पारिस्थितिकी-तन्त्र को मानव से ही खतरा

31 Jan 2015
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समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असन्तुलन की भयावह समस्या से आक्रान्त है। नदियाँ सूख रही हैं। जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ तेजी से खत्म हो रही हैं। हरे-भरे भू-भाग को काटकर वीरान किया जा रहा है। मनुष्य यह सब देख-समझ रहा है और विकास की अन्धी दौड़ के बीच पर्यावरण बचाने को लेकर बहस-मुबाहिसे कर रहा है। यह समझने की जरूरत है कि अपना पर्यावरण और पारिस्थितिकी बचाने की जिम्मेदारी से हम बचते रहे तो अपने हाथों ही अपने विनाश की कहानी लिखेंगे।पर्यावरण और पारिस्थितिकी संकट मौजूदा दौर के ऐसे विषय हैं जिन पर दुनिया भर में सर्वाधिक बहस-मुबाहसे हो रहे हैं। यह होना जरूरी भी है क्योंकि मानव का प्राकृतिक परिवेश यानी पर्यावरण खतरे में है और यह खतरा कोई छोटा-मोटा खतरा नहीं, बल्कि मानवीय सभ्यता पर आसन्न ऐसा खतरा है जो पूरी की पूरी सभ्यता को एक दिन लील सकता है। विकास के क्रम में मानव ने प्राकृतिक परिवेश का ऐसा यांत्रिकीकरण किया है कि मनुष्य खुद ही प्रकृति के सामने एक चुनौती के रूप में खड़ा हो गया है। प्रकारान्तर से यह चुनौती खुद मनुष्य के सामने है, क्योंकि पर्यावरण और उसमें मौजूद पारिस्थितिकी-तन्त्र पर संकट का नकारात्मक असर अन्ततः मनुष्य पर ही पड़ता है। किसी जीव से लेकर किसी नदी तक के विलुप्त होने का पहला असर मानव पर ही पड़ेगा। आज विश्व भर में पर्यावरण बचाने की मुहिम चल रही है। ऐसा इसीलिए है, क्योंकि कुछ हद तक यह समझ लिया गया है कि मानवीय हस्तक्षेप से पर्यावरण को खतरे में डालने का अर्थ है मानव का खुद को खतरे में डालना। पर्यावरण संकट ऐसा भस्मासुर है जो मनुष्य ने खुद ही तैयार किया है और अब खुद ही परेशान है।

पर्यावरण का अर्थ है— मानव के चारों तरफ का प्राकृतिक आवरण या परिवेश। जो भी प्रकृति प्रदत्त चीजें हमारे चारों ओर मौजूद हैं, मसलन— वायु, जल, मृदा, वनस्पतियाँ, जीव-जन्तु आदि सभी पर्यावरण के घटक हैं। इनसे मिलकर पर्यावरण की रचना होती है। पर्यावरण की ही वृहत्तर अवधारणा को हम पारिस्थितिकी की संज्ञा देते हैं। पारिस्थितिकी के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं— पहला, प्रकृति और जीवों के बीच सम्बन्ध और दूसरा, प्रकृति में पाए जाने वाले विभिन्न जीवों के मध्य सम्बन्ध। मानव और जीवों के बीच एक अपरिहार्य अन्तर्सम्बन्ध है जो पूरी तरह प्रकृति पर निर्भर है।

पर्यावरण शब्द जीवों की अनुक्रिया को प्रभावित करने वाली समस्त भौतिक तथा जैवीय परिस्थितियों का योग है। इसी को जीवमण्डल की भी संज्ञा देते हैं। इस जीवमण्डल में वायुमण्डल, थलमण्डल व जलमण्डल आते हैं जिसमें अनेक प्रकार के प्राणी तथा पादप विचरण करते हैं। सभी प्रकार के जीव और भौतिक तत्त्व अपनी क्रियाओं से एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्राणियों के इस अन्तर्सम्बन्ध से पारिस्थितिकी तैयार होती है। पारिस्थितिकी को सर्वप्रथम परिभाषित करने का श्रेय जर्मन जीव विज्ञानी अर्नस्ट हेकेल को है। उनके मुताबिक, वातावरण और जीव समुदाय के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं। इससे जीव और उनके आसपास के वातावरण में सम्पूर्ण जैविक और अजैविक संघटकों के अध्ययन का बोध होता है।

