पहले महाकाली परियोजना को समझ लीजिये

10 Aug 2015
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हिमालयी नदियों को बाँधकर पानी जमा करने के ये प्रयास न केवल पहाड़ के लोगों को विस्थापित करेंगे और उन्हें भू-स्खलनों - भूकम्पों की विभीषिका में झोंकगे, वरन मैदानी क्षेत्र में कमाण्ड एरिया से लगे समाजों के लिये भी हमेशा खतरा बने रहेंगे। बीस सितम्बर 1996 को नेपाली संसद द्वारा भारत-नेपाल की सीमा विभाजक महाकाली (काली नदी) पर दीर्घकाल से प्रस्तावित बाँध परियोजना को अन्ततः स्वीकृति दे दी गई है और इस स्वीकृति के साथ ही परियोजना के क्रियान्वयन की प्रक्रिया भी आरम्भ हो गई है। विभिन्न एजेन्सियों को बाँध क्षेत्र के अध्ययन आदि का जिम्मा सौंपा जा चुका है। टिहरी की समस्या का अभी समाधान नहीं हो पाया कि उत्तराखंड के लिये एक नई चुनौती सामने आ रही है। समय रहते इसे गम्भीरता से समझा और परखा जाना आवश्यक होगा।

हिमालय सम्बन्धी जानकारियों की समझ न होने से बनी गलत नीतियों के परिणामों को हिमालयवासी लम्बे समय से झेलते आ रहे हैं। सरकारी नामसझी की यह प्रक्रिया लगातार जारी है। इसी नासमझी का एक और पुख्ता उदाहरण महाकाली (काली नदी) और सरयू के संगम स्थल पर बनाया जाने वाला विशाल पंचेश्वर बाँध भी है। बताया जा रहा है कि यह बाँध और यह परियोजना एशिया की अब तक की विशालतम परियोजना है। छःहजार मेगावाट विद्युत उत्पादन क्षमता वाली इस परियोजना पंचेश्वर के अतिरिक्त उससे 60 किलोमीटर नीचे एक अन्य बाँध बनाया जायेगा। इस तरह महाकाली पर दो बाँध प्रस्तावित हैं। अपने स्वरूप और लागत में यह परियोजना जितनी विशाल और आश्चर्य में डालने वाली है, उससे कहीं ज्यादा चौंकाने वाले इससे जुड़े तथ्य हैं। जिन्हें इस देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने कभी भी इससे प्रभावित होने वाले समाज के सामने रखना उचित नहीं समझा। सरकार द्वारा बनाई गई इस परियोजना के विभिन्न आँकड़े बताते हैं कि प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध की ऊँचाई 288 से 290 मीटर होगी। परियोजना का कुल जलागम क्षेत्र बारह हजार एक सौ वर्ग किलोमीटर में फैला होगा।

परियोजना प्रस्ताव के अनुसार पंचेश्वर बाँध का डुब क्षेत्र 120 वर्ग किलोमीटर में फैला होगा। आँकड़ों में यह संख्या यद्यपि बहुत छोटी दिख रही है, लेकिन पर्वतीय भूगोल में इसके फैलाव का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में जहाँ एक ओर काली नदी घाटी में जौलजीवी के पास बुलआकोट तक का क्षेत्र डूब जायेगा। वहीं गोरी नदी घाटी से लगे गाँव डूब जायेंगे। कुमाऊँ की सर्वाधिक उपजाऊ नदी घाटी सरयू में सेराघाट के समीप पिल्खी गाँव और रामगंगा घाटी में भी लगभग 15 किलोमीटर तक का क्षेत्र डूबेगा। इस तरह कुमाऊँ का सर्वाधिक उपजाऊ तथा आबादी वाला हिस्सा जलमग्न होगा। सरकार का कहना है कि इतने बड़े भूभाग में जल भराव होने पर केवल 103 गाँव डूबेंगे, जिसमें 80-82 गाँव भारत के होंगे और 30-33 गाँव नेपाल के। सरकार की यह सर्वे सरासर झूठ नजर आती है। कुमाऊँ में बहने वाली इन बड़ी-बड़ी नदियों, काली, गोरी, सरयू, रामगंगा, पनार के किनारे यहाँ की बड़ी आबादी रहती है। ऐसा प्रतीत होता है कि परियोजना में ग्राम सभाओं को गाँव दर्शाया गया है या फिर केवल राजस्व गाँवों का ही आँकलन किया गया है। यही विरोधाभास प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या में भी है। यह आश्चर्यजनक है कि इतने बड़े हिस्से में पानी भरने के बाद भी केवल 11,361 लोग ही प्रभावित होंगे।

