परिचर्चा : उत्तराखंड आपदा एवं भविष्य की चुनौतियां (भाग - 3)

हमारे चंडी प्रसाद भट्ट जी बता रहे थे कि उत्तराखंड तो खुद ज्ञान का भंडार है लेकिन विडंबना यह है कि यहां 50 प्रतिशत बहुत अधिक ज्ञानी हैं और उनका कुछ नहीं हो सकता और 50 प्रतिशत बिल्कुल अज्ञानी हैं, उनका भी कुछ नहीं हो सकता जो कि बहुत बड़ी परेशानी की बात हो गई है। जहां तक संस्थान की बात है उत्तराखंड से ज्यादा बढ़िया संस्थान कहीं और नहीं हैं। अगर आपको जानना है कि ये कैसे हुआ तो आप इसके लिए तस्वीर देख सकते हैं ये जो तस्वीर है वो आपदा आने से पहले की तस्वीर है। देखिए पीछे ग्लेशियर है और सब कुछ हैं ऐसा कुछ आभास नहीं था कि दो दिन बाद यहां पर इतनी बड़ी घटना हो जाएगी जिसे हम सूनामी का नाम दे रहे थे तो ये उस आयाम के त्रासदी हैं। वहीं हमें देखने को मिला कि कार आदि सब बह गई और पूरे के पूरे गांव या तो डूब गए या फिर बह गए। तो हुआ क्या कि 16 तारीख की रात को जो इसके पीछे चोला बारी ग्लेशियर है, चोला बारी तालाब है, लेक है। उसे सरोवर भी कहते हैं जहां पर महात्मा गांधी की अस्थियां प्रवाहित की गई थी उस तालाब में उसका नाम चोला बारी और इसका महात्मा गांधी सरोवर। तो 16 तारीख की रात को वहां 315 मिलीमीटर बारिश आई ।

जबकि सामान्यतः वहां 40 से 50 मिलीमीटर तक की बारिश होनी चाहिए। वहां 315 मिलीमीटर बारिश हुई और लगातार हुई उससे चोलाबारी ग्लेशियर का भाग क्षतिग्रस्त हो गया। उसके कारण बहुत पानी आया और दूसरा एक ग्लेशियर पिघल गया, भारी बारिश हो गई और चौथा वहां जो चोलाबारी लेक पहले से ही मौजूद थी तो सारा पानी उसमें आ गया तो वो लेक कोई इतनी बड़ी नहीं थी लेकिन वो इस तरह से चौड़ी हो जाएगी इसके बारे में हमने नहीं सोचा था। लेकिन वो ब्रस्ट हुआ और उसके ब्रस्ट होने से सारा पानी केदारनाथ मंदिर के पीछे आया और उसने मंदाकिनी को दो भागों में बांट दिया आप सेटेलाइट से लिए गए चित्र में ये सब देख सकते हैं, आप देख सकते हैं कि क्या हालत हो गई है।

इस बार यहां भूकंप नहीं आया था बस क्लाउड ब्रस्ट और लैंड स्लाइड बस और फिर नदी से सारा का सारा पानी नीचे आ गया, दो धाराएं बन गईं और वहां मंदिर को छोड़कर सबकुछ खत्म हो गया। नीचे रामवाड़ा पूरा खत्म हो गया और वो भी नीचे आ गया। अब आप आगे का चित्र देखिए ये चोलाबरी लेक है इसमें पानी भरा है और इसी से ब्रस्ट हुआ है तो इसी से विनाश हुआ है ये छोटा सा था लेकिन इतना बड़ा हो गया। अब ये सेटेलाइट इमेज है। हमारी नासा की है और हमारी भी है। ये देखिए कि ये चित्र केदरानाथ में आपदा आने से पहले का चित्र है और ये दूसरा आपदा आने के तुरंत बाद का है। पानी बहुत ज्यादा मात्रा में आया और दो धाराएं बन गई और मलबा सब आया और उससे ये सब नीचे तक बहकर आ गया।

अब उत्तराखंड में आपदा आई और उसके बाद सबकुछ हुआ लेकिन अब ये समस्या थी कि सब हल कैसे किया जाए उसके बाद वहां बचाव कार्य भी शुरू हुआ, और उस दौरान ये बात आई कि बोल्डर्स को कैसे हटाया जाए। जो बोल्डर सबसे बड़ा है वो करीब 30 फुट का जिसकी वजह से केदारनाथ मंदिर बच गया क्योंकि इसने पीछे से पूरे मंदिर को घेर लिया और बचा लिया। उसने बहुत सारे बोल्डर्स को इधर-उधर कर दिया। यदि अब हम उसे तोड़ना भी चाहते हैं तो हमें वैज्ञानिक रूप से देखना होगा कि हम उसे कैसे हटाएं। ये ग्लेश्यिर के साथ भी होता है ग्लेश्यिर जब चलता है तो उसके साथ बड़े-बड़े बोल्डर्स आते हैं। इस संबंध में रोज ही बैठकें होती हैं मुख्यमंत्री जी वैज्ञानिकों आदि को बुलाते हैं। इसलिए हमने सुझाव दिया कि उस इलाके में हमारे जो नए वैज्ञानिक काम कर रहे हैं वो तकनीकी पाइरोटी देखें वो एक ऐसे राडार से ये देखेंगे कि उससे पृथ्वी के अंदर बहुत ज्यादा कंपन नहीं होगा।

इस इलाके में उस तरह की तकनीकी का प्रयोग न किया जाए जिससे वहां कंपन पैदा हो नहीं तो औरज्यादा भूकंप आएंगे और पहाड़ का अधिक नुकसान होगा। इसलिए हम जीपीआर से मंदिर के अंदर की स्थिति देखेंगे कि क्या स्थिति है और आर्मी से भी पता चलता है कि बोल्डर्स से नीचे अभी भी बहुत कुछ दबा हुआ है, बहुत से मृत शरीर पड़े हैं तो इसे कैसे निकाला जाए। तो उसके लिए एक उच्च तकनीकी का प्रयोग किया जाएगा जिसमें जीपीआर यूज किया जाएगा। इसलिए सब लोग मिलकर योजना बना रहे हैं कि मंदिर के आस-पास के इलाके को कैसे ठीक किया जाए। जैसे कि इस चित्र में देखें कि यदि ये ब्रस्ट रिलीज हुई तो भूकंप आएगा और उसके अलावा और भी बहुत कुछ हो सकता है। वहां पर आर्द्रता बहुत ज्यादा है, बहुत अधिक तापमान है इसमें जैसे कि बहुत संवेदनशील इलाका है तो हम लोग लैंड स्लाइड वाले इलाके को चिन्हित करके देख रहे हैं कि यदि संभव हो तो हम इसे टनल के माध्यम से भी कर सकते हैं।

इस प्रकार हमारे पास विकल्प हो सकता है क्योंकि टनल हिमाचल में सफल रहे हैं उसमें ट्रेन भी जा रही हैं। इसलिए हम लोगों को सोचना चाहिए आगे के लिए हम ज्यादा से ज्यादा टनल का प्रयोग कर सकें। अभी चार धाम यात्रा को कुछ समय के लिए स्थगित किया गया है लेकिन इसे रोका तो नहीं जा सकता इसलिए इस बारे में भी सोचना होगा। ये सब बीआरओ, आर्मी, भूविज्ञान के हिसाब से होना चाहिए। जैसे कि कैलाश मानसरोवार यात्रा में हर चीज की पहले से नियोजित होती है जैसे कि जाने वाले लोगों का पंजीकरण करना और उसी के आधार पर सब इंतज़ाम करना। वहां की क्षमता को देखकर सीमित संख्या में तीर्थ यात्रियों को वहां जाने की अनुमति देना आदि। इस प्रकार की सभी पूर्व तैयारियां उत्तराखंड की तीर्थ यात्रा के दौरान भी की जानी चाहिए ताकि वो सुरक्षित संपन्न हो पाए। हम लोगों को यहां जाने से तो नहीं रोक सकते हैं लेकिन लोगों को कम से कम वहां जाने से प्रतिबंधित तो कर ही सकते हैं।

