पिघलता हिंदू कुश हिमालय, 8 देशों में जल संकट

23 Apr 2020
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पिघलता हिंदू कुश हिमालय, 8 देशों में जल संकट। फोटो - विशाल सिंह
पिघलता हिंदू कुश हिमालय, 8 देशों में जल संकट। फोटो - विशाल सिंह

हिमालय हमेशा से ही नदियों में जल का अहम स्रोत रहे हैं। सैंकड़ों नदियों का उद्गम हिमालय से ही होता है। ये नदियां देश के करोड़ों लोगों की पानी से जुड़ी जरूरतों को पूरा करती हैं, लेकिन करीब 3500 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हिंदू कुश हिमालय तेजी से पिघल रहा है। जिससे 8 देशों में बड़े पैमाने पर जल संकट गहरा सकता है। इसमें भारत भी शामिल है। हाल ही में हुए एक शोध में इस बात का खुलासा किया गया है। इसकी पूरी जानकारी के लिए इंडिया वाटर पोर्टल (हिंदी) के संपादक केसर सिंह और हिमांशु भट्ट ने CEDAR के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर विशाल सिंह ने बातचीत की। पेश है बातचीत के कुछ अंश - 

हिंदू कुश हिमालय क्या है और कहां तक फैला हुआ है ?

हिंदू कुश हिमालय, हिमालय की एक बेल्ट है, जिसमें इंडियन हिमालयन रीजन भी आता है। ये बांगलादेश से लेकर अफगानिस्तान तक 8 देशों (अफगानिस्तान, बांगलादेश, भुटान, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान) में फैला हुआ है।

हिंदू कुश में क्या शोध किया गया और इसमें क्या सामने आया ?

विश्व स्तर पर जल संकट गहराता जा रहा है। हमारे पास शिमला और कैप्टाउन के मामले थे, जहां भीषण जल संकट गहराया था। यदि देखें तो पोलर कैप्स के बाद सबसे ज्यादा ‘आइस मास’ इंडियन हिमालयन रीजन में ही है और इन्हें ‘वाॅटर टावर ऑफ एशिया’ भी कहा जाता है। 
अर्बन वाटर सिस्टम को ध्यान में रखते हुए 8 देशों के 13 शहरों में शोध किया गया था। जिससे पता चला कि शहरों में मांग और आपूर्ति का गैप बढ़ता जा रहा है। पानी की सप्लाई एक समान नहीं है। शहरी इलाकों में गरीब को पानी कम सप्लाई किया जाता है, जबकि ऊंचे तबके के व्यक्ति को पानी के लिए अपेक्षाकृत कम संघर्ष करना पड़ता है। शहरीकरण भी बहुत तेजी से हो रहा है। शोध में सामने आया कि 2050 तक लगभग 50 प्रतिशत आबादी हिंदू कुश हिमालय के शहरों में रहने लगेगी।

हिमालयन शहरों में ज्यादा आबादी के बसने से समस्या किस प्रकार होगी ?

हिमालयन रीजन का अपना प्राकृतिक परिवेश होता है। सभी निमार्ण कार्य इस परिवेश को ही ध्यान में रखकर करने चाहिए और प्रकृति का संरक्षण यहां बेहद जरूरी है। लेकिन हमारे हिमालयन शहर काफी छोटे हैं और क्षमता से अधिक आबादी का बोझ उठा रहे हैं। आबादी के बढ़ने से निर्माण कार्य तेजी से होंगे। प्रकृति के प्राकृतिक परिवेश में खलल पड़ेगी। निर्माण के कारण स्प्रिंग्स सूखने लगेंगे। जिससे भीषण जल संकट खड़ा होगा और बढ़ती आबादी की पानी की मांग को पूरा करना चुनौती बन जाएगा। ऐसे में हमें जलवायु परिवर्तन और शहरीकारण, दोनों को ही ध्यान में रखते हुए खुद को भविष्य के लिए तैयार करना होगा। जिसमें ये देखना होगा कि कैसे हम इन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। साथ ही इसके लिए क्या योजनाएं बनाई जाएं।

हिमालयन रीजन के लिए योजनाएं बनाते वक्त क्या ध्यान में रखना होगा ?

