नई प्रजातियाँ प्रकट हुई हैं जिनमें पर्यावरण के प्रति उत्तम अनुकूलन पाया जाता है जबकि पुराने कम सफल जीव मर जाते हैं या विलुप्त हो जाते हैं।

विलोपन सामान्यतया एक प्राकृतिक परिघटना है इसका अर्थ यह है किसी प्रजाति की मृत्यु। इन संकल्पना एवं मुद्दे विलोपनों का प्राथमिक कारण पर्यावरण में होने वाला परिवर्तन अथवा जैविक संघर्ष है। विलोपन उस समय होता है जब किसी प्रजाति का विकास उतनी तेजी से नहीं हो पाता है कि वह अपने पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का मुकाबला कर सके। पृथ्वी के भौगोलिक भू-विज्ञानी इतिहास के दौरान अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। जीवाश्म उन जन्तुओं, पौधों तथा अन्य जीवों के अवशेष हैं जो भूविज्ञानी काल में पृथ्वी पर रहते थे।

चित्र 4.11 (क) जीवाश्म फर्न पौधा (ख) जीवाश्म मत्स्यविलोपन विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं जैसे सुनामी, ज्वालामुखी आदि के कारण भी हो सकता है। वर्तमान समय में मानवीय क्रियाकलापों जैसे वनोन्मूलन, संसाधनों में अधिकाधिक उपयोग, पर्यावरणीय प्रदूषण तथा पर्यावरण में होने वाले परिवर्तन ऐसे अन्य कारक हैं जो विलोपन के लिये उत्तरदायी हैं। उद्योगों के विस्तार तथा लोगों को बसाने के लिये वनोन्मूलन से आर्थिक विकास तो हुआ परन्तु इसके कारण अनेक वन्य जीवों तथा पौधों का प्राकृतिक वास नष्ट हो गया। प्रदूषण के कारण कई जलीय प्रजातियाँ मर गईं।

पाठगत प्रश्न 4.2


1. अनुकूलन से क्या तात्पर्य है? एक वाक्य में उत्तर दीजिए।
2. परिभाषा दीजिए (i) प्रजाति (ii) विविधता
3. विविधता के दो स्रोत बताइए।
4. उस विकासपरक बल का नाम बताइए जिसके कारण अनुकूलित विविधता का प्रजनन अधिक होता है?
5. आप (i) प्रजाति उद्भवन (ii) विलोपन से क्या समझते हैं? एक-एक वाक्य में उत्तर दीजिए।

4.7 समष्टि (Population)


‘समष्टि’ शब्द की परिभाषा दिए हुए समय में किसी विशिष्ट स्थान में पाए जाने वाले एक ही प्रजाति के ऐसे जीवों के समूह के रूप में की जाती है जो स्वतंत्र रूप से अन्तःप्रजनन कर सकते हैं। उदाहरण के लिये जब हम यह कहते हैं कि किसी शहर की जनसंख्या 50,000 है तो इस बात से हमारा अभिप्राय यह है कि उस शहर में 50,000 मनुष्य हैं। यद्यपि संसार के किसी भी भाग में रह रहे मनुष्यों की जनसंख्या होमो सेपियंस प्रजाति से ही बनती है।

किसी भी समष्टि की अपनी विशेषताएँ होती हैं जो समष्टि की रचना करने वाली व्यष्टि से भिन्न होती हैं। एक व्यष्टि का जन्म होता है और वह मर जाता है परन्तु व्यष्टि बनी रहती है। इसका आकार परिवर्तित हो सकता है जोकि या तो नर होता है या मादा, जवान होता है या बूढ़ा परन्तु समष्टि का एक लिंग-अनुपात और आयु-संरचना होती है जिसका अर्थ है समष्टि में मादा से नर का अनुपात और वह विभिन्न आयु-वर्ग जिनमें समष्टि को विभाजित किया जा सकता है।

समष्टि के लक्षण निम्नलिखित पर निर्भर होते हैं: (i) समष्टि का घनत्व (ii) जन्म दर (iii) मृत्यु-दर (iv) फैलाव (परिक्षेपण) (v) जैविक विभव (vi) आयु वितरण (vii) फैलाव और (viii) वृद्धि रूप

घनत्व (Density): किसी दिए हुए समय में प्रति एकांक क्षेत्रफल में व्यष्टियों की समष्टि घनत्व कहलाती है। किसी प्रजाति का घनत्व समय के साथ-साथ और एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिवर्तित होता रहता है। उदाहरण के लिये आपने मानसून के दिनों में बाग में अधिक पौधों और जन्तुओं को देखा होगा। किसी क्षेत्र में व्यष्टि जीव का घनत्व एक विशेष आयाम के आकार जिसे चतुष्कोण (quadart) कहते हैं, उस क्षेत्र के नमूनों के यादृच्छिक चयन द्वारा निर्धारित किया जाता है।

बड़े और गतिशील जन्तुओं जैसे बाघ, तेंदुए, शेर, हिरन आदि के मामले में घनत्व का निर्धारण जन्तुओं की संख्या की प्रत्यक्ष रूप से गणना करके या निर्धारित क्षेत्र में जन्तुओं द्वारा बनाए गए पग चिन्हों की गणना करके किया जा सकता है। प्रत्येक जन्तु के पग चिन्ह (Pug mark) अद्वितीय होते हैं तथा एक दूसरे से भिन्न होते हैं। पग चिन्हों के अध्ययन से निम्नलिखित जानकारी विश्वसनीय ढंग से प्राप्त की जा सकती है यदि इनका कुशलतापूर्वक विश्लेषण किया जाए।

- अध्ययन क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों की उपस्थिति।
- व्यष्टि जन्तुओं की पहचान।
- बड़ी बिल्लियों (बाघ, शेर आदि) की समष्टि।
- बड़ी बिल्लियों में लिंग अनुपात और आयु (जवान और वयस्क)।

