प्रकृति में जल-चक्र और जल-संतुलन

प्रकृति में जल-चक्र और जल-संतुलन विनोद बिहारी लाल पानी आज विश्व की विकरालतम समस्याओं में से है। हर वर्ष बाढ़ और सूखे से हजारों जानों और करोड़ों की संपत्ति का नाश होता है। अरबों व्यक्ति सही स्तर के पीने के पानी से वंचित है। संकट की गंभीरता के लिए हमें यह जानना होगा कि विश्व में हर रूप और स्थिति में प्राप्त पानी की कुल मात्रा यदि सौ यूनिट मानी जाए तो लगभग 97.5 प्रतिशत पानी खारा है जो काम का नहीं है। केवल ढाई यूनिट पानी ही मीठा पानी है : इसमें से भी 1.7 यूनिट ध्रुवीय बर्फ है, 0.78 यूनिट जमीन के अंदर है, 0.007 यूनिट झीलों में है, और 0.001 यूनिट वातावरण में है। सृष्टि में जल केंद्रीय तत्व है। इस तथ्य को मानवीय मनीषा ने विचार के आरंभ में ही उद्घाटित कर दिया था। पूर्व और पश्चिम दोनों ही के आदि विचारकों ने जल को सृष्टि के अधिष्ठान और मूल तत्व के रूप में देखा। ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में तो जल की चर्चा सृष्टि-पूर्व की स्थिति के संदर्भ में है ‘जब न सत् था न असत्, न आकाश था न आकाश से परे के लोक, तब कौन सब को आच्छादित किए हुए था? कौन कहां स्थित था? क्या गहन, गंभीर जल में? (अथवा, गहन गंभीर जल भी तब कहां था?’ :

नासदासीन्नो सदसीतद्रानी नासीद्रजो नो व्योपा परो यत्।
किमावरीवः कुह कस्य शरमन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम्।। (ऋ वे. 10.129)


बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार यह सृष्टि आरंभ में जल ही थी- आप एवेदसग्र आसुः... (बृ,5.5.1)। छान्दोग्योपनिषद् ने पृथ्वी को मूर्तिमान जल कहा है... आप एवेमा मूर्ता येयं पृथिवी... (छा.7.10.1) और केवल पृथ्वी ही नहीं, अपितु ‘अंतरिक्ष, द्युलोक, पर्वत, देव-मनुष्य, पशु, पक्षी, तृण, वनस्पति हिंस्त्र पशु, कीट-पतंग-चींटी आदि जितने भी प्राणी हैं वे सब भी मूर्तिमान जल ही है।’

पाश्चात्य दर्शन की शुरुआत ग्रीक विचारक थेलीज (जन्म 624 ईसा पूर्व) से होती है। जिनकी स्पष्ट मान्यता थी कि हर वस्तु जल से बनी है। वे ‘अनेक में एक’ की चिरन्तन समस्या से जूझते हुए एक ऐसे तत्व की तलाश में थे जिसे सारी भौतिक सृष्टि के आधार और सार के रूप में जाना जा सके (चौबीस शताब्दियों बाद, जर्मनी के महाकवि जोहान्न वुल्फगांग फॉन गेटे ने इसी भाव को फिर अभिव्यक्ति दी- हर वस्तु की उत्पत्ति जल में है, हर वस्तु जल से ही बनी रहती है)। थेलीज ने जल को सहजता से रूप बदलते हुए देखा था और यह भी कि वह, बिना अपनी सत्ता खोए, बिना किसी आकार में बंधे, कैसे पृथ्वी और आकाश के बीच एक चक्रीय प्रवाह में गतिशील रहता है।

मनुष्य को यह ज्ञान भी बहुत पहले से ही हो गया था कि जल के प्रवाह-चक्र का कारण सूर्य की ऊष्मा है : अथर्ववेद (4.15.5) में कहा गया है कि हे मरुदेवो! सूर्य की गर्मी के द्वारा आप बादलों को समुद्र से ऊपर की ओर ले जाएँ, उड़ाएँ और महा वृषभ के समान गर्जना करने वाले जल-प्रवाह से आप भूमि को तृप्त करें।

