पोती के नाम दादा का खत
वैसे तो तुम वहाँ होस्टल में रहती हो इसलिए चिंता कम है फिर भी विगत कई दिनों से तुम्हारा समाचार नहीं मिलने से परेशानी है। मेेरी छठी इंद्रिय कह रही है तुम अवश्य किसी संकट से रुबरु हो। पिछले दिनों टीवी न्यूज चैनलों और समाचार पत्रों के जरिए जाना था कि अन्य शहरों की भाँति तुम्हारे शहर में घनघोर जलसंकट व्याप्त है और नलों से पानी दो-चार दिन के अंतराल से टपक रहा है ऐसे में तुम अपना काम केैसे चलाती होगी?
तसल्ली रखो यह समस्या अकेली तुम्हारी नहीं है अनगिनत शहरों की है, समग्र देश की साझा है। पिछले वर्षों की तरह इस बार भी करोड़ों लोग जलसंकट की गिरफ्त में हैं। मुझे लगता है जल से जूझना हमारी नियति बन गई है। प्रकृति हमसे रूठी हुई है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि अकारण कोई किसी से क्यों रूठेगा भला? क्या तुम मुझसे बेवजह रुठ सकती हो ?
सच तो यह है कि आज धरती माता के साथ हमारा संबंध, व्यवहार उचित नहीं रहा। उसे अकारण जरूरत से ज्यादा परेशान किया जा रहा है। उसके उपर लगे पेड़ पौधों को काटकर और उसके गर्भ में संचित जल का अत्यधिक दोहन कर हम स्वयं के पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं।
तुम्हें अपने बचपन की बातें याद हैं ? याद करो उस समय शहर में सीमेंट के जंगल नहीं हुआ करते थे। आबादी भी सीमित हुआ करती थी और उसी हिसाब से वाहन भी गिनती के ही थे। कहीं जाना होता तो सहज में घोड़ा गाड़ी उपलब्ध हो जाती थी। शहर से थोड़ी दूर निकलने पर ही जंगल का खुशनुमा एहसास होने लगता था। हर तरफ हरियाली की चादर बिछी दिखाई देती थी। पहाड़िया नंगी नहीं होती थी उस पर खूब पेड़ पौधे लहलहाते थे और उसके बीच नदी-झरने कलकल प्रवाहित होते थे। थोड़ी थोड़ी दूर पर कुएं-बावड़ियों के दर्शन हो जाया करते थे जिनमें लबालब जल भरा रहता था जो आंखों को ठंडक पहुँचाता था लेकिन अब तो सारा परिदृश्य ही बदल गया। स्वार्थ में अंधे होकर हम जीवनदायी पानी तक का महत्व नजरअँदाज कर चुके हैं।
विकास के नाम पर शहरों में बरबादी का मँजर शुरू हो गया। अनगिनत पेड़ उसके नाम शहीद कर दिए गए और कृषि भूमि पर मकान-दुकानों का निर्माण होने लगा। सड़कों के नाम पर अनेक जीवंत छायादार पेड़ों की बलि दे दी गई। दुख की बात यह है कि इस दौरान हमने प्रकृति को वापस कुछ भी नहीं लौटाया, बस लेते रहे। ना ईमानदारी से वृक्षारोपण किया ना वर्षा के जल को भूमिगत कराया, अपितु उसे नाले में व्यर्थ बह जाने दिया, कितने स्वार्थी हो गए हम।
पहले कुएं-बावड़ी से पानी भरने पर हाथ पैर को मशक्कत करनी पड़ती थी इसलिए हमने बोरिंग का सहारा लिया और मात्र बटन दबाकर पाताल से पानी खींचने लगे और आज आलम यह है कि 100 फीट पर आसानी से उपलब्ध होने वाला पानी 500 फीट पर भी अनुपलब्ध है। धरती मां से क्या शिकवा शिकायत करें, अपराधी के कठघरे में हम स्वयं खड़े हैं, अपना ही अक्स हमें मुँह चिढ़ा रहा है।
बेटी अभी भी स्थिति बदतर नहीं हुई, नियंत्रण में है लेकिन हमें लगता है कि शायद अपनी गलतियों से हम सबक सीखना नहीं चाहते। विकास का एक ही पहलू है कि खूब पेड़ हों। पेड़ों की बहुतायत होगी तो अच्छी अमृत वर्षा होगी और बारिश से खुशहाली। किंतु हम तो क्रंकीट के जंगल खड़े कर रहे हैं, सभी दूर खनन कर रहे, पहाड़ों में आग लगा रहे हैं। यह तो विकास के नाम पर सरासर विनाश है।
