पन-बिजलीः समस्या तथा भविष्य (Hydropower: Problem and Future)

15 May 2016
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बिजली के उत्पादन की जितनी भी पद्धतियाँ हैं, उनमें से पन-बिजली पद्धति सर्वाधिक मितव्ययी व प्रदूषण रहित है। साथ ही संसाधनों की दृष्टि से भी यह पद्धति सर्वोत्तम मानी जाती है। यह भी अजीब विडम्बना है कि पन-बिजली उत्पादन की व्यापक क्षमता होने के बावजूद हमारे देश में घोर विद्युत संकट बना रहता है और इस संकट का कारण भी यही है कि हम बिजली के उत्पादन के लिये देश के 15 प्रतिशत जल-संसाधनों का भी समुचित उपयोग नहीं कर पा रहे हैं। लेखक का विचार है कि यदि हम आगामी 15 वर्षों में पन-बिजली पद्धति द्वारा 50 हजार मेगावाट अतिरिक्त बिजली पैदा कर सकें तो इससे देश को काफी लाभ होगा।

किसी भी देश के विकास के लिये जो मूलभूत संरचनात्मक आवश्यकताएँ हैं उनमें बिजली का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में किसी भी देश की प्रगति जानने के लिये ‘प्रति-व्यक्ति विद्युत उपभोग’ का मापदण्ड सही पैमाना माना जा सकता है। बिजली के उत्पादन में वृद्धि होने से सभी क्षेत्रों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और उससे औद्योगिक व कृषि सम्बंधी विकास में भी तेजी आती है। बिजली के उत्पादन में जितने भी तरीके हैं। उनमें पन-बिजली पद्धति सर्वाधिक मितव्यी व प्रदूषण रहित है। साथ ही संसाधनों की उपलब्धता की दृष्टि से भी यह पद्धति सर्वोत्तम है। भारत में पन-बिजली पद्धति के लिये तो प्रकृति भी बहुत उदार है। प्रकृति ने भारतीय उप-महाद्वीप में हिमालय से निकलने वाली सिन्धु, गंगा व ब्रह्मपुत्र जैसी बारहमासी नदियों की अथाह जलराशि प्रदान की है।

केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण के आकलन के अनुसार भारत में पन-बिजली उत्पादन क्षमता 60 प्रतिशत लोड फैक्टर पर 84,000 मेगावाट तथा 40 प्रतिशत लोड फैक्टर पर 1,35,000 मेगावाट है। बिजली उत्पादन की यह क्षमता सालाना 600 अरब यूनिट के बराबर है।

पन-बिजली पद्धति द्वारा बिजली उत्पादन की इतनी व्यापक क्षमता होने के बावजूद भारत में घोर विद्युत संकट बना रहता है। हम आज भी अपनी आवश्यकतानुरूप बिजली पैदा नहीं कर पाते हैं। यद्यपि यह ठीक है कि जहाँ 1947 में भारत में केवल 1360 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था, वहीं पन-बिजली तथा ताप-बिजली पद्धतियों के विकास से यह उत्पादन 70,000 मेगावाट तक पहुँच गया है। लेकिन इसके बावजूद बिजली उत्पादन के क्षेत्र में हम 15 प्रतिशत जल संसाधनों का भी उपयोग नहीं कर पा रहे हैं।

‘पन-बिजली व ताप-बिजली’ पद्धतियों का प्रयोग


भारत में विद्युत उद्योग मूलतः कोयले पर आधारित बिजली संयंत्रों पर ही निर्भर है। इससे पन-बिजली और ताप-बिजली पद्धतियों द्वारा बिजली उत्पादन में क्रमशः 28:72 का अवांछनीय अनुपात बन गया है। इस विपरीत अनुपात के कारण हम अपने बारहमासी ऊर्जा स्रोतों का उपयोग नहीं कर पाते हैं, साथ ही इससे ईंधन के परम्परागत (जीवाश्म) साधन भी खत्म होते जा रहे हैं। इसके अलावा इस अनुपात का देश में विद्युत व्यवस्था की उत्पादकता पर भी बहुत प्रभाव पड़ता है जो कि बिजली में कटौती, वोल्टेज में उतार-चढ़ाव के रूप में दृष्टि-गोचर होता है। इन सब बातों के साथ ही इससे समेकित विद्युत व्यवस्था के अर्थतंत्र पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा अम्लीय-वर्षा, वायु-प्रदूषण जैसे पर्यावरण दुष्प्रभाव भी सामने आने लगते हैं।