मानव जनसंख्या की गणना जनगणना (Census) कहलाती है। यह कार्य प्रत्येक 10 वर्ष के पश्चात भारत सरकार द्वारा किया जाता है। जनगणना में यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की भौतिक रूप से गणना की जाती है।

चित्र 4.12 वन्य जीवों के गद्दीदार पैरों जैसे शेर/बिल्ली के (पगचिन्ह) फुट प्रिंटजन्मदर (Birth Rate): जिस दर से नए जीव पैदा होते हैं तथा दी हुई पर्यावरिक परिस्थितियों के अन्तर्गत समष्टि में सम्मिलित होते हैं, जन्म दर कहलाती है। जन्म, अण्डे से बच्चे निकलने, अंकुरण और कायिक जनन के कारण किसी समष्टि के जीवों की संख्या में बढ़ोतरी होती है। मानवों में जन्म दर को 1000 व्यक्तियों में प्रत्येक वर्ष जन्म लेने वाले जीवित शिशु की संख्या के रूप में व्यक्त किया जाता है।

मृत्युदर (Death Rate): दी हुई पर्यावरण सम्बन्धी परिस्थितियों में मृत्यु के कारण किसी जनसंख्या के व्यक्तियों (व्यष्टियों) का ह्रास मृत्युदर कहलाता है। किसी वर्ष में मरने वाले व्यक्तियों की संख्या की गणना मृत्यु दर के द्वारा की जाती है। मानवों में मृत्युदर को जनसंख्या के 1000 व्यक्तियों में प्रतिवर्ष मरने वाले व्यक्तियों की संख्या के रूप में व्यक्त किया जाता है।

परिक्षेपण (फैलाव, Dispersion): किसी जनसंख्या के जीवों का स्थायी रूप से क्षेत्र से बाहर चले जाना प्रवास कहलाता है। जबकि अप्रवास का अर्थ है जीवों का नए क्षेत्र में चले जाना। परिक्षेपण में जीवों का प्रवास और अप्रवास दोनों सम्मिलित होता है। किसी क्षेत्र की जनसंख्या परिक्षेपण के द्वारा प्रभावित होती है। पौधों में सक्रिय प्रवसन संभव नहीं है, यद्यपि बीज का प्रकीर्णन वायु, जल और जन्तुओं द्वारा दूर-दूर तक हो जाता है।

इस प्रकार जनसंख्या घनत्व मूलरूप से चार कारकों पर निर्भर होता हैः (i) जन्म दर (ii) मृत्यु दर (iiii) प्रवास और (iv) अप्रवास

चित्र 4.13 जनसंख्या के पैरामीटर

आयु विवरण (Age Distribution)


प्राकृतिक जनसंख्या में सभी आयुवर्ग के जीव सम्मिलित होते हैं। अतः जनसंख्या के आयु वितरण पर ध्यान देना हमारे लिये आवश्यक हो जाता है। आयु वितरण किसी जनसंख्या में विभिन्न आयु वर्गों के जीवों (व्यक्तियों) का अनुपात है। जनसंख्या को तीन आयु वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

पूर्व जनन समूहः जिसमें किशोर जीव या बच्चे सम्मिलित हैं।

जनन समूहः ऐसी व्यष्टियां सम्मिलित हैं जिनमें प्रजनन करने की क्षमता होती है।

जननोत्तर समूहः इसमें अधिक आयु वाली ऐसी समष्टियां सम्मिलित हैं जो प्रजनन करने में सक्षम नहीं हैं।

शीघ्रता से वृद्धि करने वाली जनसंख्या में सामान्यतः जनन आयु समूह की व्यष्टियों का एक बड़ा भाग सम्मिलित होता है, एक स्थिर जनसंख्या (जहाँ जनसंख्या में कोई बढ़ोतरी या कमी नहीं होती है) में सभी आयु वर्गों का समान वितरण सम्मिलित है और ह्रासोन्मुख जनसंख्या में अधिक आयु वाले या जननोत्तर वर्ग की व्यष्टियों का एक बड़ा भाग सम्मिलित होता है।

लिंग अनुपात (Sex Ratio)


लिंग अनुपात किसी जनसंख्या का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। यह किसी जनसंख्या में नर और मादा के अनुपात को दर्शाता है।

4.8 समष्टि वृद्धि (POPULATION GROWTH)


किसी समष्टि की व्यष्टियों की संख्या में वृद्धि, स्थिरता या कमी पर्यावरण के साथ इसके सम्बन्धों के द्वारा प्रभावित होती है।

समष्टि में समय के साथ-साथ अभिलक्षणिक वृद्धि का एक प्रारूप होता है, जिसे समष्टि वृद्धि वक्र (Population Growth Curve) के द्वारा व्यक्त किया जाता है। समष्टि वृद्धि वक्र के दो मूलभूत प्रकारों को बताया गया हैः (i) ‘J’ के आकार का वृद्धि वक्र तथा (ii) ‘S’ के आकार का या सिग्मॉइड वृद्धि वक्र।

घनत्व-स्वतंत्र जनसंख्या वृद्धि


जंगल में लगने वाली आग सघन या स्वल्प समष्टि को उग्र रूप से कम कर सकती है। कठोर परिस्थितियाँ जैसे सूखा (अकाल), वर्षा, बाढ़, तूफान तथा तापमान में अचानक बढ़ोतरी या गिरावट सभी घनत्व-स्वतंत्र कारक हैं क्योंकि इनके कारण समष्टि में अचानक कमी आ जाती है। समष्टि वृद्धि जिसे ‘J’ आकार का समष्टि वृद्धि वक्र से बनाया जाता है, घनत्व स्वतंत्र वृद्धि कहलाता है।

सामान्यतः ‘j’ आकार का वृद्धि वक्र उस प्रजाति का प्रारूपिक है जिसमें तीव्रता से प्रजनन होता है और जो प्रकाश, तापमान तथा वर्षा जैसे परिवर्तनशील पर्यावरण कारकों के द्वारा अत्यधिक प्रभावित होता है। इस प्रकार के वक्र में समष्टि घनत्व घातांकपि (ज्यामितीय) अनुक्रम (कुल संख्या निश्चित समयान्तराल के बाद दोगुनी हो जाती है) में तीव्रता से बढ़ता है। जो इस प्रकार हैः-

