प्रत्येक स्तर पर हो जल संरक्षण

21 Feb 2009
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-रवि शंकर, भारतीय पक्ष

श्रीमती सविता गोखले (सचिव, अर्थकेयर फाउंडेशन) पर्यावरण प्रेमियों में एक जाना-माना नाम है। एक सफल व्यवसायी होने के बाद भी श्रीमती गोखले ने पानी की समस्या हेतु काम करना प्रारंभ किया। वे अर्थ केयर फाउंडेशन की कर्ताधर्ता हैं।
वर्तमान में अर्थ केयर फाउंडेशन दिल्ली के वन क्षेत्र में जल स्रोतों के सर्वेक्षण, पुनरुद्धार एवं नए जल स्रोतों के निर्माण की संभावनाओं आदि पर काम कर रहा है। अर्थ केयर फाउंडेशन के तहत ही उन्होंने ‘सीड क्लब’ भी बनाया है जिसमें स्कूली बच्चों और उनके अभिभावकों को पर्यावरण और जल संरक्षण के प्रति जागरूक किया जाता है। एक अन्य पहल के तहत वे राजस्थान के जैसेलमेर में बायोडायवर्सिटी कन्जर्वेशन पार्क और जल संग्रहालय बनाने की योजना पर काम कर रहीं हैं। जल संग्रहालय में जल संरक्षण की प्राचीन भारतीय परंपरा, ज्ञान और तकनीक का प्रदर्शन किया जाएगा। भारत में पानी का संकट कितना गहरा है, शहरीकरण और बाजारीकरण की इस दौड़ में पानी जैसी अनमोल ईश्वरीय देन की हम कैसे रक्षा करें और इसमें भारत का पारंपरिक ज्ञान कितना काम आ सकता है, जैसे कुछ प्रश्नों को लेकर भारतीय पक्ष ने श्रीमती सविता गोखले से विस्तृत बातचीत की। यहां प्रस्तुत है उस वार्ता के मुख्य अंश।

प्रश्न : पानी आज पूरे विश्व की समस्या बन चुका है। पीने के लिए स्वच्छ पेयजल की बढ़ती कमी के साथ गिरता भू-जलस्तर भी चिंता का कारण बनता जा रहा है। भारत के संदर्भ में इस समस्या का क्या स्वरूप है?
उत्तर : हमारा देश काफी बड़ा है और यहां अनेक कृषिपरक जलवायु क्षेत्र हैं। भारत में औसत वर्षा 1170 मिलीमीटर के आसपास होती है। इसका यदि उचित प्रबंधन किया जाए तो यह हमारी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त से ज्यादा है। वस्तुत: पानी अपने आप में कोई समस्या नहीं है, बल्कि पानी का भंडारण और पानी की गुणवत्ता बनाए रखना आज की प्रमुख चुनौती है। लेकिन हमारा प्रबंधन-तंत्र और सरकारी नीतियां इन दोनों की दृष्टि से उपयुक्त नहीं कही जा सकतीं। आज तीस राज्यों में से पंद्रह राज्य ऐसे हैं जहां भू-जलस्तर चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है। बिना विचार किए अंधाधुंध तरीके से भूजल निकाला जा रहा है, परिणामस्वरूप पानी का असमान वितरण, पेयजल की कमी आदि जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। पानी की ऐसी ही कमी होती रही तो आने वाले समय में लोगों के आप्रवासन या विस्थापन का यह एक महत्वपूर्ण कारण बन जाएगा।

