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पेट्रोलियम

पेट्रोलियम आधुनिक सभ्यता के विकास में पेट्रोलियम, या खनिज तेल, का प्रमुख स्थान है। कुएँ खोदकर जब पेट्रोलियम निकाला जाता है, तब उसे कच्चा तेल कहते हैं। धरती की 500 फुट से लेकर 5,000 फुट, या इससे अधिक गहराई, तक में पेट्रोलियम पाया जाता है। पहले पहल पेट्रोलियम पानी से भरे गड्ढों की सतह पर पाया गया था। भूमध्यसागर के तटवर्ती देशों के गड्ढों के पानी पर यह विशेष रूप से पाया गया था। ऐसे ही गड्ढों से पिच और ऐस्फाल्ट भी निकलते थे, जो पत्थरों या ईटोंं की जोड़ाई, अथवा सड़कों के निर्माण, में प्रयुक्त होते थे। उस समय इस तेल का उपयोग धावों के मरहम बनाने और चर्म रोग की अन्य औषधियों के बनाने में होता था। पीछे इसका व्यवहार रोशनी उत्पन्न करने में होने लगा।

व्यापारिक दृष्टि से पेट्रोलियम का उत्पादन 1859 ई. में शुरू हुआ, जब ड्रेक ने अमरीका के पेन्सिल्वेनिया राज्य में 6,905 फुट की गहराई में तेल का पता लगाया। अनेक वर्षो तक इसका उपयोग केवल रोशनी उत्पन्न करने ओर स्नेहक (lubricant) तैयार करने में ही होता था। उस समय शक्ति उत्पन्न करने का प्रमुख साधन केवल कोयला था। आज तो पेट्रोलियम तेल ओर उससे प्राप्त अन्य कई उत्पादों से केवल शक्ति ही नहीं प्राप्त करते, वरन्‌ यदि हम कहें कि पेट्रोलियम से हम जीते, चाहे, वस्त्र पहनते, यात्रा करते, उद्योग धंधे चलाते, अनाज और रासायनिक द्रव्य उत्पन्न करते और आपत्काल में राष्ट्र की रक्षा भी करते हैं, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।

आज भी कोयला ओ जलविद्युत शक्ति उत्पन्न करने के प्रमुख साधन है और निकट भविष्य में परमाणु शक्ति प्रमुख साधन का स्थान लेनेवाली है, पर संसार की समस्त शक्ति का लगभग 50 प्रतिशत से अधिक भाग आज भी पेट्रोलियम और पेट्रोलियम कुओं से निकली प्राकृतिक गैस से प्राप्त हो रहा है। संयुक्त राज्य, अमरीका में समस्त शक्ति का प्राय: 69 प्रतिशत इनसे प्राप्त हो रहा है। आज पेट्रोलियम शक्ति का प्राय: 69 प्रतिशत इनसे प्राप्त हो रहा है। आज पेट्रोलियम ---------- पेट्रोलियम से आज मोटर गाड़ियाँ, वायुयान, डीज़ेल इंजन और कुछ समुद्री जहाज कम कीमत में और अधिक सुविधा से चलते हैं। इंजनों में भी डीज़ेल तेल के व्यवहार की प्रवृति अधिकाधिक बढ़ रही है। डीज़ल इंजन का निर्माण अब भारत में भी हो रहा है। ऐसा एक कारखाना वाराणसी में कार्य कर रहा है।