×2 ×2 ×2 ×2 ×2
8 16 32 64 128 शीर्ष पर पहुँचने तक

इस प्रकार की घातांकीय वृद्धि प्रकृति में उस समय पायी जाती है जब समष्टि में पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होते हैं। शीर्ष पर पहुँचने के पश्चात पर्यावरणीय या अन्य कारकों के कारण इसमें अचानक कमी या गिरावट आ जाती है। इस प्रकार की वृद्धि ऐसे कीटों की समष्टि में देखी जा सकती है जो मानसून के दौरान तीव्रता से वृद्धि करते हैं और ऋतु की समाप्ति पर शीघ्रता से गायब हो जाते हैं।

पाठगत प्रश्न 4.3


1. समष्टि की परिभाषा दीजिए।
2. समष्टि की कम से कम तीन विशेषताएँ बताइए।
3. वह कौन से कारक हैं जिन पर समष्टि घनत्व निर्भर है?

4.9 समुदाय और उनकी विशेषताएँ


पारिस्थितिकी में ‘समुदाय’ (Community) या और उचित तौर पर कहा जाए तो ‘जैविक समुदाय’ से तात्पर्य, विभिन्न प्रकार के ऐसे जीवों की समष्टि से है जो एक साथ एक ही पर्यावास में निवास करते हैं।

4.9.1 जैविक समुदाय के संगठन


समुदाय के विशिष्ट पैटर्न को समुदाय की संरचना कहा जाता है और इसका निर्धारण निम्न के द्वारा किया जाता हैः

- विभिन्न समष्टियों की भूमिका द्वारा।
- इसकी विभिन्न समष्टियों के परास द्वारा।
- उस क्षेत्र का प्रकार जिसमें समुदाय की समष्टियाँ पायी जाती हैं।
- समुदाय में प्रजातियों में विविधता के कारण।
- उस क्षेत्र में रहने वाली समुदाय की विभिन्न समष्टियों के बीच अन्योन्यक्रिया द्वारा।

समुदाय के सदस्य अपने पयार्वरण के साथ भी सक्रिय रूप से अन्योन्यक्रिया करते हैं। समुदाय में केवल वे पौधे और जन्तु जीवित रहते हैं जो एक पर्यावरण के साथ अनुकूलन कर लेते हैं। जलवायु, पर्यावरण के प्रकार को निर्धारित करती है, अतः समुदाय में जीवों के प्रकार का निर्धारण भी जलवायु के द्वारा ही होता है। उदाहरण के लिये, यह किसी क्षेत्र की जलवायु ही है जो इस बात का निर्धारण करती है कि कोई क्षेत्र मरुस्थल होगा या जंगल।

मानव निर्मित समुदाय जैसे लॉन या फसल समुदाय ऐसे मानव निर्मित समुदाय है जिनमें से फसल समुदाय अपेक्षाकृत साधारण समुदाय है और इसमें केवल एक प्रजाति ही सम्मिलित रहती है। जबकि प्राकृतिक समुदाय में अनेक प्रजातियाँ होती हैं। मानव निर्मित समुदाय अत्यधिक अस्थायी होते हैं तथा इन्हें अत्याधिक देखभाल और निरंतर रख-रखाव की आवश्यकता होती है।

4.9.2 स्तरीकरण (Stratification)


किसी समुदाय के स्तरीकरण से तात्पर्य है वनस्पति की ऊर्ध्वाधर परतें। उष्णकटिबंधीय वन ऊर्ध्वाधर स्तरीकरण का एक अच्छा उदाहरण है। अधिकतर उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में वनस्पति की पाँच स्पष्ट परतें बन सकती हैं।

स्तरीकरणचित्र 4.14 एक जैविक समुदाय में स्तरीकरणजैसा कि आप चित्र 4.14 में देख सकते हैं कि उष्णकटिबंधीय वन में, वितान का वर्चस्व होता है। वन अपने नीचे उग रहे लघु वृक्षों के लिये प्रकाश और आर्द्रता की परिस्थितियों को रूपान्तरित करते हैं इसके परिणामस्वरूप यह लघु वृक्ष भूतलीय वनस्पति के लिये परिस्थितियों का निर्धारण करते हैं। वनस्पति समुदाय का ऊर्ध्वाधर स्तरीकरण समुदाय की संरचना को निर्धारित करता है। वनस्पति विभिन्न जीवों को कई पर्यावास आवास प्रदान करती है। समुदाय के विभिन्न स्तरों में पौधों और जन्तुओं की विभिन्न प्रजातियाँ होती हैं। प्रत्येक स्तर के पौधों और जन्तुओं का आकार, व्यवहार और अनुकूलन अन्य स्तरों के पौधों और जन्तुओं से भिन्न होता है। जीवों के विभिन्न स्तर के समुदाय के सदस्याें के बीच स्पर्धा और संघर्ष को कम कर देते हैं। समुदाय में विभिन्न प्रजातियाँ पोषक तत्वों, जगह, प्रकाश और अन्य संसाधन के लिये एक दूसरे से स्पर्धा करते हैं। स्तरीकरण अन्तःप्रजातीय स्पर्धा को कम करने की एक व्यवहारिक रणनीति है।

- समुदाय अभिलक्षण


प्रजाति विविधता


समुदाय की एक मुख्य विशेषता प्रजाति विविधता है।

किसी समुदाय में उपस्थित विभिन्न प्रकार के जीव इसकी प्रजातीय विविधता को प्रदर्शित करते हैं। एक समुदाय का प्रजातीय संघटन या विविधता दूसरे समुदाय से भिन्न होती हैं। एक ही समुदाय में भी प्रजातीय संघटन में मौसमी विविधता हो सकती है।