पता है एक व्यस्क पेड़ के नीचे भूमिगत दस हजार लीटर जल होता है। एक मनुष्य औसतन अपनी उम्र में पाँच पेड़ की लकड़ी किसी ना किसी कारण घर बनाने, भोजन पकाने या अन्यत्र कार्य में उपयोग कर लेता है किंतु वह पाँच पेड़ भी प्रकृति को नहीं लौटाता। जैसी चिंता, सेवा और परवरिश हम अपने बच्चों की करते हैं वैसा ही रवैया प्रकृति के प्रति अपनाएं तो कितना अच्छा हो।
समूचा शहर, प्रदेश, देश भीषण जलसंकट से जूझ रहा है। त्रासदी यह है कि व्यस्ततम जिंदगी में, परिवार की दिनचर्या में पानी जुटाना भी शामिल हो गया है। भीषण मशक्कत के बाद हलक सूखे हैं, प्यास बुझ नहीं रही, नदी, कुएं-बावड़ी जवाब दे चुके हैं। पनघटों पर महज खाली बर्तन बज रहे, बूँदों की छमछम गायब है। इन हालातों में प्रश्न उठता है कि ऐसा क्यों हो रहा है, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? इस बार भी वही उत्तर है, हम, हम और सिर्फ हम।
यह खौफनाक दृश्य हमने ही निर्मित किया है। हमने धरती का सीना छलनी कर हर जगह बोरवेल खोद डाले, पानी को बेहिसाब बहाया। पेड़ तो काटे उपर से क्रंकीट के जंगल खड़े कर दिए याने अंडे तो अंडे मुर्गी भी हलाल करने को उतारु हैं।
जल नहीं होगा तो कल नहीं होगा, इस बात को जेहन में अच्छी तरह रखकर हर व्यक्ति को धर्म की तरह पानी को बचाना होगा। पुराणों में कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है फिर क्यों नहीं हम बावड़ी-तालाब-कुओं को रिचार्ज का पुनर्जीवित करते, पेड़ पौधों को संरक्षित करते।
विचारणीय प्रश्न है कि हमारे यहां के आम नागरिक पेड़ और पानी के दुश्मन क्यों बने? जाहिर है, कमाई की लालच में सब लोग अंधाधुंध पेड़ों की कटाई कर रहे है जबकि पानी की किल्लत और जमीन की उर्वरक शक्ति क्षीण होने की मुख्य वजह वही है।
वस्तुतः आज के विकट दौर में हमारा फर्ज बनता है कि हम जलसेवक बन पानी की बचत करें और प्रत्येक वर्ष कम से कम एक नया पेड़ अवश्य लगाएं ताकि आनेवाली पीढ़ियाँ भूख प्यास से बेहाल ना हो जाएँ।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते.......
उतना ही पानी गिलास में भरें जितनी प्यास की अनुभूति हो। संकल्प लें, पेयजल ना फेकेंगे ना फेंकने देंगे बल्कि उसे अमृत सदृश समझेंगे।
सीधे जग या गिलास से बिना जूठा किए पीने की आदत डालें तथा दूसरों को भी प्रोत्साहित करें।
सब्जी, अन्न इत्यादि और बर्तन धोने के बाद उसका पानी, पौधों तथा शौचालयों में उपयोग करें।
बर्तन धोने में कम पानी इस्तेमाल करें। चूल्हे, रसोईघर को धोने के बजाय पोंछने की आदत डालें।
सीधे नल खोलकर सफाई के स्थान पर जग-मग से पानी लेकर उपयोग करें।
सीधे नल खोल स्नान ना करें, जग या शावर के सहारे कम से कम पानी से स्नान करें।
कुछ ऐसा इंतजाम करें कि नहाने के पश्चात बचा पानी शौचालय या बगीचे में काम आ जाए।
वाहनों को पाइप लगाकर खूब धोने की बजाय गीले कपड़े से पोंछकर साफ करें।
बागवानी में पेयजल व्यर्थ ना करें। गमले और बगीचे में एक दिन के अंतराल से पानी डालें। पौधों को कम पानी की आदत डालें।
सूर्य को जल अर्पित करते समय ध्यान रखें कि नीचे गिरता जल किसी ना किसी पौधे की प्यास बुझाए।
सुनिश्चित करें कि धर्मस्थलों पर प्रयुक्त जल बर्बाद ना हो, उसकी निकासी पेड़ पौधों तक पहुँचे।
ऐसे बीज बोएं जो कम पानी में पनप सकें। हमारे पूर्वज पानी की खेती करते थे उनके तरीके जानकर वर्षाजल भराव की व्यवस्था करें।
ये सुझाव तुम अवश्य अपने होस्टल और आस पड़ौस के लोगों में बताना और उनका मुस्तैदी से पालन करना।
तुम्हारा दादा
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