खेत जोतने के ट्रैक्टरों, बीज बोने, फसलों के काटने, डंठल से अनाज निकालने तथा भूमि के समतल करने में जो मशीनें आज काम आती हैं उनमें शक्ति उत्पन्न करने और स्नेहक के लिये पेट्रोलियम ही प्रयुक्त होता है। खानों की खोदाई, खनिजों की निकलवाई, कारखानों के संचालन और शहरों में रोशनी करने आदि में डीजेल तेल का उपयोग अधिकाधिक हो रहा है। विभिन्न प्रकार के स्नेहकों, मोटर तेल, टरबाइन तेल, स्पिंडिल तेल, संपीडित ते, विभिन्न प्रकार के ग्रीजों, कृत्रिम रबर, प्लास्टिक, नाइलन, आदि के निर्माण में पेट्रोलियम लगता है। पेट्रोलियम का सबसे अधिक उपयोग आज मोटर स्पिरिट के रूप में मोटर गाड़ियों और वायुयानों के चलाने में होता है। इसकी माँग इतनी अधिक बढ़ गई है कि कृत्रिम रीति से इसके निर्माण की आवश्यकता पड़ी है और कृत्रिम रीति से इसके तैयार करने के अनेक अनुसंधान कारखानों में आज हो रहे हैं।

पेट्रोलियम के उत्पादन में अमरीका के संयुक्त राज्य का स्थान सर्वप्रथम है। संसार के समस्त उत्पादन का प्राय: 40 प्रतिशत वहीं उत्पन्न होता है। 1957 ई. में समस्त संसार में 6,44,60,30,000 बैरेल (1 बैरेल = 42 गैलन) कच्चा तेल निकला था जिसमें से 2,61,67,78,000 बैरेल केवल संयुक्त राज्य अमरीका में निकला था। उत्पादन में दूसरा स्थान वेनेजुएला का और तीसरा स्थान रूस का है। फिर मैक्सिको, कोलंबिया, कैनाडा और पश्चिम एशिया के देश आते है। गत 50 वर्षो में पेट्रोलियम की माँग बहुत बढ़ गई है।

अमरीका के टेक्सैस, कैलिफॉर्निया, ओक्लाहोमा, इलिनॉय, लुइजियाना, कैन्सैस, न्यमेक्सिको, आकैन्ज़स, मिशिगैन, पेन्सिल्वेनिया, मॉण्टैना, केंटकी, न्यूयॉर्क, इंडियाना, मिसिसिपी ओर कॉलोराडो में पेट्रोलियम निकलता है। अन्य देश जहाँ पेट्रोलियम निकलता है रूस, रूमानिया, वेनेजुएला, मेक्सिको, पेरू, कैनाडा, बर्मा, बाहराइन द्वीप, कुवैत, सरावाक और ब्रूनाइ, सौदी अरबिया, भारत, सुमात्रा, बोर्नियो, मिस्र, ईरान्‌, ईराक आदि हैं।

भारत में पेट्रोलियम उत्पादन की मात्रा दिन दिन बढ़ रही है। ऊपरी असम के मारघेरिटा के माकुम नामदा क्षेत्र में भूगर्भ सर्वेक्षण विभाग द्वारा 1865 ई. में पेट्रोलियम का पता लगा था। उसी समय कुछ कुएँ खोदे गए थे, जिनसे पेट्रोलियम निकला था। पर परिवहन की कठिनाई से बड़े पैमाने पर पेट्रोलियम न निकाला जा सका। असम रेलवे के कुछ इंजीनियरों ने रेलवे की पटरी बिछाते समय 1882 ई. में उस स्थान पर, जहाँ आज डिगबोई है, पेट्रोलियम देखा। वहाँ कुएँ की खोदाई 1890 ई. में 662 फुट तक की गई। 1899 ई. असम तैल कंपनी बनी, तब तक 14 कुए खोदे जा चुके थे। पीछे इस कंपनी ने 80 कुएँ तक खोदे और इनमें कुछ कुओं की गहराई 2,00 फुट तक थी। 1917 ई. में इन कूओं से प्रतिदिन 1,800 गैलन तेल निकलता था। असम तेल कंपनी को 1921 ई. में ब आयल कंपनी ने ले लिया और तेल का उत्पादन 1931 ई. तक प्रतिदिन 18,000 गैलन तक ही रहा। इस बीच वर्मा आयल कंपनी बदहपुर क्षेत्र से 18,64,000 बैरेल तेल निकाल चुकी थी। कई वर्षो तक डिगबोइ तेल क्षेत्र से प्रतिवर्ष 2,70,000 टन तेल निकलता था और गत कुछ वर्षो से तो उत्पादन बढ़कर 4,00,000 टन प्रति वर्ष हो गया है।