आज विद्युत क्षेत्र में बिजली की कमी सबसे बड़ी समस्या है। पन-बिजली परियोजनाएँ ही समग्र विद्युत व्यवस्था में सहायक सिद्ध हो सकती है। यदि हमने पन-बिजली के विकास को प्राथमिकता दी होती तथा बिजली के उत्पादन के लिये ‘पन-बिजली व ताप-बिजली’ को 40:60 के अनुपात में ले आए होते तो आज बिजली की कमी को पूरा किया जा सकता था और साथ ही विद्युत आपूर्ति व्यवस्था को भी सुचारू रूप से चलाया जा सकता था।

समस्याएँ


बिजली की कमी तो भारत के विभिन्न भागों में बनी ही रहती है और देश की अर्थव्यवस्था को संसाधनों की विकट स्थिति का भी सामना करना पड़ता है, लेकिन इसके अतिरिक्त भी अनेक ऐसी समस्याएँ हैं जिनका पन-बिजली उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है। यहाँ इनमें से कुछ समस्याओं तथा उनके समाधानों का उल्लेख किया जा रहा हैः-

भूमि अधिग्रहण


भूमि राज्य का विषय है इसलिये इसके अधिग्रहण में अनेक समस्याएँ आती हैं। किसी भी जगह काम शुरू करने से पहले राज्य राजस्व विभाग, जिला अधिकारियों तथा रक्षा तथा वन-अधिकारियों से निपटना पड़ता है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि जहाँ भी पन-बिजली परियोजनाएँ स्थापित की जाती हैं वहाँ का सामाजिक व आर्थिक विकास स्वयंमेव हो जाता है। इस जनहित की बात को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार और अन्य सम्बंधित अभिकरणों को भूमि देने की कार्रवाई एक निश्चित समय-सीमा के भीतर पूरी कर लेनी चाहिए। इस काम के लिये राज्य सरकार व सम्बंधित अभिकरणों को उत्तरदायी बनाया जाना भी जरूरी है। किसी भी परियोजना के लिये यह जरूरी है कि सबसे पहले सारी जमीन उपलब्ध हो जाए, क्योंकि इसके बाद ही परियोजना का ‘शून्य दिवस’ शुरू होता है।

पर्यावरण पक्ष


आज के समय में कहीं भी वन एवं पर्यावरणीय स्वीकृति मिलने में 2 से लेकर 5 वर्ष तो लग ही जाते हैं और किसी भी परियोजना के लिये यह स्वीकृति बहुत जरूरी होती है। यहाँ यह भी आवश्यक है कि पन-बिजली परियोजना के सकल निर्धारण व क्रियान्वयन के लिये इस स्वीकृति को देने की प्रक्रिया थोड़ी सरल व कारगर बनाई जाए। परियोजना के रास्ते में आवाह क्षेत्र प्रतिपादन कार्यक्रम भी एक प्रमुख बाधा ही है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय चाहता है कि पन-बिजली परियोजना की लागत से ही सम्पूर्ण आवाह-क्षेत्र का विकास भी किया जाए, लेकिन यह बात बिल्कुल गलत है क्योंकि इससे अनावश्यक रूप से परियोजना की लागत बढ़ जाती है। दरअसल यह बात उस गलत सोच के कारण सामने आई है जिसमें कहा जाता है कि पन-बिजली परियोजनाओं के कारण आवाह क्षेत्र भ्रष्ट हो जाता है तथा वहाँ भूमि कटाव होता है। वास्तव में आवाह का प्रतिपादन केवल परियोजना क्षेत्र तथा उसमें जलाशयों की बाढ़ों तक ही सीमित होना चाहिए और इसके अलावा कोई चीज परियोजना के अंतर्गत नहीं आनी चाहिए। यह भी देखने में आया है कि परियोजना क्षेत्र व उसके भू-दृश्य संरक्षण के लिये कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश या दृष्टांत योजना नहीं है। इसके अलावा पुनर्वास योजना के लिये निश्चित हिदायतें या फिर इसके लिये पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से कोई पैकेज प्रस्ताव भी नहीं है जिसे विभिन्न परियोजनाओं के लिये लागू किया जा सके। इन सब कारणों से भी परियोजना के क्रियान्वयन में देरी होती है।