दुनिया में जितने भी प्राणी मौजूद हैं, चाहे वे किसी भी स्थान पर रहते हों, उनकी आपस में एक-दूसरे पर निर्भरता अनिवार्य है। यहाँ तक कि धरती पर मौजूद भौतिक एवं जैविक घटकों के मध्य भी अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। प्रत्येक जीव को उसका भौतिक पर्यावरण प्रभावित करता है। प्रत्येक प्राणी भोजन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर है। जो जीव मांसाहारी हैं वे प्रत्यक्षतः तो पेड़-पौधों पर निर्भर नहीं हैं, लेकिन जिन जन्तुओं को वे खाते हैं, उनका भोजन जरूर पेड़-पौधे हैं। जैसे— शेर, हिरण, खरगोश आदि जीवों को खाता है और हिरण अथवा खरगोश अपने भोजन के लिए पौधों पर निर्भर होते हैं। अतः कहा जा सकता है कि शेर अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति पर निर्भर है।

वनस्पति अपना भोजन निर्मित करने के लिए सूर्य का प्रकाश तथा कार्बन डाई-ऑक्साइड, जल आदि लेकर प्रकाश-संश्लेषण करते हैं। शाकाहारी जन्तु इन पौधों को खाते हैं, मासांहारी जन्तु छोटे जन्तुओं को खाते हैं। इस प्रकार सभी भौतिक तथा जैविक कारकों में आपस में सम्बन्ध होता है। सभी जीव-जन्तु एक-दूसरे समुदाय को और साथ ही अपने आसपास के वातावरण को भी प्रभावित करते हैं। इनमें आपस में एक छोटे प्राणियों से लेकर जन्तु समाज एवं मानव समाज के बीच एक पारिस्थितिकी-तन्त्र अथवा ‘ईको-सिस्टम’ निर्मित होता है। जब यह श्रृंखला टूटती है तो यह तन्त्र प्रभावित होता है। औद्योगीकरण, मशीनीकरण, जंगलों की कटाई, नदियों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से इन सभी जीव समुदायों में से जब कोई समुदाय प्रभावित होता है तो यह श्रृंखला टूटती है और पारिस्थितिकी सन्तुलन बिगड़ता है। इस पारिस्थितिकी में मानव ही सर्वोत्तम प्राणी है और प्रकृति की व्यवस्था में सर्वाधिक दखल उसी का है। मानव समुदाय ऐसा है जो अन्य समुदायों को नुकसान पहुँचाकर अपना विकास करता है, अतः उसी की यह जिम्मेदारी है कि यह तन्त्र टूटने न दिया जाए। विकास और प्रकृति में सामंजस्य ही पारिस्थितिकी-सन्तुलन को बनाए रखने में मददगार हो सकता है।

दुनिया में जितने भी प्राणी मौजूद हैं, चाहे वे किसी भी स्थान पर रहते हों, उनकी आपस में एक-दूसरे पर निर्भरता अनिवार्य है। यहाँ तक कि धरती पर मौजूद भौतिक एवं जैविक घटकों के मध्य भी अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है।पारिस्थितिकी-तन्त्र एक जटिल प्राकृतिक संरचना है जो सजीव प्राणियों तथा उनके चारों तरफ के परिवेश से निर्मित होती है। पारिस्थितिकी-तन्त्र में सभी जन्तु अथवा प्राणी समुदाय परस्पर अपने भौतिक वातावरण से ऊर्जा, द्रव्य आदि का आदान-प्रदान करते रहते हैं। कुछ जीव वातावरण से विभिन्न पदार्थों को ग्रहण कर अपने शरीर में वृद्धि करते हैं और कार्बनिक पदार्थों का निर्माण करते हैं। ये कार्बनिक पदार्थ विखण्डित होकर अकार्बनिक पदार्थों में बदल जाते हैं। धरती पर ऊर्जा का मुख्य स्रोत सूर्य है। हरे पौधे इस ऊर्जा को प्रकाश संश्लेषण क्रिया द्वारा रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं। अन्य जीवधारी इन्हीं पौधों को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। पारिस्थितिकी-तन्त्र में विभिन्न प्रकार के पदार्थों का एक चक्र चलता रहता है। इनमें नाइट्रोजन-चक्र, जल-चक्र, कार्बन-चक्र, फास्फोरस-चक्र आदि मुख्य हैं। वे जीवधारी जो अपना भोजन खुद ही बनाते हैं, स्वयंपोषी कहलाते हैं। जो जीवधारी दूसरे जीवधारियों पर निर्भर रहते हैं, परपोषी कहलाते हैं। सभी जीवधारी भोजन के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। वे भोजन के आधार पर एक तरह का सन्तुलन बनाते हैं।

