परमाणु ऊर्जा पर जन घोषणापत्र

27 Sep 2013
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आज व्यापक तौर पर परमाणु ऊर्जा को जीवन, जीविका तथा पर्यावरण पर खतरे के तौर पर देखा जा रहा है, जिसका एक बड़ा कारण यह है कि इसमें कई पीढ़ियों को प्रभावित करने वाले अपरिवर्तनीय विकिरण प्रभावों और विनाशकारी तबाही की संभावना होती है। चेर्नोबिल और उसके बाद जापान में हुई फुकुशिमा दुर्घटना के बाद कई देशों ने परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार किया है और इसे क्रमशः बंद करने के निर्णय लिया है। अपने निहित खतरों, ऊंची कीमत और गोपनीय चरित्र के चलते यह ऊर्जा हर जगह लोगों के ऊपर बलपूर्वक थोपी जा रही है। परमाणु ऊर्जा पर भारतीय जनता का यह घोषणापत्र हमारे साझे अनुभवों, संघर्षों और सुरक्षित ऊर्जा भविष्य को लेकर हमारी साझी दृष्टि का एक दस्तावेज़ है। ऐसे संघर्ष इस ऊर्जा कार्यक्रम की शुरुआत से ही होते रहे हैं और केरल जैसी जगहों पर उन्होंने अहम जीतें भी हासिल की हैं। कुडनकुलम (तमिलनाडु), जैतापुर (महाराष्ट्र), मीठी विर्दी (गुजरात), कोवाडा (आंध्र प्रदेश), गोरखपुर (हरियाणा), चुटका (मध्य प्रदेश) और हरिपुर (पश्चिम बंगाल) जैसी जगहों पर लोग परमाणु ऊर्जा कारपोरेशन द्वारा लगाए जा रहे इन जनविरोधी और असुरक्षित परमाणु बिजली संयंत्रों के खिलाफ जुझारू संघर्ष चला रहे हैं। उनके शांतिपूर्ण जनांदोलनों को सरकारी बेरुखी और बर्बर दमन का सामना करना पड़ रहा है। मौजूदा परमाणु संयंत्रों के नज़दीक रहने वाले समुदायों ने भी विकिरण रिसाव और इसके हानिप्रद प्रभावों के खिलाफ आवाज़ उठाई है, जिन्हें प्रायः प्रशासन द्वारा दबाने की कोशिश की गई है। पिछले कुछ समय से इन आंदोलनों को समाज के कई तबकों का समर्थन और सहयोग भी मिला है। बुद्धिजीवी, नीति-विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, समाजकर्मी, लेखक, कलाकार एवं जीवन के अन्य क्षेत्रों से आने वाले लोगों ने इन आंदोलनों का साथ दिया है।

आज व्यापक तौर पर परमाणु ऊर्जा को जीवन, जीविका तथा पर्यावरण पर खतरे के तौर पर देखा जा रहा है, जिसका एक बड़ा कारण यह है कि इसमें कई पीढ़ियों को प्रभावित करने वाले अपरिवर्तनीय विकिरण प्रभावों और विनाशकारी तबाही की संभावना होती है। चेर्नोबिल और उसके बाद जापान में हुई फुकुशिमा दुर्घटना के बाद कई देशों ने परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार किया है और इसे क्रमशः बंद करने के निर्णय लिया है। अपने निहित खतरों, ऊंची कीमत और गोपनीय चरित्र के चलते यह ऊर्जा हर जगह लोगों के ऊपर बलपूर्वक थोपी जा रही है। इतने सालों के प्रयास और भारी खर्चे के बावजूद, परमाणु ऊर्जा से भारत में बिजली की सिर्फ 3 प्रतिशत ही उत्पादन-क्षमता बन पाई है। लेकिन फिर भी भारत इसका विस्तार करने में लगा है, जिसका एक प्रमुख कारण यह है कि भारत-अमेरिका परमाणु करार के दौरान अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह से भारत के लिए छूट हासिल करने हेतु सरकार ने अमेरिका, रूस और फ्रांस इत्यादि देशों से जो वायदे किए थे, वे अब पूरे करने हैं। इस विस्तार से उन देशी-विदेशी औद्योगिक लॉबियों की भी ताकत बढ़ेगी जो मुनाफ़े पर नजर गड़ाए हुए हैं। इससे परमाणु प्रतिष्ठान की सत्ता और विशेषाधिकारों में भी खूब वृद्धि होगी और भारत में केंद्रीकृत और ऊर्जा-सघन आर्थिक विकास का एजेंडा और आगे बढ़ेगा।

भारत की ऊर्जा ज़रूरतों के लिए परमाणु बिजली अपरिहार्य है, यह दावा अब सवालों के घेरे में है। परमाणु ऊर्जा की होड़ में हम देश की असली जरूरत यानी विकेंद्रीकृत, पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ और समतावादी ढंग से ऊर्जा उत्पादन से और दूर चले जाएंगे।