वैधानिक स्वीकृति मिलने में विलम्ब


तकनीकी व आर्थिक स्वीकृति मिलने में सामान्यतः 4 से 6 माह लगते हैं। व्यवहार में, केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण परियोजना को व उसके प्रभावों के मद्देनजर ही यह स्वीकृति देता है लेकिन इससे तकनीकी व आर्थिक स्वीकृति मिल जाने पर भी परियोजना को कई वैधानिक स्वीकृतियाँ प्राप्त करनी पड़ती है। जैसे-

1. सम्बंधित राज्य द्वारा परियोजना क्रियान्वयन समझौता तथा बिजली की हिस्सेदारी के फार्मूले की स्वीकृति।
2. अन्तरराष्ट्रीय जल संसाधनों की दृष्टि से स्वीकृति (सिंध जल सन्धि, बांग्ला देश व नेपाल की ओर से)।
3. रक्षा-स्वीकृति।
4. पर्यावरण व वन स्वीकृति।
5. विद्युत (आपूर्ति) अधिनियम, 1948 के अनुभाग (29)2 के अंतर्गत अधिसूचना के जरिए सार्वजनिक स्वीकृति।

उपर्युक्त सभी स्वीकृतियाँ प्राप्त करने में काफी समय लगता है और इस दौरान परियोजना को अधिकारियों के लम्बे चौड़े जाल के बीच से निकलना पड़ता है। इसके अंतर्गत सार्वजनिक निवेश बोर्ड (पीआईबी) तथा सीसीईए की स्वीकृति भी प्राप्त करनी होती है और इसके बाद ही परियोजना में किसी तरह का निवेश मंजूर होता है। कई तरह की स्वीकृतियाँ लेने में काफी समय बर्बाद हो जाता है। समय की बर्बादी को रोकने के लिये भारत सरकार ने अभी हाल ही में केन्द्रीय क्षेत्र की पन-बिजली परियोजनाओं को दो चरणों में स्वीकृति देने की बात मंजूर की है। किन्तु अब भी इस अवधारणा में ऐसे अनेक पहलू हैं जिन पर विचार किया जाना है।

निर्माण प्रक्रियाः परियोजना का निर्माण कार्य खुद करने या ठेकेदारों के माध्यम से कराने में अगर लागत बराबर ही बैठती हो, तो भी केन्द्रीय जल आयोग तथा केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण को तकनीकी व आर्थिक दृष्टि से परियोजना की लागत निर्धारित करते समय ही इसके निर्माण का तरीका तय कर लेना चाहिए। वैसे कई पैकेजों का क्रियान्वयन इसके अलावा भी कई कारकों पर निर्भर करता है और उन पर पहले से विचार करना प्रायः कठिन होता है। इस सब के अतिरिक्त निर्माण प्रक्रिया में ठेकेदारों के पास अत्याधुनिक उपकरणों का न होना, साथ ही भविष्य में ऐसा काम फिर मिलने के आश्वासन के अभाव में अत्याधुनिक उपकरण खरीदने की प्रेरणा का न होना, निम्न प्रौद्योगिकीय उपकरणों का अधिक संख्या में होना और परियोजना के कई कार्यों में कई ठेकेदारों के लगे होने से परियोजना पूरी होने में समय भी अधिक लगता है तथा लागत भी अधिक आती है। अतः इन परेशानियों को देखते हुए निर्माण सम्बंधी उपकरण लेने या न लेन का निर्णय सम्बंधित अभिकरण पर छोड़ दिया जाना चाहिए, जिससे परियोजना का कार्य सही तरीके से हो सके।

