पेयजल प्रबन्धन के तौर-तरीकों पर हो पुनर्विचार


पीने के लिये हर व्यक्ति को बमुश्किल ढाई लीटर और पूरे देश को पीने के लिये हर रोज 300 करोड़ लीटर पानी की जरूरत है। ऐसे में टिहरी बाँध (क्षमता चार घन किलोमीटर या 40,000 करोड़ लीटर) जैसे तीन बाँधों का पूरा पानी पीने में इस्तेमाल किया जाये तो देश की 120 करोड़ आबादी के लिये साल भर का पेयजल उपलब्ध हो सकता है। और फिर हमारे देश में तो सैकड़ों बाँध, हजारों नदियाँ और 6 लाख से अधिक तालाब मौजूद हैं, तो पानी की किल्लत क्यों? बढ़ती आबादी, शहरीकरण, औद्योगीकरण व भीषण गर्मी की वजह से देश भर में व्याप्त पेयजल संकट पर हम जितना ज्यादा बहस करते हैं, समस्या उतनी ही गम्भीर होती जा रही है। गौर करने वाली बात यह है कि भारत की आबादी करीब 120 करोड़ होने के अनुपात में पानी का वॉल्यूम उतना कम नहीं है, जितनी कि हाय-तौबा मची है। हाय-तौबा इसलिये है कि हमारा तंत्र उपलब्ध पेयजल का प्रबन्धन नहीं कर पा रहा है। साथ ही पेयजल की चिन्ता में हमने प्रकृति के इस अमूल्य तोहफे पर एकाधिकार हासिल करने को लेकर प्रतिस्पर्धा को ही बढ़ावा दिया है।

इसलिये हम सभी को इस बात पर गौर करना चाहिए कि पेयजल संकट किसी व्यक्ति विशेष के लिये न होकर हम सबकी समस्या है। आपको देश के किसी भी शहर व ब्लॉक से लेकर दिल्ली के विज्ञान भवन तक आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में पीने के लिये बोतलबन्द पानी ही नजर आएगा। यहाँ तक कि उन कार्यक्रमों में भी जहाँ बड़ी पेयजल परियोजनाओं पर चर्चा या घोषणा होने वाली हो। साथ ही यह भी गौर करिए कि जिस भी शहर में यह संवाद जारी है, वहाँ की सरकारें पहले से ही यह दावा करती हैं कि पाइप लाइन से जो पानी की सप्लाई हो रही है, वह पूरी तरह सुरक्षित है। इसके लिये बाकायदा सर्टिफिकेट जारी होते हैं। अगर शहरों की पेयजल सप्लाई सुरक्षित है तो बोतलबन्द पानी और घर-घर में वाटर फिल्टर या वाटर प्योरीफायर क्यों लग रहे हैं?

यानी हम बहस ही गलत कर रहे हैं या फिर सही मायने में यह तय करना जरूरी है कि हमारे शहरों व गाँवों की आबादी को कुल कितना पानी चाहिए और उनके पास कितने पानी का जुगाड़ है और सरकारी तंत्र व निजी तंत्रों के माध्यम से क्या करने की आवश्यकता है। यह सोचना होगा कि हम जो करने जा रहे हैं वो कितना कारगर साबित होगा। डॉक्टरों की मानें तो एक स्वस्थ व्यक्ति को दिन भर में आठ से 12 गिलास पानी पीना चाहिए।

इस तरह पीने के लिये हर व्यक्ति को बमुश्किल ढाई लीटर और पूरे देश को पीने के लिये हर रोज 300 करोड़ लीटर पानी की जरूरत है। ऐसे में टिहरी बाँध (क्षमता चार घन किलोमीटर या 40,000 करोड़ लीटर) जैसे तीन बाँधों का पूरा पानी पीने में इस्तेमाल किया जाये तो देश की 120 करोड़ आबादी के लिये साल भर का पेयजल उपलब्ध हो सकता है। और फिर हमारे देश में तो सैकड़ों बाँध, हजारों नदियाँ और 6 लाख से अधिक तालाब मौजूद हैं, तो पानी की किल्लत क्यों?

लेकिन यहाँ पर हमें एक और बात ध्यान रखने की जरूरत है कि पानी केवल हमें पीने के लिये नहीं चाहिए। खाना पकाने के लिये इससे कहीं ज्यादा पेयजल की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन पेयजल के वॉल्यूम में उस अंश को समावेश नहीं कर पाते हैं। यही वजह है कि आबादी के अनुपात में समुचित पेयजल का अनुमान गलत साबित होता है।