किंतु पृथ्वी के भीतर, पृथ्वी के ऊपर और आकाश में जल की व्याप्ति का क्या स्वरूप है, इन तीनों क्षेत्रों में विचरण करते हुए जल के क्या पारस्परिक संबंध सूत्र हैं, विभिन्न रूपों और स्थितियों में पाए जाने वाले जल के मात्रात्मक आकलन की विधि और नियम क्या हैं, ये और ऐसे ही अनेक प्रश्न समझने सुलझाने में मनुष्य को हजारों साल लग गए और यह अनुसंधान-यात्रा अभी जारी है।

दर्शन और कल्पना पर आधारित तत्व-दृष्टि कितनी ही संतोषजनक क्यों न हो, वह मानवीय जीवन को भौतिक दृष्टि से समृद्ध करने में ज्यादा काम नहीं आती। सूखे और बाढ़ भारी विभीषिकाओं से निपटने के लिए जल स्रोतों से दूर नगरों-बस्तियों को संभव बनाने के लिए, उद्योग क्षेत्रों की स्थापना के लिए मनोरंजन-स्थलों के विकास के लिए और समाज की ऐसी ही अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो जल पर निर्भर है, यह आवश्यक था कि जल के विषय में सही समझ का विकास हो. इस समझ के दो पहलू हैं : एक वैज्ञानिक जिसके अंतर्गत विभिन्न स्थानों/स्थितियों में पाए जाने वाले जल और नैसर्गिक जल प्रवाह मात्रात्मक आकलन की क्षमता प्रमुख है और दूसरा अभियांत्रिक, जो यह क्षमता देता है कि हम नदियों को बांध सकें, उनका रुख मोड़ सकें, बादलों को दुह सकें, भूगर्भ से पानी ऊपर ला सकें।

जल-चक्र की प्रकृति के विषय मे प्लेटो ने दो परिकल्पनाएं प्रस्तुत की। एक के अनुसार पृथ्वी के भीतर एक दूसरे से जुड़े हुए जल-मार्गों का एक जाल है जो अंततः एक विशाल जलागार से जुड़ता है जिसे उन्होंने टारटरस (अंधेरा, अगाध, गह्वर) नाम दिया : इस विशाल जलागार के उद्वेलन से ही नदियों, नहरों में पानी बहता है जो समुद्रों और जल-मार्गों से होता हुआ फिर टारटरस में लौट आता है। प्लेटो ने दूसरा विचार भी दिया कि नदियों और स्रोतों की उत्पत्ति वर्षा से होती है।

प्लेटो के शिष्य एरिस्टॉटल ने टारटरस परिकल्पना के लिए प्लेटो की खबर ली है : स्वयं अरस्तू के अनुसार भूगर्भ में विशाल गह्वर हैं जो हवा से भरा है। यही हवा ठंडी होने पर सघन होती हुई पानी बन जाती है। यही कारण है कि बड़ी नदियाँ प्रायः ऊँचे पहाड़ों के पास से निकलती हैं।

यद्यपि जल-चक्र की वास्तविक प्रकृति की सही समझ से मनुष्य अभी सदियों दूर था, पर चक्र के विभिन्न अंगों में जल मात्रा को मापने के प्रयोग इस काल तक शुरू हो गए थे। जल विज्ञान में किए गए शायद सब से पहले प्रयोगों के आधार पर हिप्पोक्रेटीज (460-360 ईसा पूर्व) ने (जिन्हें पाश्चात्य भेषज विज्ञान का जनक माना जाता है) यह दिखाया गया कि वाष्पीकरण की प्रक्रिया मे जल की कुछ मात्रा की हानि हो जाती है।

वर्षा के मात्रात्मक आकलन का विश्व में पहला प्रयास और प्राप्त वर्षा के आधार पर राजस्व उगाहने की व्यवस्था का श्रीगणेश, चंद्रगुप्त मौर्य के शासन काल में (लगभग 320-297 ईसा पूर्व) महामात्य कौटिल्य ने किया था। ईसा के बाद की तेरहवीं सदी तक चीन में शंकु या सिलिण्डर के आकार वाले वर्षा मापक यंत्रों का व्यापक प्रयोग किया जाने लगा था इसी सदी के आरंभ मे चीनी वैज्ञानिक छिन चियु-शाओ ने एक विधि सुझाई जिससे अनेक स्थलों पर ली गई वर्षा की एक बिंदु माप से एक बड़े क्षेत्र की औसत वर्षा का अनुमान लगाया जा सकता था।