इसका अर्थ यह है कि हम परमाणु ऊर्जा के रास्ते पर जाएं या न जाएं और जाएं तो कैसे, किन शर्तों पर, इस सवाल को सीधे आम जनता के सामने रखा जाना चाहिए।

हम यह मांग करते हैं कि –


-सभी प्रस्तावित परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं को तत्काल प्रभाव से स्थगित किया जाए।

-इन परियोजनाओं के लिए भूमि-अधिग्रहण भी तुरंत रोका जाए।

-परमाणु ऊर्जा और इसके विकल्पों पर एक खुली राष्ट्रीय बहस का आयोजन किया जाए। सरकार यह स्वीकार करे कि परमाणु ऊर्जा पर उठ रहे सवाल वाजिब और गंभीर हैं।

-सरकार परमाणु ऊर्जा का औचित्य, वांछनीयता, सुरक्षा, पर्यावरणीय मज़बूती, कीमत और इसके दीर्घकालिक प्रभावों की जांच के लिए एक नागरिक आयोग बनाए। इस आयोग में स्वतंत्र विशेषज्ञ, समाज वैज्ञानिक और नागरिक समाज के प्रतिनिधि शामिल किए जाएं।

-जहां भी नए परमाणु बिजलीघर, यूरेनियम खनन अथवा परमाणु ईंधन-चक्र से संबंधित कोई भी अन्य कारखाना प्रस्तावित हैं, वहां प्रारंभिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण के लिए सरकार को स्वतंत्र विशेषज्ञों का समूह गठित करना चाहिए। इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों को स्थानीय लोगों के बीच पूरी पारदर्शिता से साझा किया जाए जिन्हें अपनी सेहत के बारे में संपूर्ण और अबाध जानकारी का पूरा हक है।

-गैर-मान्यताप्राप्त संस्थानों द्वारा पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की मौजूदा प्रक्रिया बिल्कुल अस्वीकार्य है। इस आकलन में विकिरण का रिसाव और रेडियोधर्मी कचरे के भंडारण व परिवहन के दौरान जोखिम और दुर्घटना जैसे परमाणु ऊर्जा से जुड़े विशिष्ट खतरे शामिल नहीं होना बिल्कुल अक्षम्य है। परमाणु ऊर्जा से जुड़ी सभी परियोजनाओं के लिए पर्यावरणीय मंजूरी की प्रक्रिया को और अधिक सख्त एवं संपूर्ण बनाना चाहिए तथा इनके लिए व्यापक जनसुनवाई अनिवार्य की जानी चाहिए जिसमें सभी प्रासंगिक सूचनाओं और दस्तावेज़ों को साझा किया जाना चाहिए। इसमें परमाणु ऊर्जा से सामान्यतः जुड़े खतरे जैसे विकिरण, रिसाव एवं उत्सर्जन, ताजे पानी जैसी ज़रूरतों की उपलब्धता, पर्यावरण, जीव-जंतुओं एवं पेड़-पौधों पर लड़ने वाले प्रभाव, दुर्घटना की संभावनाएं, कचरे को अलग और भंडारित करने और निपटाने के उपाय, परमाणु ऊर्जा के सामान के परिवहन से जुड़े खतरे, इन सबसे स्थानीय लोगों को होने वाले जोखिम तथा उससे निपटने के लिए हुई तैयारियों का विस्तार से वर्णन होना चाहिए। चेर्नोबिल और फुकुशिमा दुर्घटनाओं के आलोक में इन संयंत्रों के आसपास के ज्यादा बड़े क्षेत्र के जनसमुदाय को प्रभावित होने की संभावनाओं के अंदर माना जाना चाहिए।

-स्थानीय लोगों को इस बात का अंतिम अधिकार होना चाहिए कि वे तय कर सकें कि वे अपने इलाके में परमाणु संयंत्र या यूरेनियम खनन या अन्य संबंधित खतरनाक संयंत्र लगाना चाहते हैं या नहीं। अभी जो नाटक होता है उसकी जगह पर ठीक ढंग से जन-सुनवाई होनी चाहिए, जिसका ठीक से प्रचार किया जाना चाहिए। इसका आयोजन स्वतंत्र नागरिक संस्थाओं द्वारा किया जाना चाहिए और हर तरह के लोगों को हिस्सा लेने की छूट होनी चाहिए, चाहे वे साधारण नागरिक हों अथवा इस विषय से जुड़े कार्यकर्ता या विशेषज्ञ।

-स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा पूरे परमाणु क्षेत्र की विस्तृत सुरक्षा जांच होनी चाहिए। मौजूदा संयंत्रों और खदानों की सुरक्षा की नियमित अंतराल के बाद स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा होनी चाहिए।

-प्रशासन द्वारा स्वतंत्र विशेषज्ञों के नेतृत्व में इन परमाणु संयंत्रों के आस-पास दीर्घकालीन एवं मध्यमकालिक स्वास्थ्य प्रभावों के सर्वेक्षणों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और इनके परिणामों को सरकार द्वारा प्रकाशित किया जाना चाहिए। एक नागरिक-आधारित विकिरण निगरानी तंत्र परमाणु संयंत्रों के नज़दीक गठित होना चाहिए जिसके लिए सरकार को घोषित तौर पर धन आवंटित करना चाहिए।