जब आपदा से पहले की कमियों के बारे में बात की जाती है तो कहा जाए ये सच है कि वहां पर लोगों एवं अधिकारियों के बीच में समन्वय नहीं था। 16 तारीख को जब यहां मौसम विभाग के श्री शर्मा ने चेतावनी दी थी कि वहां बहुत भारी वर्षा की संभावना है और वहां यात्रियों को न जाने दिया जाए लेकिन प्रशासन एवं लोगों ने चेतावनी को समझा ही नहीं। आमतौर से हमने देखा होगा कि जब अखबारों आदि में मौसम विभाग वाले समाचार देते हैं कि किसी इलाके में भारी बारिश होगी तो लोग उसे गंभीरता से नहीं लेते और कह देते हैं कि मौसम विभाग वाले तो ऐसा कहते ही रहते हैं और उस दिन भी वही सब हुआ। उसके बाद राज्य सरकार का एक उपग्रह है, सेटेलाइट उन्होंने कहा कि हम पूर्वानुमान करेंगे उन्होंने बहुत बड़ी गलती की उन्होंने एनआरएस से सेटेलाइट के द्वारा पूर्वानुमान किया उसमें भी समन्वय ठीक नहीं था।

इसके अलावा एक अन्य बात हुई कि ये खबर आई कि बद्रीनाथ के पीछे की लेक ब्रस्ट होने वाली है तो वहां भी जो लेक बन गई है वो ब्रस्ट हो गई है तुरंत ही अगले दिन बहुगुणा जी ने हमें बुलाया हम लोग गए हमने डिस्कस किया कुछ अन्य वैज्ञानिक भी थे तो हमने कहा कि ये सैटेलाइट वाला कुछ नहीं होने वाला है। पहली बात तो वहां पर लेक है ही नहीं वो एवनाॅन्स हुआ था और जो कुछ हुआ वो उसी का एक भाग था तो ये केवल एक भ्रम की स्थिति पैदा हुई और वो सब प्रेस में भी आ गया इसलिए इस तरह की जानकारियां तभी दी जानी चाहिए जब पूरी तरह से खबर की सच्चाई ज्ञात हो। अब हमें इस तरह की सभी कमियों को सुधारना चाहिए। अब जैसे कल शुक्रवार को फ्रांस से हमारा सैटेलाइट-3 डी छोड़ा गया है। उसमें प्रावधान रखा गया कि उसमें पूर्व चेतावनी की बात है और उसमें बचाव अभियान करने के बारे में भी सभी जानकारियां देगी इस प्रकार से सिस्टम को देखते हुए उसमें वो सभी चीजें जोड़ी जानी चाहिए।

उसके अलावा सेटेलाइट के आंकड़े भी आगे चलकर हमें बहुत मदद करेंगे। तो इस तरह से हम सोच रहे हैं कि लैंड स्लाइड को हम कैसे रोक सकते हैं, उसके लिए हम कार्यक्रम बना रहे हैं कि लैंड स्लाइड के जैसे में जाना चाहिए, जो मेन डेड है उसको भी देखना पड़ेगा, जो प्राकृतिक है उसका भी देखना होगा और इसका कैसे विश्लेषण करें, क्या करें इसके बारे में भी हम लोग विस्तार में काम कर रहे हैं। अभी ये देखिए श्रीनगर से थोड़े पास का लैंड स्लाइड है, आपने देखा होगा कि ये पिछले 100-150 साल से ऐसा ही है, आप वहां कितनी भी चीजें कर लीजिए लेकिन ये कभी भी नहीं रुकता है। इसका एक ही विकल्प है कि इसे यहां से बंद करके, सील करके यहां से एक टनल लगाकर इसे आप जहां तक संभव है वहां तक ले जाएं।

अभी आप देखेंगे कि आमतौर से इसमें भूवैज्ञानिकों की भी राय नहीं ली जाती है और हम भी जब अपना घर बनाते हैं तो हम भी भूमि की स्थिरता, मृदा की प्रकृति एवं उसके आधार के बारे में कुछ भी नहीं सोचते हैं। जैसे कि आप चित्रों में देखें कि यहां मकान बने हुए दिख रहे हैं वो पूरे हिमालय में ऐसे ही बने हैं। जो बोल्डर एवं क्ले दिख रहा है वो बहुत ही युवा (यंग) क्ले है जिसे ग्लेवेज कहा जाता है।

भूविज्ञान के आधार पर यंग का अर्थ होता है वो जिसकी उम्र एक लाख साल भी नहीं है। और जब हम पहाड़ में करोड़ों साल की बात करते हैं तो इसे अभी एक लाख साल भी नहीं हुआ है, अभी ये बनी ही नहीं है ये इतनी ढ़ीली है या यूं कहा जाए कि ठीक से जमी भी नहीं है। वहां आप मल्टी स्टोरी मकान बनाएंगे तो वो तो जीवित रह ही नहीं पाएंगे क्योंकि उसमें तो आधार ही नहीं है आप देख सकते हैं लूज बोल्डर लगे हुए हैं। न केवल प्राइवेट घरों बल्कि सरकारी हाइड्रो पावर प्रोजेक्टस भी यहीं पर बने हैं। उसमें इंजीनियर हैं, जियोलाॅजिस्ट हैं लेकिन कोई भी इस बारे में सोचता ही नहीं है। जैसे कि श्रीनगर में ही देखिए वहां चौरास में यूनिवर्सिटी बनी है, बहुत बड़ा प्लेटफार्म है तो वहां भी यही स्थिति थी वहां उन्होंने बहुत बड़ी ईमारत बना दी, और वो सब बैठ गया। तो वहां भी यही समस्या है, वहां पर भी भूवैज्ञानिक हैं और हर रोज काम करते हैं लेकिन फिर भी इस तरह होने वाले नुकसान को रोका नहीं जा रहा है क्योंकि उनकी राय को माना ही नहीं जाता है।

यदि आप हिमालय को जैव-विविधता के तौर पर देखें तो ऐसी जैव-विविधता विश्व में बहुत कम ही देखने को मिलेगी। यदि आप हिमालय को जैव-विविधता के तौर पर देखते है तो विश्व में हमारी बायो डाइवर्सिटी बहुत ही रेयर है। वहां प्रकृति में ऐसी चीजें हैं जैसी और कहीं पर भी नहीं मिलेंगी और उसे हमें सुरक्षित रखना है, बचाना हैऔर इस प्रकार हमें अपनी सभी वनस्पतियों और अपनी जैव-विविधता का ध्यान रखना होगा नहीं तो वो खत्म हो जाएगी।

हाल ही में “भूवैज्ञानिक जन चेतना, मध्य हिमालय, उत्तराखंड का मूल ज्ञान, पर्यावरण एवं विकास” नाम से मेरी पुस्तक का पहला अंक अप्रैल में प्रकाशित हुआ है। इसमें एक पूरा दस्तावेज है कि हिमालय में विकास के क्या उत्पाद रखने हैं और किस तरह से क्या किया जाना चाहिए खासतौर से उत्तराखंड में विकास कार्यों के दौरान किन-किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। आपने मुझे यहां आमंत्रित किया और मुझे सुना इसके लिए धन्यवाद।