जल के चक्रीय प्रवाह की दुरी समझ इटली के महान कलाकार-वैज्ञानिक लेयोनार्दो द विंची (1452-1519) में पाई जाती है। उसने जल-चक्र की एक दूसरी अवधारणा भी दी है जो तथ्य से कोसों दूर, प्लेटो-अरस्तु की कपोल-कल्पना की परंपरा से जा जुड़ती है। संभवतः इसके मूल में वह पुरानी दार्शनिक प्रवृत्ति रही हो जो समष्टि में व्यष्टि और व्यष्टि में समष्टि की संरचना का प्रतिफलन देखने का आग्रह करती है।

लेयोनार्दो ने व्यक्ति के शरीर में पैरों से सिर की ओर होते हुए रुधिर-संचार को देखा और सुझाया कि पानी भी इसी प्रकार किसी रहस्यमय ढंग से समुद्रों से पर्वत-शिखरों की ओर धकेल दिया जाता हैः शिखर पर पहुंच कर वह झरनों, सोतों के रूप में बह निकलता है और नीचे की ओर बहता हुआ सामुद्रिक जल स्तर तक आ जाता है। उसने इस प्रक्रिया की तुलना लता-पादपों में निर्यास (जीवन रस) के ऊर्ध्वारोहण से की और इस ओर ध्यान दिलाया कि यदि वृक्ष की शाख काट दी जाए तो निर्यास रिसने लगता है और अंततः धरातल पर लौट आता है।

जल-चक्र की वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार जल सागरों, झीलों और थल-क्षेत्र से सूर्य के ताप से वाष्प बन कर वातावरण का अंग बन जाता है। ऊपर उठती संचरित होती हुई यह वाष्प ठंडी, संघनित होने लगती है और अनुकूल परिस्थितियाँ बनने पर वृष्टि के रूप में पुनः धरती (जल और थल दोनों ही) पर गिरती है।

वृष्टि के कई रूप हो सकते हैं- पानी, उपल, तुहिन, हिम आदि। थल भाग पर गिरने वाली वर्षा का कुछ भाग भू-रंध्रों से क्षरित, स्रवित होता हुआ सतह के नीचे आरंभिक स्तरों को भिगोता, संतृप्त करता हुआ भूजलागार में जा मिलता है और फिर इस भूमिजल के साथ पृथ्वी के भीतर बहता हुआ उपयुक्त स्थलों पर किसी नदी के प्रवाह में मिल जाता है या फिर झरनों स्रोतों के रूप में फूट निकलता है या सीधा समुद्र मे जा मिलता है।

नदियाँ भी समुद्र में जा मिलती हैं और यह चक्र अनवरत चलता रहता है। जल-चक्र की इन मुख्य प्रक्रियाओं (वर्षा, वाष्पीकरण, सरित्प्रवाह, भूमि में जल का स्राव और क्षरण) के बीच में ही अनेक उप-प्रक्रियाएं चलती रहती हैं जैसे हिमनदों की गति और उन में समयानुसार होने वाले परिवर्तन, वर्षा और पिघलती हुई बर्फ का थल के ऊपर (नदी-नालों से अलग) और थल के भीतर के मार्गों से बहाव, झीलों से संबंधित प्रक्रियाएं गिरती हुई बूंदों से उठती हुई भाप, बारिश के एक अंश का वनस्पतियों, पेड़-पौधों द्वारा छेक लिया जाना, पत्तियों की सतह से वाष्पोत्सर्जन आदि।

जल संतुलन के ज्ञान के लिए यह आवश्यक था कि विभिन्न परिस्थितियों में होने वाले जल-प्रवाह के नियामक सिद्धांतों और तदाधारित संबंध-सूत्रों का विकास हो। इनमें सबसे पहली समस्या नदी के प्रवाह को नापने की थी। ईसा की दूसरी शताब्दी तक रोमन इंजीनियर सदियों से चली आ रही इस मान्यता से आगे नहीं बढ़ सके थे कि प्रवाह की मात्रा अनुप्रस्थ काट (क्रॉस सेक्शन) के क्षेत्रफल के सीधे अनुपात में होती है; इसी आधार पर उन्होंने विशाल परियाजनाएं बनाई थीं।