हम मसूरी और नैनीताल में इसके विपरीत देख रहे हैं। यहां समस्या को शुरुआत से ठीक से जाने बिना ही महंगे इंजीनियरिंग समाधान दिए जा रहे हैं, जो हिमालय की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए ठीक नहीं हैं। योजनाएं सतत विकास के माॅडल पर आधारित होनी चाहिए, जिसमें प्रकृति आधारित समाधान होना बेहद जरूरी है।

एक नया शब्द चलन में है, अर्बन हिमालय। आप अर्बन हिमालय को किस तरह देख रहे हैं। यहां ऐसे क्या बदलाव हो रहे हैं, जिससे लग रहा है कि जल संकट बढ़ रहा है ?

हिमालयी इलाकों में पानी का मुख्य स्रोत स्प्रिंग्स होते हैं, लेकिन शहरीकरण के कारण भवनों का निर्माण होगा, इससे ये स्रोत खत्म होते चले जाएंगे। उदाहरण के तौर पर यदि उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले की बात करें तो, अल्मोड़ा में पहले काफी संख्या में नौले-धारे थे। सभी की पानी की जरूरत इन्हीं से पूरी होती थी, लेकिन अधिकांश नौले-धारे सूख गए हैं। अल्मोड़ा में काफी हद तक पानी कोसी नदी से लिया जा रहा है। कोसी नदी का पानी भी लगभग समाप्त होने की कगार पर पहुंच गया है। इसलिए अब स्याही देवी से पानी लिया जा रहा है। यही हाल हिमालय के अन्य शहरों का भी है। नैनीताल में एक समय पर ‘पर्दादारा स्प्रिंग’ से पूरे नैनीताल को पानी मिलता था, लेकिन आज ये स्थिति हो गई है, कि नैनीताल में 18 एमएलडी पानी नैनी झील से निकाला जाता है। जिस कारण झील का जल स्तर कम होता जा रहा है। 2017 में झील का जल 18 फीट तक नीचे चला गया था। झील में इतना कम पानी पहली बार हुआ था।

नैनीताल में झील का जल स्तर वर्ष 2000 के बाद दस बार ‘जीरो’ से नीचे जा चुका है, जबकि नैनीताल की खोज होने के बाद (1841 से 2000 के बीच) ऐसी घटनाएं केवल दो बार ही हुई थीं। ये खतरे की घंटी है। हमे खुद सोचना होगा कि हम प्राकृति संसाधनों का उपयोग कैसे कर रहे हैं। क्योंकि यदि प्राकृतिक स्रोत सूख गए तो हो सकता है आने वाले वक्त में मूसरी, नैनीताल, दार्जिलिंग, शिमला, शिलांग आदि में सभी पानी का संकट और गहराएगा। ऐसे में शहर से जल स्रोत दूर होते जा रहे हैं, क्योंकि जनसंख्या बढ़ने के साथ साथ पानी की मांग भी बढ़ेगी और पानी के स्रोत की खोज में लोग दूर दूर जाने लगेंगे।      

रिसर्च में खराब अर्बन प्लांनिग का जिक्र किया गया है। खराब अर्बन प्लानिंग से जल संकट की समस्या कैसे बढ़ेगी ?

दरअसल, अर्बन प्लानिंग हुई ही नही है। जो भी कार्य अभी तक हुआ है, वो अनियोजित है, लेकिन इसे रिवर्स करना मुश्किल है, क्योंकि पानी के रिचार्ज जोन पर ही घर बने हैं, लोग रहे हैं। इतनी बड़ी आबादी को हटाना संभव नहीं है। शहरीकरण से पानी का निजीकरण भी बढ़ा है। जैसा कि मसूरी में देखा जाता है। यहां मसूरी के पानी को टैंकरों में भरकर मसूरी के लोगों को बेच दिया जाता है। दूसरा, पानी का डायवर्जन पर्यटक आने पर होटलों की तरफ कर दिया जाता है। एक आम आदमी टैंकर के उस पानी को नहीं खरीद सकता, लेकिन होटल वाला आसानी से खरीद सकता है, लेकिन हमने इस पर गौर नहीं किया। यदि आने वाले समय में हमने हिमालय के भौगोलिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए प्लान नहीं बनाया तो समस्या और बढ़ेगी। 

मसूरी को कितने स्प्रिंग्स से पानी मिलता है ? शहरीकरण किस प्रकार मसूरी के लिए दिक्कत बन रहा है और अब लोगों को पानी कहां से मिल रहा है ?

