परमाणु ऊर्जा कुछ अनबुझे प्रश्न

22 Jul 2011
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हाल ही में हरियाणा के झज्जर जिले के झाड़ली गांव में इन्दिरा गांधी बिजली परियोजना की आधारशिला रखने के बाद रैली को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने एटमी करार का विरोध करने वालों को विकास और अमन का दुश्मन बताया। सोनिया गांधी ने आगे जोड़ा कि अमेरिका के साथ एटमी करार का मकसद गांव-गांव बिजली पहुंचाना है। यह हताशा में की गई टिप्पणी थी। सोनिया गांधी समझ गई थी कि अमेरिका के साथ परमाणु समझौता की कीमत संयुक्त प्रगतिशील सरकार की स्थिरता थी। लेकिन सोनिया गांधी ने हताशा में हीं सही एक बड़ा अहम मुद्दा उठा दिया। इस लेख में परमाणु कार्यक्रम संबन्धी उपलब्ध तथ्यों की सहायता से यह समझने की कोशिश की जाएगी कि परमाणु ऊर्जा से आम आदमी की खुशहाली में कितना इजाफा होता है |

परमाणु कार्यक्रम से होने वाले तथाकथित विकास की एक झलक डा. रोजेली बर्टेल, (अध्यक्ष इन्टरनेशनल इन्स्टिट्यूट आफ कनसर्न फॉर पब्लिक हेल्थ तथा इन्टरनेशनल परस्पैक्टिव इन पब्लिक हेल्थ के प्रधान संपादक) द्वारा दिये गए आकड़ों से मिल जाती है। डा. रोजेली बर्टेल का कहना है कि परमाणु हथियारों के परीक्षण से लगभग 1,200 मिलियन लोग यानि 120 करोड़ प्रभावित हुए हैं। 1943 से 2000 तक बिजली उत्पादन से दस करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं। इस दौरान रेडियेशन के सम्पर्क में आने से ही पांच सौ करोड़ बच्चे मरे पैदा हुए हैं। वह आगे जोड़ते है कि परमाणु उद्योग इन आकड़ों को छुपाने की कोशिश करता रहा है ताकि परमाणु शक्ति की वास्तविक कीमत को कम आंका जा सके।

अब जरा परमाणु ऊर्जा से कार्यक्रम से भारत के गांवों का कितना विकास हो सकता है यह भी जान लिया जाए। इसकी एक बानगी डा. संघमित्रा गडकर व सुरेन्द्र गडकर(पी.एच.डी.) के 1991 में राजस्थान के रावलभाटा में किये गए एक सर्वेक्षण की रपट से साफ हो जाता है। इस सर्वेक्षण का उद्देश्य भी रावलभाटा परमाणु ऊर्जा संयत्र का वहां के निवासियों में पड़े प्रभाव का अध्ययन करना था। इस अध्ययन में रावलभाटा के पास के गांवों के लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति पर कुछ चौकाने वाले तथ्य सामने आए। इस सर्वेक्षण की रपट अणुमुक्ति (भारत में अपनी किस्म की अकेली पत्रिका) के अप्रेल मई 1993 के अंक में छपी बाद में साइन्स फॉर डैमोक्रैटिक एक्शन के नवम्बर 2002 के अंक में छापी गई।

अणुमुक्ति समूह परमाणु संयंत्रों के विरोध में 1986 की चर्नोबिल की दुर्घटना के बाद कूदा। इसी दौरान सरकार अणुमुक्ति के कार्यस्थल वड़छी गांव के पास में ही काक्रापार नामक जगह परमाणु संयंत्र लगाने का निर्णय किया। स्थानीय लोगों ने इसका विरोध किया। परन्तु सरकारी दमन के आगे विरोध टिक नहीं पाया। इस आन्दोलन के दौरान यह भी समझ में आया कि भारत में परमाणु संयंत्रों से स्थानीय निवासियों को हो रहे नुकसान को आंकने के लिए कोई विश्वस्त सर्वेक्षण नहीं किया गया था। इसीलिए जनआन्दोलन भी इन संयंत्रों का सिद्दत से विरोध नहीं कर पा रहे थे। अतः सितम्बर 1991 में राजस्थान के रावतभाटा में दस साल पुराने परमाणु संयंत्र के पास रह रहे स्थानीय निवासियों की स्थिति के बारे में जानने का निर्णय लिया गया। हालांकि सर्वेक्षण रपट स्थानीय निवासियों के जीवन के हर पहलू के छूती थी और सर्वेक्षण के नतीजे बहुत उत्साहबर्धक नहीं थे। लेकिन स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थिति बहुत भयावह पाई गई।

