प्रकृति

15 Nov 2014
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इस विकास में बड़ी आसानी से एक के लिये दूसरे की बलि दे दी जाती है। इस तरह यह विकास हिंसा पर आधारित है। हिंसा पर आधारित विकास हिंसा को ही पैदा करता है। इसीलिये हमें मनुष्य के चित्त में और समाज में इतनी हिंसा दिखाई देती है। अपने विकास को इस हिंसा से मुक्त करने के लिये हमें उसे सबके लिये कल्याणकारी बनाना होगा जिसमें सिर्फ सब मनुष्यों का ही कल्याण न हो बल्कि प्राणी मात्र का कल्याण हो। हम पायेंगे कि इस कल्याणकारी मार्ग पर चल कर ही हम अपना सुख भी बढ़ा सकते हैं।

भारत में यह बात आरंभ से ही ज्ञात रही है कि सारा जीवन प्रकृति पर निर्भर है। इसलिये हम अपने निजी और सार्वजनिक जीवन में प्रकृति से सामंजस्य बिठाते रहे हैं। हमारे यहां लोग अपना सामान्य जीवन दिनचर्या और ऋतुचर्या के नियमों से निर्धारित करते रहे हैं। रोज सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक सारी दिनचर्या सूर्य और चन्द्रमा की स्थितियों से बंधी रही है। हमारे घर और इमारतें भी हवा और सूर्य को दिशाओं को समझ कर बनाई जाती रही हैं। हमारे निजी और सार्वजनिक जीवन की सारी व्यवस्थाएं इस तरह की जाती हैं कि पानी का संचय होता रहे और उसकी शुद्धि बनी रहे। अपने शहर-कस्बों को हमने प्रकृति से दूर नहीं होने दिया। पेड़-पौधों और वनों-उपवनों की ऐसी व्यवस्था की जाती रही है कि हम जहां भी रह रहे हों वहां प्राकृतिक वातावरण बना रहे।

हमारे यहां उद्योग-धंधों का बड़ा पुराना इतिहास है। लंबे समय से हमारी जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा उद्योग-धंधों में रहा है। पर अपने उद्योग-धंधों का विकास हमने इसी तरह किया कि प्रकृति पर उसका कोई बोझ न पड़े। हमारे उद्योग-धंधे गांव-गांव में फैल रहे हैं। हमने हमेशा यही कोशिश की है कि हमारे जीवन की रफ्तार प्रकृति से समरस रहे। इसलिए हमने उद्योग-तंत्र को मनुष्य की बारीक कारीगरी से जोड़े रखा। उसे ऐसा नहीं होने दिया कि वह प्राकृतिक साधनों पर बोझ बनता चला जाए और प्राकृतिक वातावरण को नष्ट करने लगे।

लेकिन हमारे रहन-सहन में जो परिवर्तन हो रहे हैं उनके कारण प्रकृति के साथ हमारे जीवन का सामंजस्य समाप्त होता चला जा रहा है। हमारा दैनिक जीवन दिन-रात की मर्यादाओं को तोड़ने लगा है। दिन-रात की सारी व्यवस्था ही निरर्थक होती चली जा रही है। हमारे खान-पान में ताजा और प्राकृतिक वस्तुओं की संख्या कम हो रही है। हमारी इमारतें, घर-मकान और शहर-कस्बे सब इस तरह बनाये जा रहे हैं कि हमारा जीवन प्रकृति से दूर होता चला जा रहा है। ऐसे कल-कारखाने खड़े किए जा रहे हैं जिनसे आस-पास का प्राकृतिक जीवन नष्ट हो रहा है। कल-कारखानों में इस्तेमाल होने वाले हानिकारक रसायनों से हवा, मिट्टी और पानी का प्रदूषण बढ़ रहा है।

इससे पहले भी कई बार हमारे रहन-सहन में व्यापक परिवर्तन हुए हैं। जैसे-जैसे हमारे जीवन में भौतिक वस्तुओं का महत्व बढ़ता है हम नया ताना-बाना खड़ा करने लगते हैं। इस ताने-बाने के कारण प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता भी बदलता है। किसी जमाने में लोग वनचारी जीवन बिताते थे। वे लकड़ी या मिट्टी के बने मकानों में रहते थे। उस समय प्रकृति से उनकी निकटता बहुत अधिक थी। फिर जब पक्के मकान बनने लगे और शहर-कस्बे बड़े होने लगे तो यह निकटता घटने लगी। लेकिन इतिहास के मोड़ के ऐसे सभी मौकों पर हम प्रकृति से अपने रिश्तों को फिर से जोड़ लिया करते थे। हमारे रहन-सहन में प्रकृति की उपस्थिति किसी नए रूप में बनी रहती थी।