उमाकांत लखेड़ा - यहां बैठे बहुत से साथियों और इन क्षेत्रों में काम कर चुके साथियों के मन में बहुत से सवाल एवं जिज्ञासाएं होंगी क्योंकि रोज नए-नए बदलाव हो रहे हैं। लेकिन अब मैं हमारी बीच मौजूद इंडियन इंस्टियूट आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के प्रोविनोद गिरी शर्मा जो कि इंडियन इंस्टिट्यूट आॅफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन थिंक टैंक हैं और वो आपदा प्रबंधन के प्रोफेसर भी हैं, अब मैं उनसे निवेदन करूंगा कि वो अपनीबात रखें ताकि हम उनसे कुछ सीख सकें।

प्रो. विनोद गिरी शर्मा: मैं भारतीय लोक प्रशासन संस्थान में काम करता हूं उन्होंने 20 साल पहले राष्ट्रीय आपदा केन्द्र बनाया (नेशनल डिजास्टर सेंटर) और वो अब नेशनल इंस्टिट्यूट आॅफ डिजास्टर मैनेजमेंट बन गया है और मेरा ये सौभाग्य है कि मैं पिछले 20 सालों से इस विषय में काम कर रहा हूं। और डिजास्टर मैनेजमेंट एक ऐसा विषय है कि यदि आप इसमें काम करना शुरू करें तो इसमें आप बहुत कुछ सोच-समझ सकतेहैं और ऐसे में मुझे कोई विशेषज्ञ कहता है तो मुझे बहुत हंसी आती है क्योंकि मैं तो अभी सीख ही रहा हूं। जितनी भी आपदाएं आती हैं और यदि उत्तराखंड के संबंध में बात की जाए तो 1991 से लेकर आज तक जितनी भी आपदाएं आई हैं मैंने उनका अध्ययन किया और जब आईआईटी में ये केन्द्र स्थापित हुआ तो मैंने इसका पूराअध्ययन किया। और देखा कि यहां आपदाएं बहुत पहले एवं अंग्रेजों के जमाने से पहले से आती रही है। अंग्रेजों से आजाद होने के बाद आज हमारे पास पूरा का पूरा आपदा प्रबंधन है वो राहत केन्द्रित है।

जब भी आपदा आती है तो हम केवल राहत की बात करते हैं कि किसको क्या मिला और किसको क्या नहीं मिला, किस जिले में बंटा एवं किस जिले में नहीं बंटा, किसने बेईमानी की और किसने नहीं की आदि। मेरे ख्याल से आपदा प्रबंधन केवल मात्र इन्हीं सब चीजों में सिमट कर रह गया है। और हमने जब ये देखा तो हमने एक नई चीज शुरू की और वो थी “पूर्व तैयारी” (प्रिपरेशन मिटिगेशन) और आज जो भी चीज आप इस देश में देख रहे हैं उसमें भारतीय लोक प्रशासन की भूमिका है फिर चाहे वो एनडीएमए हो या एनआईडीएम हो उसमें हम लोगों का योगदान है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हाई पाॅवर कमेटी बनाई थी, मैं भी उसका मेंबर था, वाडिया इंस्ट्टियूट के ठाकुर साहब समेत उसमें कुल 30 लोग थे।

यदि आप उसकी रिपोर्ट पढ़ें तो आपको पूरे आपदा प्रबंधन का ज्ञान हो जाएगा। साथियों मुझे लगता है कि इस काम में तीन महत्वपूर्ण चीजें हैं और तीनों का ही महत्वपूर्ण योगदान है, जिसमें केन्द्र सरकार, राज्य सरकार जिसमें आम आदमी की भी महत्वपूर्ण भूमिका है और तीसरा है अकादमिक संस्था। अकादमिक संस्थान जैसे कि वाडिया इंस्टिटयूट या इस तरह की जो भी संस्थाएं हैं उनकी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है और जैसे कि तिवारी जी ने कहा कि हम वैज्ञानिक हैं और हमारा काम विज्ञान को बताना है लेकिन उसे रूपान्तरिक करना और उन चीजों को ठीक रूप में लागू करना आदि काम सरकार के हैं।

ऐसे में यदि सरकार जो भी नीतियां बनाती है हम उनपर काम न करें तो फिर वो समुदाय की जिम्मेदारी मानी जाती है, यदि समुदाय उसमें साथ नहीं दे रहा है तो ऐसे में सरकार और हम लोग कितना भी कुछ कर लें फिर भी उसका कुछ लाभ नहीं है। हमारे यहां 2005 से आपदा प्रबंधन एक्ट (डिजास्टर मैंनेजमेंट एक्ट) बना है उसमें दो चीजें बहुत अच्छी हुई है उसमें राष्ट्रीय स्तर पर एनडीएमए बनाया गया, राज्य स्तर पर स्टेट डिजास्टर मैंनेजमेंट अथोरिटी बनी, जिले स्तर पर डिस्ट्रिक्ट डिजास्टर मैनेजमेंट अथोरिटी बनी और उन सबको काम बांटा गया। लेकिन हुआ ये कि नेशनल डिजास्टर मैंनेजमेंट अथोरिटी का स्टर्क्चर बड़ा बना दिया गया, जिसके चैयरपरसन प्रधानमंत्री हैं, उसमें आठ सदस्य हैं जो मंत्री का अधिकार रखते हैं।

जब आप राज्य स्तर पर आते हैं तो मुख्यमंत्री उसके चेयरमेन हैं और उनके पास समय नहीं है और मेरे ख्याल से कोई ऐसा राज्य नहीं है जिसे मुख्यमंत्री समय देते हों और स्टेट डिजास्टर मैनेजमेंट अथोर्रिटी को चलाते हों तो एक नाम मात्र की आर्थाेरिटी बनकर रह गई है जिसका कोई अर्थ नहीं। यदि आप उसके नीचे के पायदान पर आयें तो डिस्ट्रिक्ट डिजास्टर मैनेजमेंट अथोरिटी है और वो सबसे कमजोर पड़ी है। हमारे यहां आप किसी भी एक डिस्ट्रिक्ट का नाम बता दीजिए जिसमें ये डिस्ट्रिक्ट डिजास्टर मैंनेजेमेंट प्लान बनाई है जिसमें बहुत समय लगा हो और जिसमें बहुत से लोगों ने समय का सही से पालन किया हो।

मैं इस बात को उत्तराखंड के संदर्भ में इसलिए कह रहा हूं कि ये नया राज्य बना है। वो एक ऐसा प्रदेश है जो बहुत महत्व रखता है और उस महत्व में मेरा योगदान ये था कि जब 1999 में वहां भूंकप आया तो मनेला से एडीबी की एक टीम आई। मैंने ये कहा कि आप यहां पर नेशनल डिजास्टर मैंनेजमेंट अथोरिटी को मजबूत करने की बात मत कीजिए, हमारे पास भारत सरकार का पूरा सहयोग है हम लोग काम कर रहे हैं।

आज जब आप किसी राज्य को एक माॅडल बनाना चाहते हैं तो वो माॅडल आप उत्तराखंड को बनाइए। उत्तराखंड में अभी-अभी भूकंप आया है उसके लोग उसके कारण बहुत संवेदनशील हैं, जो अफसर, अधिकारी आज आपकी बात सुनेंगे और वहां काम होगा और ऐसा हुआ भी 1999 में एडीपी का बजट आया। उसके बाद हर जिले के लिए योजना बनी लेकिन दुर्भाग्य ये है कि वो योजना जो एक बार बनी उसको फिर कभी दोबारा संशोधन नहीं हुआ।