प्रजातीय विविधता समुदाय स्थायित्व को भी प्रभावित करती है। स्थायी समुदाय वह है जिसमें अगर विघ्न आ जाए तो वह अपनी मूल अवस्था में वापस आने की क्षमता रखती है। जिन समुदायों में प्रजातीय विविधता बहुत अधिक होती है वह अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होते हैं।

विविधता की गणना प्रजातियों की संख्या (प्रचुरता) तथा प्रत्येक प्रजाति के आपेक्षिक बाहुल्य के द्वारा की जा सकती है। आपेक्षिक बाहुल्य समुदाय में पायी जाने वाली विभिन्न प्रजातियों के आपेक्षिक अनुपात की माप है। प्रजातियों की संख्या जितनी अधिक होगी और इनका वितरण जितना समान होगा प्रजातीय विविधता उतनी अधिक होगी।

4.10 पारिस्थितिकीय अनुक्रम (ECOLOGICAL SUCCESSION)


जैविक समुदायों की प्रकृति गतिक होती है और यह समय के साथ परिवर्तित होते रहते हैं। वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी क्षेत्र में पायी जाने वाली वनस्पति और जन्तु प्रजातियों के समुदाय समय के साथ दूसरे समुदाय में परिवर्तित हो जाते हैं या दूसरे समुदाय उनका स्थान ले लेते हैं, पारिस्थितिकीय अनुक्रम कहलाता है। इस परिवर्तन में जैविक तथा अजैविक दोनों घटक सम्मिलित रहते हैं। यह परिवर्तन समुदायों के क्रियाकलापों और उस विशेष क्षेत्र के भौतिक पर्यावरण के द्वारा आते हैं। भौतिक पर्यावरण परिवर्तनों की प्रकृति, दिशा, दर और इष्टतम सीमा को प्रभावित करता है। अनुक्रम के दौरान वनस्पति और जन्तु दोनों ही समुदाय परिवर्तन से गुजरते हैं। दो प्रकार के अनुक्रम हैं: (i) प्राथमिक अनुक्रम तथा (ii) द्वितीय अनुक्रम

4.10.1 प्राथमिक अनुक्रम (Primary Succession)


प्राथमिक अनुक्रम खाली क्षेत्रों जैसे चट्टानों, नव-निर्मित डेल्टाओं और रेत के टीलों, ज्वालामुखी और द्वीप समूह, बहते हुए लावा, हिमानी हिमोट (पीछे की तरफ हट रही हिम नदी के द्वारा बनाया गया अनावृत कीचड़ भरा क्षेत्र) जहाँ पहले किसी भी समुदाय का अस्तित्व नहीं था, में होता है। वह पौधे जो पहले खाली जगह जहाँ पहले मिट्टी नहीं थी, में उगते हैं, अग्रगामी प्रजाति कहलाते हैं। अग्रगामी पौधों के संग्रह को सामूहिक रूप से अग्रगामी समुदाय कहा जाता है। अग्रगामी प्रजाति की वृद्धि दर बहुत अधिक होती है परन्तु जीवनकाल कम होता है।

चित्र 4.15 प्राथमिक अनुक्रम में सुव्यवस्थित श्रेणीप्राथमिक अनुक्रम का अवलोकन द्वितीय अनुक्रम की अपेक्षा कठिन है क्योंकि पृथ्वी पर ऐसे स्थान बहुत कम हैं जहाँ पहले से जीवों के समुदाय नहीं हैं। इसके अतिरिक्त प्राथमिक अनुक्रम में द्वितीय अनुक्रम की अपेक्षा अधिक समय लगता है क्योंकि प्राथमिक अनुक्रम के दौरान मिट्टी बनने का प्रक्रम चलता है जबकि द्वितीयक अनुक्रम उस क्षेत्र में प्रारंभ हो जाता है जहाँ मिट्टी पहले से मौजूद है।

वे समुदाय अग्रगामी समुदाय (Pioneer community) कहलाते हैं जो खाली क्षेत्र को सबसे पहले अपना वास स्थान बनाते हैं। अग्रगामी समुदाय की जगह ऐसा समुदाय ले लेता है जिसमें विभिन्न प्रजातियों का सम्मिश्रण होता है। द्वितीयक समुदाय की जगह तृतीयक समुदाय ले लेता है और यह प्रक्रम क्रमानुसार चलता रहता है जिसमें एक समुदाय की जगह दूसरा समुदाय ले लेता है। प्रत्येक संक्रमण (अस्थायी) समुदाय जो अनुक्रम के दौरान अस्तित्व में आता है और दूसरे समुदाय के द्वारा विस्थापित कर दिया जाता है वह अनुक्रम का चरण या अनुक्रमिक समुदाय (Transitional Community) कहलाता है। अनुक्रम का अन्तिम चरण जिस समुदाय की रचना करता है वह चरमोत्कर्ष समुदाय (Climax community) कहलाता है। चरमोत्कर्ष समुदाय स्थायी, परिपक्व, अधिक जटिल और दीर्घकालिक होता है। एक दिए हुए क्षेत्र में समुदायों का सम्पूर्ण क्रम जिसमें अनुक्रम के दौरान एक समुदाय दूसरे का अनुवर्ती होता है, क्रमावस्था (Sere) कहलाता है।

इस प्रकार के समुदाय के जन्तु भी अनुक्रम को दर्शाते हैं जो काफी हद तक वनस्पति अनुक्रम के द्वारा निर्धारित होता है। यद्यपि इन अनुक्रमिक चरणों के जन्तु भी जन्तुओं के उन प्रकारों से प्रभावित होते हैं जो निकटवर्ती समुदायों से प्रवसन करने में सक्षम होते हैं। चरमोत्कर्ष समुदाय जब तक अबाधित रहता है, तब तक कि वह प्रचलित जलवायु और पर्यावास कारकों के साथ अपेक्षाकृत स्थायी और गतिकीय साम्य में रहता है।