अनुबंधनात्मक समस्याएँ : परियोजनाओं के प्रमुख कार्य ठेकेदारों द्वारा ही कराए जाते हैं और वे सभी कार्य आपस में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। यदि इनमें से किसी एक कार्य में भी देरी होती है तो इसे सम्पूर्ण परियोजना की प्रगति पर प्रभाव पड़ता है। ठेकेदारों से काम करवाने में अनेक तरह की समस्याएँ सामने आती हैं, जैसे-

1. ठेकेदार के संगठन में श्रमिकों की समस्या,
2. कार्य-क्षेत्र, लागत और डिजाइन में परिवर्तन के कारण उत्पन्न संविदात्मक मूल्य सम्बंधी विवाद,
3. मुख्य ठेकेदार के अंतर्गत काम करने वाले कुछ छोटे ठेकेदारों द्वारा कार्य-निष्पादन में देरी,
4. निर्माण के दौरान ठेकेदारों द्वारा अव्यावहारिक राशि मांगने से होने वाले विवाद।

मुख्य नियोक्ता के रूप में राष्ट्रीय पन-बिजली निगम को ठेकेदारों को श्रमिकों के नियमित भुगतान को सुनिश्चित करना चाहिए ताकि श्रम-सम्बंधी समस्याओं से बचा जा सके। ठेकों (अनुबंधों) में प्रेरणात्मक व दण्डात्मक दोनों तरह के प्रावधान होने चाहिए ताकि लक्ष्य पूरा न होने पर प्रबंधनों को ठेकेदारों पर लागू किया जा सके। इस तरह से निर्माण सम्बन्धी अभिकरण परियोजना का सर्वश्रेष्ठ कार्य निष्पादन कराने में सफल होंगे।

निर्माण अवधि : पन-बिजली परियोजना को दीघ्र अवधि का कार्य माना जाता है क्योंकि इसके लिये होने वाली जाँचों में काफी समय लगता है। इन परियोजनाओं को वास्तव में नियमित योजना की एक राष्ट्रव्यापी गतिविधि के रूप में देखा जाना चाहिए। यह बात ताप-बिजली के उदाहरण से भी स्पष्ट होती है। ताप बिजली परियोजनाओं में छान-बीन तथा कोयले की खानों के विकास जैसी सहगामी क्रियाओं को परियोजना अवधि में शामिल नहीं किया जाता। इसलिये यह परियोजना, पन-बिजली परियोजना से कम अवधि की लगती है।

शून्य दिवस विषमताः पन-बिजली परियोजना का शून्य दिवस ताप बिजली के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि पन-बिजली के लिये शून्य दिवस को दोबारा परिभाषित किया जाना चाहिए। पन-बिजली में शून्य दिवस सरकार द्वारा औपचारिक स्वीकृति देने की तिथि को नहीं वरन संयंत्र लगाने के अनुबंध वाली तिथि को मानना चाहिए। इससे सम्पूर्ण राष्ट्रीय नीति में पन बिजली को सही परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकेगा और साथ ही इससे विद्युत क्षेत्र में चल रही विषमता भी दूर हो सकेगी। साथ ही साथ इससे पन-बिजली परियोजना को दीर्घकालिक मानने का भ्रम भी दूर होगा।