इन बिन्दुओं पर गम्भीरता से सोचना इसलिये भी लाजिमी है कि एक बार फिर गर्मी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र के लातूर व अन्य क्षेत्रों में पेयजल संकट इस कदर गम्भीर है कि पीएम नरेन्द्र मोदी को ट्रेन से पानी भेजने जैसा निर्णय लेना पड़ा है। जबकि सीएम अरविन्द केजरीवाल ने लातूर को पानी भेजने का प्रस्ताव रखकर इस पर राजनीति शुरू कर दी है। लेकिन इस विषय पर राजनीति से ज्यादा जमीन पर भगीरथ प्रयास करने की जरूरत है।

ऐसा इसलिये कि देश में पानी का गणित उतना सीधा भी नहीं है, जितना ऊपर से नजर आता है। भारत में पेयजल और घरेलू जरूरत के पानी की सप्लाई का अलग-अलग ढाँचा नहीं है। आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक आजादी के वक्त 1947 में जहाँ प्रति व्यक्ति सालाना 6,042 घन मीटर पानी उपलब्ध था, वहीं 2011 की जनगणना के बाद यह उपलब्धता महज 1,545 घन मीटर यानी एक चौथाई रह गई है और इस जरुरत को पूरा करने में सरकारी अमला नाकाम है।

शहरी विकास मंत्रालय की तरफ से लोकसभा में 35 प्रमुख शहरों में जल आपूर्ति के बारे में पेश आँकड़ों में साफ दिखता है कि 30 शहरों को उनकी जरूरत से कम पानी मिल रहा है। वहीं 2021 में पानी की माँग के हिसाब से आपूर्ति के लिये किये जा रहे दावे हवाई हैं। 2021 में पानी की आपूर्ति को लेकर ज्यादातर शहरों ने कहा है कि उद्योग अपने लिये पानी की व्यवस्था खुद करेंगे।

आगामी वर्षों में यदि ऐसा ही हुआ तो फिर मेक इन इण्डिया जैसे केन्द्र प्रायोजित अभियानों व आत्मनिर्भरता का क्या होगा? यानी जरूरत इस बात की है कि उद्योग की इस चुनौती का कोई ठोस जवाब सरकार के पास होना चाहिए। यह स्थिति तो उस समय है, जब सरकार पहले ही शहरों के पानी की माँग को घटाकर दिखा रही है और यह घटी माँग भी पूरी नहीं हो पा रही है।

महाराष्ट्र के नागपुर शहर के बारे में प्लानिंग कमीशन की रिपोर्ट यह है कि नागपुर के लिये 765 एमएलडी पानी शहर से 40 किलोमीटर दूर पेंच वन एवं टाइगर रिजर्व से आता है। इसमें से 140 एमएलडी पानी तो नहर में ही खर्च हो जाता है। 125 एमएलडी पानी कच्चे पानी के ट्रीटमेंट के बाद बेकार हो जाता है।

पाइप लाइन से सप्लाई के दौरान और पानी की चोरी के कारण 235 एमएलडी पानी गायब हो जाता है। इसके अलावा 45 एमएलडी पानी के बिल की वसूली नहीं हो पाती। इस तरह शहर सिर्फ 200 एमएलडी पानी का बिल ही वसूल कर पाता है। प्लानिंग कमीशन स्पष्ट करता है कि जो हाल नागपुर का है, कमोबेश वहीं दिल्ली और देश के अन्य महानगरों का भी है। यही वजह है कि नगर निगम के पानी के टैंकरों के सामने लम्बी कतारें दिखने लगती हैं।

दरअसल, यह स्थिति इसलिये भी विकराल रूप धारण करती जा रही है कि पेयजल संकट का समाधान निकालने को लेकर हमने जिन नीतियों पर अमल किया, उससे पानी के कारोबार को बढ़ावा मिला न कि समस्या के समाधान को लेकर सार्थक प्रयास। इस मामले में उद्योगों के लिये रिसर्च करने वाली निजी संस्था वेल्यूनोट्स की रिपोर्ट होम वाटर प्यूरीफायर इंडस्ट्री 2014-19 के मुताबिक यह कारोबार 22 फीसदी की वृद्धि दर दर्ज कर रहा है।

2014 में होम वाटर प्यूरीफायर उद्योग का आकार 3,400 करोड़ रुपए का था और 2019 तक यह 9,000 करोड़ रुपए का आँकड़ा पार कर जाएगा। रिपोर्ट तैयार करने वाली रिसर्च एनालिस्ट इस तरह का स्पष्ट ट्रेंड दिखाती है कि जिन इलाकों ने जलजनित बीमारियों का प्रकोप झेला है, वहाँ वाटर प्यूरीफायर की बिक्री में तेज इजाफा हुआ है। वहीं यदि देखा जाये तो पिछले दो दशक की तुलना में 2005-2015 के दशक में पानी से जुड़ी योजनाओं पर सरकारी निवेश नौ गुना बढ़ा है। यानी पेयजल समस्या को लेकर तैयार रणनीतियों पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है, ताकि पेयजल का स्थायी समाधान हो सके।

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