राजनीति बदल गई, ढ़ाचा बदल गया, नई तकनीकें आ गई लेकिन डिजास्टर मैंनेजमेंट प्लान जो 12 साल पहले बना था वो आज भी वही है और जो नया डायरेक्टर आता है उसे तो पता ही नहीं चलता कि यहां पर कोई प्लान है भी या नहीं भी। डिस्ट्रिक्ट डिजास्टर मैंनेजमेंट प्लान नाम की चीज जो जनरल साहब ने अभी बात बताई वो उन्होंने बहुत अच्छी बात बताई। लेकिन मेरा कहना कुछ और है मेरा कहना है कि आपको प्लान करने की जरूरत ही नहीं थी। प्लान तो पहले से हुआ ही हुआ है यदि आप हर जिले के प्लान पर अमल करें तो उसकी बात है। तो आज हमारे साथ यही समस्या हो रही है कि योजनाएं तो हैं लेकिन वो अमल में ही नहीं आ रही हैं।

मैंने बहुत से देशों में काम किया है और मेरा जितना भी अनुभव है वो ये कहता है कि लोग 90 प्रतिशत और 99 प्रतिशत ऊर्जा योजना बनाने में ही लगा देते हैं और एक प्रतिशत ऊर्जा उसे लागू करने में लगाते हैं। आप 1991 में उत्तरकाशी में आए भूकंप की सिफारिशें देख लीजिए 1999 में चमोली में जो भूकंप आया आप उसकी सिफारिशें भीपढ़ लीजिए आज सारी चीजें ज्यों की त्यों हैं क्योंकि कुछ हुआ ही नहीं है। हर डिजास्टर हमें हर बार सिखाता है कि ये करना चाहिए और ये नहीं करना चाहिए।

लेकिन यदि आप हर बार की गई सिफारिशों का केवल शीर्षक बदल दें तो देखेंगे कि हर बार की सिफारिशें एक सी ही हैं जिसे देखकर बड़ा दुख होता है। मैं एक ऐसी संस्था से संबंध रखता हूं जिसे पंडित नेहरू ने शुरू की थी और उसकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। हम लोगों ने आपदा प्रबंधन में बहुत कुछ किया और हमें गर्व है कि हमने दस साल तक कैपेसिटी बिल्डिंग किया। हमारी ही बिल्डिंग में नेशनल इंस्टिट्यूट आॅफ डिजास्टर मैंनेजमेंट है जो हमारी ही बिल्डिंग में है और बहुत अच्छा काम कर रही है। लेकिन जरूरत इस चीज की है कि इसे केन्द्र में करने की बजाए राज्य स्तर पर किया जाए और राज्य से भी ज्यादा इसे जिले के स्तर पर करने की है।

एक साल पहले मुझे सिक्किम सरकार ने सिक्किम डिजास्टर मैनेजमेंट अथोरिटी का वाइस उपाध्यक्ष बनाया और मैं अवैतनिक रूप से वहां काम कर रहा हूं। वहां 2011 में भूकंप आया। वो एक छोटा राज्य है वहां केवल चार जिले हैं, केवल छह लाख की आबादी है, करीब 20 ब्लॉक हैं और 200 से भी कम पंचायतें हैं। लेकिन हमने कहा कि सिर्फ योजना बनाने भर से ही काम नहीं बनेगा बल्कि इसे गांव के स्तर पर मजबूत करना होगा।

हमने मुख्यमंत्री जी से कहा कि आप पूरे साल को ही जागरूकता साल बनाइए ताकि हम हर पंचायत, जिले, ब्लाक में जाकर बात कर सकें और एक लोगों में जागरुकता फैला सकें। मैं उत्तराखंड लोक मंच की सराहना करता हूं कि इन्होंने इन तीन-चार घंटों में ही जन चेतना जगाई, और जनता को जागरुक किया। मैं तो कोई राजनीतिक आदमी नहीं हूं लेकिन मैं ये जानता हूं कि जन जागरुकता, आपदा प्रबंधन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा है कि यदि आप इसे संभव बना दें तो आधी समस्या खत्म हो जाएगी क्योंकि उसमें पब्लिक की बहुत बड़ी भूमिका है। हम राज्य सरकार या केन्द्र सरकार को इतनी गालियां देते हैं लेकिन जब तक हम खुद इस चीज को नहीं मानेंगे जैसे कि अभी तिवारी जी ने एक स्लाइड दिखाई थी कि यदि आप कोई फाउन्डेशन बनाते समय मृदा को नहीं देखेंगे तो आप मजबूत एवं सुरक्षित इमारत बना ही नहीं सकते हैं। साथियों हमने सिक्किम के हर गांव में, गांव की पंचायत में उपकरण दिए और अब हम सोच रहे हैं कि यदि उस इलाके के लोगों को ट्रेनिंग दी जाए जैसे कि यदिउनके इलाके में लैंड स्लाइड हो तो वो इन उपकरणों को किस तरह प्रयोग कर सकते हैं आदि। और हम उन्हें थोड़े से ज्ञान से ही सब सिखा सकते हैं इसके लिए बहुत कोई विज्ञान के ज्ञान की जरूरत नहीं है, बहुत छोटी-छोटी बात हैं जो हम जानते भी हैं।

जैसे कि अभी हमारे चंडी प्रसाद भट्ट जी बता रहे थे कि उत्तराखंड तो खुद ज्ञान का भंडार है लेकिन विडंबना यह है कि यहां 50 प्रतिशत बहुत अधिक ज्ञानी हैं और उनका कुछ नहीं हो सकता और 50 प्रतिशत बिल्कुल अज्ञानी हैं, उनका भी कुछ नहीं हो सकता जो कि बहुत बड़ी परेशानी की बात हो गई है। जहां तक संस्थान की बात है उत्तराखंड से ज्यादा बढ़िया संस्थान कहीं और नहीं हैं। यहां वाडिया इंस्टिटयूट है, इंडियन इंस्टिटयूट आॅफ रिमोट सेंन्सिंग है, आईआईटी रुड़की है, नेशनल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टिटयूट है। उस विचारधारा में भी आप आगे हैं यदि आप विज्ञान की बात करें तो उसमें भी आपका नाम सबसे ऊपर है।

अगर आप उन सभी चीजों को इस्तेमाल नहीं करते हैं तो ये आपकी कमजोरी है। साथियो मैं एक वाक्य में अपनी बात कहना चाहता हूं कि अगर लोक मंच कुछ करना चाहता है यदि आपका कोई राजनैतिक मक्सद है तो इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन यदि आप वास्तव में उत्तराखंड के लिए कुछ करना चाहते हैं तो 10 वैज्ञानिकों की टीम बनाइए और उनसे कहिए कि आप उत्तराखंड में विकास के बारे में नीति बनाएं। ऐसा नहीं है कि केवल विकास के बारे में ही बात की जाए। आज हमारे पास ऐसा कोई माॅडल ही नहीं है जिसे हम किसी के सामने पेश कर सकें। कोई व्यक्ति ये नहीं चाहता कि हमारी जनता इस तरह की समस्या में आए और इतनी बड़ी त्रासदी हो। इसलिए हम चाहते हैं कि आप लोग मिलकर इस सही विकास के माॅडल को ला सकते हैं और इस तरह के मंच ऐसा काम कर सकते हैं। यदि आपको इस काम में मेरी मदद की आवश्यकता पड़े तो मैं उसके लिए हमेशा तैयार हूं।

उमाकांत लखेड़ा - मैं आपका धन्यवाद करता हूं कि आपने हमें अपने विचारों से अवगत करवाया। हमारे एक मित्र प्रकाश चौधरी जी हैं उनके मन में कुछ जिज्ञासाएं हैं अब मैं चाहता हूं कि वो अपनी बात कहें।