कुल 1,023 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया। इनमें से 571 परिवार रावतभाटा परमाणु बिजली संयत्र से 10 किलोमीटर से कम दूरी पर थे। 472 परिवार इस संयंत्र से 50 किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित चार गांवों से थे। पास के गावों से 2860 तथा दूर के गावों से 2544 लोगों का सर्वेक्षण किया गया। वैसे इन गांवों को रहन-सहन खान-पान आदि में काफी समानता थी ऊर्जा संयंत्र की वजह से ही असमानताएं आई थी। सबसे बड़ी असमानता करीब और दूर के गावों के लोगों के स्वास्थ्य के क्षेत्र में दिखी। रावतभाटा के पास के गांवों के अधिकतर (45 प्रतिशत) लोगों ने बीमारी की शिकायत की जबकि दूर के गावों के 25 प्रतिशत लोगों ने बीमारी की शिकायत की। पास के 551 गावों में 68 परिवारों में कम से कम एक सदस्य को चार अलग-अलग बीमारियों ने घेर रखा था। दूर के 472 गावों में ऐसे घरों की संख्या केवल 9 थी। परमाणु ऊर्जा संयंत्र के पास के गावों में 30 मरीजों के शरीर में बड़े बड़े ट्यूमर(गांठें) थी। एक महिला की छाती में तो फूटबाल जैसी गोल गांठ थी। कइयों की गाठें टेनिस की बाल के बराबर गोल थी। दूर के गावों में ऐसे पांच केस मिले। पर किसी की भी गांठ फूटबाल जैसी गोल व बड़ी नहीं थी।

गर्भवती स्त्रियों के गर्भपात, समय से पहले जन्म, मरे हुए बच्चों का जन्म, नवजात शिशुओं की मृत्यु, तथा विकलांगता की दर अधिक पाई गई। संयंत्र के पास के गावों के 44 लोगों को विकलांगता थी। इनमें से पांच की आयु ही 18 साल से ऊपर थी। 33 की आयु 11 साल से कम थी तथा 6 की आयु 11 और 18 के बीच थी। दूर के गावों में 14 केस विकलागंता के मिले। इनमें से 4 की उम्र 18 वर्ष से ऊपर थी। 6 बच्चे 11 से कम उम्र के थे जबकि चार बच्चे 11 से 18 के बीच में थे। पास के गावों में 1989 व 1991 के बीच 16 बच्चे विकलांग पैदा हुए, सामान्य बच्चे 236 पैदा हुए। दूर के गावों में इस दौरान 194 सामान्य बच्चे पैदा हुए तीन विकलागं पैदा हुए। इसी दौरान पास के गांवों में चार विकलांग मरे हुए बच्चे पैदा हुए थे जबकि दो सामान्य बच्चे मरे हुए पैदा हुए थे। दूर के गांवों में यह संख्या जीरो थी। नजदीक के गावों में पांच को कई विकलांगताएं थी। इनमें से चार में से हरएक को दो-दो विकलांगताएं थी। एक को तीन विकलांगताएं थी।

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि संयंत्र के चालू होने के बाद पास के गावों में पैदा हुए बच्चों में विकलांगों की संख्या बढ़ी थी । (1981-1991 के बीच पैदा हुए बच्चों में 39 विकलांगता से ग्रस्त थे।) 1989-1991 के बीच सात नवजात शिशु एक दिन की आयु ही जी पाए। दूर के गांवों में एक शिशु एक ही दिन की अल्पआयु में चल बसा। 1981-91 के बीच 16 विकलांग बच्चे पैदा हुए। 6 बच्चे मृत पैदा हुए 27 गर्भपात हुए तथा 31 बच्चे जन्म के बाद जल्दी ही काल के ग्रास बन गए। उल्लेखनीय है कि रावतभाटा भारत का प्रथम ऊर्जा संयंत्र है। कनाडा की मदद से इस संयंत्र का निर्माण 1964 में आरंभ हुआ। 1973 में इसको कामर्शियल घोषित कर दिया गया। दूसरी इकाई का काम 1967 में प्रारम्भ हुआ 1981 में कामर्शियल हुआ।