लेकिन इस बार हम अपने इस कर्तव्य के बारे में बहुत असावधान दिखाई दे रहे हैं। हमारे रहन-सहन में ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं जिनसे प्रकृति से हमारा संबंध टूटता चला जा रहा है। हम अपने इस नए रहन-सहन को प्रकृति से जोड़ नहीं पा रहे, ऐसा लगता है जैसे अपने काल पर हमारी पकड़ खत्म हो गई है। हम अपने समय के परिवर्तनों को नियंत्रित नहीं कर पा रहे बल्कि ये परिवर्तन ही हमें हांकते चले जा रहे हैं। हम जानते हैं कि प्रकृति से दूरी अच्छी बात नहीं है। इससे हमारी जीवन-शक्ति क्षीण होती चली जाएगी। पर इसके बावजूद हम प्रकृति से इस दूरी को घटाने का अपने भीतर सामर्थ्य नहीं जुटा पा रहे हैं।

इसका कारण यह बताया जा रहा है कि औद्योगिक सभ्यता का प्रकृति से सामंजस्य नहीं बैठ पाता। औद्योगिक सभ्यता ने मनुष्य की आवश्यकताओं को अनाप-शनाप बढ़ा दिया है। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तेज रफ्तार से औद्योगीकरण करना पड़ता है। ऐसे औद्योगीकरण के लिए विशाल मात्रा में ऊर्जा की जरूरत पड़ती है। इसके अलावा अनेक प्राकृतिक साधनों की भी बड़ी मात्रा में जरूरत पड़ती है। इन सब जरूरतों को प्रकृति का अंधाधुंध शोषण कर के ही पूरा किया जा सकता है। इसलिए औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने में हम प्राकृतिक वातावरण को नष्ट करते चले जाते हैं।

यह बात एक हद तक ही सही है। पिछले दिनों हमारे सामने जो वैज्ञानिक रहस्य खुले है, उन्होंने हमें औद्योगिक जीवन की तरफ धकेल दिया है। अब हम बिजली बनाना जानते है और प्रकाश के लिये सूर्य पर निर्भर नहीं है। इसलिये हम अपनी दिनचर्या को, काम-धंघों को और सार्वजनिक जीवन को इस तरह बदलते चले जा रहे हैं कि अधिक से अधिक बिजली खर्च कर सकें। तेज रफ्तार के यातायात के साधनों का विकास हो गया है। इसलिये उत्पादन के मामले में स्थानीय आत्मनिर्भरता के सिद्धांत का त्याग ही कर दिया गया है। हम अपने उद्योग-व्यापार और रहन- सहन सब को इस तरह बदल रहे है कि हमें तेज़ रफ्तार के यातायात के साधनों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करना पड़े। हमारे उपयोग की जो वस्तुएं सीधे प्रकृति से उपलब्ध हो सकती हैं, उन्हें भी हम बिना औद्योगिक प्रक्रिया से गुजारे ग्रहण नहीं करते।

हमारे सामान्य जीवन में बिजली या इस तरह की औद्योगिक चीजो की उपयोगिता तो है ही। हमारे सामने जो वैज्ञानिक रहस्य खुले है या खुलते जा रहे है उनका समावेश भी हमारे रहन-सहन में होता ही रहेगा। आज औद्योगिक चीजों के इस्तेमाल में कुछ अतिरेक जरूर दिखाई दे रहा है। ऐसा लगता है कि हम अपनी जरूरतों को खुद नहीं निर्धारित कर रहे बल्कि उद्योग-तंत्र का विकास ही हमारी जरूरतों को निर्धारित करता और बढ़ाता चला जा रहा है। हम औद्योगिक वस्तुओं का अधिक से अधिक इस्तेमाल करना ही जीवन का सुख और जीवन की सार्थकता मान बैठे हैं। आज की ये औद्योगिक वस्तुएं लोगों को अपने जीवन में नई-नई महसूस होती हैं, इसलिये उनके मन में इनका आकर्षण भी बहुत होता है। पर औद्योगिक वस्तुओं का यह अंध-आकर्षण हमेशा नहीं रहेगा। औद्योगिक वस्तुओं के अंधाधुंध इस्तेमाल से हमारी जीवन-शक्ति का क्षय हो रहा है। देर-सवेर हमें इस बात का एहसास हो जाएगा और तब हम औद्योगिक वस्तुओं के इस्तेमाल की मर्यादायें भी तय कर लेंगे।