उत्तरी असम के नहरकटिया, मोरान और हुग्रीजन में पेट्रोलियम के नए क्षेत्र से 25 लाख से 26 लाख टन कच्चे तेल पाने की आशा है, इस प्रकार असम क्षेत्रों से लगभग 30 लाख टन तेल प्राप्त हो सकेगा। भारत की पेट्रोलियम तेल की वार्षिक खपत 60 लाख टन हो जाने की आशा है। इन क्षेत्रों में 3,40,00,000 टन तेल की मात्रा कूती गई है। गुजरात प्रदेश के कैंबे और अंकलेश्वर में तेल की उपस्थिति की निश्चित सूचना मिली है। कुएँ की खोदाई वहाँ हो रही है। खंभात में सन्‌ 1960 तक जितने कूएँ खोदे गए हैं, उनमें से आठ में निश्चित रूप से पेट्रोलियम पाया गया है। यहाँ के क्षेत्र में तेल की मात्रा 300लाख टन कूती गई है, जिससे 15 लाख टन प्रति वर्ष निकाला जा सकता है। पेट्रोलियम की माँग भारत में दिन दिन बढ़ रही है। 1962 ई. में लगभग 96 करोड़ रूपए का, सन्‌ 1963 में 83 करोड़ रूपए का और सन्‌ 1964 में 104.5 करोड़ रूपए के पेट्रोलियम का आयात हुआ है।

पेट्रोलियम की सफाई के भारत में पहले चार कारखाने, असम में डिबोइ, बंबई के निकट ट्रॉम्बे और आंध्र राज्य के विशाखपटणम में थे। अब तीन और कारखाने, एक असम में गोहाटी के निकट नूनमाटी, दूसरा बिहार के बारौनी में तथा तीसरा गुजरात में, खुल गए हैं। गोहाटी का कारखाना 1 जनवरी 1962 ई. को शुरू हुआ और उसकी उत्पादन क्षमता 7,50,000 टन है। कूपों से 270 मील दूर इंच के नल द्वारा कच्चा तेल नूनपाटी लाया जाता है ओर यहाँ उसकी सफाई होती है। असम कूपों से कच्चा तेल 14 इंच के नल द्वारा 450 मील दूर स्थित बरौनी लाया जाता है। बरौनी की परिष्कणशाला सबसे बड़ा कारखाना है। रूस की सहायता से इसका निर्माण हुआ है। इसमें 42 करोड़ रूपया लगा है। इस कारखाने का प्रारंभ 15 जुलाई, 1964 ई. को हुआ। अभी इसके दो क्रम पूरे होने को बाकी हैं, जिनके पूरे होने की शीघ्र ही आशा की जाती है। यह कारखाना 830 एकड़ भूमि पर फैला हुआ है। इसमें प्रति वर्ष 20 करोड़ पेट्रोलियम गैस, विमान गैसोलिन, स्नेहरु, बिटुमिन और कोक भी प्राप्त होता है। इसमें सामान्य दाय पर और निर्वात में आसवन के तथा केरोसिन (मिट्टी का तेल) की सफाई आदि के उपकरण लगे हैं। सफाई के बाद इन्हें बड़ी बड़ी टंकियों में रखा जाता है। 15 दिनों के काम के लिये कच्चे तेल को और एक महीने में परिष्कृत तेलों को रखने के लिये यहाँ पर्याप्त टंकियाँ बनी हुई हैं। 1,500 आवास घर बने हैं और निवासियों की सुविधा के लिये स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल, विद्यालय, स्नानागार, थिएटर, पाक और खेलने के लिये मैदान और स्टेडियम बने हैं। केवल बाजार के निर्माण में लगभग साढ़े तीन करोड़ रूपया लगा है।