प्रकाश चौधरी - मैं लखेड़ा जी को और लोक मंच को बधाई देना चाहता हूं कि आज ऐसे समय में जब उत्तराखंड में आई विभीषिका ने सारे देश को झकझोड़ दिया है ऐसे में आपने इस तरह के कार्यक्रम का आयोजन किया है जो कि बहुत महत्वपूर्ण बात है। साथियों उत्तराखंड में जो कुछ भी हुआ, कुछ लोग उसे दैवीय प्रकोप कह रहे हैं और कुछ उसे मानवीय गतिविधि के कारण आई आपदा कह रहे हैं। लेकिन इसका एक पक्ष और भी है कि उत्तराखंड सरकार और प्रशासन ने जिस असंवेदनशीलता एवं गैर जिम्मेदाराना तरीके से काम किया है वो बहुत ही दुख का विषय है। मित्रों चार दिन बाद भी उत्तराखंड सरकार के पास वहां फंसे लोगों के बारे में कोई आंकड़े नहीं हैं और न ही उन्हें ये पता कि वहां कितने लोग फंसे हैं, वहां की क्या जरूरतें हैं, वहां क्या किया जाना चाहिए आदि। यदि आपने सेना भी मंगवाई तो सेना को भी सटीक सूचना नहीं पहुंचाई। मैं इस मंच के माध्यम से पूछना चाहता हूं कि जब उत्तराखंड में 2005 में डिजास्टर मैंनेजमेंट एक्ट बना तो उत्तराखंड सरकार शायद पहली सरकार थी जहां डिजास्टर मैंनेजमेंट एक्ट लागू हुआ।

मैं उत्तराखंड सरकार से पूछना चाहता हूं कि आपदा के बाद उनका आपदा प्रबंधन विभाग क्या कर रहा था? मौसम विभाग की चेतावनी के बावजूद वहां क्या हो रहा था और मेरा साफ मानना है कि वहां की असंवेदनशील सरकार और वहां का सोया हुआ प्रशासन यदि जागा हुआ होता तो इसमें से कम से कम 60 प्रतिशत मौतें रोका जा सकता था।

आज उत्तराखंड अनियंत्रित विकास की ओर बढ़ रहा है जिसका खामियाजा वहां की तमाम जनता भुगत रही है। जिस तरह से अभी शर्मा जी कह रहे थे कि हमें विकास का नया माॅडल चाहिए और मैं भी उनकी बात से सहमत हूं कि हमें न केवल वैज्ञानिक चाहिए बल्कि हमें सचमुच उत्तराखंड की सरकार में ऐसे लोग चाहिए जो वहां की जनता से सहानुभूति रखे, हमें अच्छे अर्थशास्त्री, अच्छे भौगोलिक वैज्ञानिक चाहिए, अच्छे परिस्थिति विज्ञानशास्त्री चाहिए जो विकास का नया माॅडल बना सकें और उसमें उत्तराखंड की जनता की सहमति भी जरूरी हो। मैं एक और बात कहना चाहता हूं कि यदि उत्तराखंड में ऐसी त्रासदी फिर दोबारा हुई तो ये याद रखना होगा कि उत्तराखंड केवल उत्तराखंड नहीं है बल्कि वो पूरे उत्तर प्रदेश का, पूरे भारत का सिर है। वो पूरे भारतीय प्रायद्वीप की जलवायु को नियंत्रित करने वाला मंत्र है। तो हमें वहां जो भी हुआ है उसके कारणों की साफ ढंग से समीक्षा करनी चाहिए। उन कारणों को सामने लाना चाहिए और वहां पर विकास की सही रणनीति बनाने के लिए हम सबको मिलकर आगे आना चाहिए। धन्यवाद।

उमाकांत लखेड़ा: अब मैं विजय प्रताप जी से मैं अनुरोध करूंगा कि वो एक सवाल करें, उन्हें समाज सेवा के क्षेत्र में पहाड़ों का अनुभव प्राप्त है। अब मैं उनसे अनुरोध करूंगा कि वो विशेषज्ञों से सवाल उठाएं।

विजय प्रताप: लखेड़ा जी मुझे संकेत देने के लिए धन्यवाद! लेकिन आज मैं आपका आग्रह पूरा नहीं कर पाऊंगा क्योंकि सवाल किसी ओर से पूछने की बजाय मेरे मन में ऐसा आता है कि इस विषय मे, मैं खुद अकेला नहीं हूं, ये तो बिरादरी का हिस्सा है; वो जो विकास के सवाल पर बहुत वर्षों से सवाल उठा रहे हैं। अभी हमने चंडी प्रसाद जी के विचार सुने, उनके गुरू सुंदरलाल बहुगुणा और वहीं के ज्वाल साहब जिन्होंने टिहरी पर सब अध्ययन किया। उस स्टेडी के वैज्ञानिक तथ्यों को देखें तो शर्मा जी कि कही बात कि “उत्तराखंड में विकास के माॅडल नहीं है”,गलत लगती है। विकास के बहुत से माॅडल दिए गए हैं लेकिन उनको शायद माना नहीं गया जैसे टिहरी बांध को न बनाने के संबंध में भी थे लेकिन रूसी वैज्ञानिकों का स्वार्थ था कि टिहरी बने, और सरकार से अनुमति ली गई और मिल भी गई। उसी तरह गंगा के नाम पर हमारे राजनीति करने वाले राजनेता भी मौजूद हैं।

हमारे यहां एक मोटी बात ये है कि अपने यहां राज चलाने वाले, समाज चलाने वाले और धर्म संस्थान चलाने वालों में एक सहमति है और उस सहमति का नाम है कि ‘अमेरिका के भोगवादी स्वर्ग को हिन्दुस्तान में होना चाहिए‘। दूसरा, वो उस पागल दौड़ को न केवल सहमति देता है बल्कि वो उसे वांछनीय मानता है। जब ये राष्ट्रीय सहमति है और इसके खिलाफ कोई भी बात नहीं सुनी जाती, जब कोई भी प्रश्न चिन्ह और शंका हो जाती है तो उसको तरह-तरह के शाम-दाम-दंड-भेद से नकार दिया जाता है। जिस तरह से पूरे देश में आदिवासियों का दमन हो रहा है और उनके न चाहते हुए भी उनके इलाकों में दूसरी ही तरह का विकास हो रहा है तो ये सब सवाल हैं जो आपस में जुड़े हुए हैं। आपने कहा कि हिमालय का सवाल है, आपने कहा कि ये भारत का और प्रायद्वीप का सवाल है। तो मेरी विनम्र असहमति है क्योंकि ये हिमालय का सवाल नहीं है ये पूरी दुनिया के अस्तित्व का सवाल है इसीलिए उसे थर्ड पोल कहा जाता है। वो केवल भारत का नहीं है बल्कि उसे पूरी धरती का तीसरा धुव्र कहा जाता है और वो वैज्ञानिक आधार पर कहा जाता है।

अभी आई आपदा को क्या हम एक नए सवेरे और नए संघर्ष के साझे संकल्प के लिए कर सकेंगे और ये संकल्प इसकी व्यवस्था के खिलाफ न होकर अपने ही खिलाफ होगा क्योंकि यदि ऐसा किया तो हमें अपने बहुत से सपनों के बारे में दोबारा सोचना होगा। हम अपने बेटे के आय के पैकेज के बारे में सोचते हुए हम इन सवालों पर नहीं सोचते हैं। इस प्रकार हमें इस लड़ाई को कई स्तरों पर लड़ना होगा जिसमें चिंतन का स्तर सबसे महत्वपूर्ण है और जिसमें अपने अंदर की शुभ और अशुभ की लड़ाई है। यदि हम उससे सारी लड़ाई को नहीं जोड़ेगे तो शायद इस आपदा के बाद समाज को कोई दूरगामी लाभ नहीं होगा। हर कष्ट एक प्रसव पीड़ा की तरह होता है जिसके लाभ भी होते हैं लेकिन ये हमारे कौशल पर निर्भर करता है कि ये प्रसव पीड़ा नए बच्चे को एवं एक नए सवेरे को जन्म देगी या गर्भपात या विफलता ही मिलेगी और ये हमारे सामूहिक उपक्रम पर निर्भर करेगा। धन्यवाद।