1991 के सर्वेक्षण की रपट के मुख्य निष्कर्षों को हिन्दी में छाप कर रावतभाटा के समीपवर्ती गावों में वितरित किया गया। इसके छः महिने बाद स्थानीय लोगों ने एक जूलूस निकाला और रिएक्टरों को बन्द करने की मांग की। एक बूढ़ी आदिवासी महिला अपना पारम्परिक पर्दा त्याग कर मंच पर आई और लोगों को बच्चों में बढ़ती विकलांगता के बावजूद बिजली बनाने की जिद पर अड़े रहने के लिए फटकारा। इस सर्वेक्षण से मिले तथ्यों से साफ हो गया है कि रावतभाटा परमाणु ऊर्जा संयंत्र से स्थानीय लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति बिगड़ी और विकलागंता के आकड़ो का अवश्य विकास हुआ। मालूम नहीं सोनिया गांधी को उपरोक्त सर्वेक्षण की जानकारी था कि नहीं। यदि नहीं थी तो आम लोगों को गुमराह करने की कोशिश करने से पहले क्या उन्हें परमाणु ऊर्जा का सच जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। यदि आम जनता को परमाणु संयंत्रों से होने वाली त्रासदी की भनक लग जाए तो वे कभी भी अपने निकटवर्ती इलाकों इस प्रकार के संयंत्रों के लगाने का पुरजोर विरोध करेंगे।

इसीलिए पूरे विश्व में सरकारें तथा परमाणु उद्योग परमाणु- परिक्षणों, परमाणु- हथियारों, परमाणु- ऊर्जा तथा परमाणु-संयंत्रों के रखरखाव के बारे में लापरवाही और गोपनीयता दोनों ही बरतती है। इससे एक ओर लोगों को इन परिक्षणों, व परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से होने वाले नुकसानों तथा खतरों के बारे में जानकारी नहीं होती है। दूसरी ओर उन्हें दुर्घटना के समय बरती जाने वाली (अ) सावधानियों के बारे में भी कोई ज्ञान नहीं होता। उचित जानकारी के अभाव में सरकार की जवाबदेही सुनिश्चत करना भी आसान नहीं होता। चूंकि हर प्रक्रिया गुप्त रखी जाती है इसलिए हो चुके या सम्भावित नुकसान की जानकारी भी आम आदमी को नहीं होती। संक्षेप में आम लोगों को तथाकथित विकास का लाभ पहुंचे या नहीं पहुंचे पर परमाणु- हथियारों, परमाणु- ऊर्जा उनके बेमौत मारे जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। सरकारों का आलम यह है कि वह लीपापोती में ही अधिक लगी रहती हैं ताकि जवाबदेही से बची रहें।

अपने देश में चर्नोबिल दुर्घटना के बाद भी परमाणु संयंत्रों के रखरखाव में किस प्रकार की अ- सावधानी बरती गई इसका एक मिसाल रूपा चिनाय की संडे आबजरवर 6,9,92 को भेजी एक खबर है। रूपा चिनाय के अनुसार मुम्बई से 15 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भाभा परमाणु शोध केन्द्र में 13 दिसम्बर 1991 को रिऍक्टर में काम कर रहे मजदूरों ने प्रबंधन को बताया कि समुद्र और रिऍक्टर के बीच के मैदान में पाइप लाइन फटने से पानी का फब्बारा फूटा था। प्रबंधन ने आनन फानन में छः दिहाड़ी मजदूरों को गड्ढ़ा खोदने के काम पर लगा दिया। इन मजदूरों ने बिना किसी सुरक्षा उपकरणों के व रेडियेशन मापने के बैज पहने जमीन के भीतर आठ फीट गहरा गड्ढ़ा खोदा । ताकि फटी हुई पाइप लाइन की मरम्मत की जा सके। शायद इन मजदूरों को बिना किसी सुरक्षा कवच के काम पर लगाने वाला प्रबंधन भी रेडियेशन से होने वाले खतरे के बारे में अवगत नहीं था। रेडियेशन स्वास्थ्य जांच विभाग के एक अफसर को रेडियेशन से होने वाले प्रदूषण की आशंका हुई । उन्होंने दुर्घटना का पता चलने पर गड्ढ़े के पास इकट्ठा पानी के नमूने लेकर जांच के लिए भेज दिये। तभी इलाके में रेडियोएक्टिविटी से खतरे की संभावना पर प्रबंधन का ध्यान गया। तब भी ठीक से जांच कराने, प्रभावित लोगों को समुचित इलाज करवाने तथा सावधानी बरतने का प्रावधान करने के बजाय सारी घटना में लीपापोती करने की कोशिश की गई। ताकि किसी अफसर को लापरवाही बरतने की वजह से कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही का सामना न करना पड़े। उदाहरण के लिए जिन ठेके के मजदूरों ने करीब आठ घन्टों तक गड्ढ़े में काम किया था उनको फटाफट गड्ढ़े से बाहर निकाल कर नहला धुला कर नए कपड़े पहना कर घर भेज दिया। उसके बाद उन मजदूरों का क्या हुआ किसी को नहीं मालूम। खोदे हुए गड्ढ़े उसके आस-पास के क्षेत्र की घासपूस, पक्षियों व कीड़े मकोड़ों में विकिरण पाया गया। सम्भावना है कि पक्षियों और कीड़ों द्वारा यह विकिरण एक जगह से दूसरी जगह फैलाया गया होगा। यही नहीं ये नाले बरसाती पानी को भी समुद्र तक पहुंचाते थे। जिससे यह शक पैदा होता है कि इस नाले से काफी समय से विकिरण समुद्र में फैल रहा था। रूपा चिनाय जिन्होंने यह रपट संडे आबजरवर के 6,9,92 को भेजी का कहना है कि इस प्लॉन्ट का प्रबंधन 1978 से ही जानता था कि इस पाइप में रिसाव था। पर उसे न ठीक कराया गया न ही बदला गया।