लेकिन ये मर्यादायें तभी तय की जा सकती हैं जब हममें प्रकृति की समझ बनी रहे। दरअसल आज हमारे रहन-सहन में हो रहे परिवर्तन इतने चिंताजनक नहीं हैं। इनसे ज्यादा चिंताजनक हमारे सोचने और विचारने में हो रहे परिवर्त्तन हैं। हमारे यहां सभी लोगों में प्रकृति की गहरी समझ रहीं है। इसी कारण वे बदलती हुई परिस्थितियों में भी प्रकृति से अपना सामंजस्य बैठाते रहे हैं। आज ऐसा लगता है कि प्रकृति से उनका संबंध भौतिक रूप से ही कमजोर नहीं हो रहा बल्कि मानसिक रूप से भी यह संबध कमजोर होता चला जा रहा है। हमारे लोगों के स्वभाव और संस्कार में अभी शायद बहुत परिवर्तन नहीं हुआ है। लेकिन दुनिया की उनकी समझ बदलती जा रहीं है और हस समझ में उसका प्रकृति से क्या संबंध है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान नहीं है।

आज दुनिया की समझ सतही होती चली जा रही है। हमें अपनी इंद्रियों से जो दिखाई देता है वह संसार का स्थूल रूप है। आज हमारे ज्ञान में संसार के इसी स्थूल रूप की प्रधानता होती चली जा रही है। प्रयोगशालाओं में यंत्रों की सहायता से अनुमान के सहारे हम इस संसार के सूक्ष्म रूपों को समझने की कोशिश करते हैं। पर ये सूक्ष्म रूप भी हमें संसार के ऊपरी स्वरूप का ही भान करवा पाते हैं। इस ज्ञान के आधार पर अपने इस संसार से हमारा कोई वास्तविक संबंध नहीं बन सकता। इससे अधिकतर तो उपभोगवादी दृष्टि ही पैदा होती है। अपने सामान्य सुख के उपयोग की दृष्टि से ही हमें यह संसार ही दिखाई देता है। इसलिये हम अपनी उचित-अनुचित सभी ज़रूरतों के लिये संसार की सभी वस्तुओं और संसार के सभी प्राणियों का महत्व इसी बात से तौलते हैं कि हमारे लिये उनका कोई उपयोग है या नहीं।

इस दृष्टि से हमें अपने जीवन की मर्यादाओं का ख्याल नहीं रह सकता। यही वजह है कि जब विज्ञान ने प्रकृति के कुछ नये रहस्य हमारे सामने खोले तो हम अपनी इस नई जानकारी का औद्योगिक इस्तेमाल करने में सब कुछ भूल बैठे। हमने अंधाधुंध प्रकृति का शोषण किया। सदियों से संचित ऊर्जा के साधन अंधाधुंध खर्च करने शुरू कर दिये। प्राकृतिक साधनों पर अपना अधिकार जमाने के लिये गलत-सही सब तरीके इस्तेमाल किये। प्राकृतिक संतुलन नष्ट कर दिया, समाज उजाड़े, संस्कृतियां तहस-नहस कीं और सभ्यताओं में उथल-पुथल कर डाली। अगर अपनी नई सभ्यता बनाने में हमने विवेक रखा होता, मर्यादाएं समझी होतीं तो हो सकता था हमारी उपलब्धियां आज से भी अधिक प्रभावशाली रही होतीं और हमने प्राकृतिक संतुलन को भी न बिगाड़ा होता।