उमाकांत लखेड़ा - वेद विलास जी आप जिज्ञासाओं पर आप अपनी बात रखें। वेद विलास: मेरा सवाल पहाड़ों के संदर्भ में है। मैं आपदा के समय तीनों घाटियों में गया; मैं न केवल 450 संवेदनशील गांवों में बल्कि आम गांवों में भी गया और सभी जगह जाकर देखा वहां लोगों के मन में एक निराशा की भावना है एक अंधेरा है कि “हमें पहाड़ को छोड़कर जाना है”, अब कहां जाना है इसके बारे में कुछ पता नहीं बस केवल दिल में ये है कि यहां से जाना है। पलायन का सवाल हर आदमी के मन में है और कई लोग तो पलायन कर भी चुके हैं। चमोली और मंदाकनी घाटी के अधिकतर गांवों के लोग तो पलायन ही चाहते हैं। तो सवाल यह है कि क्या हमारी जमीन वास्तव में ऐसी हो गई है कि वहां से पलायन किया जाए? दूसरा सवाल यह है कि यदि पलायन हुआ वहां पर भी सुरक्षा का सवाल है, या जैसे भौगोलिक, पारिस्थितिकीय चीजें आदि हैं उनका भी ख्याल रखना होगा। आजकल देखें तो आज हिमालय में लोगों के घरों में कुदाल फावड़े भी नहीं हैं क्योंकि अब वो हिमालय से कट गए हैं तो हमारे पहाड़ में जो ऐसी विषम परिस्थितियां हो गई हैं उसके बारे में हमें वास्तव में सोचना होगा।

प्रो. विनोद गिरी शर्मा - यदि आप हिमालय की पारिस्थितिकीय पढ़ें, भूविज्ञान देखें तो उसकी भी भार उठाने की एक क्षमता (कैयरिंग कैपेसिटी) है उसका अर्थ है कि उसमें जितना समा पाएगा वो उतना बर्दाशत करेगा और एक सीमा के बाद वो बर्दाशत नहीं कर पाएगा और उसका उदाहरण आपने देख ही लिया। पिछले 20-25 साल में सारी भौगोलिक स्थितियां बदल गई हैं तो सवाल यह है कि अभी जिस तरह से आबादी बढ़ रही है, उसके साथ मकानों की संख्या भी बढ़ रही है तो ऐसे में वहां का विकास की योजना बनाते समय बहुत सी चीजें देखनी होंगी। अभी मैंने पहाड़ के कुछ घरों का अध्ययन किया तो पता चला कि वहां आज भी कुछ घर ऐसे हैं जो परंपरागत तरीके से बने हैं, आज भी वहां ऐसे मकान हैं जो 200 साल पुराने हैं और कुछ को तो यूनिस्को से अवार्ड मिला।

यदि हम अपने मकान पुराने परंपरागत मकानों की तरह बनाने की बजाय आजकल के आधुनिक तरीके से बनाएं तो इसी तरह की आपदाएं आती रहेंगी तो ऐसे में गरीबी के कारण लोग वहां से पलायन करेंगे ही। तो मेरा कहना है कि इसे समझने की जरूरत है और पहाड़ के लोग बहुत ही बुद्धिजीवी हैं, समझदारी हैं। उसे केवल समझाने की जरूरत है कि उसे क्या करना है और वो अगर एक बेहतर ड्राफ्ट दे सकें तो सब ठीक हो जाएगा। मैं एक और बात कहना चाहूंगा कि आप विकास को रोक नहीं सकते और विकास रुकेगा भी नहीं। आप जिस माॅडल की बात कर रहे हैं मैंने भी टिहरी के माॅडल को स्टडी किया है। उस कमेटी में मैं भी था, उसमें वैज्ञानिक भी शामिल थे।

उन्होंने कहा था कि यदि आप इस तरह के ढ़ांचे बना रहे हैं तो उसमें कुछ नहीं होगा और आज आधे से ज्यादा दिल्ली, टिहरी के पानी पर जिंदा है। यदि आप टिहरी न बनाते या उसे न बनने देते तो आज आप दिल्ली में बैठकर पानी न पी रहे होते और यहां की एक अलग ही स्थिति होती तो मेरा कहना ये है कि सब चीजें चलनी चाहिए। लेकिन उस तरह का विकास कार्य अंधाधुंध नहीं करना चाहिए और वहीं दूसरी ओर सभी योजनाओं को भी बंद नहीं कर सकते हैं क्येांकि वो भी संभव नहीं है इसलिए मेरा मानना है कि उस तरह के विकास कार्य में एक वैज्ञानिक मजबूती होनी चाहिए।

जनरल मदन मोहन लखेड़ा - आपने जो सवाल पूछा वो बहुत अहम है। ये तो सच्चाई है कि वहां जिस भी तरह का विकास हो रहा है यदि वो वैसे ही चलता रहा तो वहां लोग रह नहीं पाएंगे और हमें वो समझना होगा लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि हम उस स्थान को ही छोड़ दें। वहां गांवों के लोगों को दूसरी जगह पर बसाना होगा, विकास का माॅडल बनना पड़ेगा। ऐसा भी नहीं है कि वहां केवल पर्यटन के बारे में सोचा जाए या केवल बांधों के बारे में बात हो। हम वहां के अपने साधनों को किस तरह से विकसित कर सकें और उसके लिए सरकार को प्राथमिकता से सहयोग देना होगा और वो केवल 2-4 महीने के लिए नहीं बल्कि तीन-चार साल के लिए होगा। जहां लोग काम करें और साथ-साथ उन्हें कुछ सहयोग मिले और दो-तीन साल में वो खुद अपना पोषण कर पाएं।

मैं आपके साथ दो-तीन घटनाओं को बांटना चाहता हूं अंडमान निकोबार में ‘पोंगी‘ नाम की एक जनजाति है। वहां सूनामी आई लेकिन उससे जनजाति में किसी को भी कोई नुकसान नहीं हुआ। मैं एक बार उस जनजाति में गया। तो मैंने जब उनसे पूछा कि आपके यहां कोई नुकसान क्यों नहीं हुआ तो उन्होंने बताया कि 25 तारीख रात को हमारे जानवरों में हलचल हो गई और हमारे पूर्वजों ने कहा था कि जब जानवर हलचल करें तो इसका मतलब है कि कोई आपदा आने वाली है। इसलिए हम लोगों ने तुरंत अपने जानवर खोले और हम सभी घर से बाहर निकलकर चले गए। तो वहां कोई पूर्व चेतावनी नहीं थी केवल एक व्यवहारिक समझ थी क्योंकि वो जनजाति सभ्यता के कारण अभी भी दूषित नहीं हुई है।