यहां यह प्रासंगिक है कि भारत ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी परमाणु सयंत्रों से हो रहे नुकसान को नजरअंदाज करने की कोशिश हमेशा से ही होती रही है। डा. रोजेली बर्टेल ने कहा कि चर्नोबिल में अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजन्सी (आइ ए ई ए) का वास्तविक चेहरा सामने आया। (अन्तर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजन्सी की स्थापना 1950 में हुई। इसका उद्देश्य परमाणु हथियारों के प्रसार तथा परमाणु ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देना था। ये अपने आप में विरोधाभाषी उद्देश्य हैं। अन्तर्राष्ट्रीय रेडियेशन सुरक्षा आयोग की स्थापना बीसवी सदी के पचासवे दशक में हुई थी। इसका उद्देश्य रेडियेशन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले कुप्रभावों को जानना व लोगों का इससे बचाव करना है।) डा. रोजेली बर्टेल ने चर्नोबिल दुर्घटना के पीड़ितों के अध्ययन के दौरान यह देख कर हैरान थे कि आई ए ई ए मान रही थी कि इस दुर्घटना में केवल 32 लोगों की जानें गई। जबकि यूक्रेन के स्वास्थ मंत्री ने माना कम से कम 10,000 लोग चर्नोबिल दुर्घटना के कारण मरे । बेलारूस में चर्नोबिल से सबसे अधिक जानी नुकसान हुआ। परन्तु आई ए ई ए व अन्तर्राष्ट्रीय रेडियेशन सुरक्षा आयोग ने इन पीड़ित लोगों की समस्याओं को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया। डा. रोजेली बर्टेल का मानना है कि इन दोनों संस्थाओं का विज्ञान से कोई लेना देना नहीं है।

चर्नोबिल दुर्घटना के बाद वहां पर राहत कार्यों में लगाए गए छः लाख लोगों को डां रोजली बर्टल ने जिन्दा लाश कहा है। ये छः लाख लोग रूस के कोने-कोने से लाए गए किसान, फैक्टरी मजदूर, खदान मजदूर, सिपाही, व आग बुझाने वाले थे। इनमें से कई को विकिरण वाले धातुओं को नंगे हाथों से उठाना पड़ा था। दुर्घटना के बाद 300 से अधिक जगहों पर लगी आग इनको बुझानी पड़ी। सैकड़ों ट्रक, फायर इन्जिन , कारें आदि इनको जलानी पड़ी। घरों को गिराना पड़ा। एक जंगल को पूरी तरह जमीन पर गाड़ना पड़ा। परमाणु विकीरण से प्रभावित सारा कूड़ा, मिट्टी जमीन पर गाड़नी पड़ी। इन लागों को 180 दिन के लिए कन्सक्रिप्ट किया गया था। लेकिन कईयों से एक साल तक यह काम जबरदस्ती करवाया गया। ना नुकुर करने पर परिजनों को कड़ी से कड़ी सजा देने की चेतावनी दी गई। राहत कार्य पूरा हो जाने पर इन लिक्वीडेटरों को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल बाहर कर भुला दिया गया। इनका एक संगठन है जिसका दफ्तर कीव के बाहर स्थित रेडियेशन शोध केन्द्र में है। इस संगठन के अनुसार 1995 तक इस संगठन के तेरह हजार सदस्य मर गए थे इनमें से बीस प्रतिशत ने आत्महत्या की थी। सत्तर हजार सदस्य हमेशा के लिए विकलांग हो गए थे। चूंकि सभी लिक्विडेटर इस संस्था के सदस्य नहीं थे। अतः कइयों के बारे में सूचना जुटाना भी आसान नहीं था। कारण रूस के विघटन के बाद वे अपने अपने देशों के सुदूर इलाकों में बिखरे थे।