पारिस्थितिकी-तन्त्र के जितने भी घटक हैं उनमें मानव ही सबसे शक्तिशाली हैं। वह प्रकृति का अपनी सुख-सुविधा से लेकर वैश्विक वर्चस्व तक के लिए उपयोग करता है। वह प्राकृतिक संसाधनों का न सिर्फ दोहन करता है, बल्कि उन्हें कृत्रिम तरीके से नियन्त्रित भी करता है। पारिस्थितिकी-तन्त्र में अकेला मनुष्य ही ऐसा जीव है, जो पूरी पारिस्थितिकी को छिन्न-भिन्न करता है। पारिस्थितिकी पर जो खतरा है, वह मानव ने उत्पन्न किया है।

मानव की विकास प्रक्रियाएँ पर्यावरण और पारिस्थितिकी के सभी चक्रों को प्रभावित कर रही हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या व औद्योगीकरण के दौर में ज्यादा-से-ज्यादा सुविधा और तकनीकी विकास हासिल करने के लिए मनुष्य प्रकृति का भरपूर दोहन कर रहा है। परन्तु हम निश्चित तौर पर यह नहीं कह सकते कि हमारा स्थायी विकास हो रहा है, क्योंकि पारिस्थितिकी-तन्त्र में असन्तुलन बहुत तेजी से हो रहा है। मनुष्य के बेतहाशा विकास के लोभ ने प्रकृति निर्मित पारिस्थितिकी-तन्त्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। यह प्रतिकूलन पूरी दुनिया का पर्यावरण सन्तुलन बिगाड़ रहा है।

हाल ही में वन्य प्रजातियों के संरक्षण के लिए काम करने वाली स्विट्जरलैण्ड की संस्था इण्टरनेशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर ने वन्य प्राणियों और पौधों की एक सूची जारी की। इस सूची में 12 हजार से भी अधिक प्रजातियों को शामिल किया गया। इसमें कहा गया कि आने वाले कुछ सालों में ये प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएँगी। इस रिपोर्ट के मुताबिक कुछ द्वीप ऐसे भी हैं, जहाँ पूरा का पूरा पर्यावरण ही खतरे में है। आँकड़ों के मुताबिक, बीते 500 सालों में वनस्पति और प्राणियों की 762 से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। जितनी जैव प्रजातियाँ अब तक ज्ञात हैं उनमें से ही 12,259 प्रजातियों को खतरे में बताया जा रहा है। जबकि आज भी हजारों ऐसी प्रजातियाँ हैं, जिनकी पहचान अभी बाकी है।

रेड बुक ऑफ वाइल्ड के अनुसार 1600 ई. से 1990 ई. के बीच 36 स्तनधारियों और 94 पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो गई हैं जबकि स्तनधारियों की 236 प्रजातियाँ तथा पक्षियों की 287 प्रजातियाँ लुप्त होने के कगार पर हैं। पारिस्थितिकी का आधारभूत सिद्धान्त यह है कि यदि प्राणियों के 90 प्रतिशत आवास नष्ट हो जाए तो उनमें बसने वाली 50 प्रतिशत जैव प्रजातियाँ स्वतः विलुप्त हो जाएँगी। इस सिद्धान्त और उष्ण कटिबन्धीय वनों के विनाश की दर के आधार पर यह अनुमान लगाया गया है कि उष्ण कटिबन्धीय वनों में निवास करने वाली 5-15 प्रतिशत जीवों की प्रजातियाँ आने वाले वर्षो में हमेशा के लिए गायब हो जाएँगी। स्थलीय विविधता, सक्रिय जलवायु, लम्बे सागर तट तथा अनेक समुद्री द्वीपों के चलते प्रकृति ने जैव और पादप विविधता के मामले में भारतीय उपमहाद्वीप को विशेष रूप से संवारा है।

दुनिया भर में कितनी ऐसी प्रजातियाँ हैं, जो या तो विलुप्त हो चुकी हैं, या होने की कगार पर हैं। दक्षिण अमेरिका में बन्दरों की कुछ प्रजातियों को विलुप्तप्राय घोषित कर दिया गया है। मैक्सिको के ब्लैक हाउलर बन्दर को विलुप्तप्राय घोषित किया जा चुका है। ऐसी विलुप्तप्राय प्रजातियों की संख्या भारत, चीन, इण्डोनेशिया, ब्राजील और पेरू में सर्वाधिक हैं। बताया जाता है कि हवाईद्वीप पर पौधों की 125 प्रजातियाँ ऐसी हैं जो खतरे में हैं। इक्वाडोर, मलेशिया, इण्डोनेशिया, ब्राजील और श्रीलंका में वनस्पतियों की कई प्रजातियाँ तेजी से विलुप्त हो रही हैं। दुनिया भर में शार्क मछलियाँ, ध्रुवीय भालू, दरियाई घोड़े जैसे महत्वपूर्ण जीव विलुप्तप्राय प्रजातियों की सूची में हैं। जाहिर है कि यह संकट मानव-जनित है। तेजी से हो रहे विकास के मद्देनजर मनुष्य पर्यावरण का अतिक्रमण कर रहा है, जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष असर पर्यावरण पर पड़ रहा है।

ब्राजील के नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च ने हाल ही में आँकड़े जारी किए कि तेजी से बढ़ती आबादी की वजह से अमेजन के जंगल का 25 हजार वर्ग कि.मी. से अधिक हिस्सा मानवीय उपयोग के लिए काट दिया गया।

2011 के ‘भारतीय वन सर्वेक्षण’ के मुताबिक, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास वर्ष पहले तक देश का 40 प्रतिशत भू-भाग वनों से आच्छादित था। इतनी तेजी से वनों का सफाया ही वैश्विक तपन का कारण बन रहा है और दुनिया के बड़े-बड़े ग्लेशियर पिघल रहे हैं।

यह संकट भारत में और सघन है। हाल ही में विशेषज्ञों की रिपोर्ट में कहा गया कि जिस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान बढ़ रहा है, अगर इसी तरह बढ़ता रहा तो पूर्वी हिमालय के अधिकांश हिस्से से बर्फ खत्म हो जाएँगी और इससे अरुणाचल प्रदेश की पारिस्थितिकी-तन्त्र पर गम्भीर खतरा पैदा हो जाएगा। तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की बढ़त होने पर पहाड़ी इलाकों का लगभग 912 वर्ग कि.मी. क्षेत्र की बर्फ पिघल जाएगी। उधर ‘स्टेट एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज’ के मुताबिक, 2030 के दशक में अधिकतम तापमान में 2.2 से 2.8 डिग्री सेल्सियस की बढ़त की सम्भावना है। तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि आने वाले कुछ समय में हिमालयी क्षेत्र बर्फहीन हो जाएँगे?

अरुणाचल प्रदेश विश्व के सबसे ख्यात जैव-विविधता वाले स्थलों में से एक है। जलवायु परिवर्तन से यहाँ मौजूद दुर्लभ पौधों एवं जीवों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। जैव-विविधता में लगातार आ रही कमी न सिर्फ हमारे प्राकृतिक परिवेश के लिए खतरा है, बल्कि मानव प्रजाति के लिए भी विनाशकारी है।

2011 के ‘भारतीय वन सर्वेक्षण’ के मुताबिक, देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है। जबकि पचास वर्ष पहले तक देश का 40 प्रतिशत भू-भाग वनों से आच्छादित था। इतनी तेजी से वनों का सफाया ही वैश्विक तपन का कारण बन रहा है और दुनिया के बड़े-बड़े ग्लेशियर पिघल रहे हैं।भारतीय भू-भाग में भी पारिस्थितिकी खतरे में हैं। जलवायु परिवर्तन के अलावा प्राकृतिक परिवेश मानवीय दखल इसकी मुख्य वजह है। यहाँ वन्य जीवों की तस्करी, शिकार आदि प्रमुख कारण हैं जो हमारी पारिस्थितिकी को प्रभावित कर रहे हैं। मजे की बात तो यह है कि हम इन खतरों को तो पहचान चुके हैं लेकिन हमारे पास किसी भी स्तर पर इसका निदान नहीं है। बीती जनवरी से अब तक अकेले कांजीरंगा नेशनल पार्क में ही 45 गैण्डों का शिकार हो चुका है। मध्य प्रदेश में करीब 50 हिरणों की हाल ही में मौत हो गई। उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के जंगलों में बाघों और अन्य जीवों का तस्करों द्वारा शिकार भी सरकारें नहीं रोक पा रही हैं।

दरअसल, प्रकृति में मानवीय दखल से वन्य-जीवन को जो नुकसान हो रहा है, उसके न रूकने के दो कारण हैं। एक तो आधुनिक विकास की धारा ऐसी है कि उसे रोका नहीं जा सकता, चाहे प्रकृति को कैसा भी नुकसान हो। विकास की दौड़ में कोई भी देश पीछे नहीं रहना चाहता। जाहिर है कि इस सिलसिले में हर देश अपने भू-भाग पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का ही दोहन करता है। फलस्वरूप पारिस्थितिकी-तन्त्र प्रभावित होता है। दूसरे, अब तक हमारी सरकारों के पास जंगलों के संरक्षण को लेकर ऐसी प्रभावशाली नीतियाँ नहीं हैं कि वन्य-जीवों का शिकार, अन्धाधुन्ध दोहन आदि नियन्त्रित हो।

भारतीय मनीषा में आदिकाल से ही प्रकृति संरक्षण सम्बन्धी चिन्ता की धारा मौजूद रही हैं। भारतीय संस्कृति में प्राकृतिक शक्तियों को देवता स्वरूप माना गया है। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि वगैरह देव हैं और नदिया देवियाँ हैं, धरती को माता कहा गया है। वृक्ष देवों के वास-स्थल हैं। कुएँ, तालाब और बावड़ियों के धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व हैं। पशु-पक्षियों और जानवरों को भी इसी तरह श्रेष्ठता प्रदान की गई है। मत्स्यपुराण में एक वृक्ष को दस पुत्रों के बराबर बताया गया है। इस सबका सबसे बड़ा फायदा यह था कि मनुष्य इन सबकी रक्षा करना अपना धर्म समझता था।

औद्योगिक क्रान्ति और आधुनिक विकास की आन्धी ने इन धारणाओं को धवस्त कर दिया है। मानव की लालसा को पंख लग गए हैं। उपभोक्तावादी जीवन-मूल्य मनुष्य के जीवन पर हावी हो गए और प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन शुरू हो गया। और आज स्थिति यह है कि समस्त विश्व पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकी असन्तुलन की भयावह समस्या से आक्रान्त है। नदियाँ सूख रही हैं। जीव-जन्तुओं की प्रजातियाँ तेजी से खत्म हो रही हैं। हरे-भरे भू-भाग को काटकर वीरान किया जा रहा है। मनुष्य यह सब देख-समझ रहा है और विकास की अन्धी दौड़ के बीच पर्यावरण बचाने को लेकर बहस-मुबाहिसे कर रहा है। यह समझने की जरूरत है कि अपना पर्यावरण और पारिस्थितिकी बचाने की जिम्मेदारी से हम बचते रहे तो अपने हाथों ही अपने विनाश की कहानी लिखेंगे।

(लेखक दैनिक जागरण में वरिष्ठ उप सम्पादक हैं)
ई-मेल : krishnkant@86gmail.com

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