पेड़-पौधों पर भारी पड़ता अंधविश्वास

1 Aug 2013
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आज भी न केवल धार्मिक ग्रंथ बल्कि विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित कर चुका है कि बरगद और पीपल रात में भी वायुमंडल में ऑक्सीजन देते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो बरगद व पीपल की पूजा क्यों होती? ऐसे में इसे नुकसान पहुंचाने का अर्थ विनाश को आमंत्रण देना है। मत्स्य पुराण में जिक्र है कि शादी के मौके पर लोग पेड़ लगाते थे। नीम कीटाणुनाशक है। जिस दरवाजे पर नीम का पेड़ है, वहां की वायु बिल्कुल शुद्ध और जीवाणु मुक्त हो जाती है। इससे आसपास के लोगों को शुद्ध हवा तो मिलती ही है। संक्रामक रोगों से सुरक्षा भी प्रदान होता है।

विज्ञान के इस युग में हम भले ही अंतरिक्ष को मुट्ठी में करने और चाँद से लेकर मंगल तक घर बसाने की सोच रहे हों। लेकिन इस तरक्की के बावजूद हम मानसिक रूप से अब तक विकास नहीं कर पाए हैं और आज भी अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराईयों का साथ नहीं छोड़ रहे हैं। अब तो अंधविश्वास के कारण पेड़-पौधों और पर्यावरण को भी नुकसान पहुँच रहा है। जैसे-जैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है वैसे-वैसे अंधविश्वास पर भी हमारा विश्वास मजबूत होता जा रहा है। जबकि होना तो यह चाहिए था कि 21वीं सदी में विज्ञान के चमत्कार को नमस्कार किया जाता और हम अंधविश्वास को इतिहास का एक पन्ना एक रूप में याद करते। खास बात यह है कि अब अंधविश्वास के नाम पर पर्यावरण को भी निशाना बनाया जा रहा है। अंधविश्वास की यह जड़ शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में अब भी अपना प्रभाव जमाए हुए है। जादू-टोना के नाम पर लोगों विशेषकर महिलाओं को प्रताड़ित किए जाने और बलि के नाम पर छोटे बच्चों की हत्याएँ किए जाने की घटनाएँ आज भी बदस्तूर जारी है। इसे खत्म करने के लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकारें लगातार प्रयास करती रहती हैं लेकिन अब तक उसका कोई सार्थक हल नहीं निकल पाया है। यहां तक कि जादू-टोना के नाम पर प्रताड़ित होने वालों को न्याय दिलाने के लिए टोनही प्रताड़ना अधिनियम 2005 भी लागू किया गया है। लेकिन अधिनियम केवल कानून की किताबों तक ही सीमित रह गया है। कानून लागू हुए 8 वर्ष गुजर चुके हैं लेकिन समाज की सेहत पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, असम, गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड और बिहार में अब भी अंधविश्वास के नाम पर होने वाली बर्बरता चिंता का विषय है। ऐसी घटनाएँ गांव वालों के सामने होती हैं और इसमें सबकी मूक सहमति होती है। हालांकि शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ इसमें कमी आई है लेकिन पूरी तरह से समाप्त होने में अभी काफी समय लगेगा।

अंधविश्वास की जड़ इंसानों से निकलकर अब पेड़ पौधों को बर्बाद करने तक पहुंच चुकी है। ‘पेड़ लगाओ जीवन बचाओ’ के नारे को अंधविश्वास ने झूठा साबित कर दिया है। कुछ ढोंगी ओझा व भगत पेड़ के दुश्मन बन गए हैं। सबसे हैरानी की बात है कि शिक्षित लोग भी पेड़ों को बचाने के बजाय काटने पर तुले हैं। पेड़ों को लेकर समाज में आज भी कई भ्रांतियां व्याप्त हैं। अशोक के पेड़ दरवाज़े पर लगाना अपशकुन माना जा रहा है, नीम का पेड़ यदि दरवाज़े पर है तो समझिए, आपके दरवाज़े पर भूत का साया है। बिहार के मुज़फ्फपुर जिले के साहेबगंज प्रखंड अंतर्गत हुस्सेपुर पंचरूखिया गांव के देवेन्द्र सिंह एक ओझा के चक्कर में पड़कर अपने घर के 5-6 नारियल का पेड़ कटवा दिया क्योंकि ओझा के अनुसार इन नारियल का पेड़ों से उनके वंश पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था। देवेन्द्र के अनुसार ओझा ने उन्हें बताया है कि जिस घर में नारियल के वृक्ष होते हैं वहां वंशवृद्धि रुक जाती है। आज ओझा पूरे गांव में न सिर्फ अशिक्षित बल्कि शिक्षित लोगों की मानसिकता में भी पेड़ों के प्रति भ्रांतियां भर दी है। ओझा के झांसे में आकर एक शिक्षक ने अपने घर के पिछवाड़े से हरे भरे कटहल का पेड़ कटवा दिया। जबकि गुरुजी पास के विद्यालय में बच्चों को पर्यावरण का पाठ पढ़ाते हैं। हुस्सेपुर मठिया के ललन भगत और चांदकेवारी के कविन्द्र प्रसाद भी ओझा के चक्कर में दर्जनों पेड़ काट चुके हैं।