प्रस्तावित परियोजना के बन जाने पर जल भराव की स्थिति में घाट, सेराघाट, झूलाघाट तथा जौलजीवी के पुल डूब जायेंगे। पिथौड़ागढ़ जनपद को कुमाऊँ के या प्रदेश-देश के विभिन्न हिस्सों से जोड़ने वाले ये मार्ग निश्चित रूप से बन्द होंगे। यातायात की इस समस्या से निपटने के लिए परियोजना में जिन सड़क मार्गों का प्रस्ताव किया गया है, वह भी चौंकाने वाला है। इसके अनुसार टनकपुर से पिथौरागढ़ जााने वाले यात्री या वाहन को लोहाघाट के बाद सिमलखेत, त्यूनरा और सेराघाट के ऊपर से होते हुए गंगोलीहाट पहुँचना होगा फिर गंगोलीहाट से खतीगाँव, सिनचौरा होते हुए पिथौरागढ़ पहुँचा जा सकेगा। एक अनुमान के अनुसार पिथौरागढ़ पहुँचने के लिए छः घंटा अतिरिक्त यात्रा करनी होगी। इस तरह पहले से दूरस्थ-दुर्गम माना जाने वाला सीमान्त जनपद पिथौड़ागढ़ एक द्वीप सा बना रह जायेगा। यहाँ पर यह उल्लेख करना उचित होगा कि एक ओर इस जनपद और यहाँ के निवासियों के आर्थिक विकास के लिए सरकार द्वारा वादे पर वादे किये जा रहे हैं (कुछ ही माह पूर्व प्रदेश के राज्यपाल द्वारा टनकपुर जौलजीवी मार्गके शीघ्र निर्माण करने हेतु राशि अवमुक्त करने की घोषणा करते हुए इस क्षेत्र के विकास में एक नई क्रान्ति लाने और भारत नेपाल के बीच इससे व्यापारिक गतिविधियों में तेजी अपनाने की बात कही गई थी।), वहीं दूसरी ओर भारत सरकार ने इस परियोजना को स्वीकृति देकर इन तमाम सम्भावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।

6 हजार मेगावाट विद्युत उत्पादन की क्षमता वाले पंचेश्वर बाँध की कुल निर्माण लागत लगभग 18 से 20 हजार करोड़ रूपया आँकी जा रही है। जो निश्चित ही पूर्ण होने तक कई गुना और बढ़ेगी। इस तरह की परियोजनाओं से दशकों से लोगों के सामने जो भ्रमजाल खड़े किये हैं। उन्हें आज गम्भीरता से समझने की जरूरत हैं। ऊँचे बाँधों का विरोध जल विद्युत उत्पादन, सिंचाई या पेयजल योजना का विरोध नहीं है। बल्कि यह विरोध जल सम्पदा के ज्यादा स्थाई उपयोग हेतु नीति निर्माताओं का ध्यान आकृष्ट करने की एक रचनात्मक कोशिश है और इन अवैज्ञानिक परियोजनाओं के दुष्परिणामों से चेताने की भी, जो व्यवस्था अनेक योजनाओं के बावजूद शहरों में पानी नहीं दे पा रही हो और 15 हजार में से आधे से ज्यादा गाँव जहाँ पेयजल का संकट भुगत रहे हों, वहाँ इस समस्या के समाधान के बजाय टिहरी, विष्णुप्रयाग या पंचेश्वर जैसे भीमकाय बाँधों का निर्माण सरकारी सनक को ही सामने रखता है।

बिजली उत्पादन, सिंचाई और मैदानी क्षेत्रों में पेयजल उपलब्ध कराने के लिये बनाया जाने वाला यह बाँध सिर्फ एक इंजीनियरिंग संरचना ही नहीं है, बल्कि वह नदी घाटी के पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय तंत्र को पूर्णतः बदल डालने वाली कृत्रिम कृति भी है। बहते हुए जल की जगह 120 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जलाशय का ठहरा पानी होगा। अतः जीव-जन्तुओं से भू-जल, और भू-भौतिकी परिस्थितियों पर व्यापक प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। जलाशय क्षेत्र के खेतों, जंगलों और चारागाहों के डूब जाने से प्राकृतिक संसाधनों की भारी हानि होगी। यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि जैव विविधता में इस परियोजना से सबसे ज्यादा खतरा च्यूरा प्रजाति के वृक्षों को होगा। सम्पूर्ण विश्व में एकमात्र इसी भूगोल में पाया जाने वाला च्यूरा वृक्ष निश्चित ही विलुप्त होगा और प्रभावित करेगा। उस क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक आधार को, जो वर्तमान में स्थानीय आर्थिकी का मजबूत आधार है। यह सही है कि इस परियोजना से देश के एक हिस्से को पीने का पानी मिलेगा, सिंचाई मिलेगी, बिजली मिलेगी, लेकिन किसकी कीमत पर ? काली-सरयू घाटी के हजारों निवासियों को विवश होकर अपना घर-बार सदा के लिए छोड़ ऐसे स्थानों में रहने के लिए मजबूर किया जायेगा, जो उनके अपने अनुरूप न होंगे, टिहरी के विस्थापना का उदाहरण लीजिये। सर्वाधिक अनुपयुक्त जमीनों का आवंटित किया गया है। रायवाला, डोइवाला में बड़े भू स्वामियों के अवैध कब्जे में पड़ी सरकारी जमीनों के पट्टे विस्थापितों को दिये गये, जिनका कब्जा अपनी असहायता के कारण वे आज तक नहीं ले सके हैं।