आश्चर्य की बात यह है कि ईसा पूर्व पहली सदी के ग्रीक वैज्ञानिक हेरॉन (हीरो ऑफ अलक्जन्ड्रिया) ने यह जोर देकर कहा था कि प्रवहमान जल की मात्रा जानने के लिए क्रॉस सेक्शन के क्षेत्रफल के साथ बहाव की गति जानना भी आवश्यक है। वैज्ञानिक प्रगति की दृष्टि से यह एक बड़ी छलाँग थी पर उस समय के विज्ञान-वेत्ताओं ने इसकी पूरी तरह अनदेखी कर दी।

ईसा बाद की पहली शताब्दी की अत्युत्कृष्ट कृति ‘द अक्विस उर्बस रोमे, लिब्री’ के लेखक सैक्सटस जुलियस फ्रॉन्तियस ने भी केवल बहाव के क्षेत्रफल को ही बहाव की गणना के लिए काफी माना यद्यपि वे समझ रहे थे कि इस मान्यता में कोई कमी है क्योंकि वे अस्पष्ट रूप से संकेत देते हैं कि प्रवाह को अनेक अन्य अवयव प्रभावित कर सकते हैं जैसे बहाव की गति, गतिकारक शीर्षान्तर (वाटर हैड), घर्षण-जन्य अवरोध, संपर्क-सतहवर्ती परत (बाउन्ड्री लेयर) आदि।

शीघ्र ही यूरोप में चर्च के प्रभाव में निरंतर गहराती हुई धर्मांधता और असहिष्णुता का दौर शुरू हो गया जिसमें वैज्ञानिक जिज्ञासा और स्वतंत्र चिंतन के लिए कोई स्थान नहीं था। दमन और उत्पीड़न की ये लगभग तेरह शताब्दियां जिज्ञासा और चिंतन के लिए मूर्छना-काल की तरह रहीं। फिर पंद्रहवीं शताब्दी में लेयोनार्दो दा विंची का प्रादुर्भाव हुआ। अनेक विषयों पर उनके नोट्स उपलब्ध हैः सबसे अधिक नोट्स जल-विषयक ही हैं।

उन्होंने खुली नहरों में पानी के बहाव पर परीक्षण किए, नहर के क्रॉस-सेक्शन में हर बिंदु पर बदलते वेग की उन्हें अभूतपर्व समझ थी। तरल गति विज्ञान में अविच्छिन्नता का सिद्धांत तो निस्संदेह उनके नाम से जाना जा सकता है। जल के बहाव में तल के ढलान का महत्व उन्होंने समझा था। पर वे इस भ्रांत धारणा में रहे कि वेग और दूरी में फलनीय संबंध है; इस संबंध में यदि समय की भूमिका वह पकड़ पाते तो आज गति के नियामक सिद्धांतों में से एक उनके नाम होता।

सोलहवीं शताब्दी में फ्रांस के बैर्नर पलीसी ने दृढ़ता से घोषणा की कि नदियों और सोतों की उत्पत्ति केवल वर्षा से ही संभव है। उन्होंने फव्वारा कुआँ (आर्टीजियन वैल) के नियमों पर प्रकाश डाला। नदियों के समीपस्थ कुओं में जल संवर्धन की प्रक्रिया की चर्चा की। नदी में अलग-अलग बिंदुओं पर उठते हुए जलस्तर के संदर्भ में देखें जाने वाले अंतराल की व्याख्या की और भूमिक्षरण को रोकने में वनों की भूमिका की ओर ध्यान आकर्षित किया।

