पिथौरागढ़ के नौले-धारे, इतिहास बनने की राह पर

25 Sep 2016
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मैदान में रहने वाले लोगों के लिये पहाड़ों में बने नौले-धारे हमेशा से ही इस प्रकार के स्थान रहे हैं जिसको ये लोग बड़े आश्चर्यजनक तरीके से निहारते हैं। आखिर नौले-धारे जो कभी पहाड़ों की जान और शान हुआ करते थे, आज अपने अन्तिम दिनों की साँस ले रहे हैं। नौले-धारों की इस दुर्दशा के लिये जितनी दोषी सरकारें रही हैं वही इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जवाबदेही भी इस दुर्दशा के लिये कम नहीं है।

मैदान की बावड़ियों में जिस प्रकार से नीचे पानी और ऊपर सीढ़ियों का निर्माण होता था ठीक उसी प्रकार से चंद शासनकाल में बावड़ी स्थापत्यकला का शिल्पकारों ने पहाड़ों में नौलों का निर्माण किया। जो आज हम नौलों का स्वरूप देखते हैं वो आज से 300 साल पहले चंद शासनकाल में बने थे। चंद शासनकाल में पूरे कुमाऊँ क्षेत्र में इस प्रकार से नौलों का निर्माण हुआ था।

एक दौर था जब अकेले अल्मोड़ा नगर में ही 300 से अधिक नौले-धारे हुआ करते थे। पिथौरागढ़ नगर में भी दो दर्जन से अधिक नौले-धारे हुआ करते थे जिन नौले-धारों से लोगों को पानी मिलता था। समय बदलने के साथ ही इन नौलों के ऊपर छत बननी शुरू हुई। जिससे की बरसात और अन्य समय नौले के पानी को शुद्ध रखा जा सके।

पिथौरागढ़ जिला मुख्यालय को सोरघाटी भी कहा है। लगभग 21 वर्ग किलोमीटर में फैले इस शहर में भूगर्वविदों के अनुसार आज से हजारों साल पहले एक सरोवर हुआ करता था। इसी सरोवर के ऊपर कालान्तर में सोरघाटी के शहर की बसासत हुई जिसने आज के पिथौरागढ़ शहर का रूप लिया।

आज से 300 साल पहले इस शहर में बसासतों के बसने की बात सामने आती है। आज सोरघाटी में लगभग दर्जन भर नौले-धारे अपने अस्तित्व को बचाने की छटपटाहट के संक्रमण से जूझते हुए अपने अन्तिम दिनों के इन्तजार में दूषित जल देने को मजबूर है। इन नौले-धारों की ये हालत प्रकृतिक कारणों से नहीं है वरन आज के हालातों के लिये मानव जनित और सरकारों की महत्त्वहीनता का ही परिणाम है।

पिथौरागढ़ में नौलाएक दौर में नौले-धारे, चाल, खाल, सिमार वाली जगह बहुआयत हुआ करती थी। अनादिकाल से पानी को फिल्टर करने के साथ ही पेयजल का एकमात्र साधन भी हमारे ये नौले-धारे ही होते थे। समय बदलने के साथ नौलों के स्वरूप में भी बदलाव आने लगा। बदलते वक्त के साथ ही लोग पाथर (पहाड़ों में पाया जाने वाला चौड़ा पत्थर) और पटालों से नौलों की सुरक्षा करने लगे। पानी को केन्द्र में रखकर उसके चारों ओर दिवार, टाइल लगाकर नौलों की आधुनिक सुरक्षा करने का प्रचलन शुरू हुआ।

मानवीय दखल के कारण 50 के दशक से शुरू हुआ टैप्ड वाटर कल्चर आज हमारे इन नौले-धारों को इस स्थिति में पहुँचाने की प्रक्रिया में पूरी तरह से जिम्मेदार रहे हैं। इसी दशक से लोगों को बेहतर जल मुहैया कराने के लिये घर-घर नल पहुँचाने का दौर भी शुरू हुआ। यही वो दौर था जब नौले-धारे टैप होकर नलों के माध्यम से लोगों को उनके घर-आँगन मे पानी पहुँचाने की शुरुआत में शरीक हो चुके थे। धीरे-धीरे लोगों का नौले-धारे जाना बन्द होने लगा। नौले-धारे नहीं जाने के कारण लोगों ने इन नौले-धारों की देख-रेख भी बन्द कर दी। इंसान विकास की दौड़ में अपने जन्म के साथ जुड़े इन नौले-धारों को भूलने लगा।

अवैज्ञानिक तरीके से देखने का नजरिया और बेहिसाब बने मकानों ने रही सही कसर भी समय गुजरने के साथ पूरी कर दी। नियमों को ताक में रखकर मकान बनाने के लिये रास्तों में कब्जा कर नाली बनाना, फिर इन नालियों में लोगों का सीवर डालना। समय बीतता गया, नौले-धारे अपने प्राकृतिक रूप खोकर, अपनी प्राकृतिक शुद्धता को छोड़ते हुए अमोनिया नाइट्रेट, मीथेन, कार्बन, डीजल, डिटरजेन्ट सरीखे जहरीले घोलों के मिश्रण को उगलने लगे। जिससे लोगों को बैक्टीरिया, इंफेक्शन, पेट सम्बन्धी बीमारी, उल्टी दस्त और कैंसर तक की बीमारी होने लगी।