आज प्राकृतिक संतुलन नष्ट करने पर काफी चिंता व्यक्त की जा रही है। पर यह चिंता जताने वाले लोगों की दुनिया की समझ वही है जिससे हमारा प्राकृतिक संतुलन बिगड़ा है। प्रकृति की चिंता करने वाले अधिकांश लोगों का दृष्टिकोण उपयोगितावादी ही है। उन्हें प्रकृति की चिंत्ता सिर्फ इसलिये है कि पर्यावरण दूषित होने से लोगों के सामान्य स्वास्थ्य पर संकट आ जायेगा। तरह-तरह की बीमारियां बढ़ रही हैं, बिषैले जीवाणु फैल रहे हैं और लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता खत्म होती चली जा रही है। कुछ दूसरे लोग प्राकृतिक साधनों के घटते चले जाने को लेकर चिंतित हैं। रसायनों ने मिट्टी की उत्पादकता को नष्ट कर दिया है। वनों के कटने से पानी का अकाल पैदा हो गया है। वातावरण में ताप बढ़ता जा रहा है। बढ़ते प्रदूषण ने ओजोन के सामने संकट पैदा कर दिया है।

इस चिंता के थोड़े-बहुत नतीजे निकल रहे हैं। वातावरण के प्रदूषण को कम करने के प्राकृतिक और अप्राकृतिक तौर-तरीके ढूंढे जा रहे हैं। धरती पर वनस्पति का कवच बढ़ाने के लिये अभियान चलाये जा रहे हैं। ऐसे कायदे-कानून बनाये जा रहे हैं जिनसे प्राकृतिक साधनों को नष्ट करने की रफ्तार कम हो सके। मनुष्य को अधिक से अधिक प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध करवाने की कोशिश भी की जा रही है। अभी तक ये सारी कोशिशें समाज के संपन्न और समर्थ लोगों तक सीमित हैं, लेकिन कल को वे और व्यापक भी हो सकती हैं। हो सकता है कि इन सावधानियों से प्राकृतिक वातावरण और प्राकृतिक साधनों को फिर परिपुष्ट करने में आंशिक सफलता मिल जाये। मगर इससे मनुष्य और प्रकृति का संबंध जोड़ने का कोई स्थायी रास्ता नहीं निकल पायेगा। जब भी किसी सही या गलत जरूरत के लिये मनुष्य को प्राकृतिक साधनों का औपनिवेशीकरण करना आवश्यक दिखाई देगा वह फिर आंख मूंद कर इस संहारक रास्ते पर निकल पड़ेगा।

अपने सांसारिक जीवन को चलाने के लिये हमें प्रकृति से जो वस्तुयें प्राप्त होती हैं, केवल उन्हीं से हम अपने जीवन में प्रकृति के महत्व को नहीं समझ सकते। प्रकृति वस्तुओं का झुंड भर नहीं है बल्कि वह एक व्यवस्था है। हम प्रकृति से अलग और ऊपर नहीं हैं। हम इस व्यवस्था का हिस्सा हैं। हम प्रकृति पर नियंत्रण करने की गलतफहमी नहीं पाल सकते। प्रकृति की सामर्थ्य हमसे कहीं व्यापक है और हमारी सामर्थ्य को वह अपने में समावेश किये हुए है। जब तक हम प्रकृति की इस सर्वव्यापकता को नहीं समझ लेते तब तक हम उसकी व्यवस्था में अपनी जगह और भूमिका देखने के लिये तैयार नहीं हो सकते। विज्ञान का सच्चा काम तो हमें प्रकृति की व्यापक व्यवस्था में अपनी जगह और भूमिका बताना ही हो सकता है।

पिछले दिनों विज्ञान ने हमारे सामनें प्रकृति के जो रहस्य खोले हैं वे तो प्रकृति की प्रक्रियाओं के एक नगण्य हिस्से की ही हमें जानकारी देते हैं। इस वैज्ञानिक जानकारी से जितनी बातें हमारे सामने खुली हैं उसी अनुपात में बहुत सारी बातें हमारी समझ से ढंक गई होंगी। हमें अपनी इंद्रियों से या यंत्रों का इस्तेमाल करते हुए या अनुमान से जो जानकारी मिलती है वह हमेशा एक कोणीय ही होती है। प्रकृति को देखने या समझने के अनंत कोण हैं और उन्हें हम अतींद्रिय अनुभव में तो देख सकते हैं पर इंद्रियानुभव में नहीं देख सकते। इसलिये वैज्ञानिक जानकारी का ठीक-ठीक अर्थ समझने के लिये भी यह आवश्यक है कि हम अतींद्रिय अनुभव से मिले ज्ञान का सहारा लें।

