पहाड़ों को क्या पता था, होगा विकास से विनाश

4 Aug 2012
0 mins read

रामगढ़ की जिस उफनती-शोर करती नदी और घाटी की हरियाली ने मुझे इसी जून महीने के आरंभ में लगभग पचीस वर्ष पहले मुग्ध किया था और जिसके आकर्षण से बंधकर हमने यहां अपना छोटा-सा घर बनाया था, इस वक्त बिल्कुल सूखी पड़ी थी। उसके पाट में बिखरे खुश्क पत्थरों के बीच-बीच जो थोड़ी-बहुत आर्द्रता कहीं-कहीं झलकती भी थी, वह उन सोतों की बदौलत थी जो निरंतर विरल होते जाने के बावजूद, कहीं-कहीं चट्टानों के बीच से रिस रहे थे।

राम की जन्मभूमि भले अयोध्या रही हो.., वे जन-जन में व्याप्त हैं, घट-घट में समाए हैं, सर्वशक्तिमान और सर्वद्रष्टा हैं- ऐसा भरोसा रखनेवालों के लिए तो समूचा भारत ही ‘रामगढ़’ होगा लेकिन देश भर में मौजूद छोटे-बड़े अनेक रामगढ़ों के साथ, एक जहां वह था, जिसको ‘शोले’ फिल्म ने दुनिया भर में फैला दिया, वहीं एक वह भी है, जिसके फेरे अपने राम लगभग चौथाई सदी से लगाते रहे। और वह है दिल्ली से लगभग 350 किलोमीटर दूर, आठ-नौ घंटों की ड्राइव पर, नैनीताल जिले में बरसाती नदी के दोनों ओर, उत्तराखंड की गोद में बसा एक छोटा-सा गांव, जिसमें स्थित अपने आश्रम ‘तपोगिरि’ के विषय में पांडिचेरी के संत महर्षि अरविंद ने कहा था-‘यह हिमालय में हमारा ठिकाना होगा।’ उनका वह स्वप्न साकार करने में जहां हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय से संबद्ध डॉ. इंद्रसेन और ‘तीसरा सप्तक’ के कवि तथा मेरे गुरू प्रयागनारायण त्रिपाठी जैसे अनेक साधक आजीवन समर्पित रहे, वहीं पिछले अनेक वर्षों से स्वर्गीय इंद्रसेन की विदुषी पुत्री डॉ. मीरा ऐस्टर ‘तपोगिरि’ के वर्तमान प्रभारी मनीष राय के सहयोग से उक्त उद्देश्य की पूर्ति में संलग्न रही हैं।

जून के प्रथम सप्ताह में आयोजित तपोगिरि के वार्षिक सेमिनार में हिस्सा लेने के लिए, कई बरसों बाद, जब मैं अपने दो मित्रों – वेदजी और उनकी सुयोग्य पुत्रवधू मीठू सहित पहली जून 2012 को पहुंचा तो अनुमान न था कि अपना चिर-परिचित रामगढ़ इतना बदल चुका होगा। दिल्ली से वहां का सफर पहले की तुलना में अवश्य सुगम-सुकर हो गया था और पहाड़ी इलाके भी संपन्नतर नजर आए लेकिन ऊंचाई पर स्थित तपोगिरि आश्रम की टेढ़ी-मेढ़ी सीढ़ियां टूट-फूट चुकी थीं, क्योंकि अतिथियों के लिए सुविधाप्रद आवास निर्मित करने के क्रम में पुराना काफी-कुछ न केवल ध्वस्त हुआ बल्कि इस विवाद से भी जुड़ चला कि आध्यात्मिकता की राह सात्विक और कष्टसाध्य ही उचित है या उसे सुखद-सुंदर-आरामदेह भी होना चाहिए?

‘तपोगिरि’ के स्थापति डॉ. इंद्रसेन जहां लंबे समय तक एक संकरी गुफा में साधनालीन रहे थे, वहां आज के ध्यानी-मानी-सैलानी समुचित सुविधाओं की मांग करने लगे हैं। पांच-सितारा होटलों से टक्कर लेने वाले भव्य आश्रमों का जो विस्फोट देश भर में हो चला है, उसे देखते हुए आज के तत्वान्वेषी छप्पर-टट्टर या कंदरा में बैठ भला कैसे ब्रह्म-चिंतन कर सकेंगे? यही गुत्थी सुलझाने के क्रम में जहां रामगढ़ का ‘मधुबन’ नामक वैकल्पिक अरविंदाश्रम ‘यथानाम-तथा-गुण होने लगा, वहीं ‘तपोगिरि’ ने चाहा कि कुटियाएं साफ-सुथरी-खुली तो हों पर वे महंगे होटल के कमरों जैसी न बन जाएं..।

