पलायन को नकारा, मेहनत-कौशल से खुद के काम को सँवारा

Tribal
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डही क्षेत्र के कई आदिवासी ऐसे भी हैं, जो रोजगार के लिये पलायन न करते हुए विभिन्न संसाधनों से आजीविका चला रहे हैं। वे अपनी मेहनत व कौशल के दम पर वर्ष भर आय जुटाते रहते हैं। कभी सिंधोले, तो कभी ताड़ी बेचकर, तो कभी रसोई में काम आने वाले तवला व खापरी बनाकर आय का साधन जुटा रहे हैं। ये लोग इन दिनों कणगी व टाटलों तथा बाँस से बना अन्य सामान बेचकर आजीविका चला रहे हैं। आधुनिकता के बाद भी खासकर गाँवों में बाँस की लकड़ी व सियाली की सोटियों से बना सामान आज भी प्रचलित है।

ग्राम बासनली, घाणा, कातरखेड़ा, नलवान्या, चिचवान्या आदि गाँवों में इन दिनों सियाली की सोटियाँ निकालकर उससे कणगी व टाटले बनाने का काम चल रहा है, जो डही के हाट में बिकने आ रहे हैं।

क्या है कणगी व टाटले


ड्रम व कोठी के आकार के एक कणगी में 5-7 क्विंटल अनाज रखा जा सकता है। आदिवासी कहते हैं, इसमें रखा अनाज खराब नहीं होता। वहीं टाटले चद्दर जैसे आकार के होते हैं। ये बैलगाड़ियों में दोनों तरफ बाँधने व कच्ची दीवार बनाने के काम भी आते हैं। कणगी व टाटले सियाली वृक्ष की सोटियों को गूँथकर कणगी व टाटले बनाए जाते हैं। एक कणगी 3 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी कीमत 500-700 रुपए होती है। वहीं टाटले की एक जोड़ी 500 रुपए तक में मिल जाती है।

 

क्या है सियाली


सियाली वृक्ष का नाम होता है। बरसात में इसकी शाखाओं से सोटियाँ निकल आती हैं, जो शीत ऋतु आते-आते 5-6 फुट लम्बाई तक बढ़ जाती है। इन्हें आपस में गूँथकर ड्रमनुमा कणगी व चद्दर जैसे आकार में टाटले तैयार किये जाते हैं।

 

बाँस से बनी टोकरियाँ आज भी किचन की शोभा


अंचल में बाँस से बनी टोकरियों को सैकड़ों वर्ष से रोटियाँ रखने, अनाज धोने, खाना परोसने आदि के उपयोग में लाया जाता जा रहा है। हालांकि वक्त के साथ इन टोकरियों का स्थान स्टील की तगारियाँ लेती जा रही हैं। बावजूद इसके अंचल में इनका निर्माण व उपयोग चलन में है। टोकरी की कीमत साइज अनुसार 50 से 100 रुपए तक होती है, जो कई घरों में किचनों की शोभा बढ़ाती है।

 

बुआरे का भी चलन


खेतों में मकान बनाकर उसमें रहने वाले आदिवासियों द्वारा टाइल्स के स्थान पर गोबर व मिट्टी का लेप किया जाता है। जिसकी सफाई वे बाँस से बने बुआरे से करते हैं। इसके उपयोग से जमीन पर पड़ी धूल-मिट्टी के साथ ही कंकड़ आदि एक ही बार में साफ हो जाते हैं। बुआरे के लकड़ी से बने होने से इसे सख्त व गिली जमीन की सफाई में भी उपयोग में लाया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों में बुआरा प्रत्येक घर की जरूरत होता है। जिसकी कीमत 25 से 50 रुपए तक होती है।

 

अनाज सफाई के लिये सुपड़ा


अनाज की सफाई के लिये आज भी सबसे पहले सुपड़े का नाम सामने आता है। नगरीय क्षेत्रों में आटा चक्की वाले भी अनाज की सफाई के लिये सुपड़े रखते हैं। इनकी कीमत साइज अनुसार 80 से 150 रुपए तक होती है।

 

नई पीढ़ी को नहीं रुचि


इन वस्तुओं के निर्माण से जुड़े लोगों सिलदार भिड़े, अमनसिंग, रेलबाई आदि ने बताया कि अंचल में यह कार्य वर्षों से चल रहा है, लेकिन शासन-प्रशासन द्वारा कभी भी इस व्यवसाय की सुध नहीं ली जाती है। हमारा दौर गुजरने के बाद इन वस्तुओं का निर्माण बन्द हो सकता है, क्योंकि नई पीढ़ी को इस कारोबार में रुचि नहीं है। -निप्र

 

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