हमारे जिन पूर्वजों ने अपने तप और अपनी साधना से इस अतींद्रिय अनुभव का साक्षात्कार किया उन्होंने बताया है कि पारमार्थिक रूप से सारी सत्ता एक और अखंड है। हमारे बाहरी अनुभव में यह सत्ता बहुरूप दिखाई देती है, लेकिन अपने आन्तरिक अनुभव में हम उसे एक पाते हैं। इस तरह परमात्मा और सृष्टि का अनिवार्य संबंध है। जो परमात्मा अप्रकट अवस्था ने एक और अखंड रहती है वही प्रकट होकर सृष्टि के रूप में बहु हो जाती है। परमात्मा का साक्षात्कार करने वाले ऋषियों ने उसे सत्, चित्त और आनंद रूप बताया है। परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त होता है तो सत्ता द्विविध हो जाती है। आत्मा के रूप में चैतन्य और प्रकृति के रूप में सत्व, रजस् और तमस् इस सृष्टि के सभी जीवों का निर्माण करने में सहायक होते हैं।

इस ज्ञान के कारण ही भारत के लोगों का प्रकृति से अटूट संबंध बना रहा है। हम जानते हैं कि परमात्मा ही इस प्रकृति में सब तरफ व्याप्त है। वहीं प्रकृति के अनंत रूपों और भूमिकाओं में प्रकट होती है। इसीलिये प्रकृति का हर जीवन एक-दूसरे से संबंधित है। प्रकृति में ऐसी कोई चीज नहीं है जो दूसरी चीज से संबंध न रखती हो। इस संबंध के कारण ही उन्हें एक-दूसरे से सामंजस्य बना कर रहना चाहिये, क्योंकि जैसे ही यह सामंजस्य खत्म होगा, वैसे ही प्रकृति की आंतरिक व्यवस्था टूटने लगेगी और इसके प्रभाव से कोई वंचित नहीं रह सकता। इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि हम प्रकृति की व्यवस्था में अपनी स्थिति और अपनी भूमिका को समझ लें और उसकी मर्यादा में ही रहें।

अपने इस ज्ञान के कारण ही हमने प्रकृति को कभी जड़ नहीं समझा और अपने उपभोग के लिये उसका मनमाना इस्तेमाल करने की गलती नहीं की। हमारे धार्मिक ग्रंथों और लौकिक साहित्य, सभी जगह प्रकृति के दिव्य स्वरूप का ही एहसास करवाया जाता रहा है। इसीलिये आम भारतवासियों में प्रकृति की सभी वस्तुओं के लिये हमेशा पूजा का भाव रहा है। हम सामान्यत: प्रकृति की सभी वस्तुओं को रक्षणीय मानते हैं और केवल तभी अपने इस्तेमाल के लिये उन्हें प्राप्त करते हैं जब हमें वह अपने जीवन के लिये आवश्यक दिखाई देता है। यह काम भी इस भाव से किया जाता है कि हमारे मन में प्रकृति की अनुल्लंघनीयता बनी रहे।

प्रकृति के प्रति हमारा क्या भाव रहा है इसका उदाहरण हम श्वेताश्वतरोपनिषद् में देख सकते हैं। यहां प्रकृति का वर्णन बहुत ही मोहक रूप से किया गया है। इस उपनिषद् के ऋषि परमात्मा की स्तुति करते हुए कहते हैं:-

यो देवो अग्नो यो अप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश।
यओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नम:।।


इस मंत्र का अर्थ यह है कि जो परमात्मा अग्नि में हैं, जो जल में हैं, जो समस्त लोको में अंतर्यामी रूप से प्रविष्ट हो रहे हैं, जो औषधियों में हैं, जो वनस्पतियों में हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूं।

भारत के सभी लोगों में प्रकृति की सभी चीजों के प्रति यही भाव रहा है। हमने वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी और आकाश सभी पंचभूतों के पीछे छिपी हुई दिव्य सत्ता को पहचाना है। हमने पेड़ों में, औषधियों में, नदियों में, सरोवरों में, पर्वतों में और प्राणियों में देवसत्ता के ही दर्शन किये हैं। अपने इस ज्ञान के लिये भारत दुनिया में सबसे आगे बढ़े होने का दावा कर सकता है। हमने सृष्टि की हर वस्तु में दिव्य सत्ता के ही दर्शन किये हैं। इसलिये हम इस सृष्टि की सभी चीजों से अपने इस संबंध के कारण ही अपना सामंजस्य बैठाने की कोशिश करते हैं। इसीलिये हम हमेशा ऐसी ही सभ्यता बनाते रहे हैं जो सबके लिये कल्याणकारी हो।