वहीं एक अन्य घटना वहां एक ‘छाबरा‘ नाम के एक एडवोकेट हैं वो 3 महीने से कैंप में रह रहे थे और वो दूसरे कैंप में आ गए और उन्होंने कहा कि “साहब हम अब यहां नहीं रहना चाहते हैं, सरकार की बैसाखी पर चलते-चलते बहुत समय हो गया, इससे हमारे बच्चे खराब हो रहे हैं। हमारे बच्चे मुफ्त का खाना सीख रहे हैं। आप हमकोसीजीआई शीट दे दो। हम अपने आरलैंड में वापिस जाएंगे, झोपड़ी बनाएंगे और अपने बच्चों को मछली पकड़ना सिखाएंगे, सब्जी उगाएंगे, जानवर पालेंगे लेकिन मुफ्त का नहीं खाएंगे”। तो ऐसे भी लोग हैं और वो तरक्की कर सकते हैं। तो हमें भी दुनिया को यही दिखाना है, यदि हममें क्षमता है और हम अपना हक मांगें तो कोई सरकार आपको कोई सहायता देकर आप पर कोई एहसान नहीं कर रही है बल्कि ये तो सरकार का काम है और उसे करना ही होगा।

एक अन्य उदाहरण देता हूं कि मैं मिजोरम में रहा। वहां की सड़कें बहुत खराब थी तो लोग शिकायत लेकर मेरे पास आए। मैंने कहा कि आपको मेरे पास आने की बजाय अपने एमपी के पास जाना चाहिए जब सड़क के पास साफ-साफ लिखा है कि इस सड़क की उम्र क्या है तो आप उनके पास जाइए और उनको इन सड़कों की हालतदेखने के बारे में कहिए। उसके बाद लोगों ने एमपी आदि के पास जाकर बहुत शोर-शराबा किया और इस विषय में बहुत हंगामा हुआ और करीब छह महीने तक ये सब हुआ बाद में हारकर एमपी आदि को सड़कों का काम करवाना पड़ा। इससे स्पष्ट होता है कि हम अपना हक नहीं मांगते। हम सोचते हैं कि वो हम पर मेहरबानी कर रहाहै तो इसमें हमारा ही कसूर है इसमें उनकी कोई भी गलती नहीं है। क्योंकि हम अपना हक नहीं मांग रहे इसलिए वो देने को तैयार नहीं हैं।

प्रश्न- उत्तराखंड में आई प्रलयकारी बाढ़ से जान-माल का नुकसान बढ़ गया लेकिन इस तरह की बाढ़ पिछले कई वर्षों से आ रही है। प्रलयकारी भूकंप भी आए हैं और कई लोग मारे गए हैं लेकिन मेरा ये प्रश्न है कि केदार घाटी में तमाम मकान बने हैं और ऐसा नहीं हैं कि ये अभी बने हैं बल्कि ये बहुत पहले से बन रहे हैं लेकिन आज वहां इतने बड़े पैमाने पर भूस्खलन हो रहा है, विस्फोट के कारण, अवैज्ञानिक विकास के कारण, वो प्रक्रिया आगे भी जारी रहेगी। एक तरफ मुख्यमंत्री गांवों को फिर से बनाने की बात करते हैं और दूसरा जैसे कि आपने भी कहा कि वहां वैली के किनारे जो मकान बने हैं वो किसी भी समय ढह सकते हैं फिर चाहे भूकंप आए या न आएं। मुझे लगता है कि क्या सरकार या वैज्ञानिक आने वाले दिनों में ऐसी कोई प्लानिंग कर सकते हैं कि इस तमाम आबादी को पुर्नस्थापित किया जा सके लेकिन क्या वो किया जाएगा और यदि हां तो इनकी संख्या तो लाखों में है तो सरकार इस काम को आगे कैसे बढ़ाएगी।

पहाड़ में बड़े बांधों के खिलाफ बहुत आवाज उठ रही है और वो पहाड़ को बर्बाद कर रहे हैं लेकिन जब इस तरह के कामों के लिए योजना बनती है तो उसमें सरकार के साथ पर्यावरणविद, इंजीनियर आदि होते हैं और वही सरकार के साथ बैठते हैं। तो ऐसे समय में आप आवाज क्यों नहीं उठाते ताकि ये काम वहीं पर रुक जाएं।

डाॅ. वीसी तिवारी: आपका जो पहला प्रश्न जो मकानों से संबंधित है तो उसके लिए मैं कहना चाहूंगा कि असल में इस भयावहता में इस तरह की आपदा नहीं आई थी और हमेशा नदी के किनारे ही शहर बसे हैं और भूविज्ञान के विचार से देखें तो कहा जाता है कि नदी के किनारे की बसावट असुरक्षित है। हमने देखा कि इंग्लैंड, यूरोप, आस्ट्रिया और उसके अलावा जहां भी हिमालय है या इस तरह की प्रकृति है वहां इस तरह की आपदाएं नहीं आ रही हैं जबकि वहां भी पहाड़ हैं ग्लेशियर हैं। तो वहां जो स्टेलमेंट हैं या तो सबसे नीचे हैं या टाप पर हैं, नदियों या बड़ी लेक के किनारे नहीं हैं। तो ऐसा माॅडल बनाया जा सकता है जिसमें उन्हें कम किया जाए। लेकिन इसके लिए सरकार, वैज्ञानिकों, और जो केन्द्रीय इमारत संस्थान (सैन्ट्रल बिल्डिंग संस्थान) या सीबीआरआई जैसे संस्थानों को मिलकर काम करना होगा जो ऐसे मकानों को डिजाइन करें जो कि हिमालय के हिसाब से ठीक हों। जैसे कि जापान में ये आम बात है वहां तो बने-बनाए मकान होते हैं और उनके बनने और बिगड़ने से कोई नुकसान नहीं होता है और किसी भी तरह का जान-माल का नुकसान नहीं होता तो इस तरह के मकान भी बनाए जा सकते हैं और ऐसा नहीं है कि हम ऐसे मकान नहीं बना सकते, भारत भी इस तरह के मकान बनाने में समर्थ है और भारत सरकार के पास इस तरह का प्रस्ताव भी है। तो यदि सरकार को, लोगों को वहीं पर रखना है और वो चाहती है कि पलायन भी न हो तो इस तरह की योजना आनी चाहिए जिसमें ऐसे मकान बनाए जाएं।

आपका दूसरा प्रश्न बांधों के संबंध में था; इस देश में जो भी मुख्य फैसले होते हैं वो राजनीतिक होते हैं। वैज्ञानिक अपने अध्ययन के आधार पर बताएंगा और रिपोर्ट बनाई जाती है जो एक स्तर तक आती है उसके बाद अंतिम फैसला राजनैतिक होता है और सरकार खेमे में भी वैज्ञानिकों की उतनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं होती इसका उदाहरण टिहरी बांध खुद है। टिहरी डेम के संबंध में वाडिया संस्थान ने भूगर्भीय अध्ययन में कभी नहीं कहा कि यहां बांध बनना चाहिए। लेकिन उसमें विदेशी लोगों ने काम किया और वो बांध बना और हजारों लोग प्रभावित हुए। लेकिन जैसे कि आगे के लिए उपयोगिता है और जैसे डाॅ. शर्मा ने बताया कि हमारे लिए, हमारे पास उत्तराखंडमें इतने जल संसाधन हैं इसीलिए उसे शुरू में ऊर्जा प्रदेश के रूप में कहा गया तो इसके लिए हमें जल विद्युत परियोजनाएं तो बनानी ही पड़ेंगी नहीं तो बिजली कहां से मिलेगी। दिल्ली में बिजली टिहरी बांध से ही आ रही है और वो उत्तराखंड की अपेक्षा दिल्ली को ज्यादा मिल रही है। उत्तराखंड के लोग तो बोलते ही हैं कि हमें क्या लाभहो रहा है टिहरी बांध से क्योंकि सारी बिजली तो दिल्ली चली जाती है।

प्रश्न: ये आत्म विरोधाभास नहीं हो गया, एक तरफ तो हम कह रहे हैं कि बिजली के लिए बड़े बांधों की जरूरत है और दूसरी तरफ हम कह रहे हैं कि पहाड़ में सैकड़ों किलोमीटर टनल से शंकाएं बढ़ जाती हैं कि वहां का इलाका भूकंप प्रभावित है और वहां भूकंप आने लगते हैं तो ये आत्म विरोधाभास नहीं है?