पलीसी के समकालीन ज्हाक बेसों ने जलचक्र की सही और स्पष्ट तस्वीर पेश की। इटली के आर्किटेक्ट जोवान फॉन्ताना ने तिबेर नदी के बाढ़-प्रवाह (1598) की विधिपूर्वक माप की और उसका विश्लेषण किया- पर गणना में प्रयोग किया वही सदियों पुराना त्रुटिपूर्ण सूत्र! सही प्रवाह-सूत्र (प्रवाह-क्रॉस-सेक्शन का क्षेत्रफल x वेग) को मान्यता अगली शताब्दी में ही मिल पाई जब पोप अरबन अष्टम के आदेश पर बेनेदेत्तो कास्तेल्ली ने नदी-प्रवाह का गहराई से अध्ययन किया और उसकी पुस्तक “देल्ला मिजूरा देल्लाक्वे कोरेन्ती” (1628) प्रकाशित हुई।

सत्रहवीं शताब्दी में जलविज्ञान में अच्छी प्रगति हुई। फ्रांस के पिऍर पॅरो ने सैन नदी पर किए गए अपने प्रयोगों से यह सिद्ध किया कि अध्ययन-क्षेत्र में सैन नदी का वार्षिक प्रवाह वर्षिक वर्षा और हिमपात की संयुक्त मात्रा के मात्र छठे भाग के बराबर है। सैन नदी पर ही पेरिस के निकट एक भिन्न जलक्षेत्र में किए गए स्वतंत्र प्रयोगात्मक अध्ययन से एद्मे मारिऔत भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे।

ब्रिटिश वैज्ञानिक एडमंड हैली ने इससे आगे जाते हुए सिद्ध किया कि सागरों और नदियों से इतनी भारी मात्रा में पानी भाप बन कर उड़ता है कि उस से होने वाली वृष्टि सारी नदियों में बहने वाले जल की आपूर्ति के लिए पर्याप्त है। वाष्पीकरण की दर नापने के लिए हैली ने पानी भरे तसलानुमा पात्र (इवापोरेशन पैन) का प्रयोग किया था जो आज भी प्रचलित है। हैली ने भूमध्य सागर और उसमें मिलने वाली नौ बड़ी नदियों को चुना था। भाप बन कर उड़ने वाले पानी की मात्रा का अनुमान नदियों द्वारा समुद्र में ले जाए गए पानी से लगभग तीन गुना निकला।

आठरहवीं सदी में मूलभूत सिद्धांतों की खोज ने जोर पकड़ा। हेनरी द पीतों ने पीतो-ट्यूब का आविष्कार किया जिससे क्रॉस-सेक्शन में विचित्र ऊर्ध्वाधर रेखाओं पर, विचित्र गहराइयों पर स्थित बिंदुओं पर जल का वेग नापा जा सकता था। यह एक बड़ा कदम था जिससे सेक्शन में वेग-व्याप्ति के स्वरूप के विषय में सारी अटकलें खत्म हो गई।

सदी के उत्तरार्ध में फ्रेंच इंजीनियर अन्त्वान शेजी ने पेरिस के लिए दूर नदी से अतिरिक्त पानी लाने के लिए उपयुक्त जलमार्ग के डिजाइन की समस्या से जूझते हुए एक सरल फार्मूला दिया जो आज भी नहरों के डिजाइन में व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है। पर सेजी के फार्मूले की फ्रांस में अनदेखी की गई। अंततः 1897 में हर्षेल ने अमेरिका में इसे प्रकाशित किया। शेजी के कुछ बाद ही पीऍर लुई जॅर्गिज द्यु बुआ ने अपने विशाल आँकड़ों का विश्लेषण किया और सार्वदेशिक उपयोग में आ सकने की दृष्टि से एक प्रवाह समीकरण का निरूपण किया जो वस्तुतः शेजी समीकरण का ही एक रूप था, पर उससे कहीं अधिक दुरूह और दुष्कर आगामी सात दशकों तक यही समीकरण छाया रहा यद्यपि सार्वदेशिक प्रयोजन के लिए यह खरा नहीं उतरा।