परमाणु क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों की सेहत की नियमित जांच होनी चाहिए और इसके परिणामों को साझा करना चाहिए। परमाणु उद्योग में ठेका श्रमिक नहीं लगाए जाने चाहिए क्योंकि ऐसे श्रमिकों की स्वास्थ्य-जांच और निगरानी करना संभव नहीं है। सभी मौजूदा ठेका श्रमिकों को नियमित करने उन्हें पूरे लाभ दिए जाने चाहिए।

-सरकार को 1962 के परमाणु ऊर्जा अधिनियम को हटाकर एक नया कानून जल्द बनाना चाहिए जिसमें परमाणु उद्योग में पारदर्शिता और हर स्तर पर निर्णय में सहभागिता सुनिश्चित की जाए।

-परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड अपने कर्तव्य का पालन करने में असफल रहा है और इसने अपने ही बनाए नियमों का उल्लंघन किया है। इसे परमाणु ऊर्जा विभाग से तुरंत स्वतंत्र किया जाना चाहिए। इसमें ऐसे स्वतंत्र और जवाबदेह अधिकारी एवं विशेषज्ञ नियुक्त किए जाने चाहिए जो परमाणु उद्योग की निष्पक्ष जांच कर सकें और उस पर नजर रखें। साथ ही इसके लिए बजट का प्रावधान पर्यावरण मंत्रालय से किया जाए।

-सूचना के अधिकार कानून को परमाणु उद्योग के हर हिस्से पर यथाशीघ्र लागू किया जाए ताकि सरकार सुरक्षा का बहाना बनाकर परमाणु उद्योग से जुड़ी सूचनाओं से आम जनता को वंचित न रख सके।

-दुर्घटना की स्थिति के लिए व्यापक परामर्श पर आधारित, पूरी आबादी खाली करने के प्रावधान सहित, विस्तृत आपातकालीन योजना तैयार की जानी चाहिए और उसे उन स्थानीय लोगों की प्रतिनिधि संस्थाओं से साझा करना चाहिए जिन पर इसका असर पड़ सकता है। इससे संबंधित सभी व्यावहारिक पहलुओं और त्वरित आबादी-निकासी के लिए आवश्यक ढांचों और प्रक्रियाओं के बारे में स्थानीय लोगों को साथ लेकर विमर्श करना चाहिए और समय-समय पर इसके लिए अभ्यास आयोजित करवाना चाहिए ताकि दुर्घटना की स्थिति में आबादी को जल्दी हटाया जा सके।

-परमाणु दायित्व कानून (2010) अपने वर्तमान स्वरूप में दुर्घटना की स्थिति में जरूरी आपूर्तिकर्ताओं की पूर्ण नैतिक जवाबदेही के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और इसमें तदनुरूप संशोधन होना चाहिए। इसके साथ ही मौजूदा कानून में शामिल आपूर्तिकर्ता के दायित्वों में और कमी नहीं करना चाहिए।

-भारत के मौजूदा परमाणु संयंत्रों और खदानों के इर्द-गिर्द बसे लोगों को विकिरण प्रभावों के लिए मुआवजा और जरूरी स्वास्थ्य सुविधाएँ तत्काल मुहैया कराना चाहिए। अभी तो सरकार इन प्रभावों और समस्याओं को मानने से भी इनकार करती है।

-परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों और आंदोलनों पर देशद्रोह और अन्य झूठे इल्जामों में लगाए गए मुकदमे तत्काल वापस लिए जाएं। कुडनकुलम के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बावजूद राज्य सरकार ने ये मुकदमे अभी तक नहीं हटाए हैं।

परमाणु ऊर्जा की इन कमजोरियों को देखते हुए ऊर्जा क्षेत्र के लिए समता, पर्यावरणीय टिकाऊपन और कम खर्च के सिद्धांतों पर आधारित एक वैकल्पिक नीति तैयार की जानी चाहिए जिसमें ऊर्जा के पारंपरिक और पवन, सौर, छोटी पनबिजली जैसे गैर-पारंपरिक स्रोत शामिल हों। अपने लोगों के प्रति सरकार की इतनी न्यूनतम जिम्मेवारी तो बनती ही है। परमाणु ऊर्जा के अति-महत्वपूर्ण मसले को सिर्फ मुट्ठीभर सरकारी वैज्ञानिकों, अफसरों, उद्योगपतियों और रेजानेताओं के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।

(परमाणु निरस्त्रीकरण एवं शांति हेतु गठबंधन, परमाणु ऊर्जा के विरुद्ध जनआंदोलन, कोंकण विनाशकारी प्रकल्प विरोधी समिति, लोकायत पुणे, समाजवादी जन परिषद, भारत जन विज्ञान जत्था, अणुमुक्ति, गोरखपुर परमाणु संयंत्र विरोधी समिति एवं अन्य व्यक्ति)

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