प्रकृति को सहेजने की कोशिश

13 Jan 2012
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75 साल के सत्यदेव सगवान ने सेना की नौकरी करते समय प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ भावनात्मक नाता जोड़ा। अपने परिश्रम से उन्होंने हरियाणा और राजस्थान के कई इलाकों को हरा-भरा किया है। अपने घर पर ही 2500 पौधों की नर्सरी तैयार की है। इनमें वट, पीपल, खेजड़ी, नीम, जामुन व कदम के पौधे हैं। सत्यदेव जी यह कहकर कि पेड़ भूमि क्षरण रोकने व वर्षा की स्थिति बेहतर करने साथ ही भूमंडल से ब्रह्मांडीय संपर्क भी सकारात्मक एवं सहज करते हैं, लोगों को पौधे रोपने के लिए प्रेरित करते हैं।

इंसान के क्षुद्र स्वार्थ ने पर्यावरण का गंभीर संकट पैदा कर दिया है। इस कारण कब बाढ़ आ जाए, और कब सूखे की मार पड़ जाए या कहां भूकम्प आ जाए, कहा नहीं जा सकता। इसका एकमात्र जिम्मेदार प्राणी मानव है और इसके निदान के लिए जलवायु सम्मेलनों से ही बात नहीं बनेगी। देश-दुनिया का पर्यावरण बचाने के लिए सभी को दिल से कोशिश करनी होगी जैसे गढ़वाल क्षेत्र की की डॉ. हर्षंवती बिष्ट, नैनीताल के वनखंडी महाराज, राजस्थान के बांसवाड़ा जिले के स्कूल शिक्षक दिनेश व्यास और हरियाणा के 75 वर्षीय सत्यदेव सगवान कर रहे हैं। ये लोग बिना किसी सरकारी मदद के अपने निजी प्रयासों से प्रकृति व पर्यावरण को संरक्षित और समृद्ध करने में जुटे हैं।

पेशे से शिक्षक और पर्वतारोहण में दिलचस्पी रखने वाली डॉ. हर्षंवती बिष्ट ने जब गंगोत्री-यमुनोत्री क्षेत्र में समुद्र तट से 3792 मीटर की ऊंचाई पर भोजवासा जैसे उजाड़ क्षेत्र को फिर से हरा-भरा करने का संकल्प लिया तो लोगों ने इसे असंभव कार्य बताया लेकिन आज उस दुर्गम क्षेत्र में लहलहाते लगभग 10,000 भोजवृक्ष उनकी सफलता की कहानी बयां कर रहे हैं। पर्वतारोही रतन सिंह चौहान व तीन मजदूरों के सहयोग से चीड़वासा क्षेत्र में विकसित दुर्लभ और दिव्य औषधीय जड़ी-बूटियों की नर्सरी हर प्रकृति प्रेमी को सहज ही आकर्षित करती है। यहां 20 हजार भोजवृक्ष, मांगिल, पहाड़ी पीपल के अलावा कुटकी, आर्चा, सालमपंजा और अतीश के 12 हजार पौधे हैं। वह कहती हैं कि प्रकृति को बचाने की सीख हमें अपनी प्राचीन संस्कृति से लेनी होगी जो धरती-नदियों को देवी मानती है और वृक्षों को पवित्र मानकर उन्हें पूजने की सीख देती है।

पर्यावरण संरक्षण की ऐसी ही अलख जगाई है वनखंडी महाराज ने। नैनीताल से पचास किलोमीटर दूर सातताल की ऊंची पहाड़ी जो हिडिंबा पर्वत के नाम से जानी जाती है, में वनखंडी महाराज ने चौड़ी पत्तियों वाले वृक्षों का जंगल सहेजा है, जिसे उन्होंने ‘भारतमाता वन’ नाम दिया है। वनखंडी महाराज ने इस उजाड़ क्षेत्र को हरे-भरे जंगल में बदल दिया है। उन्होंने यहां वनदुर्गा का मन्दिर भी बनवाया है। वनदुर्गा मंदिर व भारतमाता वन दोनों क्षेत्रीय लोगों के आस्था का केन्द्र बन चुके हैं। राजस्थान प्रांत के बांसवाड़ा जिले के नया प्रांत गांव के स्कूल शिक्षक दिनेश व्यास ने ग्रामीणों को प्रेरित करके ‘पूर्वज वन परम्परा’ शुरू की है। उनका कहना है कि यदि मनुष्य पुरखों के लिए पेड़ लगाये तो वे प्रसन्न होंगे और छाया और फल के रूप में आशीर्वाद देंगे। उनके इस प्रयास से बागदौरा क्षेत्र के दर्जनों गांव से लेकर गुजरात से सटे आनंदपुरी तक ‘पूर्वज वन’ फैल चुके हैं।

उनसे प्रेरणा लेकर जैन समुदाय के लोग ‘तीर्थकर वन’ योजना को क्रियान्वित कर रहे हैं। ऐसे ही 75 साल के सत्यदेव सगवान ने सेना की नौकरी करते समय प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ भावनात्मक नाता जोड़ा। अपने परिश्रम से उन्होंने हरियाणा और राजस्थान के कई इलाकों को हरा-भरा किया है। अपने घर पर ही 2500 पौधों की नर्सरी तैयार की है। इनमें वट, पीपल, खेजड़ी, नीम, जामुन व कदम के पौधे हैं। सत्यदेव जी यह कहकर कि पेड़ भूमि क्षरण रोकने व वर्षा की स्थिति बेहतर करने साथ ही भूमंडल से ब्रह्मांडीय संपर्क भी सकारात्मक एवं सहज करते हैं, लोगों को पौधे रोपने के लिए प्रेरित करते हैं। ये प्रकृति प्रेमी संदेश देते हैं कि खुशहाली के लिए ऋषियों के चिंतन की ओर लौटना होगा।

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