इस सदी में वाष्पीकरण की प्रक्रिया के अध्ययन ने गति पकड़ी। इंग्लैड में डॉबसन ने लिवरपूल के निकट एक प्रयोगस्थल पर 1772 से 1775 तक चार वर्षों के वृष्टि, वाष्पीकरण और तापमान का लेखा-जोखा रखा। डॉबसन ही की विधि अपनाते हुए, जॉन डाल्टन ने मॉनचेस्टर के निकट वाष्पीकरण की माप की और 1802 में वाष्पीकरण का सामान्य सिद्धांत बनाया जिसके अनुसार वाष्पीकरण; सतह पर वायु में वाष्पसम्पृक्त की स्थिति के वाष्प-दबाव और वाष्प के वास्तविक (असम्पृक्त) दबाव के अंतर के सीधे अनुपात में होता है। इसी पर आधारित उनका दिया हुआ सूत्र आज भी किंचित सुधार के साथ व्यापक प्रयोग में आ रहा है।

उन्नीसवीं सदी में जलविज्ञान में भारी प्रगति हुई। यद्यपि फ्रांस की क्रांति से वहां पल्लवित होती हुई वैज्ञानिक अनुसंधान की उत्कृष्ट परंपरा को भारी आघात पहुँचा और अनेक श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को प्राण-रक्षा में देश छोड़ कर भागना पड़ा किंतु शीघ्र ही क्रांतिकारियों को दुर्बुद्धि के आत्मघाती परिणाम समझ मे आने लगे जिसके कारण अनेक भागे हुए व्यक्तियों की वापसी संभव हो सकी। द्यु बुआ भी इन में से एक थे।

इन्हीं दिनों नहर में जलसंपर्क सतह से प्रवाह में उत्पन्न अवरोध पर महत्वपूर्ण कार्य हुआ और पाया गया कि यह अवरोध प्रवाह के वेग पर निर्भर करता है। जर्मनी में कई नदियों (राइन, एल्बा, ओडर) के प्रवाह संबंधी आकड़ों का हाइनरिख बर्गहाउस ने विश्लेषण किया। जर्मन, फ्रांस, इटली में अनेक नदियों के बहाव को नापने के कार्यक्रम शुरू किए गए। प्रवाह की गणना के लिए उस समय प्रचलित ढलान और वेग पर आधारित फॉर्मूलों का प्रयोग किया गया। बहाव नापने के लिए एक सार्वदेशिक सूत्र की खोज के प्रयास भी तेज हुए।

अमरीका में एन्ड्रयू एटकिन्सन हम्फ्रेज और हेनरी लारकॅम एबॅट ने 1851-1860 के दौरान मिसीसिपी डेल्टा का सर्वेक्षण किया जो तब तक विश्व में कहीं भी किया गया अपने तरीके का विशालतम सर्वेक्षण था। मिसीसिपी जैसी बड़ी नदी और द्यु बुआ के अध्ययन के छोटे जलमार्गों पर आधारित एक जटिल सूत्र का निरूपण भी हम्फ्रेज और एबॅट ने किया। पर सार्वदेशिक सूत्र की खोज मरीचिका ही साबित हुई।

फ्रांस के एमिल बेजाँ और हेनरी फिलिबेर गास्पर दार्सी ने अपने प्रयोगों के आधार पर प्रवाह का एक नया सूत्र दिया (1865)। स्विटजरलैंड के गाँग्विए और कुटर ने एक जटिल सूत्र दिया जो सार्वदेशिक अपेक्षा पर खरा नहीं उतरा। रॉबर्ट मैनिंग ने इसमें बहुत यत्न से संशोधन किया पर आज वे एक अन्य फॉर्मूले के लिए जाने जाते हैं।

आज जिसे युक्तिसंगत प्रवाह-सूत्र कहते हैं उसकी मूल प्रस्तावना आयरलैंड के टॉमस जेम्स मुलवानी ने 1851 में की थी जिसका उचित श्रेय उन्हें नहीं मिल सका। भूमि के भीतर जलगति के मूलभूत सिद्धांतों की अभिव्यंजना इसी सदी में हुई- दार्सी ने जलगति का अपना प्रख्यात नियम दिया और द्युप्युअ ने पारगम्य जलाशयों में खोदे गए कुओं में अक्षीय समरूपता वाले प्रवाह का समीकरण दिया।