किसी-न-किसी शक्ल में यह बहस मुझे चारों तरफ छिड़ी नजर आई। गजरौला के जो सादे-साधारण ढाबे कुछ बरस पहले तक दिल्ली से आनेवाले या वहां लौटने वाले पर्यटकों को सस्ता नाश्ता-खाना उपलब्ध कराते थे, इस बार शान-शौकत की होड़ लगाते दिखे जिसका यह पहलू दिलचस्प था कि जो इस दौड़ में पिछड़ गया, वह अपनी दुकान बंद करने या दूसरों के वास्ते जगह छोड़ने के लिए विवश भी हुआ। चाहे हापुड़, मुरादाबाद, रामपुर आदि के ‘बाईपास’ हों, चाहे आजू-बाजू की दुकानें और घर.., सभी ओर बदलाव के संकेत थे – भले ही इस प्रश्न को उछालते कि जो-कुछ भी सोचे-विचारे बिना, हड़बड़ी में किया जा रहा है, उसको सुधारने-संवारने की सुध जब कभी आएगी तो क्या बहुत देर न हो चुकी होगी? रामगढ़ की जिस उफनती-शोर करती नदी और घाटी की हरियाली ने मुझे इसी जून महीने के आरंभ में लगभग पचीस वर्ष पहले मुग्ध किया था और जिसके आकर्षण से बंधकर हमने यहां अपना छोटा-सा घर बनाया था, इस वक्त बिल्कुल सूखी पड़ी थी.. उसके पाट में बिखरे खुश्क पत्थरों के बीच-बीच जो थोड़ी-बहुत आर्द्रता कहीं-कहीं झलकती भी थी, वह उन सोतों की बदौलत थी जो निरंतर विरल होते जाने के बावजूद, कहीं-कहीं चट्टानों के बीच से रिस रहे थे।

लोगों की बातचीत इस बिंदु पर बार-बार आ टिकती थी कि जो सोते सदाबहार थे और पूरे वर्ष लोगों की जरूरतें पूरी करते थे, वे एक के बाद एक सूखते चले जा रहे हैं...यही नहीं, जो थोड़े-से स्रोत बचे भी हैं, उनकी धार इतनी मंद पड़ चुकी है कि भय होता है, लो ये भी अतीत हो चले और स्रोत ही क्यों। कुमाऊं के विशेष आकर्षण – वहां के जो विभिन्न जलाशय नैनीताल, नौकुचियाताल, भीमताल, सातताल आदि हमने इस यात्रा के दौरान देखे, उन सबमें भी जलस्तर पहले की तुलना में बेहद कम नजर आया जबकि नैकाना, नथुवाखान, हरतोला आदि तमाम स्थानीय ग्रामीण अंचलों के स्त्री-पुरुष, बच्चे-बूढ़े – सब-के-सब पूरे दिन पीने-पकाने, नहाने-धोने का पानी जुटाने की कसरत में मशगूल दिखे। अधिकांश भारत को जल की संपूर्ति करने वाले प्रमुख संसाधन ‘हिमालय क्षेत्र’ की खुद की समस्या जब इतनी गंभीर हो उठी है तो क्या आश्चर्य कि वहां से निकलने वाली किंतु बांधों, नहरों, सीवेज के कारण मात्र गंदे नालों जैसी रह गई। नदियों पर निर्भर निचले मैदानी इलाके पानी के वास्ते भागते-दौड़ते, कलपते-बिलखते-बिसूरते यहां-से-वहां हाथ पसारते फिर रहे हैं।

शायद मानसून आने पर सब कुछ ठीक हो जाएगा, मैंने उम्मीद करनी चाही और कई साल पहले की वह याद ताजी की, जब पर्वतीय अंचलों में बेतहाशा बारिश होने पर कुमाऊं के अन्य अनेक प्रवाहों की भांति रामगढ़ की इस नदी ने भी चारों ओर उमड़, सड़के तोड़, रास्ते रोक, प्रलय का दृश्य उपस्थित कर दिया था..। लेकिन जानकारों की आशंका बदस्तूर थी- यदाकदा बाढ़ के बावजूद अधिकांशतः साल-दर-साल अनावृष्टि या लगातार सूखा इस नियमित पैटर्न को गंभीरतापूर्वक समझने और प्रभावकारी विधि से निपटाने की जरूरत है। वे चिंतित हो कह रहे थे, ‘नारायणस्वामी आश्रम का जो जलस्रोत जीवित स्मृति में कभी नहीं थमा था, वह तक जब लुप्त हो गया तो प्रकट है कि ‘ईकोसिस्टम’ अर्थात पर्यावरणतंत्र में आमूल परिवर्तन हो चुका है।