दो चरणों में स्वीकृतिः पन-बिजली परियोजना के लिये दो चरणों में स्वीकृति की अवधारणा भी सामने आई है। इस व्यवस्था में विस्तृत परियोजना प्रतिवेदन (डीपीआर) जमा करने और परियोजना की स्वीकृति मिलने के बीच के व्यर्थ समय का उपयोग करने का प्रयास किया गया है। इसे अंतर्गत पहले चरण में भूमि अधिग्रहण (पानी में डूबे हिस्से को छोड़कर), मूलभूत संरचनात्मक विकास के लिये परियोजना के निर्माण से पहले के क्रियाकलाप जैसे-सड़क, पुल, भवन बनाना, संचार, निर्माण शक्ति पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव का आकलन करने आदि को सवीकृति दी जाएगी। यद्यपि सरकार ने ‘दो चरणों में स्वीकृति देने की व्यवस्था’ को मंजूर कर लिया था लेकिन यह व्यवस्था निम्म कारणों से कारगर सिद्ध न हो सकी।

1. पहले चरण में परियोजना अधिकारियों को मूलतः त्वरित पर्यावरणीय अध्ययनों के आधार पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृति लेनी पड़ती है। साथ ही त्वरित पर्यावरणीय अध्ययनों का क्षेत्र भी परिभाषित नहीं है। अतः जब तक पर्यावरण एवं वन मंत्रालय परियोजना की स्वीकृति के लिये पूरी तरह सहयोग नहीं देता तब तक इस अवधारणा का कोई भी सकारात्मक परिणाम नहीं मिल सकता। उदाहरणार्थ सिक्किम में तीस्ता पन-बिजली परियोजना के तीसरे चरण का क्रियान्वयन राष्ट्रीय पन-बिजली निगम द्वारा होगा इसका वैज्ञानिक एवं त्वरित पर्यावरणीय अध्ययन नीरी ने आठ महीनों में किया था। इस पर भी यह परियोजना फरवरी 1992 से पर्यावरण एवं वन मंत्रालय में स्वीकृति के लिये पड़ी है।

2. पन-बिजली परियोजनाएँ पूँजी प्रधान होती है। साथ ही मूलभूत संरचनात्मक विकास के लिये भी काफी पूँजी की आवश्यकता होती है। यह भी देखा गया है कि मूलभूत संरचनात्मक विकास पर परियोजना की कुल लागत की 5 से 6 प्रतिशत राशि व्यय हो जाती है। आमतौर पर पन-बिजली परियोजनाएँ एक हजार करोड़ रुपये से अधिक लागत की होती है। अतः उनके मूलभूत संरचनात्मक विकास पर 50-60 करोड़ रुपये खर्च होते ही हैं। इस मूलभूत संरचनात्मक विकास व्यय के लिये सार्वजनिक निवेश बोर्ड (पीआईबी) का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और इससे स्वीकृति लेने में काफी समय व्यतीत हो जाता है। यदि सचिव समिति के विचाराधीन लाने के लिये मूलभूत संरचनात्मक लागत को कम कर दिया जाता है तो मुख्य परियोजना के निर्माण में पहले मूलभूत संरचना तैयार नहीं हो पाती।

3. यह भी माना जाता है कि पहले चरण की स्वीकृति देते ही परियोजना का निर्माण होना निश्चित हो जाता है। वित्त की उपलब्धता को लेकर भी कुछ दुविधा बनी ही रहती है। इसके अलावा जब कभी संकट की स्थिति में किसी परियोजना को हटाने की बात की जाती है उस स्थिति में भी परियोजना से होने वाले लाभ सम्भावित नुकसानों या सामाजिक नुकसानों से कहीं अधिक होते हैं। आर्थिक विश्लेषण की दृष्टि से भी देखा जाए तो पता चलता है कि हर परियोजना पर होने वाले 718.22 करोड़ रुपये निवेश पर मात्र 236 करोड़ की बचत हो पाती है। इसके अलावा यदि परियोजना पहले चरण की स्वीकृति के बाद भी रोक दी जाती है तो भी कोई नुकसान नहीं होता बल्कि सड़कों, पुलों व अन्य संचार-माध्यमों से निर्जन क्षेत्र का विकास ही होता है।