वह अनुक्रम जो उस स्थल पर घटित होता है जहाँ आर्द्रता कम है जैसे खाली चट्टान, जो इसे शुष्कतारम्भी (Xerarch) कहते हैं। अनुक्रम जब किसी जलीय निकाय जैसे तालाब या झील में घटित होता है तो इसे जलारम्भी (Hydrarch) कहते हैं

चित्र 4.16 स्थल पर द्वितीय अनुक्रम

4.10.2 द्वितीयक अनुक्रम (Secondary succession)


द्वितीयक अनुक्रम उस समुदाय का विकास है जो उस वर्तमान प्राकृतिक वनस्पति के पश्चात अस्तित्व में आता है जो समुदाय की रचना के बाद समाप्त हो जाती है, बाधित हो जाती है या प्राकृतिक परिघटनाओं जैसे तूफान अथवा जंगल की आग या मानव सम्बन्धी परिघटनाओं जैसे फसल की कटाई से नष्ट हो जाती है।

द्वितीय अनुक्रम अपेक्षाकृत तेज होता है क्योंकि मिट्टी में आवश्यक पोषक तत्वों के साथ-साथ बीजों का बड़ा भंडारण तथा जीवों की अन्य प्रसुप्त अवस्थाएँ होती हैं।

पाठगत प्रश्न 4.4


1. निम्नलिखित पारिस्थितिकीय शब्दों का संक्षिप्त वर्णन (एक या दो वाक्यों में) कीजिएः

(i) अनुक्रम
(ii) अग्रगामी प्रजाति
(iii) चरमोत्कर्ष समुदाय
(iv) द्वितीय अनुक्रम

4.11 जैविक अन्योन्यक्रिया


किसी क्षेत्र या पारितंत्र का जैविक समुदाय अनोन्यक्रियाओं का जटिल नेटवर्क है। वह अन्योन्यक्रिया जो एक ही प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के बीच होती है अंतरजातीय अन्योन्यक्रिया कहलाती है जबकि वह अन्योन्यक्रिया जो विभिन्न प्रजातियों के सदस्यों के बीच होती है अनतर्जातीय अन्योन्यक्रिया (Interspecific) कहलाती है।

एक ही पोषक स्तर से सम्बन्धित जीवों के बीच अन्योन्यक्रियाओं में प्रायः स्पर्धा देखने को मिलती है। व्यष्टि सदस्य भोजन, स्थान तथा प्रजनन के लिये स्पर्धा कर सकते हैं। उदाहरण के लिये अगर एक बिल्ली किसी चूहे को खा जाती है तो अन्य बिल्लियां जो इसी संसाधन के लिये स्पर्धा करती हैं उन्हें शिकार के लिये एक चूहा कम उपलब्ध होगा। चूहे का एक और शिकारी सांप के लिये भी रात्रि के समय खाने के लिये थोड़े से ही चूहे उपलब्ध रहेंगे अगर गिद्ध इस कार्य में सफल हो जाता है। यद्यपि गिद्ध और उल्लू के बीच प्रत्यक्ष स्पर्धा बहुत अधिक नहीं होती क्योंकि यह अलग-अलग समय में शिकार करते हैं। वे भोजन भी भिन्न-भिन्न प्रकार का ग्रहण करते हैं। अतः स्पर्धा अन्तरजातीय अथवा अन्तरजातीय हो सकती है।

अन्तरजातीय सम्बन्ध प्रत्यक्ष और निकट हो सकते हैं जैसा कि एक शेर और हिरन के बीच होता है या अप्रत्यक्ष और सुदूर हो सकते हैं जैसा कि हाथी और भृंग के बीच होता है। इसका कारण यह है कि दो प्रजातियों के बीच अन्योन्यक्रियाओं के लिये प्रत्यक्ष सम्पर्क की आवश्यकता नहीं होती। पारितंत्र की संयोजन प्रकृति के कारण प्रजातियाँ मध्यवर्ती संस्थाओं जैसे सहभाजी संसाधन और उभयनिष्ठ शत्रुओं के द्वारा एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। अन्तरजातीय अन्योन्यक्रियाओं के लिये विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग किया जाता है जो इस बात पर निर्भर है कि क्या अन्योन्यक्रिया प्रजाति के सदस्यों के लिये लाभदायक है, हानिकारक है या फिर उदासीन है। दो प्रजातियों के बीच होने वाली सम्भावित अन्योन्यक्रियायें तालिका 4.1 में दी गई हैं।

तालिका 4.1 दो प्रजातियों के बीच सम्भावित जैविक अन्योन्यक्रियायें

4.11.1 अन्योन्यक्रियाओं के प्रकार


आप तालिका में देख सकते हैं कि कुछ अन्तरजातीय साहचर्यों में कम से कम एक प्रजाति को दूसरी प्रजाति से नुकसान पहुँचता है। इस प्रकार के साहचर्य नकारात्मक कहलाते हैं, जिन मामलों में दोनों ही संबद्ध प्रजातियों को लाभ पहुँचता है उसे सकारात्मक साहचर्य कहा जाता है और जब संबद्ध प्रजातियों को न तो लाभ पहुँचता है और न ही हानि होती है तो उसे उदासीन अन्योन्यक्रिया कहा जाता है। इसमें निम्नलिखित सम्मिलित किये जाते हैं:

1. असहभोजिता (Amensalism): यह दो प्रजातियों के मध्य नकारात्मक साहचर्य है जिसमें एक प्रजाति दूसरी प्रजाति को सीमित कर देती है या उसे हानि पहुँचाती है परन्तु स्वयं अन्य प्रजातियों की उपस्थिति के कारण किसी भी प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव से सुरक्षित रहती है। वह जीव जो एंटिबायोटिक्स का स्राव करते हैं और वह प्रजाति जो एंटीबायोटिक्स के कारण संदमित हो जाती है, असहभोजिता के उदाहरण हैं। उदाहरण के लिये ब्रेड मोल्ड कवक पेनिसिलियम, पेनिसिलीन नामक एंटिबायोटिक उत्पन्न करता है जो विभिन्न प्रकार के बैक्टीरिया की वृद्धि को रोक देती है। पेनिसिलियम को स्पष्ट रूप से लाभ पहुँचता है क्योंकि बैक्टीरिया के समाप्त होने के कारण पेनिसिलियम के लिये अधिक भोजन उपलब्ध रहता है।