पेट्रोलियम के अतिरिक्त प्राकृतिक गैस की पंजाब के ज्वालामुखी और बड़ौदा के महुवेज, बदेसार आदि स्थानों में पाई गई है। गैस की मात्रा का ठीक ठाक अनुमान अभी नहीं लगाया जा सका है। नहरकटिया-मोरान-हग्रीजन तेल क्षेत्रों में 48,10,000 घनफुट गैस की उपस्थिति का अनुमान लगाया गया है। राजकोट के कलोल नामक स्थान में प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम तेल मिला है। वहाँ लगभग 45 कूएँ अब तक खोदे जा चुके हैं। सर्वेक्षकों का मत है कि यहाँ का तेल ईरान और ईराक के तेल से अच्छे किस्म का है। रासायनिक दृष्टि से यहाँ का तेल वैसा ही है जैसा तेल अमरीका और सोवियत संघ का है।

पेट्रोलियम की उत्पत्ति- पेट्रोलियम कैसे बना है इसका अभी तक कोई सर्वमान्य सिद्धांत स्थिर नहीं हुआ है। भिन्न भिन्न वैज्ञानिकों ने भिन्न भिन्न सिद्धांत समय समय पर प्रतिपादित किए हैं। सिद्धांतों को हम 'कार्बनिक' और 'अकार्बनिक' सिद्धांतों में विभक्त कर सकते हैं। अकार्बनिक सिद्धांत के अनुसार धातुओं के कारबाइडों पर रासायनिक क्रिया से पेट्रोलियम बनता है। अकार्बनिक सिद्धांत के अनुसार धातुओं के कारबाइडों पर रासायनिक क्रिया से पेट्रोलियम बनता है। अकार्बनिक सिद्धांत के अनुसार धातुओं के कारबाइडों पर रासायनिक क्रिया से पेट्रोलियम बनता है। कार्बनिक सिद्धांत के अनुसार पेट्रोलियम जांतव और वानस्पतिक स्रोतों से बनता है। प्रवाल और डायटम से पेट्रोलियम बनने का आधुनिकतम सिद्धांत कार्बनिक सिद्धांत को ही पुष्ट करता है।

कच्चा तेल- विभिन्न स्थानों के कुएँ से निकले कच्चे तेल एक से नहीं होते। केवल उनके बाह्य रूप में ही अंतर नहीं होता, वरन उनके अवयवों में भी बहुत अंतर पाया गया है। कच्चे तेल के रंग रंगहीन से लेकर काले तक होते हैं। साधारणतया ये गाढ़े भूरे या हरे रंग के होते हैं। इनका आपेक्षिक गुरुत्व 0.6229 से 1.023 तक होता है। श्यानता पानी से कम से लेकर भारी छोआ (molasses) से भी अधिक तक होती है। इसमें प्रधानता हाइड्रोकार्बन के मिश्रण रहते हैं। अल्प मात्रा में गंधक (साधारणतया संयुक्त गंधक), नाइट्रोजन के यौगिक, जल और सिलिका भी रहते हैं। पैराफिन किस्म के तेलों में पैराफिन श्रेणी के हाइड्रोकार्बन और नैफ्थीन किस्म के तेलों में नैफ्थीन हाइड्रोकार्बन रहते हैं। कुछ तेलों में दोनों प्रकार के हाइड्रोकार्बन रहते हैं। विभिन्न हाइड्रोकार्बनों की मात्रा विभिन्न नमूनों में विभिन्न रहती है।

