प्रदूषण से निबटने में कितनी कारगर है रेडियो तरंग

वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण (फोटो साभार - विकिपीडिया)प्रदूषण को लेकर दुनिया भर में कुख्यात हो चुकी देश की राजधानी दिल्ली में पिछले महीने हाफ मैराथन हुआ था।

इस मैराथन में 35 हजार प्रतिभागियों ने हिस्सा लिया था। यह दौड़ प्रतियोगिता वैसे तो नवम्बर में आयोजित की जानी थी, लेकिन नवम्बर में दिवाली की आतिशबाजी के कारण दिल्ली में प्रदूषण का स्तर और बढ़ जाता, जिससे प्रतिभागियों को स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ होतीं। इसी के मद्देनजर नवम्बर की जगह अक्टूबर में मैराथन आयोजित करना पड़ा।

हालांकि, अक्टूबर में भी दिल्ली का प्रदूषण कुछ कम नहीं था। पार्टिकुलेट मैटर समेत कई अन्य तत्व सामान्य काफी ज्यादा थे। इस प्रदूषण का असर प्रतिभागियों पर न पड़े, इसके लिये आयोजकों ने एक नई तकनीक अपनाई। उन्होंने दिल्ली की आबोहवा में फैले धूलकणों को मानव शरीर में प्रवेश करने से रोकने के लिये अल्ट्राहाई फ्रीक्वेंसी रेडियो तरंगों का इस्तेमाल किया। मैराथन स्थल और उसके रूट एरिया में मशीनें लगाई गईं।

मैराथन आयोजित करने वाले संगठन का दावा है कि रेडियो तरंगों ने अबोहवा में मौजूद पार्टिकुलेट मैटर (जिसका आकार मानव के शरीर के बाल से 30 गुना छोटा होता है) को तितर-बितर कर दिया।

रेडियो तरंगों के कारण दौड़ में शामिल किसी भी प्रतिभागी को स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ नहीं हुईं और मैराथन ठीक तरीके से सम्पन्न हो गया।

उल्लेखनीय हो कि पिछले साल भी सर्दी के मौसम में दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच गया था, जिस कारण वहाँ हुए क्रिकेट मैच के दौरान श्रीलंका के खिलाड़ियों ने मास्क पहन कर मैच खेला था। कई खिलाड़ियों से स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक्कतों की शिकायत भी की थी।

इस साल भी सर्दी शुरू होने के साथ ही दिल्ली में प्रदूषण का स्तर बढ़ने लगा।

दिल्ली में हाफ मैराथन आयोजित करने वाले प्रोकैम इंटरनेशनल के मैनेजिंग डायरेक्टर विवेक सिंह ने मैराथन के दौरान रेडियो तरंगों का इस्तेमाल करने की बात स्वीकारते हुए कहा कि मैराथन के दौरान प्रदूषण को 30 प्रतिशत तक कम करने में मदद मिली। हालांकि, अन्तरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार पॉल्यूशन मॉनीटरिंग स्टेशनों के करीब प्रदूषण का स्तर ‘बहुत अस्वास्थ्यकर’ रहा।

उन्होंने कहा कि मौसम पूरी तरह साफ रहा और मैराथन के दौरान किसी भी प्रतिभागी ने स्वास्थ्य बिगड़ने की शिकायत नहीं की।

उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ सालों से सर्दी के मौसम में दिल्ली में प्रदूषण खतरनाक स्तर पर पहुँच रहा है। सर्दी में भी अक्टूबर से दिसम्बर के बीच प्रदूषण सबसे ज्यादा रहता है।

पिछले साल नवम्बर में पार्टिकुलेट मैटर (2.5) और पार्टिकुलेट मैटर (10) 999 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर पर पहुँच गया था। जो सामान्य से 10 गुना अधिक था। आबोहवा में प्रति क्यूबिक मीटर में 60 से 100 माइक्रोग्राम पार्टिकुलेट मैटर स्वास्थ्य के लिये हानिकारक नहीं होता है।