2. शिकार (Predation): इस अनोन्यक्रिया में शिकारी (परभक्षी) अन्य प्रजातियों के जन्तुओं, जिन्हें शिकार कहते हैं, को पकड़ते हैं, मारते हैं और खा जाते हैं। परभक्षी को स्वभावतः इस सम्बन्ध से लाभ प्राप्त होता है जबकि शिकार को हानि पहुँचती है। तेंदुए, बाघ और चीते जैसे परभक्षी अपने शिकार को पकड़ने और उसे मारने के लिये गति, दांत और पंजों का प्रयोग करते हैं।

3. परजीविताः इस प्रकार की अन्योन्यक्रिया में एक प्रजाति को लाभ प्राप्त होता है तथा दूसरी प्रजाति को हानि पहुँचती है। परजीवी सामान्यतः एक छोटे आकार का जीव होता है जो अन्य सजीव प्रजातियों के अन्दर या उनके ऊपर रहता है। जिस प्रजाति से परजीवी अपना भोजन और आश्रय प्राप्त करता है उसे परपोषी (Host) कहते हैं। परजीवी को लाभ प्राप्त होता है और परपोषी को हानि पहुँचती है। अनेक जीव जैसे जन्तु, बैक्टीरिया तथा वायरस पौधों तथा जन्तुओं के परजीवी हैं (चित्र 4.17 क तथा 4.17 ख) डोडर पौधा (अमर बेल) (चित्र 4.17 क) और मिस्टलेटो (लौरेन्थस) जैसे पादप परजीवी हैं जो पुष्पीय पौधों पर जीवन निर्वाह करते हैं। फीताकृमि, गोलकृमि, और मलेरिया परजीवी, अनेक बैक्टीरिया, कवक तथा वायरस मानवों में पाये जाने वाले सामान्य परजीवी हैं।

चित्र 4.17 हर्मिट क्रेब के कवच से संलग्न समुद्री-एनीमोन4. स्पर्धाः यह दो समष्टियों के मध्य ऐसी अन्योन्यक्रिया है जिसमें दोनों प्रजातियों को कुछ हद तक नुकसान पहुँचता है। स्पर्धा उस समय शुरू होती है जब दोनों व्यष्टियां या प्रजातियों को ऐसे महत्त्वपूर्ण संसाधन की आवश्यकता है जिसकी उपलब्धता कम है। यह महत्त्वपूर्ण संसाधन भोजन, जल, आश्रय, घोंसला बनाने का स्थान, साथी या स्थान हो सकता है। इस प्रकार की स्पर्धा दो प्रकार की हो सकती हैः (i) अन्तर्जातीय स्पर्धा (Interspecific competition)- जो एक ही पर्यावास में रहने वाली दो विभिन्न प्रजातियों के बीच होती है (ii) आंतरजातीय स्पर्धा (Intraspecific competition)- जो एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच होती हैं। आंतरजातीय स्पर्धा क्योंकि एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच होती है अतः यह अत्यधिक प्रचण्ड होती है।

5. सहभोजिता (Commensalisms): इस प्रकार के सम्बन्धों में एक प्रजाति लाभान्वित होती है जबकि दूसरी प्रजाति को न तो लाभ प्राप्त होता है और न कुछ हानि होती है। कुछ प्रजातियाँ अन्य प्रजातियों से आश्रय या परिवहन का लाभ उठाते हैं। उदाहरण के लिये सकरफिश, रिमोरा अपने सिर के सबसे ऊपर की ओर उपस्थित चूषकों की सहायता से प्रायः शार्क मछली से संलग्न हो जाती है। इससे रिमोरा को सुरक्षा हासिल करने में सहायता मिलती है। इसके साथ-साथ मुफ्त परिवहन और शार्क का बचा हुआ भोजन भी प्राप्त हो जाता है। शार्क को इस सम्बन्ध से कोई लाभ नहीं होता और न ही इस पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। वृक्षों और अधिपादपों पौधों के बीच सम्बन्ध सहभोजिता का एक और उदाहरण है। अधि पादप अन्य पौधों जैसे फर्न, मॉस और आर्किड की सतह पर रहते हैं और वृक्षों की सतह का उपयोग सहारे के लिये, सूर्य का प्रकाश और नमी प्राप्त करने के लिये करते हैं। वृक्षों को इससे न तो कोई लाभ होता है और न उन्हें हानि होती है।

चित्र 4.18 सहभोजिता सकरफिश के साथ शार्क6. सहजीविता (Mutalism): यह दो प्रजातियों के बीच निकट साहचर्य है जिसमें दोनों प्रजातियाँ लाभान्वित होती हैं। उदाहरण के लिये समुद्री-एनीमोन (एक निडेरियन प्राणी) हर्मिट केब के कवच से संलग्न हो जाता है तथा परिवहन और नया भोजन प्राप्त करता है जबकि एनीमोन हर्मिट क्रेब को अपनी दंश कोशिकाओं के द्वारा सुरक्षा और छदमावरण प्रदान करता है।