कुएँ खोदकर पेट्रोलियम तेल निकाला जाता है। पेट्रोलियम के साथ साथ प्राकृतिक गैस भी निकलती है। कभी कभी गैस और तेल बड़े जोरों से बाहर निकलते हैं। ऐसे तेल और गैस में कभी कभी आग लग जाती है, जो महीनों तक जलती रहती है।

कच्चे तेल की सफाई- कुएँ से निकलकर तेल सफाई के कारखाने अर्थात्‌ परिष्करणो, में जाता है। परिष्करणी साधारणतया कुएँ से दूर, कभी कभी सैकड़ों मील दूर, रहती है। वहां बिना किसी पूर्व उपचार के तेल का प्रभाजी आसवन किया जाता है। आसवन के पात्र और संघनन प्रभाजक स्तंभ बड़े बड़े होते हैं। पहले आसवन के लिये क्षैतिज भभके प्रयुक्त होते थे तथा प्रभाजक स्तंभ 11 फुट व्यास के और 49 फुट तक ऊँचे होते थे। भभके अब उतने महत्व के नहीं रहे। प्रभाजक स्तभ आज बहुत अधिक महत्व के हो गए हैं। कुछ ऐसे स्तंभ अब बने हैं जिनमें एक समय आठ आठ प्रभाजन प्राप्त किए जा सकते हैं। स्तंभ की प्रकृति बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि किस प्रभाग पर अधिक महत्व दिया जाता है  आसवन का उद्देश्य अधिक प्राप्त करना है, या अधिक केरोसीन या अधिक स्नेहक तेल। यदि पेट्रोल अधिक प्राप्त करना है, तो आसवन के साथ साथ तेल का भंजन भी किया जाता है, ताकि उच्च अणुभारवाले हाइड्रोकार्बन टूटकर निम्न अणुभारवाले हाइड्रोकार्बन बनें जो साधारणतया पेट्रोल में रहते हैं। स्नेहक प्राप्त करने के लिये भंजन बिलकुल आवश्यक नहीं है।

कुछ कारखानों में आसवन से केवल तीन प्रभाग प्राप्त होते हैं। पहले प्रभाग में अंश रहता है जो 1500 सें. तक आसुत होता है। ऐसे प्रभाग को 'कच्चा बेंजाइन' या 'पेट्रोलियम नैफ्था' कहते हैं। इसका घनत्व 0.75-0.77 होता है। यही अंश पेट्रोल होता है।

दूसरे प्रभाग में वह अंश होता है जो 1500-3000 सें. के बीच आसुत होता है। इस प्रभाग को केरोसीन या मिट्टी का तेल, या दीपन तेल कहते हैं। इसका घनत्व 0.87 होता है। तीसरा प्रभाग वह अंश होता है जो 3000 सें. से ऊपर ताप पर आसुत होता है। इसे गुरु तेल कहते हैं। जो प्रभाग भभके में पच जाता है, उसे 'अलकतरा' या 'पिच' कहते हैं।

कहीं कहीं आसवन से अग्रलिखित प्रभाग प्राप्त होते हैं : (1) पेट्रोल, (2) गुरु नैफ्था, (3) केरोसीन, (4) डीजल या गैस तेल, (5) मोम आसुत तथा (6) भभके में अवशेष, अलकतरा और पिच।

विभिन्न प्रभागों की फिर आवश्यकतानुसार सफाई होती है। सफाई में पहले उन्हें सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ उपचारित करते हैं। फिर सोडा के विलयन से उपचारित कर अम्ल को पूर्णतया निकाल कर, पानी से धोकर, क्षार को निकाल देते हैं1 इस उपचार से उत्पाद स्वच्छ और रंगहीन हो जाता है।

कहीं कहीं पेट्रोलियम नैफ्था से फिर आसवन द्वारा (1) पेट्रोलियम ईथर, जो 500 सें. 600 सें. पर उबलता है, (2) बेंजाइन जो 700 से 900 सें. पर आसुत होता है और (3) लिग्रोइन, जो 900 से 1200 सें. आसुत होता है, अलग करते हैं। पहले का उपयोग दीपन और विलायक में, दूसरे का उपयोग शुष्क धावन में और तीसरे का उपयोग तेल, वसा और ग्रीज के निष्कर्षण में विलायक के रूप में होता है।

