पहाड़ पर बारिश का कहर

14 Jul 2011
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इस बार भी बारिश पहाड़ पर कहर बनकर बरस रही है। अनियोजित व अवैज्ञानिक विकास के चलते इससे राहत मिलती नहीं देख रही है। कवि और पत्रकार अतुल शर्मा की रिपोर्ट-सुबह से शाम तक थका देने वाली पहाड़ी ऊँचाइयों और ढलानों में ताजी ठंडी हवा, खुला नीला आकाश, पानी का मीठा स्रोत महिलाओं की जीवन शक्ति हैं। बोझ और पानी को ढोतीं महिलाएं दरअसल पहाड़ को ढोती हैं।

सुबह जलकुर घाटी, लम्ब़गांव से निकली दो महिलाओं को बारिश की तेज धार से हुए भूस्ल़खन ने लाशों में बदल दिया। जलकुर गाड (नदी) में बाढ़ आने से लापता चल रही दो महिलाओं के शव ग्रामीणों ने रातभर सर्च रेस्यूहिल अभियान चलाकर के बरामद कर लिए। ब्लॉचक डूंडा के बागी बह्मपुरी गांव में सोमवार देर रात आधा दर्जन महिलायें धान की रोपाई कर घर लौट रही थीं। अचानक जलकुर नदी में बाढ़ आने से नदी पार करते वक्तक महिलायें तेज बहाव में बह गईं। पानी के उफान से बचते हुए कृष्णाा, पिंकी, मंगली देवी व सौंद्राणी किनारे लग गईं, जबकि बालकराम की पत्नी शारदा व उसके भाई आनन्दं प्रकाश की पत्नीर रुक्मिणी के पीठ पर पहाड़ी बोझ (बिलडे़) होने से वे पानी के तेज बहाव में बह गईं। हादसे के बाद किनारे लगीं महिलायें जब चिल्लासने लगीं तो आसपास के लोग मौके पर पहुँचे। इतने में रुक्मिणी और शारदा घटनास्थआल से लगभग आधा किलोमीटर दूर बह गई थीं। ग्रामीणों ने खोजबीन अभियान चलाया तो रुक्मिणी पत्थार पर फँसी हुई थी। शारदा का पता नहीं चला। रुक्मिणी को बेहोशी में उत्तशरकाशी में उपचार हेतु लाया गया। वहां उसे मृत घोषित कर दिया गया।

पहाड़ में इस तरह के हादसे बारिश के साथ हाथ मिलाएं रहते हैं और कहर बनकर बरसती है बारिश। चट्टानें खिसक जाती हैं। कब्रगाह बन जाता है गांव, जब दरकती है छाती पहाड़ की।

27 जून, 2011 को पुरोला, उत्त रकाशी में तेज बिजली कड़की और भयंकर रूप से गिरी। ऊँचाई वाले क्षेत्रों में भेड़, बकरी और उनकी चराने वाले इसकी चपेट में आ गये। सात सौ से अधिक भेड़ें वहीं मर गईं। ये भेड़े पच्चीसस परिवारों का जीवन चलाती थीं। पहाड़ की ऊँचाइयों और ढलानों पर उछलती-कूदती भेड़ों को मरा हुआ देखकर मन भर आया। आँसुओं की कभी न खत्म होने वाली इस कहानी का अन्त। कहीं भी नजर नहीं आ रहा है।

अभी बारिश शुरू ही हुई है और बीस घंटे से जाम में फँसे मनसेरू ने बताया कि वह भूखा-प्यामसा तीर्थयात्रियों की सेवा में लगा है। गंगोत्री मार्ग में भारी भूस्खँलन 28 जून, 2011 को हुआ और बीस घंटे तक वह साफ नहीं हुआ। नालूपानी, देवीधार और भटवाडी में भारी चट्टानीं जमीन धँस गई। कमोबेश यह हाल हिमाचल और उत्त राखण्ड दोनों का ही है।

बरसात में सड़कें, गांव पगडंडियां, नदी-नाले सभी की सूरत बदली हुई लगती है। दैनिक जीवन किसी अंधी गुफा की तरह हो जाता है- डरवाना, भयावह और काला। पहाड़ों में दुर्घटनाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। रास्ताट बाधित होने के कारण बुलडोजर अपनी पूरी कोशिश के साथ रास्तेध साफ करने में लगे रहते हैं, लेकिन लगता है कि कभी-कभी ये बुलडोजर पूरी कोशिश के बावजूद रास्तेग को काफी देर तक साफ करते हैं। जहां सड़क नहीं है, वहां ने एंबुलैंस जा सकती है, न बुलडोजर।

भूगर्भीय परिवर्तन, अनियोजित व अवैज्ञानिक विकास, अंधाधुंध दोहन, कच्चेन और नये पहाड़ पर जमीनी हकीकत से दूर बनी योजनाएं इन आपदाओं का कारण बनती हैं। बादल फटते हैं, जो क्षेत्रीय भाषा में ‘पणगोले’ कहलाते हैं तो उससे ऐसी जबरदस्तद तेज बारिश होती है कि कई बार पूरा प्रवाह जमीन को रौंद जाता है।

लघु जल नीति परियोजनायें कोसी, अलकनन्दा<, भिलंगना, भागीरथी, पिंडर, टौंस, गंगा, यमुना और पिथौरागढ़ से लेकर हिमाचल की सीमा तक नदियों के दोनों तरफ ऐसे सुरंग बांध बनाती है, जिससे पहाड़ी पर्यावरण कमजोर पड़ जाता है। मुनाफे के लिए वहां रहने वाले लोगों के लिए यह खतरनाक होता ही है, साथ-ही-साथ पूरे जलचक्र को भी प्रभावित करता है।