जब हम कोई चीज पैदा करते हैं तो कोई दूसरी चीज नष्ट होती ही है। लेकिन इस प्रक्रिया में कोई अनुचित संहार नहीं होना चाहिये। प्रकृति खुद भी जीवन और संहार की लीला चलती रहती है। इससे प्रकृति का कल्याणकारी स्वरूप धुंधला नहीं हो जाता। अपने भौतिक विकास के लिये हम प्राकृतिक साधन का उपयोग करने के लिये बाध्य हैं। सिर्फ यही मर्यादा हमें बांधनी होगी कि प्राकृतिक साधन का इस्तेमाल करते हुए हम अनुचित रूप से उसका व्यय न करें। यह मर्यादा समाज को अपने स्वभाव और संस्कार में डालनी पड़ती है, क्योंकि तभी वह समाज अपने हर कार्य में इस मर्यादा का ध्यान रख सकता है।

हमारे स्वभाव और हमारे संस्कार में प्रकृति की दिव्य सत्ता का यह जो बोध रहा है सबसे पहले उसी की रक्षा की जानी चाहिये। हमारे यहां लोग जब सुबह जागते हैं तो पृथ्वी पर पैर रखने से पहले उसे माता कहकर संबोधित करते हैं और उस पर पैर रखने के लिये उससे क्षमा मांगते हैं। हम नदियों को तीर्थ समझते हैं और सरोवरों तथा पर्वतों में वास करने वाले देवताओं की पूजा करते हैं। हम जानते हैं कि परमात्मा सर्वत्र हैं पर अपने सांसारिक कामों में रमे होने के कारण उनका सर्वदा स्मरण करते रहना मुश्किल होता है। इसलिए हम प्रकृति की श्रेष्ठ अभिव्यक्तियों में अपना ध्यान केंद्रित करके दिव्यत्व को ग्रहण करने की कोशिश करते हैं।

आज की दुनिया की सतही समझ में दिव्यता का बोध नहीं है। इस सतही समझ से तो हम प्रकृति की सभी चीजों के साथ अपना औपचारिक संबंध ही जोड़ सकते हैं। इस तरह के औपचारिक सबंध से दुनिया नहीं चला करती। दुनिया में स्थिरता और व्यवस्था तभी रह सकती है जब हम इस दुनिया की सभी वस्तुओं के साथ अपना वास्तविक संबंध देख और पहचान लें। जब हम किसी से अपना संबंध जोड़ लेते है तो उसके प्रति हमारे मन में आत्मीयता का भाव आ जाता है। इस आत्मीयता के आधार पर ही हम अपने आपको उसका कोई अनिष्ट करने से रोके रह सकते हैं। जब हम किसी और का अनिष्ट नहीं करते तो हमारे अनिष्ट की आशंका भी समाप्त हो जाती है।

अगर हम दुनिया की सतही समझ को छोड़ दें तो आज के भौतिक विकास की विसंगतियां समाप्त हो जायेंगी। मनुष्य के लिये भौतिक विकास की तरफ बढ़ना तो अनिवार्य है। बदलते हुए काल में अपनी स्थिति बनाये रखने के लिये मनुष्य को बहुत सारे उपाय करने पड़ते हैं। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हम जो भी कर्म करत्ते हैं उसका परिणाम भी अनिवार्य रूप से हमें ही भुगतना पड़ता है। अगर हम अपने किसी काम से प्रकृति की व्यवस्था को तोड़ते हैं तो उसका नतीजा भी अनिवार्य रूप से हमें भुगतना पड़ता है। इसीलिये हमारे यहां भौतिक विकास को बेलगाम नहीं छोड़ा गया। उसके लिये मर्यादायें स्थिर की गई हैं।