प्रश्न : भारत में पानी के काफी स्रोत हैं। बड़ी-बड़ी नदियां हैं, तालाब हैं। आपने अभी बताया कि वर्षा भी यहां अच्छी होती है। फिर पानी का संकट बढ़ने के क्या कारण हैं?
उत्तर : उत्तर की नदियों में ग्लेशियर से पानी आता है, परंतु वैश्विक उष्मीकरण के कारण ग्लेशियर सिमट रहे हैं। मध्य भारत में कुछ ही नदियां वर्षभर बहती हैं। अधिकांश नदियां बरसाती हैं। इसलिए वर्षा से मिलने वाले पानी का भंडारण और प्रबंधन होना चाहिए। अभी हम अपने पानी के स्रोतों का शोषण और उपेक्षा करते हैं। एक बात तो समझ लेनी चाहिए कि हम पानी बना नहीं सकते। पानी तो ईश्वर की देन है। हम केवल उसे संरक्षित कर सकते हैं। आज जल के परंपरागत स्रोतों और जल संरक्षण की प्राचीन परंपराओं की उपेक्षा हो रही है। अब तक भारत में 4000 से अधिक बड़े बांध बनाए जा चुके हैं। अब नए बांध बनाने की जगह भी नहीं बची। बड़े बांधों से लाभ कम और नुकसान ज्यादा होते हैं। समय भी अधिक लगता है। इसलिए नए जोहड़ और छोटे बांध बनाए जाने चाहिएं। जल का प्रबंधन करते समय केवल नदी का ही नहीं, बल्कि पूरी नदी घाटी को ध्यान में रखना चाहिए। अभी नदी पर बांध बनाया जाता है तो उसके जलस्रोत का ध्यान नहीं रखा जाता। इससे नदी में पानी कम होने का खतरा बढ़ता है। भू-जलस्तर भी गिरता है। इसलिए यहां पानी की समस्या से ज्यादा पानी के प्रबंधन की समस्या है। जो पानी हमारे पास है और जो पानी प्रकृति से हमें प्राप्त होता है, उसके समुचित प्रबंधन, भंडारण और उचित उपयोग करने की आवश्यकता है।

प्रश्न : जैसा की आपने बताया, पानी की मुख्यत: दो प्रकार की समस्या दिखती है। एक, उपलब्धता और दूसरी गुणवत्ता। क्या इन दोनों पर औद्योगीकरण का भी कोई प्रभाव पड़ता है?
उत्तर : औद्योगीकरण का प्रभाव तो पड़ता ही है। एक तो वे लोग पानी की काफी कम कीमत देते हैं और दूसरे वे इसका अंधाधुंध उपयोग करते हैं। विशेषकर पेपर मिल और चीनी मिल जैसे उद्योग नदियों के किनारे पर होते हैं। वे नदी से भरपूर पानी लेते हैं और गंदा पानी बिना शोध किए नदी में डाल देते हैं। इससे पूरी नदी प्रदूषित हो जाती है। ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं। सीमेंट, स्टील जैसे अधिकांश सभी बड़े उद्योग यही कर रहे हैं। इसके अलावा खेतों की सिंचाई के लिए पंपों का उपयोग भी ठीक नहीं है। पंपों से जो भूजल निकालते हैं, उसके कारण भी जल की कमी होती है। पहले हम पानी निकालने के लिए मनुष्य बल और पशुबल का उपयोग करते थे। इसके द्वारा हम केवल जमीन के ऊपरी हिस्से में जमा पानी ही निकाल पाते थे। पानी का यह भंडार प्रतिवर्ष बरसात से पुन: भर जाता है। इससे जल की कमी नहीं होती थी। परंतु अब जब हम पंपों से पानी निकालते हैं तो वह भूजल के इस ऊपरी भंडार की बजाए काफी गहरे अंदर का पानी होता है जो भूगर्भ में हजारों लाखों वर्षों से जमा है। आज पिछले 30 सालों में बिजली और पंपों का बेतहाशा उपयोग करने के कारण भूजल का अधिक तेज गति से दोहन हो रहा है। इसलिए आज देश में 15 से 16 राज्य ऐसे हैं जहां पानी की कमी हो रही है और शेष राज्यों के भी अधिकांश जिलों में पानी की समस्या गंभीर है और प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ ही रही है।

