प्रकृति के मानव प्रहरी


प्रकृति और पर्यावरण को उनकी मूल नैसर्गिक अवस्था में बनाए रखने में वन, आर्दभूमि, पहाड़, समुद्र, मैंग्रोव जैसे पर्यावरण प्रहरी अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। यह स्थिति बने रहना समूची पृथ्वी और इसके बाशिंदों (जिसमें वन्यजीव, पशु-पक्षी, मनुष्य सूक्ष्मजीव आदि सभी आते हैं) के अस्तित्व के लिये अनिवार्य है। हमें यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिये। कुछ संवेदनशील व्यक्तियों ने ऐसा ही किया। प्रकृति और इनके अमूल्य संसाधनों को संजोने के हर संभव प्रयास किये, व्यवस्था के साथ संघर्ष भी किया मगर हिम्मत नहीं हारे। कुछ ने अपना बलिदान भी कर दिया। इनमें से अनेक लोग आज भी अपने अदम्य उत्साह के साथ प्रकृति की रखवाली कर रहे हैं। आइये हमारे देश में प्रकृति के ऐसे कुछ खास मानव प्रहरियों के बारे में जानते हैं।

अमृता देवी


अमृता देवी ऐसी साहसी भारतीय महिला रही हैं जिन्होंने वृक्षों की रक्षा के लिये न केवल अपना बल्कि अपनी तीन लड़कियों की जान की बाजी भी लगा दी और पर्यावरण संरक्षण के इतिहास में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों से अंकित करा दिया। यह वास्तविक घटना जोधपुर (राजस्थान) जनपद के खेजरली गाँव की है। यहाँ खेजरी वृक्ष (प्रोसोपिस सिनेरिया) बड़ी संख्या में पाये जाते थे इसलिये इस स्थान का नाम खेजरली रखा गया था। 1730 ई. में मारवाड़ (जोधपुर) के शासक महाराजा अभय सिंह अपने नये महल के निर्माण के लिये खेजरी के वृक्षों को कटना चाहते थे। थार के मरुस्थल के बावजूद उस जमाने में वहाँ पर काफी हरियाली थी और खेजरी वृक्ष बहुतायत में थे। महाराजा ने आदेश दिया कि जब रात में सभी गाँव वाले सो रहे हों तब जाकर सभी पेड़ काट दिये जाएं। उस रात अमृता देवी को इस बात की भनक लग गयी और वह राजा के सैनिकों और काटे जाने वाले पेड़ों के बीच में आ गई और पेड़ों से लिपट गई। सैनिकों ने उन्हें रास्ते से हटने के लिये धन का प्रलोभन दिया लेकिन उन्होंने यह अस्वीकार कर दिया। उन्होंने सैनिकों से कहा कि अगर एक पेड़ को बचाने के लिये एक आदमी की जान चली जाती है तो ऐसा करना उचित है।

पेड़ों को कटने से बचाने के लिये उसी समय उन्होंने स्वयं की और अपनी तीन बेटियों (आसू, रत्नी और भागू) की जान की आहूति दे दी। राजा के सैनिक फिर भी नहीं रुके और पेड़ो को काटना जारी रखा। यह खबर थोड़े ही समय के अंदर जंगल में आग की तरह फैल गई और आस-पास के गाँवों से सैकड़ों की संख्या में लोग इकट्ठा हो गये। लोगों ने यह फैसला लिया कि हर एक पेड़ को बचाने के लिये एक आदमी अपनी कुर्बानी देगा। आधिकारिक आंकड़े के मुताबिक उस घटना के दौरान कुल 363 जानें गई थीं जिसमें बूढ़े, जवान, महिलायें, नव विवाहित युगल और बच्चे तक शामिल थे। पेड़ों की रक्षा के लिये मानव जाति की यह कुर्बानी इतिहास में दर्ज हुई। अमृता देवी के सम्मान में पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान करने वाले को राजस्थान सरकार के द्वारा ‘अमृता देवी विश्नोई स्मृति पुरस्कार’ प्रदान किया जाता है।

सुन्दरलाल बहुगुणा


सुन्दरलाल बहुगुणा का जन्म 9 जनवरी 1927 को टिहरी गढ़वाल (उत्तराखंड) के मरोड़ा गाँव में हुआ था। भारत में उनकी पहचान एक पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के अगुआ के रूप में है। वह गाँधी जी के अहिंसा और सत्याग्रह दर्शन में विश्वास रखते हैं। 1970 के दशक में हिमालय के जंगलों को बचाने के लिये उन्होंने वर्षों तक संघर्ष किया। इसके बाद 1980 के दशक में वे टिहरी बाँध निर्माण के खिलाफ आंदोलन से भी जुड़ गये। बहुगुणा जी ने आम जन को जागरुक बनाने और अपने आंदोलन में सहयोग देने के लिये वर्ष 1981 से 1983 के दौरान हिमालय क्षेत्र में 5000 किमी की पैदल यात्रा की। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उनके अतुलनीय योगदान के लिये भारत सरकार द्वारा उन्हें वर्ष 2009 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया है।

गौरा देवी


गौरा देवी (1925-1991) चिपको आंदोलन की एक अहम कड़ी थीं। उनके मन में बचपन के दिनों में माँ से पर्यावरण को संजोने की प्रेरणा उत्पन्न हुई थी। 26 मार्च 1974 को उत्तराखंड के रेनी नामक छोटे से गाँव में गौरा देवी के नेतृत्व में महिलाओं को एक समूह तीन दिन व तीन रात जंगल में पेड़ों से चिपककर खड़ा रहा और इस प्रतिरोध के द्वारा पेड़ों को काटने से रोका। गाँव के सभी पुरुष काम करने नजदीक स्थित चमोली गये हुये थे, इसी बात का फायदा उठाकर पेड़ों को काटने की प्रक्रिया शुरू की गई थी लेकिन गौरा देवी ने इन लोगों के इरादे पर पानी फेर दिया। उन्होंने बहादुरी का परिचय देते हुये उनसे कहा कि हमने इन पेड़ों को गले लगाया है। अगर वे इन पेड़ों को काटना चाहते हैं तो पहले कुल्हाड़ी उन महिलाओं के शरीर पर चलनी चाहिये। यह सुनकर पेड़ काटने आए लोग पीछे हट गये और गौरा देवी का नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।

चंडी प्रसाद भट्ट


पर्यावरण सुरक्षा के एक और जांबाज प्रहरी का नाम है चंडी प्रसाद भट्ट। इनका जन्म 23 जून 1934 को चमोली (उत्तराखंड) के गोपेश्वर में हुआ था। चंडी प्रसाद चिपको आंदोलन के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे। उन्होंने 1964 में दशोली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना की जो आगे चलकर चिपको आंदोलन की मातृ संस्था बनी थी। चंडी प्रसाद ने सामाजिक पारिस्थितिकी (सोशल इकोलॉजी) के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण काम किये हैं। पर्यावरण और पारिस्थितिकी जैसे क्षेत्रों में अहम योगदान के लिये वर्ष 1982 में चंडी प्रसाद को रेमन मैगसेसे पुरस्कार और वर्ष 2013 में गाँधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।

ये तो चंद उदाहरण हैं प्रकृति के मानव प्रहरियों के। इनके अलावा देश-दुनिया में असंख्य लोग हैं जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण में अपना जीवन समर्पित कर दिया। पर्यावरण को लेकर इनकी उद्धात भावना सम्मान के लायक है।

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