मसूरी के पास पानी का एकमात्र सोर्स स्प्रिंग्स हैं। यहां  करीब 22 स्प्रिंग्स से पानी की सप्लाई की जाती है, लेकिन बढ़ते शहरीकरण के कारण स्प्रिंग्स ‘लो-डिस्चार्ज’ दिखा रहे हैं। वहीं, काफी संख्या में मूसरी में पर्यटक आते हैं, जो कि यहां कि कैरिंग कपेसिटी से ज्यादा है। इस कारण मसूरी में पानी की डिमांड और सप्लाई में 50 प्रतिशत गैप है। 

शोध में बताया गया कि हिंदू कुश हिमायल सूख रहा है। हिंदू कुश के सूखने का क्या कारण है और इसका असर कितने बड़े पैमाने पर पड़ सकता है ? 

हिमालयी नदियों का जल पहाड़ों की अपेक्षा मैदानी इलाकों के लिए ज्यादा सहायक और फायदेमंद साबित होता है। क्योंकि पहाड़ों गांव दूर दूर बसे होते है और पानी को ऊपर तक ले जाने के हमारे पास ज्यादा संसाधन भी नहीं हैं। किंतु जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। ग्लेशियर का पानी नदियों में जाता है। स्प्रिंग्स भी नदियों के लिए पानी का अहम स्रोत हैं। इंडियन हिमालयन रीजन में करीब 3 लाख स्प्रिंग्स हैं, जिनमें से अधिकांश सूख चूके हैं। इससे नदियों में भी जल कम होगा। इसका प्रभाव केवल हिमालयी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि बांगलादेश तक पड़ेगा।

हिमालय के सूखने से पीने के पानी पर संकट की बात की जा रही है, लेकिन जल संकट से खेती से अन्य कार्यो पर क्या असर पड़ेगा ?

खेती जलवायु पर निर्भर करती है, इसलिए जलवाुय परिवर्तन के कारण पूरे देश में खेती पर प्रभाव पड़ रहा है। हिमालय का क्षेत्र ‘रेन-फेड’ क्षेत्र है, यहां पहले से ही जमीन खेती के लिए अच्छी नहीं रही है। ऐसे में समस्या पहले से ही थी, जो अब और गहराएगी, क्योंकि बारिश का पैटर्न बदल रहा है। कभी अतिवृष्टि हो रही है, तो कभी लंबे समय तक सूखा पड़ रहा है। यहां हमें खेती को जलवायु के अनुरूप ही बदलना होगा। इसके लिए कृषि विशेषज्ञों को लाना पड़ेगा। 

नदियों पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?

ग्लेशियर पिछलने से पानी नदियों में पर केवल 30 प्रतिशत ही प्रभाव डालता है। बाकी पानी बारिश और स्प्रिंग्स से आता है। यदि स्प्रिंग्स सूख गए तो नदियां सूखने लगेंगी। नदियों का बहाव काफी कम हो जाएगा। हिमालय के साथ ही इसका असर मैदानी इलाकों पर भी पड़ेगा और जल संकट गहराएगा। 

हिमायल के सूखने से वृहद स्तर पर गहराते जल संकट से बचने का समाधान क्या है ? 

पहला तो हमें जलवायु परिवर्तन को देखते हुए जलवायु के अनुकूल जल प्रबंधन पद्धतियां बनानी होंगी। इसमें ऐसे समाधान लाने होंगे जो जलावायु को ध्यान में रखते हुए बनाए जाएं। हर शहर की भौगोलिक स्थिति अलग है, इसलिए योजना होमोजीनियस नहीं बल्कि हर शहर के लिए अलग योजना बनाई जाए। हिमालयन रीजन में हर जगह जल संकट है। जल संकट को कम करने के लिए व्यावहारिक परिवर्तन लाना होगा। साथ ही प्रकृति आधारित समाधानों जैसे वर्षा जल संग्रहण और स्प्रिंग्स के कैचमेंट क्षेत्रों का संरक्षण जैसे कार्यों को करने की जरूरत है। साथ ही स्प्रिंग्स के रिचार्ज क्षेत्रों को ‘नो-गो-जोन’ बना देना चाहिए, ताकि वहां न कोई जा सके और न ही किसी प्रकार का निर्माण हो। शहर के लोग खुद के स्तर पर वर्षा जल संग्रहण करें। 

रिसर्च देखने के लिये क्लिक करे.


लेखक - हिमांशु भट्ट (8057170025)


 

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