भौतिक रूप से विकास करने के लिये हमारे समाज में मंगल शब्द का व्यवहार होता रहा है। मंगल उस अवस्था को कहते हैं जहां किसी के फायदे के लिये किसी दूसरे का कोई अनावश्यक नुकसान नहीं हो रहा होता हो। जब हम किसी के प्रति शुभकामना व्यक्त करना चाहते हैं तो कहते है कि उसका मंगल हो। इसका सीधा-सा मतलब है कि उसकी सब तरह से उन्नति हो। इसी तरह जब हम किसी कार्य या किसी प्रणाली की बात करते है तो कहते है कि वह मंगल कार्य है। उसे करने से सुख और समृद्धि बढ़ेगी और किसी का कोई अनिष्ट नहीं होगा। जब हम किसी समाज या सभ्यता की श्रेष्ठता बताना चाहते हैं तब भी हम यही कहते हैं कि वह समाज श्रेष्ठ है, क्योंकि वह मांगल्य में लगा हुआ है, वह सभ्यता अच्छी है, क्योंकि वह मंगलकारी है। इन सभी प्रयोगों में आशय यह होता है कि ऐसी समृद्धि की बात की जा रही है जिससे दूसरे लोगों का, दूसरे प्राणियों का या प्रकृति का कोई अहित नहीं होता।

हमारी मौजूदा समस्या यही है कि अपना भौतिक विकास करते समय हमने इस भौतिक विकास के मंगलकारी होने की परीक्षा नहीं की। अगर हमारे मन में यह बात जमी रही होती कि हमें सिर्फ भौतिक विकास ही नहीं करना बल्कि मंगलकारी विकास करना है तो हमारे सामने आज जो समस्यायें आ रही हैं वे न आई होतीं, क्योंकि तब हम अपने भौतिक विकास में सबके हितों का समावेश करने की कोशिश करते। ऐसा नहीं है, कि सबके हितों का समावेश करते हुए भौतिक विकास नहीं हो सकता। हो सकता है ऐसे विकास की रफ्तार कुछ धीमी हो। मगर इस धीमी रफ्तार के कारण ही अनेक तरह की गलतियां होने से बच जाती हैं। धीमी रफ्तार के बावजूद इस तरह के विकास से मिलने वाले सुख की मात्रा तेज रफ्तार के विकास की तुलना में कम नहीं होती।

आज के विकास में विशालता और वैभव तो बहुत है मगर वह सर्वहितकारी नहीं है। उसमें प्राणी मात्र के कल्याण की भावना नहीं है। इस विकास में बड़ी आसानी से एक के लिये दूसरे की बलि दे दी जाती है। इस तरह यह विकास हिंसा पर आधारित है। हिंसा पर आधारित विकास हिंसा को ही पैदा करता है। इसीलिये हमें मनुष्य के चित्त में और समाज में इतनी हिंसा दिखाई देती है। अपने विकास को इस हिंसा से मुक्त करने के लिये हमें उसे सबके लिये कल्याणकारी बनाना होगा जिसमें सिर्फ सब मनुष्यों का ही कल्याण न हो बल्कि प्राणी मात्र का कल्याण हो। हम पायेंगे कि इस कल्याणकारी मार्ग पर चल कर ही हम अपना सुख भी बढ़ा सकते हैं।

जब हमें प्रकृति की दिव्यता का एहसास होता है तो हम उसके किसी रूप का अहित सोच ही नहीं सकते। इसका मतलब यह नहीं कि भौतिक विकास में होने वाला अनिवार्य संहार समाप्त हो जाता है। जब हम कोई चीज पैदा करते हैं तो कोई दूसरी चीज नष्ट होती ही है। लेकिन इस प्रक्रिया में कोई अनुचित संहार नहीं होना चाहिये। प्रकृति खुद भी जीवन और संहार की लीला चलती रहती है। इससे प्रकृति का कल्याणकारी स्वरूप धुंधला नहीं हो जाता। अपने भौतिक विकास के लिये हम प्राकृतिक साधन का उपयोग करने के लिये बाध्य हैं। सिर्फ यही मर्यादा हमें बांधनी होगी कि प्राकृतिक साधन का इस्तेमाल करते हुए हम अनुचित रूप से उसका व्यय न करें। यह मर्यादा समाज को अपने स्वभाव और संस्कार में डालनी पड़ती है, क्योंकि तभी वह समाज अपने हर कार्य में इस मर्यादा का ध्यान रख सकता है।

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