इस साल भी प्रदूषण का स्तर कमोबेश ऐसा ही रहा।

दिल्ली में प्रदूषण की कई वजहें हैं। इनमें एक वजह दिल्ली में वाहनों की अधिकता है। अन्य वजहों में सर्दी में पंजाब और हरियाणा में खलिहान में मौजूद फसल के निकलने वाले कूड़े को जलाना, कोयला आधारित थर्मल पावर प्लांट का संचालन आदि शामिल हैं।

दिल्ली की आबादी करीब 1.9 करोड़ है। प्रदूषण का बढ़ता स्तर इस पूरी आबादी के स्वास्थ्य पर गहरा असर डालेगा। प्रदूषण से फेफड़े की कार्य क्षमता में गिरावट आती है, सिर दर्द बढ़ता है, खाँसी व थकावट आती है और फेफड़े में कैंसर का भी खतरा बढ़ जाता है, जो अन्ततः जान भी ले लेता है।

वैसे, आँकड़ों की बात करें, तो प्रदूषण से मौत के मामले में भारत दुनिया भर के देशों में सबसे ऊपर है। भारत में प्रदूषण से हर साल करीब 25 लाख लोगों की मौत हो जाती है। दूसरे स्थान पर चीन है, जहाँ हर साल 18 लाख लोग प्रदूषण के कारण काल के गाल में समा जाते हैं।

ये आँकड़े लैंसेट कमिशन ऑन पॉल्यूशन एंड हेल्थ के हैं। कमिशन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में हर छठवीं मौत की वजह प्रदूषण है और विकासशील देशों में सबसे ज्यादा लोग प्रदूषण की भेंट चढ़ते हैं।

किसी देश में केवल प्रदूषण से सालाना 25 लाख लोगों की मौत बड़ा आँकड़ा है और इससे निबटने के लिये कई तरह के कदम उठाने की जरूरत है। इनमें कुछ दीर्घकालिक कदम हैं, लेकिन दीर्घकालिक कदम का असर लम्बे समय में देखने को मिलेगा। इससे पहले तात्कालिक कदम उठाने की आवश्यकता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या रेडियो तरंगों का इस्तेमाल तात्कालिक कदम हो सकता है?

विवेक सिंह ने अन्तरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि पिछले साल दिल्ली सरकार ने कोयला आधारित पावर स्टेशन को बन्द कराया था और वाहनों का परिचालन भी कम कराया था। सरकार वायु प्रदूषण कम करने के लिये अल्ट्रा हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो तरंगों का इस्तेमाल कर सकती है। उन्होंने कहा, ‘हमने दिखाया कि यह तकनीक काम करती है।’

यहाँ बता दें कि दिल्ली में रेडियो तरंग आधारित जिस उपकरण का इस्तेमाल किया गया था, उसका निर्माण बंगलुरु की एक कम्पनी डेविस अर्थ करती है।

कम्पनी की वेबसाइट बताती है कि उसके उपकरण एयर क्वालिटी इंडेक्स को 33 प्रतिशत तक सुधारते हैं और इनका इस्तेमाल घरों, बिल्डिंगों व फैक्टरियों में किया जा सकता है।

वेबसाइट के मुताबिक शहरों के लिये प्योर स्काईज 9000 का प्रयोग किया जा सकता है। यह 10 किलोमीटर क्षेत्रफल (भौगोलिक स्थिति और बिल्डिंगों की संख्या पर निर्भर) की आबोहवा की गुणवत्ता को 33 प्रतिशत तक सुधार देता है।

कम्पनी का दावा है कि यह उपकरण सामान्य एयर प्यूरिफायरों की अपेक्षा ज्यादा प्रभावी तरीके से काम करता है और प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों (सल्फर डाइऑक्साइड) को निष्क्रिय कर देता है।

वेबसाइट के मुताबिक, यह तकनीक बारिश, कोहरे या बर्फबारी के जरिए प्रदूषण कम करने से अलग है। बारिश, कोहरा या बर्फबारी के जरिए प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों को नमी के जरिए नीचे लाया जाता है। जबकि रेडियो तरंगों के जरिए इन तत्वों को काफी ऊपर भेज दिया जाता है।