रामगढ़ की सूख चुकी नदीरामगढ़ की सूख चुकी नदीजाहिर तौर पर इसका प्रमुख दोषी है वह अनियंत्रित और अंधाधुंध निर्माण जिसके कारण जल के तल में अनगिनत घर-गांव डूब चुके हैं और पहाड़ की छाती पर जगह-जगह भद्दे नासूर उभर आए हैं। इसमें शक नहीं कि विकास का मार्ग अवरुद्ध नहीं किया जा सकता लेकिन विकास के नाम पर विनाश का जो रास्ता खुल गया है और जो लगातार चौड़ा होता जा रहा है, उस पर लगाम लगानी होगी। जिसे ‘सस्टेनेबिल डेवलपमेंट’ या ‘संयमित-मर्यादित-सम्यक-संतुलित विकास’ कहा जा सके, उसे अंधाधुंध-विनाशकारी विध्वंस से जब तक सख्ती से अलगाया नहीं जाएगा, तब तक प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट और बर्बादी जारी रहेगी। हाथ से वक्त तेजी से निकला जा रहा है। जिस देश की निश्चिंतता ने एक समय उसे यह बोध दिया था कि

‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।।,’


उसी में यह कातर पुकार गूंजने लगी है कि
‘हम पर ही तो टिकी है आज चिड़ियों की आस, दो दाने की आरजू और चोंच भर प्यास।’
लेकिन जब खुद हमारी अपनी ‘चुल्लू-भर पानी’ की जरूरत पूरी नहीं हो पा रही तो भला हम उनकी ‘चोंच भर प्यास’ बुझाने में तत्पर होंगे या उसे भी अपनी आवश्यकता का हिस्सा बना लेंगे? यह सवाल शिद्दत से मुंह बाए हमारे सामने खड़ा हो गया है। उससे हम आंख नहीं चुरा सकते। कई साल पहले लिखित अपनी एक कविता ‘पैर और पहिए’ याद आती हैः

पैर और पहिए


पहाड़ पर पेड़ थे,
पगडंडियों पर पत्ते।

इतनी तमाम सूखी,
झरी-मरी पत्तियों के बीच
भला
वह एक पत्ती
हिल-डुल रही कैसे?
चकित हो
मैं उसके निकट पहुंचा
और पाया कि वह तो स्थिर है।

मैं हंस पड़ा-
मरु को जल समझने का भ्रम
हुआ तो है अनेक बार,
ज्ञात न था-
छली जाएंगी आंखे
इस पवित्र देवभूमि में।

दो ही कदम आगे बढ़ा था मैं
कनखियों से पीछे ताकता
ओहो, वह पत्ती फिर से चलने लगी थी..

कितनी धोखेबाज, कैसी नटखट है यह?
पलट कर मैं
उप पर जूता रख
चुरमूर करने को ही था कि
सहसा जाना-
पत्ती वह, पत्ती नहीं थी।

वह था कीड़ा एक।
पत्तियों जैसा होकर
और उन्हीं में छिपकर,
शायद उन्हीं को खाकर
वह जीने के यत्न में लगा था।..

‘बहुत खूब, लगे रहो!
जियो, लंबी उम्र पाओ।
कहकर
मैं आगे पगडंडी पर बढ़ा।’

लेकिन कुछ ही दूर चलकर
जब पहुंचा मैं डामर की पक्की सड़क पर,
दिखीं मुझे नन्हीं-नन्हीं खून की थिगलियां
जो बताती थीं –
कि वह पैरों से बच भी जाए एक बार..
पहियों से अवश्य कुचला जाएगा!

पहाड़ों को क्या पता था कि
उन पर कभी मोटरें सरपट दौड़ेंगीः
पीछे
शोर-धुआं-खून के थक्के
छोड़ती हुई।


वरिष्ठ साहित्यकार। विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ठ लेखन। अकेले कंठ की पुकार (कविता संग्रह), सफरी झोले में (यात्रा वृत्त), दूर वन में (संस्मरण), छुट्टियां (उपन्यास) एवं छाता और चारपाई (कहानी संग्रह) प्रतिनिधि पुस्तकें।) 166 वैशाली, पीतमपुरा, दिल्ली -110034 फोन 9811225605

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading