
मोहन बिष्ट चिल्थी स्थित अपने बगान में पिछले कई वर्षों से आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल से विभिन्न प्रकार की फसलों का उत्पादन कर इलाके के लोगों के लिये उदाहरण बने हुए हैं। वे अपने बगान में मत्स्य पालन, जल संरक्षण, सब्जी उत्पादन आदि के कार्यों को आधुनिक तौर-तरीकों के अनुसार करते हैं। वर्तमान में उन्होंने पर्वतीय क्षेत्र में न पैदा होने वाले पपीते का उत्पादन कर एक मिसाल पेश किया है। मोहन बिष्ट ने प्रयोग के तौर पर पहले-पहल पंतनगर से बीज मँगाकर अपने बागान में रोपा। इसके अलावा और कई हाइब्रिड पपीतों के पेड़ भी लगाए जो छह माह में ही फल देने लगे।
मोहन बिष्ट प्रयोग के सफल हो जाने के बाद अब क्षेत्र के अन्य लोगों को भी पपीते की खेती करने के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं ताकि क्षेत्र के लोगों के लिए स्वरोजगार के रास्ते खुल सकें। बिष्ट द्वारा उगाए गए पपीते के एक पेड़ पर 150 से अधिक फल आ चुके हैं। इस क्षेत्र में फलोत्पादन के लिये उपयुक्त मौसम है लेकिन बन्दर का प्रकोप बहुत ज्यादा है। इसीलिये मोहन बिष्ट पपीते के फल को कपड़े से ढँक कर रखते हैं। इससे पूर्व भी उन्होंने झाँसी से मँगाए गए पपीते के 85 पेड़ अपने बगान में लगाया था लेकिन एक ही बार फसल देने के बाद सभी पेड़ समाप्त हो गए। कहते हैं कि इस क्षेत्र में पंतनगर का ही बीज सफल है।
पपीते की व्यावसायिक खेती
परम्परागत खेती छोड़कर लोग अब व्यावसायिक खेती पर ज्यादा जोर देने लगे हैं। इसीलिये चम्पावत के किसान पपीते की खेती को व्यावसायिक खेती का एक बेहतर विकल्प मानने लगे हैं। मौजूदा समय में बाजार में आई हाईब्रिड किस्मों के कारण पपीते की खेती पूर्व की तुलना में आसान होने के साथ ही लाभदायक भी हो गई है। एक अनुमान के मुताबिक एक हेक्टेयर क्षेत्र में पपीते की खेती करने से सालाना लगभग 10 लाख रुपए तक की कमाई की जा सकती है। एक बार पपीते के पेड़ लगाकर उससे लगातार तीन साल तक उपज ली जा सकती है।
पपीते की खेती के लिये जरूरी तैयारियाँ

गुणों से भरपूर हैं पपीता
पपीता सर्वाधिक फायदेमन्द और औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ तमाम तरह की बीमारियों से मुक्ति दिलाने में सक्षम होता है। पपीते की सबसे बड़ी खासियत है कि ये बहुत कम समय में फल दे देता है। इसकी खेती भी आसान है। पपीते में कई महत्त्वपूर्ण एंजाइम मौजूद रहते हैं इसीलिये बाजार में पपीते की माँग लगातार बढ़ रही है। पपीता पेट सम्बन्धी बीमारियों का रामबाण इलाज है।
बढ़ रही है माँग
पपीते की बढ़ रही माँग आत्मनिर्भरता के रास्ते खोल रही है। मैदानी क्षेत्रों में इसकी खेती कर लोग लाखों कमा रहे हैं। अब इसकी खेती का दायरा बढ़ रहा है। पर्वतीय क्षेत्र में भी पपीते की खेती की सम्भावनाएँ जगी हैं। यह सम्भव हुआ है हिमालय विकास समिति चिल्थी के मोहन बिष्ट के प्रयासों से। पपीता यद्यपि उष्ण जलवायु का पौधा है, फिर भी यह उपोष्ण जलवायु में अच्छी तरह उगाया जाता है इसका उत्पादन समुद्र तल से 100 मीटर कि उँचाई तक सुगमता से होता है। जल भराव, ओला तथा अधिक तेज हवाएँ इसे नुकसान पहुँचाती हैं। पपीता विभिन्न प्रकार कि भूमियों में उगाया जा सकता है, परन्तु अच्छे जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि, जिसका पी-एच 6.5 से 7.0 के बीच हो, इसकी खेती के लिये सर्वोत्तम होती है। जल निकास का उचित प्रबन्ध आवश्यक होता है। जल भराव वाली भूमि में जड़ विलगन कि समस्या इसका उत्पादन नहीं होने देती है।
कीटों से होता है नुकसान
पपीते के पौधों को माहू, रेड स्पाइडर माइट, निमेटोड आदि कीटों से नुकसान पहुँचता है। डाइमेथोएट 30 ई. सी.1.5 मिली लीटर या फास्फोमिडान 0.5 मिली लीटर प्रति लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करने से माहू आदि का प्रकोप खत्म हो जाता है। निमेटोड पपीते को बहुत नुकसान पहुँचता है और पौधे की वृद्धि को प्रभावित करता है। इथिलियम डाइब्रोमाइड 3 किग्रा प्रति हेक्टेयर प्रयोग करने से इस बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा अंतरशस्य गेंदा का पौधा लगाने से निमाटोड की वृद्धि को रोका जा सकता है।
पपीता की प्रजातियाँ
पूसा डेलीसस 1-15, पूसा मैजिस्टी 22-3, पूसा जायंट 1-45-वी, पूसा ड्वार्फ 1-45-डी, पूसा नन्हा या म्युटेंट डुवार्फ, सीओ-1, सीओ-2, सीओ-3, सीओ-4, कुर्ग हनी, रेड लेडी 786, वाशिंगटन, सोलो, कोयम्बटूर, कुंर्गहनीड्यू, पूसा डेलीसियस, सिलोन एवं हनीडीयू आदि पपीता की उन्नतशील प्रजातियाँ हैं। इनके बीज बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं।
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