उत्तर - हमें इसके बारे में खुद ही समाधान निकालना होगा। ये तो कुछ इस तरह की बात है कि जब कोई ढ़ांचा बनता है, विकसित होता है तभी उसके बारे में कुछ पता चलता है। अभी टनल का एक ऐसा उदाहरण है कि गाजीपुर तक रेलवे का हो गया। अभी मनाली में है। तो ये देखा जा रहा है कि ये सफल होगा इसकी भूगर्भीय जांच को ध्यान में रखकर सब किया गया है। अब यदि आप कभी आस्ट्रिया या स्विटजरलैंड गए हों तो वहां पर सारी टनल हैं और टाॅप आॅफ द यूरोप वहां तक ट्रेन जाती है और तो उन्होंने उसे इसी तरह से डिजाइन किया है। वहां एक ऐसा पुल बना है कि आप ग्लेश्यिर की ऊंचाई पर जा सकते हैं इसलिए उन्होंने उन सब चीजों को ध्यान में रखकर किया है। वो तकनीकी रूप से समर्थ और मजबूत हैं, उन्होंने बहुत शोध के बाद उसे बनाया है तो कहीं न कहीं हमें उस स्थिति में आप कई तरह से और कई माध्यमों से शोध करके इंजीनियरस, टैक्नोक्रेटस् का, वैज्ञानिकों का, ईमारतों के बारे में शोध करने वाले, सिस्टम प्रबंधकों आदि के शोधों का प्रयोग कर सकते हैं। अब ये है कि हम लोगों ने शोध किया था। अब किसी ने सलाह दी कि सभी के साथ मिलकर विचार-विमर्श के बाद ही ये करना चाहिए और अब यदि उत्तराखंड में यही होगा उसके बाद ही कोई विकास का काम हो और उसके बाद ही विकास की अनुमति दी जाए और ये तय किया गया है कि अब जब भी उत्तराखंड में कोई विकास का काम किया जाए तो यही माॅडल अपनाया जाए। मैंने अपनी किताब में भी यही बात कही है।

हमें हिमालय विकास मंत्रालय और हिमालय विकास नीति चाहिए क्योंकि हमारा जो हिमालय राज है जैसे कि मैंने भी सिक्किम का उदाहरण दिया, सिक्किम हिमालय का सबसे बेहतर राज्य है और वह भारत का पहला राज्य है जहां ये सब एक योजना के तहत हुआ और वहां एक अच्छा उदाहरण है वहां एक पन-बिजली परियोजना (हाइड्रो प्रोजेक्ट) का उदाहरण है उसका कार्यान्वयन बहुत अच्छा है इसलिए उससे कोई नुकसान नहीं हुआ। तो इस तरह से हमारा हिमालय राज आदि सबके लिए एक नीति बननी चाहिए जो कि सब जगह लागू हो और भौगोलिक दृष्टि नाॅर्थ ईस्ट थोड़ा अलग है, उत्तराखंड थोड़ा अलग है और जम्मू कशमीर भी अलग है तो फिर वहां पर वही बात आ जाती है अब पत्थर एवं पहाड़ भी अलग हैं तो फिर वही किसी भी जगह की भूविज्ञान के हिसाब से ढ़ांचे बनने चाहिए।

प्रशन - आपने कहा कि हमारे वहां की मिट्टी एक लाख साल पुरानी है तो उस हिसाब से क्या पहाड़ एवं बाढ़ को देखते हुए बड़े बांध फिर से बनाए जाने चाहिए?

उत्तर: ऐसा है कि अभी तक जो हो गया वो हो गया लेकिन आगे जो भी बांध बनेंगे तो वो छोटे बांध ही बनेंगे लेकिन छोटे बांध बनाना भी एक सवाल है कि अभी तक जैसे कि विष्णु गाड़ परियोजना की बात की जा रही है तो भूवैज्ञानिक ढ़ाचा से हमें पता चलता है कि वो कहां पर कमजोर हैं तो कम से कम वो परियोजना तो वहां पर नहीं बनाई जानी चाहिए।

एच एम बागिया- मैं, भारतीय लोक प्रशासन संस्थान में संस्थापक संचिव हूं; मेरे तीन छोटे-छोटे प्रश्न हैं। आज ये बात हो रही है कि समझदारी से काम नहीं हो रहा। जब हेलीकॉप्टर उत्तराखंड के प्रभावित लोगों के लिए सामान लेकर जा रहे थे तो उसमें 20 आदमियों को बैठाने की क्या जरूरत थी क्योंकि आदमी तो वहां पर मिल ही सकते थे फिर उसमें इतने आदमी ले जाने की क्या जरूरत थी, यदि वहां इतने आदमी न जाते तो शायद इतना बड़ा हादसा न होता यदि समझदारी से काम लिया होता। जब अखबार में विज्ञापन की बात करें तो जिस समय अखबार में ये विज्ञापन आया है कि वहां के मुख्यमंत्री ने अन्य लोगों द्वारा दी गई चीजों को लेने से इंकार कर दिया है तो ऐसा क्यों किया ये भी एक सवाल है।

तीसरी बात वहां जो भी चीजें गईं वो तीन-चार दिन तक वहीं पड़ती सड़ती रहीं उन्हें किसी ने भी नहीं उठाया। तो उस सब की जिम्मेदारी किसकी है? इसका अर्थ है कि इस संबंध में कोई भी समझदारी का काम नहीं किया गया है। लेकिन अब वहां जो भी काम किया जाए वो समझदारी से किया जाए, वहां किए जाने वाले किसी भी काम मेंवहां के जमीनी स्तर पर काम करने वाले कर्मचारियों को साथ में लेकर काम किया जाए। उसके अलावा जो भी काम किया जाए उसमें स्थानीय जनता की कम से कम 80 प्रतिशत लोगों की भागीदारी एवं सहयोग हो।

उमाकांत - आपने कहा कि हेलीकॉप्टर में 20 लोगों को उठाने की जरूरत क्या थी जिससे गरूड़ चट्टी में वो हादसा हुआ। तो इस संबंध में मैं कहना चाहता हूं कि मैं सरकार का आदमी नहीं हूं और यहां पर सरकार का कोई आदमी ही नहीं और आपने जो सवाल किया वो व्यवस्था का है। लेकिन मैं आपकी जानकारी थोड़ी सी दुरस्त करना चाहता हूं कि वहां जो हेलीकॉप्टर का हादसा हुआ वो हेलीकॉप्टर वहां लकड़ी छोड़ने के बाद खाली जा रहा था। वहां जो बचाव दल गया उसमें शामिल लोग 7-8 दिन से सोए नहीं थे, हमारे सैनिकों ने वहां पर खाना तक भी नहीं खाया था। वो रात-दिन उसी काम में लगे थे तो वो लोगों को बचाने के लिए वहां गए थे और ऐसी बात हुई थी कि जब हेलीकॉप्टर लोगों को बचाने वहां गया था और जब वो लकड़ी लेकर जाएगा तो वो एक बचाव दल को वापिस लेकर आएगा क्योंकि उनका काम वहां खत्म हो गया है। दूसरी बात कि ये व्यवस्था का दोष है और हम ये स्वीकार करते हैं कि यहां व्यवस्था का कोई व्यक्ति नहीं है आप ये सवाल मुख्यमंत्री से करें, उत्तराखंड की सरकार से करें।

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