प्रश्न : क्या आज विकास के मानकों और बाजारवाद की भी इसमें भूमिका है? पानी को एक उपभोग सामग्री के रूप में प्रस्तुत करने और आधुनिक जीवनशैली में होने वाली इस की बर्बादी के कारण भी समस्या विकट हुई है क्या?
उत्तर : हां, इसकी भी कुछ भूमिका है। यह एक विडंबना है कि एक ओर तो हमें वैश्वीकरण चाहिए, लेकिन दूसरी ओर हम अपने संकुचित दायरे से बाहर भी नहीं निकलना चाहते। आज पानी की परिभाषा क्या है? भारत की राष्ट्रीय जल नीति में भी इसे एक मनुष्य की मौलिक आवश्यकता (बेसिक ह्यूमन नीड) के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रश्न है कि रोटी, कपड़ा और मकान के साथ-साथ पानी को भी मौलिक अधिकार क्यों नहीं माना गया? वस्तुत: पानी केवल संवैधानिक या मौलिक अधिकार ही नहीं, बल्कि मानवाधिकार भी है। रोटी, कपड़ा, मकान देने के लिए भी तो पानी की आवश्यकता होती है। इसलिए हमें पानी की परिभाषा बदलनी होगी। हमें पश्चिम का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए। हमें अपनी परिभाषाएं गढ़नी होंगी। हमारे पास पर्याप्त पानी है, हमारे पास इसके संरक्षण और प्रबंधन की परंपरा है। इसके अलावा भारतीय दृष्टि केवल मनुष्य को ही नहीं, चराचर जगत को देखती है। आज पानी की आवश्यकता जनसंख्या के आधार पर निश्चित की जाती है। परंतु हमारी खेती के साथ-साथ लोगों की आजीविका का एक बड़ा स्रोत तो उनका पशुधन है। लोगों के साथ-साथ उनके पशुओं को भी तो पानी चाहिए। इन पशुओं की तो हमारी योजनाओं में चिंता ही नहीं की जाती। जब ये पशु हमारी जीविका के स्रोत हैं तो उनके लिए पानी उपलब्ध कराना भी हमारी जिम्मेदारी है। पहले तालाबों की व्यवस्था होती थी। पर आज हमें तालाब नहीं, पाइप का पानी चाहिए।

प्रश्न : इन समस्याओं का समाधान क्या है? अपने परंपरागत तरीकों और जीवनचर्या को फिर से कैसे उपयोग में लाया जाएगा?
उत्तर : पहला समाधान तो यही है कि प्रत्येक स्तर पर जल संरक्षण करना होगा। दूसरे, विकास के आज के मापदण्डों और हमारी परंपराओं में तालमेल बैठाना होगा। आज विकास का चिन्ह हो गया है कि हरेक घर को पाइप का पानी मिले। मैं इसका विरोध नहीं करती लेकिन पानी का स्रोत हरेक गांव का अपना हो। हरेक गांव यदि वर्षा के पानी को संग्रह करने के लिए एक तालाब बना लेता है और उस तालाब का पानी संशोधित कर पाइप द्वारा उनके घरों तक पहुंचाया जाए तो उनके पानी का स्रोत उनकी आंखों के सामने होगा और उसकी चिंता उन्हें ही करनी होगी। तब पानी कम-अधिक होने पर उसके उपयोग पर भी वे स्वयं ही नियंत्रण कर सकेंगे। इसके अलावा पानी के परंपरागत स्रोतों की रक्षा करनी होगी। भारत की परंपरा रही है कि लगभग सभी मंदिरों के पास जल के प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित स्रोत रहें। नदी, तालाब, कुंआ या बावड़ी आदि के रूप में मंदिरों या उपासना स्थलों के साथ जल संरक्षण को जोड़ा गया था। हम ऐसे सभी स्रोतों का भी उद्धार कर लें तो काफी पानी उपलब्ध हो जाएगा।

इसी के साथ पानी के बारे में भारतीय विचार व परंपराओं को समझकर विकास योजनाएं बनायी जानी चाहिएं। मैं जब राजस्थान गई थी तो वहां के लोगों ने मुझे पानी के बारे में कुछ रोचक बातें बताईं थीं। हम लोग पानी के दो ही प्रकार जानते हैं- जमीन के ऊपर का पानी और जमीन के अंदर का पानी। उन्होंने मुझे बताया कि पानी तीन प्रकार के हैं। एक पालेर पानी अर्थात् वर्षा का पानी। पानी के जितने भी स्रोत, नदी, तालाब, कुएं आदि दिखते हैं, उनके मूल में तो वर्षा का ही जल है। दूसरा है, रेजानी पानी। यह वह पानी है जो भूमि के नीचे खड़ीन की पट्टी में जमा होता है। यह खड़ीन की पट्टी जमीन के नीचे केवल पांच-छ: फुट नीचे होती है। यह भंडार भी प्रत्येक बरसात में पुन: भर जाता। तीसरा पानी है पाताल पानी जो जमीन के गहरे अंदर होता है। उनका कहना था कि हमें केवल पहले दो पानी अर्थात् पालेर पानी और रेजानी पानी का ही उपयोग करना चाहिए। पाताल पानी का उपयोग अत्यंत संकट के समय करना चाहिए। आज हम सबसे अधिक पाताल पानी का ही उपयोग कर रहे हैं, क्योंकि पालेर पानी को हमने नष्ट कर दिया है।