जर्मनी के एडॉल्फ थीम ने गुरुत्वाकर्षण से प्रेरित बहाव वाले कुओं, ऊपरी दबाव से प्रेरित बहाव वाले (आर्टीजियन) कुओं और ‘फिल्टर गैलरी’ में होने वाले रिसाव पर महत्वपूर्ण काम किया। भूजल की अनेक समस्याओं के जटिल गणितीय समाधान ऑस्ट्रिया के फिलिप फॉरखाइमर ने प्रस्तुत किए जिनमें से काफी कुछ बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में ही प्रकाश में आए।

ईसा से 3200 वर्ष पर्व मिस्र के बादशाह स्कॉर्पियन के शासन काल में जल-संसाधनों के उपयोग की युक्तियों के लिखित साक्ष्य मिलते हैं। मिस्र के ही बादशाह मेनीज ने ईसा से 3000 वर्ष पूर्व नील नदी पर बांध-बांध कर उसके रुख को मोड़ दिया था। सिंधु नदी की घाटी में ईसा से लगभग 2750 वर्ष पूर्व नागरिक जल-आपूर्ति और जल-निकासी के प्रभावी तंत्र विकसित होने लगे थे।

हजारों वर्ष पूर्व अरब देशों और फारस में भूगर्भ में पाए जाने वाले विपुल जल भंडार से सुदूर नगरों में जालपूर्ति के लिए एक आश्चर्यजनक पद्धति ‘कनात’ का विकास हुआ जो आज भी उपयोग में आ रही है। रोमन काल के इंजीनियरों ने अपने व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर आश्चर्यजनक परियोजनाएं बनाई, जैसे रोम को प्रतिदिन लाखों गैलन पानी ले जाने वाले एक्विडक्ट (सेतुवाही) रोम की मल-निकास प्रणाली और बंदगाह।

इटली के मारकस वित्रुवियस (पहली शताब्दी ईसा पूर्व) ने अपनी पुस्तक “आर्कीतेक्तु रा लिब्री देकेम” में एक पूरा अध्याय ही जल-संसाधनों के विकास पर लिखा है जहाँ नए जल स्रोतों की खोज और उन के विदोहन के उपायों के साथ, किसी नगर की जल-आपूर्ति के लिए दूर से पानी लाने की व्यवस्था-प्रणालियों की विस्तृत चर्चा की गई है।

ऋग्वैदिक काल के कृषक कुओं और संभवतः नदियों से भी, नहरें निकाल कर खेती करते थे। पहाड़ी क्षेत्रों में जल-संग्रह कर वे उसे नहरों द्वारा दूरस्थ खेतों की सिंचाई के लिए ले जाने में सक्षम थे। मौर्य शासक (तीसरी-चौथी शताब्दी ईसा पूर्व) सिंचाई की योजनाओं में गहरी रुचि लेते थे। मेगस्थनीज के अनुसार, जो चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में भारत आया था नदियों की निगरानी के लिए अलग अधिकारी थे, जो बड़ी नहरों से निकलने वाली छोटी नहरों के मुख पर लगाए गए नियंत्रण-द्वारों के रख-रखाव और लिए जिम्मेदार थे।

इसी काल में सौराष्ट्र में विशाल सुदर्शन झील का निर्माण हुआ। मध्य और दक्षिणी भारत में अनेक अति प्राचीन जलाशय हैं जो उन्नत अभियांत्रिकी के साक्ष्य हैं। ईसा बाद की पहली शताब्दी के लगभग अंत में करिकल प्रथम ने तटीय बंधों की सहायता से कावेरी नदी को नियंत्रित कर उससे नहरें निकाली थीं। नहरें केवल कृषि का ही साधन नहीं थीं, जमीन को बाढ़ की चपेट से बचाने में भी उनकी अहम भूमिका थी-अमरकोष में नहर का एक पर्याय जलनिर्मम भी है।

ग्यारहवीं शताब्दी में चोल राजाओं द्वारा कावेरी नदी पर निर्मित ‘ग्रांड एनीकट पत्थरों’ से बने बांध की एक प्रभावकारी परियोजना है। केरल और गोआ के तटीय प्रदेशों में जलमार्गों का इस प्रकार रख-रखाव किया जाता था कि न प्रवाह रुके, न भू-अंतर जलाक्रांत हो, फिर भी भूजल का स्तर इतना ऊंचा बना रहे कि धान की भरी पूरी फसल उगाई जा सके।