केरोसीन या दीपन तेल की भी सफाई की जाती है (देखें केरोसीन)।

गुरुतेल से मशीनों के स्नेहक तेल तथा वैसलिन या पेट्रोलियम जेली प्राप्त होती है। स्नेहक तेल वायु से आक्रांत नहीं होता और न धातुओं को ही आक्रात करता है, इसलिये स्नेहन के लिये उत्तम होता है।

गुरुतेल को पेट्रोल में परिणत करने के लिये तेल का भंजन किया जाता है। भंजन केवल ऊँचे ताप पर अर्थात 4380 सें. से ऊपर ताप पर गरम करने से (उत्तापविच्छेदी) होता है; अथवा सक्रियक्रत जलयोजित ऐल्यूमिनियम सिलिकेट सदृश उत्प्रेरकों की उपस्थिति में 4770 और 525 सें. के बीच गरम करते हैं1 इससे 35 से 50 प्रति शत तक तेल पेट्रोल में परिणत हो जाता है। ऐसे पेट्रोल की ऑक्टन संख्या ऊंची होती है। उत्प्रेरक भंजन में दबाव वायुमंडल के दबाव से अल्प ही ऊंचा होता है, जबकि उतापविच्छेद ऊँचे दबाव की आवश्यकता पड़ती है।

वैसलिन- वैसलिन को पेट्रोलियम जेली या अमरीका में पेट्रोलियम भी कहते हैं। इसका रंग हलका पीला से हलका अंबर सा होता है, पर विरंजन से सफेद भी प्राप्त होता है। यह अंध ठोस पदार्थ है। द्रव दशा में भी यह बड़ा अल्प प्रतिदीप्त होता है। पतले स्तरों में यह पारदर्शी, अक्रिस्टली तथा स्वाद और गंधहीन होता है। वैसलिन मरहम और बाह्य औषधियों के बनाने में इस्तेमाल होता है। पानी के साथ इसकी स्थायी बनता है। धातुओं को मोरचे से बचाने के लिये इसका लेप चढ़ाया जाता है। कुछ वैसलिन समुद्री तार (केबल) और धूमहीन विस्प्फोटक चूर्ण में इस्तेमाल होता है। अल्प मात्रा में वैसलीन श्रृंगार की समाग्रियों, पीमेड आदि में और स्नेहक में व्यवहृत होता है।

पेट्रोलियम के 3000 सें. तक आसवन से पेट्रोलियम का कुछ अंश बच जाता है। इस अंश के भाप के आसवन से निर्वात स्तंभ में कुछ आसुत प्राप्त होता है। इससे कुछ मोम निकलता है और शेष अंश को नैफ्था से हलका बनाकर छानते और फिर शीतल करते हैं। उसमें निलंबित कोअल मोम को अपकेंद्रण से निकाल लेते हैं। यही अंश वैसलिन का है। स्वच्छ विलयन को गरम कर, नैफ्था निकाल कर, फुलर मिट्टी के दाने में छानने से रंग बहुत कुछ निकल जाता है। ऐसे उत्पाद की श्यानता 1000 सें. पर 145 होती है। आजकल कृत्रिम वैसलिन भी बनने लगे हैं।