चित्र 4.19 (क) डोडर (अमरबेल) (ख) एस्केरिसयद्यपि कुछ सहजीविताएं इतनी घनिष्ठ होती हैं कि अन्योन्यक्रिया करने वाली प्रजातियाँ अधिक समय तक एक दूसरे के बिना जीवित नहीं रह पाती है। क्योंकि यह अपनी उत्तरजीविता के लिये पूर्ण रूप से एक दूसरे पर निर्भर होती हैं। इस प्रकार का घनिष्ट साहचर्य सहभागिता कहलाता है। दीमक और इनकी आंत में पाए जाने वाले फ्लेजेलेट प्राणी इस प्रकार के घनिष्ठ सहजीवी साहचर्य के उदाहरण हैं। दीमक लकड़ी खा सकती है परन्तु इसे पचाने के लिये इसके पास कोई एन्जाइम नहीं होता। इनकी आंत में फ्लेजेलेट प्रोटिस्ट (प्रोटोजोआ) पाए जाते हैं। जिनमें दीमक के द्वारा खाई गई लकड़ी के ‘‘सैल्यूलोज’’ का पचाने और उसे शर्करा में परिवर्तित करने वाले एन्जाइम होते हैं। फ्लेजेलेट प्राणी इस शर्करा का कुछ भाग अपने उपापचय के लिये उपयोग में लाते हैं और दीमक के लिये प्रचुर मात्र में शर्करा बची रहती है। दीमक और फ्लेजेलेट दोनों ही एक दूसरे के बगैर जीवित नहीं रह सकते। सहभागिता का एक और परिचित उदाहरण फूलों के परागण में देखा जा सकता है। जहाँ पुष्पीय पौधों का परपरागण मधुमक्खियों के द्वारा होता है जो पौधों से रस प्राप्त करके लाभान्वित होती हैं और ये एक दूसरे के बगैर जीवित नहीं रह सकते।

7. उदासीनता (Neutralism): ऐसी दो प्रजातियों के बीच का सम्बन्ध है जो परस्पर क्रिया तो करती हैं परन्तु एक दूसरे से प्रभावित नहीं होती हैं। वास्तविक उदासीनता अत्यंत अविश्वसनीय होती है और इसे सिद्ध कर पाना असम्भव है। पारितंत्र के द्वारा प्रदर्शित किये जाने वाली अन्योन्यक्रियाओं में जटिल नेटवर्क के सम्बन्ध में कोई भी निश्चित तौर पर सकारात्मक रूप से यह नहीं कह सकता कि प्रजातियों के बीच बिल्कुल भी स्पर्धा नहीं होती या किसी भी प्रजाति को कोई लाभ नहीं होता। क्योंकि वास्तविक उदासीनता दुर्लभ या अस्तित्वहीन है, अतः इसके उपयोग को प्रायः उन परिस्थितियों के लिये विस्तारित किया जाता है जहाँ अन्योन्यक्रियाएँ बहुत मामूली या नगण्य हैं।

पाठगत प्रश्न 4.5


1. परिभाषा दीजिए (क) पारिस्थितिकी अनुक्रम (ख) सहभागिता।
2. किसी क्षेत्र में पाए जाने वाले हिरनों के झुंड के सदस्यों के बीच किस प्रकार की स्पर्धा होती है?
3. टिड्डे को खाने वाली गार्डन मकड़ी के द्वारा किस प्रकार का सम्बन्ध प्रदर्शित किया जाता है?
4. जिन पुष्पों में तितली के द्वारा परागण होता है वह किस प्रकार के सम्बन्ध को प्रदर्शित करते हैं?
5. एक व्यक्ति की खोपड़ी की त्वचा में जूँ रहती है। इस सम्बन्ध के लिये उपयुक्त शब्द कौन सा है?
6. इस प्रकार के सम्बंध के लिये उपयुक्त शब्द का अर्थ कौन सा है जिसके द्वारा दो प्रजातियाँ एक साथ एक प्रकार रहती हैं कि वे एक दूसरे को लाभान्वित करती हैं।

आपने क्या सीखा


- जीवों के पारस्परिक तथा वातावरण के साथ उनके सम्बन्धों के वैज्ञानिक अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सन 1869 में अर्नेस्ट हीकेल ने किया था।

- पारिस्थितिकी में जीवों, समष्टि, समुदाय, पारितंत्र, बायोम तथा जैव मंडल का अध्ययन सम्मिलित है जो पारिस्थितिक संगठन के विभिन्न स्तरों की रचना करते हैं।

- पर्यावास वह भौतिक पर्यावरण है जिसमें कोई जीव रहता है। (यह किसी जीव का ‘पता’ होता है।)

- निकेत किसी प्रजाति की उसके पर्यावास में कार्यात्मक स्थिति है।

- प्रजाति समष्टियों का ऐसा समूह है जिसके सदस्य जननक्षम संतति उत्पन्न करने के लिये एक दूसरे के साथ प्रजनन करने में सक्षम होते हैं।

- विकास एक ऐसा परिवर्तन है जिसके द्वारा नई प्रजातियाँ उत्पन्न होती हैं। उत्परिवर्तन और पुनर्संयोजन किसी प्रजाति की आनुवांशिक रचना या जीन पूल में विविधता या अन्तर के स्रोत हैं। प्राकृतिकवरण, जिसे डार्विन तथा वालेस ने प्रस्तुत किया था, वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा उन विविधताओं का चयन होता है जिसके कारण उन जीनों का अधिक जनन होता है जो जीव को वातावरण के प्रति अनुकूल बनाने में सहायक हैं।

- इस प्रकार अनुकूलन विकास का परिणाम है।

- विकास के द्वारा जाति उद्भवन होता है या नई प्रजातियाँ उत्पन्न होती हैं। विलगन के दो मुख्य प्रकार हैं (i) भौगोलिक विलगन (ii) जनन विलगन। भौगोलिक विलगन के परिणामस्वरूप या विभिन्न प्रजातियों के सदस्यों द्वारा प्रजनन करने के कारण नई प्रजातियों की उत्पत्ति होती है।

- कई प्रजातियाँ हमेशा के लिये लुप्त हो चुकी हैं और इन प्रजातियों (जिनका पहले अस्तित्व था) का एक भी सदस्य अब उपस्थित नहीं है। दूसरे शब्दों में, यह प्रजातियों का विलोपन हो चुका है और जीवाश्म के रूप में हमारी नई प्रजातियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। विलोपन विनाशकारी प्राकृतिक घटनाओं या मानव क्रियाकलापों के कारण होता है।