हालांकि इस तकनीक को लेकर वैज्ञानिक स्तर पर कोई बड़ा शोध नहीं मिल पाया है, जिसके बूते यह दावा किया जाये कि प्रदूषण से निबटने में यह तकनीक कारगर हो सकती है।

और न ही अब तक इस बारे में कुछ पता चल सका है कि इस तकनीक के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं।

इस टेक्नोलॉजी के प्रति अनभिज्ञता जाहिर करते हुए बंगलुरु के इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के प्रोफेसर व विज्ञानी जयरमण श्रीनिवासन ने द टेलीग्राफ को बताया कि उन्हें अब तक ऐसा कोई शोध नहीं मिला है, जिसमें इस तकनीक के बारे में विस्तार से बताया गया हो।

हालांकि, कम्पनी के पदाधिकारियों का दावा है कि वैज्ञानिक शोध का रिजल्ट बहुत अच्छा हुआ, इसलिये उन्होंने शोध के प्रकाशित होने से पहले ही यह तकनीक बेचनी शुरू कर दी है।

उनका कहना है कि इस तकनीक से सम्बन्धित जानकारियाँ वे इसलिये बहुत जल्दी प्रकाशित नहीं करना चाहते हैं कि यह तकनीक दूसरे लोग भी अपना सकते हैं।

वहीं, न्यूज वेबसाइट स्क्रॉल की एक रिपोर्ट में इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (दिल्ली) के प्रोफेसर मुकेश खरे ने कनिपनी के दावों को लेकर कहा कि यह सब मार्केटिंग है।

उन्होंने कहा, ‘इस तकनीक का जन्म शीत युद्ध के वक्त रूस में हुआ था और इसका मुख्य काम हवा की गुणवत्ता में सुधार की जगह दृश्यता बढ़ाना था।’

दूसरी ओर, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पदाधिकारियों ने भी इसको लेकर अलग नजरिया व्यक्त किया। बोर्ड के पदाधिकारियों को कोट करते हुए स्क्रॉल ने लिखा है कि इस तकनीक में रेडियो तरंगें एक अप्रत्यक्ष चिमनी तैयार करती है, लेकिन मैराथन में जिस तकनीक का इस्तेमाल हुआ वह कैसे काम करता है, इसके बारे में कोई तथ्य नहीं है।

प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों का कहना है कि उन्होंने कम्पनी से विशेषज्ञ समीक्षित शोधपत्र की माँग की थी, लेकिन उन्हें नहीं मिला।

स्क्रॉल की रिपोर्ट में कम्पनी के हवाले से कहा गया है कि आम लोगों, मधुमक्खियों, तितलियों, प्रवासी पक्षियों आदि पर इस तकनीक के प्रभाव के मूल्यांकन के लिये आधिकारिक शोध किया गया, जिसमें उन पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ा है। हालांकि, कम्पनी के पदाधिकारियों ने यह भी कहा है कि इसके साइड इफेक्ट्स अभी भी एक बड़ा सवाल है, लेकिन इस तकनीक में जो ऊर्जा दी जाती है, वह बहुत नियंत्रित होती है।

इन तमाम बयानों और दावों के मद्देनजर यह जरूरी है कि रेडियो तरंगों से प्रदूषण दूर करने वाली तकनीक को लेकर व्यापक स्तर पर शोध किया जाये। साथ ही इस पर भी शोध करने की आवश्यकता है कि कहीं इसका मानव व पशु-पक्षियों पर नकारात्मक असर तो नहीं पड़ता है।

वैसे, रेडियो तरंगों के अलावा प्रदूषण कम करने के और भी तरीके हैं और उनका नकारात्मक असर भी नहीं पड़ता है। सरकार को चाहिए कि इन तकनीकों को बढ़ावा देकर प्रदूषण करने की दिशा में पहल करे।


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