परंपरागत जल संसाधनों का संरक्षण

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जब सूखा पड़ा तो लोगों को अपने परंपरागत जल संसाधनों की याद आई और उन्होंने अपने यहां बंद पड़े कुओं की सफाई का काम कर न सिर्फ तात्कालिक तौर पर जल हासिल किया वरन दूरगामी परिणाम के रूप में गांव का जल स्तर भी बढ़ा।

संदर्भ

बुंदेलखंड में चार-पांच वर्षों की अनियमित तथा कम होने वाली वर्षा के कारण अकाल जैसी स्थिति उत्पन्न होने के पीछे सिर्फ प्राकृतिक कारक ही नहीं जिम्मेदार थे। मानवीय हस्तक्षेपों ने इस स्थिति को और भी भयावह बना दिया जब जल संरक्षण के प्राकृतिक स्रोतों को मानव बंद करना प्रारम्भ कर दिया। बुंदेलखंड सदैव से ही कम पानी वाला क्षेत्र रहा है, परंतु वहां पर जल संरक्षण के प्राकृतिक स्रोत जैसे कुएँ, तालाब आदि इतने अधिक थे कि पानी की कमी बहुत अधिक नहीं खलती थी। धीरे-धीरे विकासानुक्रम में लोगों ने इन कुओं, तालाबों को पाटना शुरू कर दिया। कहीं तो पाटने की यह क्रिया नियोजित थी और कहीं पर समुचित देख-रेख के अभाव में ये मूल स्रोत स्वयं ही पटने लगे और स्थिति की भयावहता बढ़ने लगी। जनपद हमीरपुर के विकास खंड सुमेरपुर के गांव इंगोहटा एवं मौदहा विकास खंड के ग्राम अरतरा, मकरांव, पाटनपूर में लोगों को इन्हीं स्थितियों का सामना करना पड़ा। तब लोगों की चेतना जगी कि यदि हम अपने परंपरागत काम को सुचारु रखते और समय-समय पर उनकी देख-भाल करते तो स्थिति इतनी न बिगड़ती और तब उन्होंने तालाबों, कुओं की खुदाई व गहराई का काम करना प्रारम्भ कर दिया।

प्रक्रिया

समुदाय की पहल

समस्या से अपने स्तर पर निपटने के लिए सामुदायिक पहल के तहत ग्राम इंगोहटा में मई, 2009 में समुदाय ने एक बैठक की। जिसमें गांव में बंद पड़े कुओं तथा पटे तालाबों को पुनर्जीवित करने संबंधी रणनीति बनाई गई। तय हुआ कि श्री राजेश के नेतृत्व में सभी लोग मिलकर परंपरागत जल संसाधनों को पुनर्जीवित करने का काम करेंगे।

कुओं की सफाई व गहराई बढ़ाना

इंगोहटा में खास उस समय गांव के लोग कुओं से मिट्टी निकालने के काम में जुटे जब कुओं ने पानी देना पूरी तरह बंद कर दिया था। 100 साल पुराने कुओं की सफाई में चालीस से अधिक पुरूष व महिलाओं ने भागीदारी की। पुरूष बारी-बारी से कुएँ में उतर कर मिट्टी की खुदाई करते, पुरूष ही रस्सी में तसला व डलवा बाँधकर मिट्टी को ऊपर खींचते और महिलाएं उस मिट्टी अथवा कीचड़ को दूर फेंकने का काम करती थीं। तीन दिन की मेहनत के बाद लगभग 7 फुट की गहराई तक खुदाई हुई और पानी आ गया। लोगों ने पानी प्रयोग करना भी शुरू कर दिया, परंतु चार दिन प्रयोग करने के बाद पानी खत्म हो गया और नीचे से कीचड़ निकलने लगा। क्योंकि भूगर्भ जलस्तर बहुत गिर गया था। बुजुर्गों की राय पर लोग दुबारा कुएँ में उतरे और फिर से मिट्टी व कीचड़ की खुदाई सफाई प्रारम्भ की। दो दिनों की मेहनत के बाद कुएँ की गहराई 5 फुट और बढ़ाई गई तो कुएँ के कई पुराने सोते खुल गये व कुआं तेजी से भरने लगा। लोग तेजी के साथ रस्सियों से बाहर आए। धीरे-धीरे कुएँ का पानी अपने स्तर तक आ गया। अब लोगों को पानी मिलने लगा। गांव के तीन पुराने कुओं को इसी प्रकार साफ व गहरा किया गया, जिससे पानी की दिक्कत दूर हुई व मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं को भी पीने के लिए पानी उपलब्ध होने लगा।

इस पूरी प्रक्रिया में सामुदायिक भागीदारी महत्वपूर्ण रही। महिलाओं व पुरूषों के साथ बच्चों ने भी इस काम में योगदान किया। अब गांव के लोग इस बात का खास ख्याल रख रहे हैं कि कुएँ के पास प्रदूषण व अतिक्रमण न होने पाए तथा गांव में इंडिया मार्का। हैंडपम्प भी अंधाधुंध न लगाएं जाएं, जिससे हमें अपने परंपरागत जल संसाधनों से स्वच्छ व शुद्ध पेयजल हमेशा मिलता रहे।

तालाब की सफाई

इंगोहटा व अरतरा में लोगों ने इसी समय तालाब की सफाई का भी काम किया। पिछले अनुभवों से उन्हें समझ आ गया था कि सरकारी भरोसे पर बैठे रहना अकलमंदी नहीं है। तब उन्होंने स्वयं ही तालाबों की खुदाई का काम शुरू किया। पहले तो लोगों ने इस काम में बहुत रूचि नहीं दिखाई, परंतु बाद में लोगों ने इससे दोहरा फायदा लिया। खुदाई से निकली मिट्टी को लोगों ने अपने चबूतरों, खलिहान आदि में डालने का खर्च भी वहन किया। एक तरफ तो तालाब की खुदाई भी हुई और दूसरी तरफ लोगों को घर, खलिहान आदि ऊंचा करने के लिए तथा मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए मिट्टी भी मिल गई।

बरसाती नालों का अतिक्रमण हटाना

सबसे अहम समस्या थी उन रास्तों पर अतिक्रमण, जिनके माध्यम से बरसाती पानी तालाबों तक पहुँचता था। इसके लिए उन रास्तों पर कब्ज़ा किए लोगों से बात-चीत की गई, जिसका कोई नतीजा नहीं निकला। तब अरतरा के तत्कालीन बी.डी.सी. श्री मनोज त्रिपाठी, ग्राम प्रधान श्री महेश्वरीदीन प्रजापति तथा अन्य लोगों ने मिलकर पंचायत के माध्यम से इस बात को हल करने की कोशिश की। उन लोगों को भी इसके दुष्परिणामों को भुगतना पड़ रहा था। अतः थोड़े प्रयास के बाद ही समन्वय स्थापित हुआ और उन रास्तों पर से अतिक्रमण हटा लिया गया। अगली बरसात में जब वर्षा प्रारम्भ हुई तो इन तालाबों में पर्याप्त पानी आ गया, जिससे आबादी व पशुओं सभी को लाभ मिला।

लागत व लाभ

यद्यपि मौद्रिक रूप से इन प्रयासों के लाभ-हानि का विश्लेषण करना संभव नहीं है। फिर भी कहा जा सकता है कि एक अनुमान के मुताबिक इस पूरे कार्य में लगभग 2 लाख रुपए का खर्च हुआ, जिसके सापेक्ष सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि क्षेत्र के लगभग 4500 लोगों व 700 पशुओं को पीने का पानी उपलब्ध हुआ, उनके लिए पानी सुलभ हुआ।

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