पेट्रोलियम में 3 प्रतिशत तक घुला हुआ ठोस पैराफिन हाइड्रोकार्बन में नार्मल और आइसो-पैराफिन दोनों रहते हैं और कार्बन परमाणु की संख्या 15 से 35 रहती है। इनके रहने से पेट्रोलियम तेल के बहाव में कमी हो जातीहै। पेट्रोलियम की टंकियों में मोम बहुधा पेंदे में बैठ जाता है, विशेषत: जब ताप नीचा हो। ओस, गैस तेल, स्नेहन तेल आदि सब आसुतों में रहते हैं। यदि ऐसे आसुत में मोम की मात्रा अधिक हो, तो ऐसे आसुत को 'मोम आसुत' कहते हैं। कुछ आसुतों में 25 प्रति शत या इससे अधिक 'मोम आसुत' कहते हैं। कुछ आसुतों में 25 प्रतिशत या इससे अधिक मोम रह सकता है। (देखें पैराफ़िन मोम)।

पिच  पेट्रोलियम के आसवन से जी उत्पाद आसवन पात्र में रह जाता है, उसको 'पिच' कहते हैं। कुछ पेट्रोलियम में पिच की मात्रा अधिक प्राप्त होती है और कुछ में कम। ऐल्काल्ट वाले पेट्रोलियम से अधिक पिच प्राप्त होता है। पिच के अनेक उपयोग हैं। इनमें सड़कों का निर्माण प्रमुख है।

कृत्रिम पेट्रोलियम- पेट्रोल की माँग बढ़ जाने से कृत्रिम पेट्रोलियम के निर्माण की चेष्टाएँ हुई और इसके फलस्वरूप आज अनेक देशों में पर्याप्त मात्रा में कृत्रिम रीति से पेट्रोलियम तैयार होता है। कृत्रिम पेट्रोलियम तैयार करने की तीन प्रमुख रीतियाँ है। पहली रीति वरगिउस की रीति है। इसमें बिटुमिनी कोयला, या लिगनाइट, को महीन चूर्ण कर गुरुतेल में निलंबित करते हैं। उसको फिर लगभग 4500 सें. तक गरम करके 150-200 वायुमंडल के दबाव पर हाइड्रोजन पारित करते हैं। हाइड्रोजन पारित करने के समय कोयले के चूर्ण को बराबर गतिशील रखते हैं। हाइड्रोजन के साथ संयुक्त होने के कोयले का हाइड्रोजनीकरण होता है, जिससे हाइड्रोकार्बन बनते हैं।

दूसरी रीति में कोयले को जल गैस में परिणत करते हैं। कोक की भाप के साथ उच्च ताप पर क्रिया से जल गैस बनती है। यदि कार्बन मॉनोक्साइड और हाइड्रोजन के मिश्रण को, कुछ धातुओं के ऑक्साइडों की उपस्थिति में, उच्च दबाव पर उपचारित करते हैं, तो उससे ऐल्कोहल, कीटोन, अम्लों आदि के मिश्रण प्राप्त होते हैं। यदि इन्हें दबाव में तप्त करते हैं, तो इनसे जल निकल जाता है और तब हाइड्रोकार्बनों का एक मिश्रण बनता है, जो बेंजाइन सा होता है।

तीसरी रीति फिशर की रीति है। इस रीति में जल गैस को कोबाल्ट उत्प्रेरक पर (ताँबा और थोरियम उत्प्रेरक भी प्रभावकारी सिद्ध हुए है) उच्च ताप पर (180-1900 सें.) पारित करने से, सामान्य दबाव पर, निम्नक्चथनांक पैराफिन प्राप्त होते हैं। अनेक देशों में आज इन रीतियों से, विशेषकर बरगिउस रीति से, पेट्रोलियम तैयार किया जाता है, पर ऐसे कृत्रिम पेट्रोलियम की मात्रा अभी तक अपेक्षया कम है।

निम्न ताप पर (4500-6000 सें.) अथवा निर्यात में, कार्बन के कार्बनीकरण से भी पेट्रोलियम प्राप्त हुआ है। इसके प्रभाजी आसवन से बेंजाइन, स्नेहन तेल और कुछ पैराफिन मोम भी प्राप्त हुए हैं। (फूलदेवसहाय वर्मा)

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