यहां यह तथ्य ध्यान में रखना आवश्यक है कि चर्नोबल न पहली दुर्घटना थी न आखरी। 1991 में तथ्यों को स्वयं बोलने दो (Let the Facts Speak) शीर्षक पुस्तक छपी। इसमें 1990 तक हुए परमाणु दुर्घटनाओं का लेखा-जोखा है। 15 साल बाद इसका तीसरा संसकरण छपा। इसमें इस बात पर चिंता व्यक्त की गई कि 60 साल के दुर्घटनाओं से भरे इतिहास के बावजूद परमाणु ऊर्जा को बहुत नई साफ सुथरी, सस्ती, पर्यावरण के लिए सुरक्षित, विश्वसनीय बताया जा रहा था। इस पुस्तक में तथ्यों की सहायता से सिद्ध किया गया है कि परमाणु ऊर्जा का हर कदम—खनन से मिलिगं, इन रिचमन्ट, रिएक्टर चलाने तथा परमाणु कचरा ठिकाने लगाने तक सुरक्षित नहीं है।

मसलन परमाणु कचरा नष्ट नहीं होता। कुछ कचरा जैसे Plutonium करीब 250,000 साल तक विकिरण फैलाता है। दूसरा, विकिरण की बहुत थोड़ी मात्रा भी बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाती है। मसलन् 1987 में गोआना ब्राजील में कैन्सर थैरैपी मशीन से सीसियम (cesium) का एक फ्लास्क कबाड़ी को बेच दिया गया। लोगों ने इससे कोई पाउडर झरता देखा और दवा समझ कर शरीर पर मल लिया। कुछ समय बाद रेडियम से उनका शरीर जलने लगा तो उन्होंने पानी से धो डाला इससे घरों का पानी व सीवर दोनों प्रदूषित हो गये। पास पड़ोसी इस प्रदूषण की चपेट में आने लगे। इन प्रदूषित लोगों को हस्पताल ले जाने वाली ऐम्बुलैंस भी प्रदूषित हो गई। इन वाहनों को प्रदूषण रहित करने की किसी को नहीं सूझी। 112,000 लोगों को पकड़ कर जांच के लिए स्थानीय स्टेडियम में लाया गया। जांच में 249 में भारी मात्रा नें रेडियम जहर मिला। पांच लोग इस जहर से मर गए। उनको खास प्रकार के ताबूतों में विशेष तरीके से बनाई गई कब्रों में दफनाया गया। ताकि मुर्दों से प्रदूषण न फैले। विशेषज्ञों का मानना है कि प्रदूषित स्टेडियम, सीवर व अन्य सुविधाएं लम्बे समय (कई जन्मों ) तक खतरनाक रहेंगी।

इस पुस्तक में बताया गया है कि परमाणु ऊर्जा उद्योग अन्य उद्योगों से इस मायने में भिन्न है कि यह परमाणु हथियारों के उत्पादन के उद्योगों से तथा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है। इस कारण इस उद्योग में बहुत गोपनीयता बरती जाती है तथा जनता को इनसे होने वाले नुकसान (दुर्घटनाओं से तथा प्रदूषण से) के बारे में अक्सर गलत सूचना दी जाती है। इन उद्योगों की जवाबदेही भी अन्य उद्योगों से कम होती है। परिणामस्वरूप अन्य उद्योगों की तुलना में परमाणु उद्योगों से खतरे अधिक होने के बावजूद सुरक्षा मापदन्ड कमजोर होते हैं। इस सब का खमिजाना सभी जीवित प्राणियों को भरना पड़ता है। इस खमिजाने की एक संक्षिप्त तसबीर इस प्रकार है।

11 जनवरी 1980 AAP-AP, ने बताया कि 1950 में उत्तरपूर्वी आस्ट्रेलिया की एक युरेनियम खान के बांध की मिट्टी की दीवार तेज बारिष की वजह से टूट गई और रेडियोयेकटिव से आस-पास के पानी के स्त्रोत प्रदूषित हो गए। इस प्रदूषण के बारे में 1980 तक गोपनीयता बरती जा रही थी। यह खान इंग्लेंड व अमेरिका के परमाणु हथियार प्रोग्राम से जुड़ी कम्पनी ने ली थी तथा यहां सुरक्षा के मापदंड बहुत कमजोर थे। The West Australian ने 3 जनवरी 1981 को छापा कि एक सेवानिवृत नौसेना के पॉयलट ने बताया कि उसने अक्तूबर 1947 में तीन फ्लाइट्स से अटलान्टिक समुद्रतट पर परमाणु कचरा डाला लेफ्टीनेन्ट कमान्डर ने अखबार को बताया कि वे यह जानकारी मीडिया को इसलिए दे रहे थे कि उन्हें डर था कि अमेरिकी सरकार परमाणु कचरे से भरे कनिस्टरों से कचरा रिसने को गंभीरता से नहीं ले रही थी ।