आज चारधाम यात्रा के लोग रास्तेर बाधित होने पर बहुत मुश्किल में हैं। सड़कों पर ही बैठे या लेटे हैं। व्यतवस्थाै जितना कर सकती है, वो पर्याप्त् नहीं है। दूसरी तरह राज्य् की उत्तकराखंडी भाजपा सरकार व केन्द्रर की कांग्रेस सरकार के बीच आपदा प्रबंधन के लिए पैसा भेजने व मांगने की कवायद राजनीतिक रूप लेती है। केन्द्र से उत्तदराखण्डे सरकार ने ज्याददा पैसा मांगा। केन्द्र ने लगभग पांच सौ करोड़ भेजे। पूरी राजनीति चली। आपदा प्रबंधन से जुडे़ विभागों के अनुसार उन्होंआने 421 करोड़ खर्च किए, जबकि लोग इसे सही मानते। फिर भी इसी को सच मान लिया जाए तो 79 करोड़ अभी तक खर्च क्योंा नहीं हुआ। ये बड़ा सवाल है।

पहाड़ की त्रासदी यही है कि कागजों में आपदा प्रबंधन की तैयारियां पूर्ण बताई जाती हैं, जबकि रोज की मानूसनी दुर्घटनाओं के समय यह आपदा प्रबंधन कहीं गायब रहता है ?

गत वर्षों को देखा जाए तो नदियों पर मलबा गिरने से बनी झीलों, भूकम्पद और भूस्खरलन से पहाड़ हमेशा ग्रसित रहा है। साठ के अंत और सत्त र के शुरू में विरही नदी झील बनी और टूटी और तबाही का कारण बनी। उत्त रकाशी में डबरानी में झील का तांडव देखा। 91 के भूकम्पी ने तबाही मचाई थी। नीलकंठ में कुछ वर्षों पूर्व भूस्लमखन से सैकड़ों कांवडिये दब गए थे। पिछले साल बारिश तबाही बनकर बरसी थी। न जाने कितने लोग, मवेशी, जंगल आदि नष्टत हो गए थे। यह सिलसिला इस वर्ष भी जारी है।

यात्रामार्ग पर भूस्खालन का तांडव मचा। हेलंग के पास चट्टान खिसक गई। इसकी चपेट में आने से वाहन सवार कुछ यात्रियों की मौत हुई और दो घायल हो गए। गाडि़यों पर चट्टानें गिरीं। ग्ले शियर टूटा। जोशीमठ, पांडकेश्वोर और बद्रीनाथ में इन दिनों सैकड़ों गाडियां रुकी इुई हैं। केदरनाथ और यमुनोत्री मार्ग में बहुत बुरे हाल हैं। यात्रा मार्ग पर 322 स्था न अतिसंवेदनशील हैं। बद्रीनाथ और गंगोत्री मार्ग पर एक दर्जन स्थाान बेहद संवेदनशील हैं।

डूंडा और नालू पानी के बीच गिरी चट्टान की चपेट में आने से राजस्थापन के यात्रियों की एक इनोवा और स्कासर्पियों तथा उत्त्रकाशी निवासी चतर सिंह की आल्टोे कार दफन हो गई। ऐसी हादसे पहाड़ में भूस्लेखन के कारण रोज घट रहे हैं। बद्रीनाथ के पास कंजनजंगा के नजदीक टूटा गलेशियर दस मीटर की सड़क बहा ले गया। 48 घंटे बंद रही गंगोत्री यात्रा। दो गाडि़यां भागीरथी में भी बहीं। इस बाधित मार्ग के कारण 15 हजार यात्री जोशीमठ और बद्रीनाथ के बीच फंस गए। उधर जोशीमठ से ऋषिकेश आ रही एक टैक्सी। हेलंग के पास चट्टान गिर जाने से तीर्थयात्री को निगल गई।

उत्त रकाशी-देहरादून मार्ग धरासू के निकट बंद होने पर गंगोत्री पहुंचे तीर्थयात्री व स्थाूनीय लोग चौरंगीखाल, लम्बतगांव, पीपलडाल मार्ग से आवाजाही कर रहे हैं। पेट्रोल पम्पब संचालकों ने ब्लेरक में तेल बेचा, लेकिन अतिआवश्यपक सेवाओं के लिए तेल उपलब्धे नहीं करवाया। ऐसा बताया जा रहा है कि पम्पे संचालकों का कथित आरोप है कि प्रशासन ने सरकारी वाहनों के लिए तेल पर नियंत्रण कर दिया है। इसलिए आम आदमियों की दिनचर्या गड़बड़ा गई है। दर्जनों लिंक मार्ग भूस्लदखन से अवरोध है। चिल्यालणी सौंड के जोगत, खालसी, बनचौरा डूंडा के धनारी समेत अनेक मार्गों पर आवाजाही बाधित है।

रोज इस बारिश से तबाही से त्रस्त पहाड़ एक व्याापक बहस की दरकार रखता है। यह एक दर्द है जो सहा नहीं जाता। और व्य वस्था् के सामने यह समस्या् है कि ये मौसम उनसे न उगला जाता न निगला। उम्मीकद है कि लोग पहाड़ का दर्द महसूस करेंगे और सिर्फ सोचने को ही नहीं कुछ करने को भी मजबूर होंगे।

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