पिथौरागढ़ नगर पालिका क्षेत्र में 11 नौले-धारों में से 3 नौले-धारों पर जल संस्थान को इन नौले-धारों के पानी को नहीं पीने के लिये चेतावनी के बोर्ड तक लगाने पड़े है।

कालान्तर में पिथौरागढ़ नगर में कितने नौले-धारे रहे होंगे इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अधिकांश क्षेत्रों के नाम इन्हीं नौले-धारों के नाम पर पड़े हैं। नगर का चिमिस्यानौला, पदियाधारा, जोगियाधारा, कोत का नौला, रई धारा, महादेव धारा इसके उदाहरण हैं।

पहाड़ों के पानी की अनदेखीइन क्षेत्रों में बने अनियंत्रित मकानों ने इन नौले-धारों के मूल स्रोत को ही डिस्टर्ब कर दिया। जिसके चलते ये नौले-धारे सूखने की कगार पर पहुँच गए। कभी ब्रिटिश काल में पूरी फौज और जानवरों को पानी की जरूरत को पूरा करने वाला कोत का नौला भी इतिहास बन गया है।

पहाड़ों में जब नलों से पानी टैप कर लोगों के घरों को ले जाने की शुरुआत हुई तो उस समय नौलों में पानी बहुत मात्रा में हुआ करता था। लोगों का ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि भविष्य में इस प्रकार के दिन भी देखने पड़ सकते हैं कि नौले-धारे अपने अस्तित्व को लेकर ही संर्घष करते नजर आएँगे।

दरअसल आज के दौर में जिस हालात में नौले-धारे पहुँच गए हैं उसमें सबसे ज्यादा रोल मानवी दखल का ही रहा है, लेकिन पूरा दोष इन इलाकों में रहने वाले लोगों को ही देकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बचा जा सकता। सरकारें भी इनके हालातों के लिये बहुत हद तक जिम्मेदार

नौले-धारों का संरक्षण करना, इनको पुनर्जीवित करना सरकारों की प्राथमिकताओं में कभी रहा ही नहीं। क्या सरकारें क्रान्तिकारी कदम उठाकर इन नौले-धारों पर हो रहे अवैध अतिक्रमण, नालियों के रिसाव, सीवर के रिसाव के बाचाव पर सख्ती से अमल करने का साहस कर सकती है? क्या सरकारों की प्राथमिकता इन नौलों-धारों का ट्रीटमेंट कर उनको जन उपयोगी बनाना हो सकता है?

दरअसल ऐसा इस प्रदेश में हुआ ही नहीं। ये संवेदनशील विषय सरकारों की प्राथमिकता में कभी रहा ही नहीं। जिन स्थानों में नौले-धारे हैं उन स्थानों में इस प्रकार की खामियों को दूर कर इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को इन नौले-धारों से पानी टैप कर दिया जाये।

सरकारों की प्राथमिकता बड़े बजट की डीपीआर बनाकर नदियों से पानी टैप कर लोगों को पहुँचाने की रही है। जिससे की उनसे जुड़े लोगों के आर्थिक हित भी सध सके। अगर गम्भीरता के साथ हमारी सरकारें अपने पुरातन शैली के इन नौले-धारों के संरक्षित करने की मंशा रखे, इनके अस्तित्व को बचाए रखने की ठोस नीति बनाए तो ये सम्भव है। पहाड़ों के नौले-धारों को बचाया जा सकेगा।

लेकिन सरकारें क्या इस दिशा में संवेदनशील नजरिए से सोचकर ठोस कदम उठा सकेंगी? क्या ये सरकारों पर छोड़ कर हम अपनी जिम्मेदारियों से बच सकते हैं।

पहाड़ों पर बढ़ता शहरीकरण एवं नल योजना से बर्बाद होते नौले-धारेसमय बीतने के साथ ही हम, हमारे नौले-धारों के अस्तित्व को मिटते हुए देखने को मजबूर हैं। हमारे पुरातनी सभ्यता के वाहक इतिहास बनने की दहलीज पर तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। आने वाले समय में इस दौर के लोगों को सिर्फ ये कहते हुए देखा और सुना जा सकता है कि हाँ मैंने भी देखे हैं गाड़, गधेरे, नौले, धारे और चुपटैले।

कहा जाता है कि दुनिया में तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा। पर इंसान अभी इन बातों को गम्भीरता से नहीं ले रहा। जैसे-जैसे शहर बढ़ रहे हैं। हम अपने प्राकृतिक संसाधनों से दिनों-दिन उतने ही दूर होते जा रहे हैं।

दुनिया जल संरक्षण के लिये गम्भीरता के साथ काम कर रही है। लेकिन पिथौरागढ़ जैसे पहाड़ी राज्य जिसे प्रकृति से भरपूर प्राकृतिक धरोहरों से लबरेज किया है विडम्बना देखिए उनसे लोग और नीतिकार स्वयं ही दूर हो रहे हैं।

इंसानों को अगर अपनी पीढ़ियों को बचाना है, अपने अस्तित्व को बचाना है तो उसे पानी को बचाना ही होगा। जब पहाड़ों में नौले-धारे सुरक्षित होंगे तभी तो इंसानी जान भी सुरक्षित रह पाएगी।

लेखक, जी मीडिया, पिथौरागढ़ में कार्यरत और पिछले 11 सालों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं।

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