14.9.1954 में रूस के Tu-4 बम्बरों ने 40,000 टन परमाणु हथियार एक परमाणु परिक्षण के लिए गिराए । इससे 45,000 रूसी सैनिकों को परमाणु विकिरण का खतरे से दो चार कराया गया। Tu-4 बम्बरों को उड़ाने वाले पॉयलट को ल्युकेमिया हुआ उसके साथी को केंन्सर हुआ। इस परीक्षण के बाद हजारों लोग मरे।

1952, 12th December को कनाडा में पहली बड़ी रिएक्टर दुर्घटना मानवीय गलती की वजह से हुई। “Daily News” ने 6 जून 1980 को लिखा कि अरिजोना, स.रा.अमेरिका (AriZonA, U.s.A) में युरेनियम खान मजदूरों में radon daughter की वजह से मृत्यु दर काफी ज्यादा है। 1978 में मरे 200 लोगों में 160 बे मौत मरे। नवाजो यूरेनियम खान मजदूरों को फेफड़ों के कैन्सर का खतरा कम से कम 85 गुना अधिक है। ये खान मजदूर स्थानीय आदिवासी हैं। खनन करने वाली कम्पनियों ने इन स्थानीय लोगों से तेल निकालने के नाम पर झूठ बोलकर जमीन लीज पर ली। इस प्रकार उन्हें मालूम ही नहीं है कि वे मौत से खेल रहे हैं। जमीन के खनन से उस क्षेत्र का भू जल भी प्रदूषित हो गया है।

1979, अक्तूबर में थ्री माइल आइलैंन्ड पनसिलवानिया, स. रा.अमेरिका में हुई दुर्घटना की वजह से परमाणु प्लॉन्ट पर $150,000 का जुर्माना लगाया। यह दुर्घटना परमाणु कम्पनी के सुरक्षा के मापदन्डों की कम से कम 17 जगहों उपेक्षा करने से हुई। एक रिपोर्ट के अनुसार 1979 की इस दुर्घटना में 20 प्रतिशत परमाणु ऊर्जा संयंत्र गल गया था। अरिजोना के गवर्नर ब्रूस बेब्बिट ने राज्य में आपात काल लागू कर दिया। इस दुर्घटना में $300,000 मूल्य का भोजन भी प्रदूषित हुआ।

पुस्तक में बताया गया है कि लापरवाही के अलावा वैज्ञानिकों की अज्ञानता भी खतरे को बढ़ाती है। वैज्ञानिकों को थोड़ी थोड़ी मात्रा में लम्बे समय तक ग्रहण किये गए रेडियेशन क दुष्परिणामों के बारे में सीमित जानकारी है। मानव शरीर में इससे क्या कैमिकल व मोलिकुलर परवर्तन आ सकते हैं यह भी नहीं मालूम। जैसे-जैसे वैज्ञानिक ज्ञान इस दिशा में बढ़ रहा है परमाणु उद्यागों में वैसे-वैसे मजदूरों को मिलने वाले रेडियेशन की सुरक्षित सीमा घटाई जा रही है। रेडियेशन का आज सबसे बड़ा खतरा आने वाली पीढ़ियों को है कारण जीन्स के डैमेज हो जाने से विकलागं बच्चे बड़ी सख्या में पैदा हो रहे हैं।

5 नवम्बर 1979 के द आस्ट्रेलियन ने छापा कि जापान में ताकाहामा 11 रिएक्टर (फूक्वे के पास) से मानवीय लापरवाही की वजह से 80 टन रेडियोयेक्टिव पानी रिस गया। यह दुर्घटना जापान की सबसे गम्भीर दुर्घटना मानी जाती है। एक प्रवक्ता के अनुसार यह दुर्घटना ने सबको आश्चर्य में डाल दिया। इसके कारणों का पक्का पता नहीं था। प्रवक्ता के अनुसार शायद तापमान मापने वाली पाइप की बनावट में कोई कमी रह गई होगी या तापमान मापने वाली पाइप का ढ़क्कन गलती से खुल गया होगा। प्लांन्ट के चार तापमान मापने वाली पाइपों में से एक का ढ़क्कन खुल कर गिर गया और पाइप से पानी तेजी से बाहर निकल आया। इसके बाद रियेक्टर को एक महिने के लिए बंद करना पड़ा |