अतः पर्यावरण एवं वन सम्बंधी स्वीकृति को जहाँ परिभाषित किया जाना जरूरी है, वहीं उसे अपेक्षाकृत सरल भी बनाया जाना चाहिए। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को परियोजना की स्वीकृति के कार्य में लगे रहना चाहिए। परियोजना को स्वीकृति देने के लिये सचिव समिति की शक्ति बढ़ाई जानी चाहिए ताकि वास्तविक लागत में मूलभूत संरचना लागत को समाहित किया जा सके। निर्णय लेने वालों को भी ‘दो चरणों में स्वीकृति’ के लाभों को समझना चाहिए। क्योंकि इसे अन्ततः फायदा तो सम्पूर्ण विद्युत क्षेत्र को ही होगा।

विकास योजना


अभी हाल ही में केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण ने अगले 15 वर्षों अर्थात 2006-07 (दसवीं योजना के अंत) तक बिजली उत्पादन की क्षमता का आकलन किया है और साथ ही इससे जुड़े अनेक अध्ययन भी किए हैं। इन अध्ययनों के आधार पर केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण ने देश में आगामी 15 वर्षों में पन-बिजली उत्पादन क्षमता और 50 हजार मेगावाट तक बढ़ाने का सुझाव दिया है। इस सुझाव में पन-बिजली उत्पादन क्षमता में औसतन 9.1 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर की बात कही गई है। हालाँकि, आठवीं योजना के लिये यह वृद्धि दर कम रखी गई है तथापि नौवीं व दसवीं योजनावधि में वास्तविक वृद्धि दर अपेक्षाकृत ऊँची रखी गई है। पिछले तीन दशकों की औसत वृद्धि दर मात्र 6 प्रतिशत ही रही है और इस विकास दर से उक्त लक्ष्य को प्राप्त करना काफी कठिन काम है। यदि पन-बिजली के विकास के लिये पिछले तीन दशकों वाली चाल से ही चला गया तो इससे बिजली उत्पादन में करीब 80 अरब यूनिट की कमी आएगी और देश में बढ़ती बिजली की मांग को पूरा करने के लिये हमें पुनः ताप बिजली पर निर्भर होना पड़ेगा फलस्वरूप देश को ईंधन पर तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त खर्च वहन करना पड़ेगा।

राष्ट्र की अर्थव्यवस्था, पर्यावरण तथा परम्परागत (जीवाश्म) सीमित ऊर्जा स्रोतों के संवर्द्धन के लिये पन-बिजली उत्पादन क्षमता को शीघ्रता से बढ़ाया जाना नितान्त आवश्यक है। अगर हम अगले 15 वर्षों में पन-बिजली उत्पादन में 50,000 मेगावाट की वृद्धि कर लेते हैं तो इससे ताप-बिजली परियोजनाओं में काफी बचत की जा सकती है। साथ ही कोयले व उसके परिवहन पर होने वाले खर्च को भी बचाया जा सकता है।

नवीं योजना में परियोजनाओं के त्वरित क्रियान्वयन हेतु एक व्यापक कार्यक्रम रखा गया है जिसमें कि पन-बिजली पर भी बल दिया गया है। यह भी माना जा रहा है कि देश में विद्युत व्यवस्था के अंतर्गत वांछनीय गति पकड़ने के लिये यह जरूरी है कि पन-बिजली परियोजनाओं का बजट अलग से तय किया जाए। यह काम आठवीं योजना में उत्पादन में तेजी लाने के लिये भी आवश्यक है, क्योंकि पन-बिजली परियोजना का काफी समय तो निवेश, स्वीकृतियाँ प्राप्त करने व मूलभूत संरचना के विकास में चला जाता है।

इस तरह से अब यह स्पष्ट हो जाता है कि देश के संतुलित व अनवरत विकास के लिये विद्युत क्षेत्र में पन-बिजली का त्वरित विकास होना बहुत ही जरूरी है।

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