समुद्र का खारा पानी ज्वार के समय अंतरप्रदेश को अनुपजाऊ न बना जाए इस विषय में बड़ी सतर्कता बरती जाती थी। सतत निगरानी में रहने वाले भित्ति-बंधों और मजबूत जल-नियंत्रक फाटकों के कुशल संचालन से यह संभव हो पाता था। देश और विदेशों में ऐसी अनेक विस्मयकारी प्राचीन परियोजनाएं हैं जो अपने समय के विज्ञान से बहुत आगे हैं।

पूरे विश्व और विशाल भौगोलिक क्षेत्रों के जलसंतुलन के संबंध में व्यापक कार्य बीसवीं सदी में हुआ। रूसी वैज्ञानिक बिकनेर ने कुछ समीकरण दिए (1905) जिनके अनुसार किसी क्षेत्र में वृष्टि और नदियों के प्रवाह का अंतर वाष्पीकरण के बराबर होता है। फ्रिट्ज ने 1906 में नदियों से समुद्र में गिरने वाले कुल प्रवाह का काफी सही अनुमान प्रस्तुत किया।

1920 में व्युस्ट ने नदी-प्रवाह में ध्रुवीय हिमनदों से आकर मिलने वाले जल को शामिल कर संशोधित आँकड़े प्रस्तुत किए। मोइनाइडस ने 1934 में महासागरों पर होने वाली वृष्टि का, सोवियत संघ के द्रॉस्नॉव ने 1939 में थल भाग पर होने वाली वृष्टि का और ल्वोविच ने 1954 में नदियों के प्रवाह का नक्शा तैयार किया। इन नक्शों से विश्व के जलसंतुलन के अनुमान में बहुत सहायता मिली।

बीसवीं सदी के उत्तरार्ध तक कुछ विकसित देशों को छोड़ कर अधिकांश देशों में जल, वैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से पूरी तरह उपेक्षित था, यद्यपि जीवन और विकास की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भयावह रूप से गहराता हुआ जल-संकट सिर पर आ चुका था। विश्व की सरकारों को सचेत करने और तुरंत कुछ प्रभावी कदम उठाने के लिए यूनेस्को ने 1965-74 को जलविज्ञान दशक घोषित करके एक महत्वपूर्ण पहल की। इससे विश्व में जल के प्रति व्याप्त तंद्रा टूटी।

इस दशक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में भारत ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उल्लेखनीय योगदान दिया और राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण प्रगति की। विशेषकर जल की समस्याओं और समाधान के प्रति एक समाकालित दृष्टि अपनाने की अनिवार्यता को व्यापक स्वीकृति मिली।

पानी आज विश्व की विकरालतम समस्याओं में से है। हर वर्ष बाढ़ और सूखे से हजारों जानें और करोड़ों की संपत्ति का नाश होता है। अरबों व्यक्ति सही स्तर के पीने के पानी से वंचित है। संकट की गंभीरता के लिए हमें यह जानना होगा कि विश्व में हर रूप और स्थिति में प्राप्त पानी की कुल मात्रा यदि सौ यूनिट मानी जाए तो लगभग 97.5 प्रतिशत पानी खारा है जो काम का नहीं है।

केवल ढाई यूनिट पानी ही मीठा पानी है : इसमें से भी 1.7 यूनिट ध्रुवीय बर्फ है, 0.78 यूनिट जमीन के अंदर है, 0.007 यूनिट झीलों में है, और 0.001 यूनिट वातावरण में है। नदियों में मात्र 0.0002 युनिट पानी है। नदियों के पानी से ठीक आधा, 0.0001 यूनिट, सृष्टि के सारे प्राणियों और सारी वनस्पतियों के शरीर में है। इस प्रकार हमारे उपयोग के लिए कुल पानी का मात्र 0.7872 प्रतिशत ही उपलब्ध है। स्पष्ट है कि पानी के संबंध में किसी भी प्रकार की असावधानी या दुरुपयोग क्षम्य नहीं है क्योंकि हमारा जीवन, सभ्यता, संस्कृति, विकास सभी कुछ तो इसमें अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है-
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