पहाड़ों की पीड़ा

7 Feb 2012
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पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं। बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है।

हिमालय की गोद में दुनिया की कई महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। कॉकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक सगरमाथा यानी माउंट एवरेस्ट की अगुवाई में फैली हुई विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों-लाखों वर्षों के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गवाह रही हैं। इन्हीं पर्वतमालाओं के तले सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर मोहनजोदड़ो की सभ्यता का जन्म हुआ। इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फीली चट्टानों ने साइबेरिया की बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से समूचे दक्षिण एशिया के बाशिंदों की रक्षा की। इतना ही नहीं, इस इलाके में दूर-दूर तक फैले हुए किसानों, वनवासियों और अन्य समूहों को फलने-फूलने में भी भरपूर मदद की। इसी इलाके से जैन धर्म-दर्शन के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी और यहीं करुणा पर आधारित बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसने अफगानिस्तान के बामियान से लेकर कंपूचिया तक तथा नीचे की ओर श्रीलंका तक को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेटा। इसी नगाधिराज हिमालय से निकली पावन नदियों के किनारे बैठकर तुलसी ने रामचरित जैसे महाकाव्य की रचना और कबीर ने लोक से जुड़े ज्ञान और दर्शन की गंगा बहाई।

यहीं से गुरु नानक, रैदास और अन्य भक्त कवियों और सूफी-संतों ने समूची मानवता को उदात्त जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित किया। इसी हिमालय की छांव में बिहार के चंपारण और उत्तराखंड के कौसानी से महात्मा गांधी ने समूचे विश्व को शांति, अहिंसा और भाईचारे की भावना पर आधारित जीवन दर्शन और विकास की नई अवधारणा से रूबरू कराया। विडंबना यह है कि जिन पर्वतमालाओं की गोद में यह सब संभव हो पाया, आज वही पर्वतमालाएं मनुष्य की खुदगर्जी और सर्वग्रासी विकास की विनाशकारी अवधारणा की शिकार होकर पर्यावरण के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। इस खतरे से न सिर्फ इन पहाड़ों का बल्कि इनके गर्भ में पलने वाले प्राकृतिक ऊर्जा और जैव संपदा के असीम स्रोतों और इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है।

इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले साठ-पैंसठ सालों में कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे गर्मी के मौसम में बहुत ज्यादा गर्मी, सर्दी के मौसम में लगातार बहुत ज्यादा सर्दी बेमौसम बारिश होती रहती है। पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है लेकिन इस मकसद की आड़ में पहाड़ी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं। उत्तराखंड में अल्मोड़ा, नैनीताल, मसूरी, रानीखेत, जागेश्वर, बागेश्वर, कौसानी, ऋषिकेश आदि हो या हिमाचल प्रदेश में शिमला, कुल्लू-मनाली, धर्मशाला, डलहौजी, कसौली आदि या पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग और पूर्वोत्तर में शिलांग, बोमडीला, गंगटोक हो, सबकी एक जैसी दर्दनाक कहानी है।

डैम प्रोजेक्ट और कंट्रक्शन से संकट में हिमालयडैम प्रोजेक्ट और कंट्रक्शन से संकट में हिमालयये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां व्यावसायिक गतिविधियां शुरू कर दी हैं। हालांकि स्थानीय बाशिंदे और स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं। पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं।

बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है। पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण का कारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाकों में प्रवेश कर लिया है। पर्यावरण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजना शुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरूरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं। इसके खिलाफ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है।

कुछ महीने पहले हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए मनाली से लेकर रोहतांग तक के इलाके में किसी भी तरह के निर्माण कार्य पर रोक लगा दी थी और हाल में उसने कुल्लू-मनाली के आसपास व्यास नदी के किनारे शहरी नियोजन की भी एक सीमारेखा तय करने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट ने राज्य सरकार के संबंधित महकमों से इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियों और विकास परियोजनाओं के चलते पर्यावरण को होने वाले नुकसान का ब्यौरा भी पेश करने को कहा है। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती हैं लेकिन सिर्फ अदालतों के भरोसे ही सब कुछ छोड़कर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। पहाड़ों और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना साठ के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने हिमालय बचाओ का नारा देते हुए देखा था।

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