परमाणु संयंत्रों के रखरखाव में कितनी लापरवाही बरती जाती है इसका अंदाजा अमेरिकी न्यूक्लियर रेगुलेटरी कमिशन के मिशिगन पॉवर कम्पनी पर $402,750 का जुर्माना थोपने के प्रस्ताव से साफ हो जाता है। यह राशि आजतक अमेरिका में थोपी गई जुर्माना की राशि में सबसे बड़ी है। जुर्माने का कारण कम्पनी का रिएक्टर कनटेन्मेंन्ट भवन से जोड़ने वाली पाइप का वाल्व बन्द करना भूल जाना था। किसी भी गम्भीर दुर्घटना के समय इस भवन का उपयोग परमाणु विकीरण को बाहर निकलने देने से रोकने के लिए होता है। चूंकि वाल्व अप्रैल 1978 से सितम्बर 1979 तक खुला रहा । इस दौरान यदि कोई दुर्घटना होती तो परिणाम भयावह होते। (“West Australian”, 12/11/1979) सितम्बर 1980 में जापान के एक प्रतिनिधि ने न्यूक्लियर फ्री पैसिफिक फोरम आस्ट्रेलिया को बताया कि जापान के 21 परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में 6,280,000 से अधिक मजदूर रेडियेशन की खतरनाक सीमा तक ऐक्सपोज होते हैं।

एक अन्य प्रतिनिधि जो पेशे से डॉक्टर था तथा जो हिरोसीमा में अमेरिकी बम्बारी के बावजूद बच गया था ने कहा कि हिरोसीमा नागासाकी में मरे लोगों की संख्या अमेरिका द्वारा आंकी संख्या से कहीं अधिक थी। डा. शुनतारो के अनुसार बम्बारी के एक साल के भीतर 160,000 निवासी काल का ग्रास बने जबकि अमेरिका ने यह संख्या 60,000 आंकी थी। नागासाकी में अमेरिकी अनुमान 28,000 के विपरीत 70,000 लोगों ने अपनी जान गवाई। “The Adelaide Advertiser”, 30th September 1980। उपरोक्त दी गई दुर्घटनाएं महज कुछ उदाहरण हैं । इस पुस्तक में विभिन्न देशों में हुई दुर्घटनाओं का जो ब्योरा है वह परमाणु ऊर्जा को लोक- अहितकारी और विनाशकारी सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।

इसके अलावा अमेरिका जिसके साथ करार करने अपनी चुनी हुई सरकार आतुर है वहां की सरकार भी परमाणु परिक्षणों से वहां के जन स्वास्थ्य पड़ने वाले कुप्रभाव को नजरअंदाज करती है। डा. बैनजामिन स्पोक ने किलिगं अवर ओन क्रोनिक्लिगं द डिजास्टर ऑफ अमेरिका एक्सपीरिएन्स विथ एटोमिक रेडियेशन, 1945-1982( Chronicling the Disaster of America's Experience with Atomic Radiation, 1945-1982 Harvey Wasserman & Norman Solomon with Robert Alvarez & Eleanor Walters) नामक पुस्तक की अपनी भूमिका में लिखा है कि अमेरिकी संघीय सरकार परमाणु तकनीक के विकास सबंधी सभी मूलभूत मंत्रणाओं को गुप्त रखती है।

इससे न तो इन कार्यक्रमों की सामाजिक कीमत आंकनी आसान होती है और न ही मानवीय स्वास्थ्य की कीमत पर कोई सार्वजनिक बहस मुबाहिसा हो सकती है और न ही कोई जनचेतना जगाने के कार्यक्रम लिए जा सकते हैं। यही नहीं संघीय सरकार परमाणु संयंत्रों की वजह से लोगों द्वारा भुगते हुए स्वास्थ संबंधी समस्याओं को भी सिरे से इनकार कर देती है। इस पुस्तक के लेखकों की एक पूरी टीम है इस टीम के सदस्यों ने बम परीक्षण व बम विस्फोट की वजह से उत्पन्न हुए परमाणु विकीरण के कुप्रभावों के भुग्तभोगी सैनिकों, व नागरिकों से लम्बी बातचीत की। उन मजदूरों से भी जिन्होंने अपने काम के हिस्से के रूप में रेडियोएक्टिव इसोटोप्स पर और अन्य सामग्री पर काम किया बातचीत की। इसके अलावा उन वासिन्दों से भी बात की जो परमाणु बम परीक्षण क्षेत्र, रिएक्टर लगाए गए स्थान से, या यूरेनेयम उत्खनन, मिलिंग व इनरिचमैंन्ट, परमाणु कूड़ा रखे गए स्थानों से नीचे की ओर रहते थे। भुग्तभोगियों के अलावा सरकारी दस्तावेज-1974 से पहले परमाणु ऊर्जा आयोग की 1974 के बाद इसेक उत्तराधिकारी न्यूक्लियर रेगुलेटरी कमिशन की बंद दरवाजों के पीछे हुई बैठकों के मिनट्स और इनर्जी रिसर्च एण्ड डैवलपमैंन्ट एजन्सी व इसका नया अवतार डिपार्टमैंन्ट आफ इनर्जी के दस्तावेज भी इकट्ठे किये।

इन सबके आधार पर अपनी भूमिका में डा. बैनजामिन स्पोक ने लिखा कि हमारी सरकार परमाणु हथियारों तथा परमाणु ऊर्जा के लिए इतनी दृढ़ संकल्प है कि वह इन कार्यक्रमों से होने वाले नुकसान के बारे में जो भी साक्ष्य सामने आएंगे उनको सिरे से नकार देती है। सत्य को झुठला देती है, लोगों को गुमराह करती है, जन स्वास्थ्य यहां तक कि आम लोगों की जान को भी दाव पर लगा देती है। जो वैज्ञानिक सरकार की नीतियों से असहमति जताते हैं उनका चरित्र हनन करने की कोशिश करती है। डा. स्पोक सबसे अधिक चिंतित बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर दिखे। रेडियेशन के सम्पर्क में आने से बच्चों को केंन्सर व ल्युकेमियां जैसे रोगों की सम्भावना बढ़ जाती है । साथ ही बच्चों में जन्म से ही शारीरिक और मानसिक विकलांगता होने की सम्भावना बढ़ जाती है। पैदाइशी विकलांगता के ये जीन्स अगली पीढ़िया उत्तराधिकार में पाती हैं। डा. अर्नस्ट स्टर्नग्लास व सिक्रेट फालआउट लो लिवल रेडियेशन फ्राम हिरोशिमा टु थ्री माइल आइलैंड में लिखते है कि बहुत थोड़ी मात्रा में रेडियोएक्टिव विकीरण के रिसाव से (चाहे वह किसी भी कारण से हो) जान को खतरा बढ़ जाता है तथा जन्म से विकलांगता व जान लेवा बीमारियों की घटनाएं बढ़ जाती हैं।

परमाणु कार्यक्रम के खतरों के बारे में अमेरिका की सरकारों के झूठ व फरेब को उजागर करते हुए लिखा हैं कि थ्री माइल आइलैंड दुर्घटना के एक दिन बाद किसी ने फिज्यौलौजी एण्ड मैडिशन में नोबल पुरस्कार से सम्मानित डा. जार्ज वाल्ड से पूछा कि जनता को इस दुर्घटना के प्रभावों के बारे में यूटिलिटी के प्रवक्ता के आश्वासनों पर विश्वास करना चाहिये या उनके स्वयं के खतरों के मूल्यांकन पर। डा. वाल्ड ने उत्तर दिया कि हमें स्वयं से पूछना चाहिये कि किसका हित खतरों को कम बताने में सधता है परमाणु उद्योग का या उस स्वतंत्र वैज्ञानिक का जो जनता को खतरों से आगाह कर रहा है। उल्लेखनीय है कि उद्योग के प्रवक्ता ने जनता को आश्वस्त कर दिया था कि घबराने की कोई बात नहीं है। डा. वाल्ड ने आगे जोड़ा कि वर्तमान परिस्थियों में वे स्वयं परमाणु उद्योग के प्रवक्ता की बातों पर ज्यादा विश्वास नहीं करेंगे।

आज अपने देश अपनी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और विपक्ष दोनों ही परमाणु ऊर्जा उत्पादन से आम आदमी पर मडरा रहे खतरे के बारे में चिंतित नहीं दिखते। ये सरकारें जनता द्वारा चुनी अवश्य गई है परन्तु इनकी नीतियां दर्शाती हैं कि ये इस देश की सम्पदा को व्यापारिक घरानों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बिना किसी लाग लपेट के बेचने में लगी हैं। इनको न जनहित की चिंता है न इस देश को जो थोड़ी बहुत आजादी हासिल है उसको बचाए रखने की। ऐसे में आम आदमी को अपनी चिंता स्वयं करनी है ऐसी विनाशकारी योजनाओं का पुरजोर विरोध करना चाहिए। आज वामपंथी दलों के दबाव में भारत अमेरिकी परमाणु करार कुछ समय के लिए टल अवश्य गया है। पर परमाणु ऊर्जा के विकास की सम्भावनाएं बनी हुई हैं। कारण किसी को परमाणु ऊर्जा के उपरोक्त खतरों से सरोकार नहीं है। तथाकथित विकास के नाम पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के विकास का रास्ता खोला जा रहा है।
 

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