प्रश्न : तालाब और कुओं की योजना गांवों के लिए तो ठीक है परंतु दिल्ली जैसे बड़े शहरों में क्या किया जाना चाहिए?
उत्तर : एक ही समाधान हर स्थान पर लागू नहीं होता। यह बात गांवों पर भी लागू होती है। भारत के सभी गांवों में जल संरक्षण के लिए एक ही तरीका नहीं अपनाया जा सकता और अपनाया भी नहीं जाता। प्रत्येक क्षेत्र के जल संरक्षण के अपने तौर-तरीके हैं। लेकिन दो मौलिक विचार सामने रखने होंगे। एक, किसी भी क्षेत्र में जितना पानी उपलब्ध है, और वर्षा से, जितना हरेक वर्ष प्राप्त होता है, उतने ही पानी से उस क्षेत्र को अपना काम चलाना चाहिए। ऐसा समझना चाहिए कि हम समुद्र के बीच किसी टापू पर हैं। अब वहां वर्षा का जल और भूजल ही हमें मिल सकता है। बाहर कहीं और से तो पानी आ नहीं सकता। तब वहां का पानी प्रबंधन भी इसके अनुसार ही होगा। इसे मान लेने से दिल्ली जैसे शहरों में अपने-आप वर्षा के पानी को संरक्षित करने के उपाय भी विकसित होने लगेंगे। रूफ टाप वाटर हार्वेस्टिंग हो सकती है या कोई अन्य उपाय भी ढूंढे जा सकते हैं।

दूसरी बात पानी के चक्र को बनाए रखना है। अभी कहा जा रहा है कि नदियों का पानी समुद्र में जाकर बर्बाद हो रहा है, उसे रोका जाए। यह तो पानी का चक्र खराब करने वाली बात हुई। समुद्र में यदि पानी जा रहा है तो उसके अपने कारण और लाभ हैं। उसे समझे बिना उसे पानी की बर्बादी मानना अनुचित है। इसकी बजाय हम जो पानी की बर्बादी करते हैं, उसे रोकने के उपाय करें तो अच्छा होगा।

प्रश्न : इसमें सरकार की क्या भूमिका हो सकती है?
उत्तर : एक तो पानी को मानवाधिकार के रूप में घोषित करना चाहिए। दूसरा सरकार की नीतियां जनसंख्या के अनुकूल होनी चाहिएं। जैसे, रासायनिक खादों पर सरकार अनुदान देती है। इससे न केवल पानी की खपत बढ़ती है, बल्कि मिट्टी और पानी दोनों प्रदूषित भी होते हैं। फिर सरकार की नीतियां जैविक अर्थात् देसी खेती को प्रोत्साहन क्यों नहीं देती?

मेरे विचार से इसमें सरकार से अधिक आम लोगों की भूमिका होनी चाहिए। हम पानी के महत्व और पानी के चक्र को समझें। इस जल-चक्र को ठीक रखने के उपाय करें। यह ज्यादा जरूरी है। जितना पानी प्रकृति से हमें मिला है, उसी में काम चलाएं, वर्षा का पानी संरक्षित करें, पानी को कम से कम प्रदूषित करें। तभी समाधान संभव है।

साभार - भारतीय पक्ष

भारतीय पक्ष भारतीय मूल्यों पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था की पक्षधर हिन्दी मासिक पत्रिका है। प्रिंट संस्करण के साथ-साथ इन्टरनेट पर भी आप इस पत्रिका को पढ़ सकते हैं। पत्रिका और वेबसाइट की ज्यादातर सामग्री ज्ञानपरक होती है। “भारतीय पक्ष” के दोनों संस्करणों के संपादक विमल कुमार सिंह हैं।

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