सम्पूर्ण हिमालय लम्बे से भूकम्पीय झटके झेल रहा है। यहाँ असंख्य भ्रंश सक्रिय हैं। प्रस्तावित पंचेश्वर बाँध उत्तर अल्मोड़ा भ्रंश के समीप है। इस क्षेत्र में आये भूकम्पों की एक झलक से इसकी संवेदनशीलता और नाजुकता का अनुमान लगाया जा सकता है-

25 दिसम्बर 1831

5 रिक्टर

लोहाघाट

2 जुलाई 1832

6 रिक्टर

लोहाघाट

30 मई 1833

6 रिक्टर

लोहाघाट

14 मई 1835

7 रिक्टर

लोहाघाट

26 अक्टूबर 1906

8 रिक्टर

बजांग (नेपाल)

28 अक्टूबर 1916

7.5 रिक्टर

धारचूला बजांग

5 मार्च 1935

6 रिक्टर

धारचूला बजांग

28 दिसंबर 1958

7.5 रिक्टर

धारचूला बजांग

24 दिसंबर 1961

5.7 रिक्टर

धारचूला बजांग

6 अक्टूबर 1964

5.3 रिक्टर

धारचूला बजांग

27 जून 1966

6 रिक्टर

धारचूला बजांग

27  जुलाई 1966

6.3 रिक्टर

धारचूला बजांग

21 मई 1979

6.5 रिक्टर

धारचूला बजांग

 



इसमें सन्देह नहीं कि इंजीनियर बाँधों को प्राकृतिक विपदाओं से सुरक्षित रखने के सभी उपाय करते हैं, लेकिन इतने नाजुक संवेदनशील क्षेत्र में अकस्मात घटने वाली प्राकृतिक घटनाओं के फलस्वरूप फटकर विस्थापित होने वाली भूमि पर टिके बाँधों को बचाना कठिन कार्य है और फिर जलाशयजनित भूकम्पीयता एक और खतरा है। यह मान भी लिया जाय कि भूकम्प से बाँध नहीं टूटेगा, लेकिन उसका क्या होगा, जब इतने विशाल जलाश्य के कारण आये भूकम्प से गाँव के गाँव नष्ट होंगे ?

माना कि बाँधों को भूकम्पीय आपदा न झेलनी पड़े, तो भी जलाशयों में तेजी से रेत-मिट्टी भरने से उनकी उपयोगिता अवधि और धारण क्षमता तो अवश्य कम होगी। यहाँ बहने वाले छोटे गधेरे, नाले और नदियाँ औसतन 17 मि. मि. प्रतिवर्ष की गति से इस क्षेत्र की भूमि को काट रहे हैं, टिहरी का उदाहरण लें। वहाँ गाद संचयन की गति 13.2 हे.मी./100 वर्ग किलोमीटर प्रतिवर्ष आँकी गई है, जबकि वास्तविक संचयन 2272 हें.मी./100 वर्ग किमी. प्रति वर्ष है। टिहरी बाँध की प्रत्याक्षित आयु 100 वर्ष आँकी गई है, पर वर्तमान स्थितियों में इसके 40 वर्ष से अधिक चल पाने की सम्भावना नहीं लगती। पंचेश्वर में बनने वाले बाँध की स्थिति इससे भिन्न न होगी, इतने विशालकाय बाँधों के बनने से एक अन्य समस्या उत्पन्न होगी। जलाशयों से छोड़े जाने वाले तीव्र प्रवाह के मिट्टी रेत सहित जल से निकटवर्ती निचली घाटियों में तीव्र अपर्दन और मृदा कटान होगा। परिणामस्वरूप मैदानी क्षेत्रों में नदियाँ, नहरें, इस रेत-मिट्टी से भरने लगेंगी। नदियों-नहरों की धारण क्षमता में इससे आने वाली कमी मैदानी क्षेत्रों में बार-बार की विभीषिका को जन्म देगी। अमरीका में कोलरेडो नदी में बने हूवर बाँध और मिश्र की नील नदी पर बने आस्वान बाँध के कारण निकटवर्ती क्षेत्रों में बार-बार आने वाली बाढ़ें इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

हिमालयी नदियों को बाँधकर पानी जमा करने के ये प्रयास न केवल पहाड़ के लोगों को विस्थापित करेंगे और उन्हें भू-स्खलनों - भूकम्पों की विभीषिका में झोंकगे, वरन मैदानी क्षेत्र में कमाण्ड एरिया से लगे समाजों के लिये भी हमेशा खतरा बने रहेंगे।

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