स्थानीय ओझा रामजस पासवान गांव वालों के बीच यह भ्रांतियां फैला रहा है कि दरवाज़े पर नारियल, नीम, कटहल, गुलर, बरगद, पीपल का पेड़ नहीं लगाना चाहिए। इससे घर पर बुरा साया का डेरा जम जाता है और परिवार को हमेशा मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन उसके पास इसे साबित करने का कोई सबूत नहीं है। अलबत्ता वह घरों में बीमार पड़ने वाले लोगों को इसके लिए घर में लगे पेड़ को ही जिम्मेदार बताता है। दूसरी ओर चिकित्सक डॉ. हेमनारायण विश्वकर्मा कहते हैं कि पेड़-पौधे कहीं से भी नुक़सानदेह नहीं हैं। पर्यावरण व मानवजाति के लिए तो पौधे सदैव वरदान साबित हुए हैं। लेकिन कुछ लोग अंधविश्वास के जरिए साधारण लोगों के दिमाग को भ्रमित कर पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। दूसरी ओर गांव की महिलाएं डायन-जोगन के फेरे में जकड़ी हुईं है। परनी छपड़ा गांव के एक युवक की मौत रेलवे क्रॉसिंग को पार करते हुए ट्रेन की चपेट में आ जाने से हो गई। जिसको लेकर घर की महिलाओं ने मरणोपरांत ओझा से जांच कराई। ओझा ने स्पष्ट किया कि उसकी मौत पेड़ पर रहने वाली गांव की एक डायन के कारण हुई है।

अंधविश्वास के चक्कर में बर्बाद होते गुणकारी पेड़गांव वालों को डराते हुए उसने कहा कि गांव में बच्चों, महिलाओं एवं पशुओं की मौतें उसी डायन के तंत्र-मंत्र के कारण हुई है। साहेबगंज के दियारा क्षेत्र और उसके आसपास के दर्जनों गाँवों में दवा से ज्यादा टोन-टोटक पर लोग विश्वास करते हैं। पढ़े-लिखे और जागरूक लोग भी अंधविश्वास में फंसे हुए हैं जिसके परिणामस्वरूप समाज के साथ-साथ अब पर्यावरण के दुश्मन बन गए हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब बरगद, पीपल, नीम और नारियल जैसे गुणकारी पेड़ों को काटा जायेगा तो पर्यावरण का संरक्षण कैसे होगा? आज भी न केवल धार्मिक ग्रंथ बल्कि विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित कर चुका है कि बरगद और पीपल रात में भी वायुमंडल में ऑक्सीजन देते हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो बरगद व पीपल की पूजा क्यों होती? ऐसे में इसे नुकसान पहुंचाने का अर्थ विनाश को आमंत्रण देना है। मत्स्य पुराण में जिक्र है कि शादी के मौके पर लोग पेड़ लगाते थे। नीम कीटाणुनाशक है। जिस दरवाजे पर नीम का पेड़ है, वहां की वायु बिल्कुल शुद्ध और जीवाणु मुक्त हो जाती है। इससे आसपास के लोगों को शुद्ध हवा तो मिलती ही है। संक्रामक रोगों से सुरक्षा भी प्रदान होता है। नारियल जहां हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है वहीं उसका पेड़ भी कम गुणकारी नहीं है। अब बताइये जीवन प्रदान करने वाले यह पेड़ हमारे दुश्मन कैसे हो गए?

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