- जनसंख्या (समष्टि) परस्पर प्रजनन करने वाले ऐसे जीवों का समूह है जो किसी विशेष समय में विशेष भौगोलिक क्षेत्र में पायी जाती है। किसी जनसंख्या के लक्षण (i) जनसंख्या घनत्व (ii) जन्म दर (iii) मृत्युदर (iv) परिक्षेपण (अप्रवास और प्रवास) (v) आयु वितरण (vi) लिंग अनुपात के द्वारा प्रकट किए जाते हैं।

- पारिस्थितिकीय अनुक्रम किसी समुदाय की संरचना में होने वाला क्रमिक परिवर्तन है। प्राथमिक अनुक्रम उन क्षेत्रों में होता है जहाँ पहले से कोई समुदाय नहीं था। द्वितीय अनुक्रम वर्तमान वनस्पति के पश्चात अस्तित्व में आता है।

- जैविक अन्योन्यक्रिया वह अन्योन्यक्रिया है जो एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच (आन्तरजातीय) या विभिन्न प्रजातियों के सदस्यों के बीच (अन्तरजातीय) होती है। उदाहरण हैं: (i) स्पर्धा (ii) शिकार (iii) परजीविता (iv) सहजीविता (v) सहभागिता (vi) उदासीनता (vii) सहभोजिता

पाठांत प्रश्न


1. पारिस्थितिकी, निकेत, प्रजाति, विलोपन को परिभाषित कीजिए।
2. आप ‘‘विविधता तथा प्राकृतिकवरण’’ से क्या समझते हैं? ये किस प्रकार अन्योन्यक्रिया करके विकास का कारण बनते हैं?
3. विलगन की नई प्रजातियों की उत्पत्ति तथा इन्हें अलग-अलग रखने में क्या भूमिका होती है।
4. मानव के कारण किस तरह प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती हैं?
5. आप (i) जन्मदर (ii) प्रजातिउद्भवन (iii) उत्परिवर्तन (iv) विलोपन से क्या समझते हैं?
6. ‘पारिस्थितिकीय अनुक्रम’ का वर्णन कीजिए।
7. समुदाय की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
8. चरमोत्कर्ष समुदाय तथा अग्रगामी प्रजाति क्या है?
9. जैविक अन्योन्यक्रिया पर एक निबन्ध लिखिए।
10. जैविक अन्योन्यक्रिया की परिभाषा दीजिए। सकारात्मक, नकारात्मक तथा उदासीन प्रमाण का कोई एक उदाहरण दीजिए।

पाठगत प्रश्नों के उत्तर


4.1
1. पारिस्थितिकी का अर्थ है जीवों के पारस्परिक तथा वातावरण के साथ उनके सम्बन्धों का वैज्ञानिक अध्ययन।

2. निकेत का अर्थ है किसी प्रजाति के समस्त क्रियाकलापों और सम्बन्धों का योग जिसके द्वारा वह प्रजाति अपनी उत्तरजीविता तथा जनन के लिये अपने पर्यावास के संसाधनों का उपयोग संकल्पना एवं मुद्दे करती है।

3. पर्यावास वह भौतिक पर्यावरण है जिसमें कोई जीव रहता है जबकि निकेत किसी प्रजाति के क्रियाकलापों और सम्बन्धों का कुल योग है।

4.2
1. किसी जीव का व्यवहार या जीवन-पद्धति जिसकी सहायता से वह किसी विशेष पर्यावरण में जीवित रहता है।

2- (i) प्रजाति-जीवों की समान समष्टियों का ऐसा समूह जिसके सदस्य जननक्षम संतति उत्पन्न करने के लिये परस्पर प्रजनन करने में सक्षम होते हैं (ii) विविधता- जीन संयोजनों में अन्तर के कारण संरचना में अन्तर

3. (i) जीन संयोजन (ii) उत्परिवर्तन

4. प्राकृतिकवरण

5. (i) प्रजाति उदभवन- वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा नई प्रजातियाँ अस्तित्व में आती हैं तथा (ii) विलोपन- किसी प्रजाति का मर जाना

4.3
1. परस्पर प्रजनन करने वाले ऐसे जीवों का समूह जो किसी विशेष समय में विशेष भौगोलिक क्षेत्र में पायी जाती हैं।
2. i) जनसंख्या का घनत्व
ii) जन्म दर
iii) मृत्यु दर
3. मृत्यु दर, जन्म दर, अप्रवास, प्रवास

4.4
1. i) अनुक्रम समय के साथ पर्यावरण में जीवों का क्रमिक परिवर्तन होता है।

ii) अग्रगामी प्रजाति उन पौधों का समूह है जो पहली बार उस क्षेत्र में उगते हैं जो अनुक्रम के दौरान परिवर्तनशील रहता है। यह अनुक्रमिक प्रक्रम में सबसे पहली प्रजाति है।

iii) चरमोत्कर्ष समुदाय, अनुक्रम का अन्तिम चरण है। यह अपेक्षाकृत स्थायी, दीर्घकालिक समुदाय होता है।

iv) द्वितीय अनुक्रम, ऐसे परिवर्तनों की क्रमिक श्रेणी है जो वर्तमान समुदाय में विघ्न आने के साथ आरम्भ होते हैं और चरमोत्कर्ष समुदाय की रचना करते हैं।

4.5
1. (क) वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी क्षेत्र में पायी जाने वाली वनस्पति और जन्तु प्रजातियों के समुदाय सम के साथ दूसरे समुदाय में परिवर्तित हो जाते हैं या दूसरे समुदाय उनका स्थान ले लेते हैं।

(ख) अन्योन्यक्रिया करने वाली प्रजातियाँ एक दूसरे के बगैर अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकतीं क्योंकि यह अपनी उत्तरजीविता के लिये पूर्ण रूप से एक दूसरे पर निर्भर होती हैं।

2. आन्तरजातीय स्पर्धा।

3. शिकार, क्योंकि वह शिकार करती है या फिर टिड्डे को खाती है।

4. सहजीविता, क्योंकि इस सम्बन्ध से दोनों लाभान्वित होती हैं।

5. परपोषी।

6. सहजीविता।

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